चीन की दूसरी महान दीवार
Ashish Sirsikar

पिछले लगभग एक साल से और विशेषतौर पर पिछले महीने से चीन को दूसरी ‘महान दीवार’ (ग्रेट वाल) का निर्माण कार्य करते देखा गया है। अमेरिका के रक्षा सचिव, एश्टन कार्टर ने मई 2016 में अमेरिकी नौसेना अकादमी के स्नातक समारोह में और उसके बाद शांगरी-ला वार्ता 2016 में इसी दीवार का संदर्भ देते हुए चीन द्वारा ‘अलगाव की महान दीवार’ (ग्रेट वाल ऑफ आइजोलेशन) खड़ी किए जाने की बात कही थी। अमेरिकी प्रशांत बेड़े के कमांडर एडमिरल हैरी बी हैरिस जूनियर, ने भी दक्षिण चीन सागर में चीन के दावा करने व उसके निर्माण गतिविधियों के संदर्भ में चीन द्वारा ‘रेत की महान दीवार’ खड़ी करने पर बोलते हुए इस शब्द का इस्तेमाल किया था। हालांकि यह टुकड़ा चीन की कल्पित ‘अलगाव की महान दीवार’ में ही लगती हुई प्रतीत होती है। चीनी मीडिया काफी हद तक इसे अमेरिकी दुष्प्रचार मानकर इसे खारिज करते हैं, तो पश्चिमी मीडिया, इसे चीन की पीपुल्स रिपब्लिक द्वारा किए गए एकतरफा कार्रवाई का एक अनिवार्य परिणाम के रूप में देखता है। तब सच्चाई क्या है? अतीत की कुछ घटनाओं के विश्लेषण से इसे बेहतर तरीके से समझने में मदद मिलेगी।

काफी हद तक यह माना जाता है कि चीनी ‘अलगाव’ का एक प्रमुख कारण दक्षिण चीन सागर में चीनी दुस्साहस की वजह से उपजा है। दक्षिण चीन सागर में चीन का निर्माण कार्य और यहां निर्मित कुछ ठिकानों पर मिसाइल की तैनाती से इस क्षेत्र के अन्य देशों और विशेषकर इस पर जवाबी दावा करने वाले मुल्कों में असुरक्षा की भावना बढ़ी है, परिणामतः चीनी अलगाव की स्थिति उत्पन्न हुई है। हालांकि, इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है कि अमेरिका की नेविगेशन ऑपरेशन की पहली स्वतंत्रता (US FONOP) से जुड़ी गतिविधियों ने भी दक्षिण चीन सागर जल उपयोग को लेकर विवाद बढ़ाने का काम किया है।

हालांकि, चीन का यह कथित अलगाव तभी सामने आ गया था जब 21वीं सदी की दो वार्ताएं जो कि इस सदी के पहले दशक के आरंभ और अंत में शुरू किए गए थे। इनमें शांगरी-ला वार्ता और चीन-अमेरिका सामरिक और आर्थिक वार्ता शामिल हैं।

शांगरी-ला वार्ता जो कि इंटरनेशनल इस्टीट्यूट ऑफ स्ट्रेटजिक स्टडीज (आईआईएसएस) की पहल है, पहली बार 2002 में शूरू हुई थी। 2016 के शांगरी-ला वार्ता के दौरान अमेरिकी रक्षा सचिव एश्टन कार्टर ने चीनी अलगाव (जिसे अब तक माना जाता था, लेकिन उस पर चर्चा नहीं होती थी) पर अपनी बात रखी थी। उन्होंने कहा कि ‘‘...परिणामतः, दक्षिण चीन सागर में चीन की कार्रवाई, इसे बाकी क्षेत्र से ऐसे समय में अलग-थलग कर रही है, जब पूरा क्षेत्र क्षेत्र एकजुट हो रहा है और एक दूसरे से जुड़ रहे हैं। दुर्भाग्य से, यदि ये गतिविधियां जारी रहती हैं, तो चीन अपने लिए आत्म-अलगाव की ऊंची दीवार खड़ी कर अपने अस्तित्व के लिए ही खतरा पैदा कर लेगा...’’

दूसरी ओर, हाल ही के शांगरी-ला वार्ता के दौरान, पीएलए के एक वरिष्ठ सैन्य अधिकारी एडमिरल सन जियांगू ने चीन की स्थिति पर स्पष्टीकरण दिया था। अपने भाषण में उन्होंने कहा कि एशिया-प्रशांत क्षेत्र के देशों को शीत युद्ध की मानसिकता से बाहर निकलना चाहिए और एक टकराव विहिन रवैया अपनाना चाहिए जो ‘‘टकराव के बजाय बातचीत, और गुट की बजाए भागीदारी’’ को तवज्जो दे।

इसके अलावा, उन्होंने यह दोहराया कि चीन, दक्षिण चीन सागर विवाद पर ट्रिब्यूनल के फैसले को स्वीकार नहीं करेगा, यह भी इंगित किया कि कुछ देशों द्वारा दक्षिण चीन सागर में तथाकथित ‘‘नेविगेशन योजना की स्वतंत्रता’’ बल का एक जबरदस्त प्रदर्शन था। उन्होंने संबंधित पक्षों की चिंताओं को शांत करते हुए कहा कि चीन इस क्षेत्र में परेशानी उत्पन्न करने वाली हलचल पैदा नहीं करेगा। हालांकि, साथ ही उन्होंने इस पर भी जोर दिया कि चीन को इसमें शामिल होने का कोई डर नहीं है और वह अपनी संप्रभुता व सुरक्षा से जुड़े हितों के उल्लंघन की अनुमति नहीं देगा।

शांगरी-ला वार्ता के तत्काल बाद चीन-अमेरिकी रणनीतिक और आर्थिक वार्ता (एसईडी) आयोजित हुई। एसईडी, द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और वैश्विक आर्थिक और सामरिक मुद्दों की एक विस्तृत श्रृंखला पर चर्चा करने के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन के लिए एक उच्च स्तरीय वार्ता मंच है। इसकी स्थापना अप्रैल 2009 में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा और पूर्व चीनी राष्ट्रपति हू जिंताओ ने की थी। इस मंच का अतीत में कई बार, महत्वपूर्ण चिंताओं/हितों पर संवाद करने के लिए इस्तेमाल किया गया है। इसका एक उदाहरण जुलाई 2009 के आरंभिक एसईडी, के दौरान का मिलता है, जब चीनी विदेश नीति के शीर्ष अधिकारी दाई बिंगुओ ने चीनी मूल हितों, जो कि इससे पहले तक इतने विस्तार में परिलक्षित नहीं किया गया था, की एक परिभाषा प्रस्तुत की।

2016 के एसईडी में महत्वपूर्ण मुद्दों पर कुछ प्रगति देखी गई है, उनमें से एक यह है कि दोनों पक्ष चीन-अमेरिका, ने द्विपक्षीय निवेश संधि (बीआईटी) की नकारात्मक सूची के आदान-प्रदान पर सहमति व्यक्त की थी। बातचीत के दौरान राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका से आग्रह किया कि दोनों पक्ष ठीक से मतभेद और संवेदनशील मद्दों का प्रबंधन करें और सामरिक आपसी विश्वास और सहयोग को गहरा करें। उन्होंने आगे कहा कि व्यापक प्रशांत महासागर प्रतिद्वंद्विता का अखाड़ा नहीं बल्कि समावेशी सहयोग का एक बड़ा मंच बनना चाहिए। हालांकि, इसमें विशेष महत्व की बात यह थी राष्ट्रपति शी ने महसूस किया कि चीन और अमेरिका को ‘‘दोस्ती के अलग क्षेत्रों को विकसित’’ करने के बजाए ‘‘दोस्ती के साक्षा क्षेत्रों का विकास करना चाहिए’’। राष्ट्रपति द्वारा की गई ये टिप्पणियां और भी दिलचस्प हो जाती हैं जब इसे दो घटनाओं के संयोजन के संदर्भ में देखा जाए। इनमें पहला है, हाल ही में फिलीपीन सागर में एक दोहरी वाहक उड़ान ऑपरेशन, जिसका संचालन यूएसएस जॉन सी स्टेनीस और यूएसएस रोनाल्ड रीगन को सौंपे गए जहाजों व विमानों द्वारा किया गया। दूसरा, अमेरिकी नौसेना की योजनाओं से संबंधित है जिसमें एशिया में वाशिंगटन की धुरी के एक हिस्से के रूप में 2018 तक सिंगापुर में चक्रीय तौर पर चार किनारों वाले लड़ाकू जहाजों (एलसीएस) तैनात करने की योजना है। इन तथ्यों के आपसी जुड़ाव के आधार पर यह कहा जा सकता है कि, मित्रों का ‘अनन्य’ के बजाय ‘समावेशी’ गठजोड़ बनाने के लिए चीन का आवाहन, उसकी इस व्यग्रता से उपजा है कि उसे जितनी अपेक्षा थी, पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका को उससे कहीं अधिक सामरिक महत्व मिल रहा है।

एक अन्य महत्वपूर्ण भू-राजनीतिक विकास, राष्ट्रपति साई इंग-वेन के उद्घाटन भाषण के समय से ही, जिसमें उन्होंने आत्मनिर्भर द्वीप को एक ‘‘देश’’ के रूप में संदर्भित किया और ‘‘1992 की आम सहमति’’ को अस्वीकार कर ‘‘एक चीन’’ के सिद्धांत को अपनाने से इनकार कर दिया था, के जरिये जलसंयोगी पार संबंधों को ठंडा करना है। तब से पीआरसी और आरओसी (चीन या ताइवान गणराज्य) के संबंध उतने सौहार्दपूर्ण नहीं है, जितने कि होने चाहिए थे।

जहां, एक ओर यह स्थिति है, अपने भाषण में उन्होंने यथास्थिति बनाए रखने की आवश्यकता के साथ ही पूरे ताइवान में संवाद और संचार के मौजूदा तंत्र को बनाए रखने की दिशा में काम करने पर भी बल दिया था। जिसके परिणामस्वरूप, सामरिक रूप से महत्वपूर्ण हौलिएन और जैशान एयरबेस के अपने दौरों के दौरान उन्होंने आपसी संबंधों को बेहतर करने के स्थान पर, सेना को सतर्क रहने और ताइवान के ‘‘लोकतंत्र’’ और ‘‘आजादी’’ की रक्षा करने का आदेश दिया। इसके साथ ही उनसे पूछताछ की कि बावजूद इसके कि वे चीनी गणराज्य की वायु सेना के सदस्य हैं, कैसे ताइवान के क्षेत्रीय हवाई क्षेत्र में किसी दूसरे को अपना सैन्य कौशल दिखाने की अनुमति दे सकते हैं।

पार जलसंयोगी संबंधों को बिगड़ने का एक और सबूत इस तथ्य में छिपा है कि कुछ चीनी क्षेत्र के विश्वविद्यालयों ने ताइवान के साथ अल्पकालिक विनिमय कार्यक्रमों की संख्या या तो कम या फिर उन्हें निलंबित कर दिया है। जबकि सीमा पारीय संबंधों को ठंडा करने को चीन के अलगाव के रूप में नहीं समझा जा सकता है, लेकिन तब भी यह चीन के पड़ोस में एक और मनमुटाव है जो उसे बमुश्किल ही बर्दाश्त होगा।

वैश्विक राजनीति में चीन के वर्तमान कद और स्थिति को देखते हुए उपरोक्त सभी तर्कों के बावजूद, चीन को अलग-थलग करना असंभव नहीं तो मुश्किल जरूर होगा। इसके अतिरिक्त, हालांकि वर्तमान में तथाकथित ‘‘नया सामान्य’’ के मुकाबले इसकी अर्थव्यवस्था नीचे जा रही है, यह अभी भी एशिया प्रशांत क्षेत्र के अधिकांश देशों के लिए सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार बना हुआ है, और इसलिए दूसरों के साथ, इस अकेले गिनती पर, इसे गिना जाता है और गिना जाता रहेगा।

भूरणनीतिक प्रतिद्वंद्विता के लिए नई वैश्विक हॉटस्पॉट अर्थात् एशिया प्रशांत में, यह स्पष्ट है कि यहां शक्ति के लिए लामबंदी है जो कि आगे भी जारी रहेगी। एशिया-प्रशांत क्षेत्र के लिए वाशिंगटन का पुनर्संतुलन इसी इरादे के साथ विशेष रूप से शुरू किया गया है। दक्षिण चीन सागर में क्षेत्रीय विवादों को शांति से हल करने के लिए एक महत्वपूर्ण चरण में प्रवेश करने की फिलीपींस की इच्छा, इस क्षेत्र के इतिहास के निर्णायक क्षणों में से एक है।

जैसा कि मौजूदा स्थिति है, यद्यपि चीनी आक्रामक कार्रवाई व्यापक नाराजगी का कारण है, इसे अलगाव का कारण न मानते हैं और न ही बना सकते हैं। हालांकि, किसी और से अधिक, चीनी नेतृत्व को पता है कि अपने हिस्से पर निरंतर एकतरफा कार्रवाई से पड़ोस में असुविधा और तनाव की स्थिति बढ़ती जाएगी। इससे पूर्ण अलगाव तो नहीं होगा लेकिन निश्चित रूप से चीन के बहुमूल्य सपनों के पूरे होने की प्रक्रिया बाधित होगी।


Translated by: Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)
Published Date: 11th July 2016, Image Source: http://www.tintucquansu.info
(Disclaimer: The views and opinions expressed in this article are those of the author and do not necessarily reflect the official policy or position of the Vivekananda International Foundation)

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