परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) में प्रवेश हासिल करने की भारत की कोशिश को चीन ने नाकाम कर दिया और कुछ वर्गों ने इसके लिए भारत द्वारा अपनाई गई कूटनीतिक अतिसक्रियता की आलोचना की है। आलोचकों के मुख्य तर्क हैं कि इतनी सक्रियता अनावश्यक थी क्योंकि एनएसजी की सदस्यता महत्वपूर्ण है, कि भारत दूसरे दर्जे का सदस्य होता और उसे मिला झटका राष्ट्र के लिए बहुत बड़ी शर्मिंदगी है।
ऊपर दिए गए सभी तर्क बेबुनियाद हैं।
एनएसजी तथा परमाणु प्रसार पर नियंत्रण करने वाली अन्य व्यवस्थाओं जैसे मिसाइल प्रौद्योगिकी नियंत्रण व्यवस्था (एमटीसीआर), ऑस्ट्रेलिया ग्रुप और वासेनार व्यवस्था में भारत की सदस्यता महत्वपूर्ण है ताकि परमाणु अप्रसार व्यवस्था में उसके “पराये या गैर” होने का मिथक तोड़ा जा सके और परमाणु, मिसाइल एवं अन्य संबंधित संवेदनशील प्रौद्योगिकियों के आयात तथा निर्यात संबंधी व्यापार के लिहाज से भी यह महत्वपूर्ण है।
इन व्यवस्थाओं की सदस्यता से महत्वपूर्ण क्षेत्र में भारत की हैसियत बढ़ेगी और वह सहायक के बजाय नियंता बन जाएगा। इससे भारत यह सुनिश्चित भी कर सकेगा कि अप्रसार को बढ़ावा देने की अपनी निर्धारित भूमिका को ये व्यवस्थाएं प्रभावी रूप से निभाएं तथा उसके वाणिज्यिक हितों को ठेस न पहुंचाएं। अंत में एनएसजी ने भारत के असैन्य परमाणु कार्यक्रम के लिए संवेदनशील सामग्री तथा उपकरण भारत को निर्यात किए जाने की छूट 2008 में दे दी थी किंतु यह पत्थर की लकीर नहीं है और यह पूरी तरह सुरक्षित तभी हो पाएगी, जब भारत को एनएसजी में सदस्यता मिल जाएगी। यह मामला इसलिए बहुत तात्कालिक हो गया है चूंकि पेरिस में प्रस्तुत किए गए भारत के वांछित राष्ट्रीय निर्धारित योगदान में 2030 तक 40 प्रतिशत बिजली उत्पादन क्षमता गैर जीवाश्म ईंधन के जरिये करने की बात कही गई है और एनएसजी सदस्यता के बगैर इसके बारे में आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता।
हालांकि यह सच है कि 2011 में एनएसजी में हुए एक संशोधन के कारण भारत पुनर्संस्करण तथा संवर्द्धन उपकरणों का व्यापार नहीं कर सकता क्योंकि उसने परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं। किंतु इससे भारत दूसरे दर्जे का सदस्य नहीं बन जाता। वास्तव में भारत विशेषाधिकार वाला सदस्य होगा क्योंकि एनपीटी पर हस्ताक्षर नहीं करने के बावजूद अपने इतिहास के आधार पर शामिल किया गया वह इकलौता सदस्य होगा। वास्तव में भारत पर लादे गए ये प्रतिबंध ही एनएसजी की सदस्यता का महत्व दर्शाते हैं क्योंकि यदि वह 2011 से पहले सदस्य होता तो ये संशोधन हो ही नहीं पाते।
एनएसजी की सियोल बैठक में भारत के जोरदार अभियान के बावजूद उसे सदस्य नहीं बनाया गया, लेकिन यह शर्मिंदगी की बात नहीं है क्योंकि प्रवेश की प्रक्रिया अब भी चल रही है और उसे 48 में से 38 सदस्यों का शानदार समर्थन प्राप्त हुआ, जिनमें अमेरिका, रूस, फ्रांस, ब्रिटेन, जापान, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा जैसी शक्तियां शामिल हैं। बैठक में चीन अलग-थलग दिखा क्योंकि केवल उसी ने भारत के आवेदन पर चर्चा करने से इनकार किया था। जहां तक ऑस्ट्रिया, न्यूजीलैंड और आयरलैंड के बोलने की बात है तो यह प्रक्रिया के तहत था, भारत के खिलाफ नहीं था।
भारत की उच्च स्तर की सक्रिय कूटनीति की प्रशंसा की जानी चाहिए निंदा नहीं। हम भाग्यशाली हैं कि हमारे पास मोदी जैसे प्रधानमंत्री हैं, जो वास्तव में आगे बढ़कर नेतृत्व करते हैं। उनके नेतृत्व से हमेशा त्वरित सफलता नहीं मिलेगी किंतु इससे देश उस रास्ते पर मजबूती से अवश्य बढ़ेगा, जिससे यह संकेत मिलेगा कि देश अपने उद्देश्यों को कितना महत्व देता है। एमटीसीआर में हाल ही में भारत को मिली सदस्यता सरकार की सक्रियता भरी कूटनीति की ऐसी ही सफलता है। यदि हम प्रयास करने से घबराते रहते तो यह सदस्यता भी हमें नहीं मिलती। जीवन की ही तरह कूटनीति का भी सिद्धांत यही है कि प्रयास नहीं करेंगे तो कुछ नहीं मिलेगा।
सबसे बढ़कर सियोल का अभियान वास्तविकता का भान करा गया। इसने भारत के प्रति चीन के वैर भाव का खुलासा कर दिया। पहले तो उसने पाकिस्तान को सदस्यता के लिए आवेदन करने की खातिर उकसाकर उसे भारत के बराबर खड़ा करने की कोशिश की, जबकि भारत के उलट पाकिस्तान ने एनएसजी के दिशानिर्देशों का पालन नहीं किया है और अपने सैन्य तथा असैन्य परमाणु कार्यक्रमों को अलग-अलग नहीं किया है और अतिरिक्त संधि पर हस्ताक्षर भी नहीं किए हैं। दूसरी बात, उसने दलील दी कि एनएसजी में भारत के प्रवेश से दिक्कत होगी क्योंकि भारत ने एनपीटी पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं। यह प्रक्रिया को लटकाने की चाल भर थी क्योंकि सदस्यता के लिए ऐसा कोई मानदंड नहीं है। उसमें कुछ तथ्यों जैसे अप्रसार के इतिहास, परमाणुकरण में संयम तथा तात्कालिक लाभों पर विचार किया जाता है। इन सभी मोर्चो पर सदस्यता के लिए भारत का रिकॉर्ड प्रभावी रहा है और पाकिस्तान से तो बहुत बेहतर रहा है। इस संदर्भ में इस बात का उल्लेख विशेष रूप से किया जा सकता है कि भारत का इतिहास इस बारे में बेदाग रहा है, जबकि पाकिस्तान पर परमाणु क्षमता के प्रसार का कलंक लगा है। भारत ने अपने दो अनुसंधान रिएक्टरों में से एक को बंद कर दिया है, जबकि पाकिस्तान ने उनकी संख्या एक से बढ़ाकर चार कर ली है। भारत में परमाणु सामग्री के उत्पादन की दर बढ़ी नहीं है, जबकि पाकिस्तान ने इसमें बहुत इजाफा कर लिया है।
सियोल में चीन ने जो किया, उसके भी परिणाम सामने आएंगे। इससे अंतरराष्ट्रीय समुदाय को उसके नेताओं की परिपक्वता पर संदेह होगा और चीन से जुड़े महत्वपूर्ण मसलों जैसे दक्षिण चीन सागर और चीन से आयात आदि पर भारत का नेतृत्व और जनता प्रतिकूल विचार रखने लगेंगे।
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