नेपाल में संघीय प्रणाली से मुंह मोड़ना संभव नहीं
Prof Hari Bansh Jha

नेपाल में “त्वरित गति” से नया संविधान बनाने के लिए हुए 16 सूत्रीय समझौते के विरुद्ध जून 2015 में शुरू हुआ मधेश आंदोलन अभी तक जारी है। मधेशी समुदाय के सबसे तीव्र विरोध के बीच 20 सितंबर, 2015 को संविधान की घोषणा कर दी गई, लेकिन विडंबना है कि घोषणा के नौ महीने बाद भी यह लागू नहीं हो सका है। मधेश आंदोलन के दौरान लगभग 60 लोग मारे गए और हजारों घायल हो गए। तराई में छह महीनों की हड़तालों तथा नेपाल-भारत सीमा पर विशेषकर बीरगंज-रक्सौल चौकी पर पांच महीने की नाकाबंदी के कारण रसोई गैस और पेट्रोलियम पदार्थों समेत आवश्यक वस्तुओं की बेहद कमी हो गई और अर्थव्यवस्था पंगु हो गई। आर्थिक नाकाबंदी के दौरान हर महीने नेपाली अर्थव्यवस्था को 2 अरब डॉलर का आर्थिक नुकसान झेलना पड़ा। परिणामस्वरूप देश के आर्थिक विकास की दर अब शून्य से नीचे चली गई है।

राष्ट्र को नुकसान पहुंचने के बाद भी मधेशियों का मसला अंतरराष्ट्रीय हो गया। नवंबर, 2015 में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ब्रिटेन यात्रा के अंत में और इस वर्ष ब्रसेल्स की यात्रा के दौरान जारी प्रेस विज्ञप्ति में नेपाली राजनेताओं से संविधान को समावेशी बनाने के लिए कहा गया ताकि देश में दीर्घकालिक शांति एवं स्थायित्व सुनिश्चित हो सके। जिनेवा समेत विभिन्न संयुक्त राष्ट्र मंचों पर भी मधेशी मसले पर चर्चा हुई।

अपनी नेपाल यात्राओं के दौरान और राजनयिक मार्ग से भी भारत के प्रधानमंत्री ने नेपाल के राजनेताओं को इस बात के लिए मनाने का पूरा प्रयास किया कि संविधान को समावेशी बनाया जाए। अमेरिका ने भी भारत की ही लीक पकड़ी और नेपाल सरकार से आंदोलनकारी समूहों की चिंताओं को संविधान में शामिल करने के लिए कहा।

लगभग 250 वर्षों से मधेशी राज्य के भेदभाव के शिकार रहे हैं। इसलिए वे संघीय व्यवस्था के अंतर्गत तराई में दो राज्यों की स्थापना चाहते हैं ताकि उन्हें पहचान तथा स्वयं शासन करने का अवसर मिल सके। वे यह भी चाहते हैं कि चुनाव क्षेत्र भूगोल के बजाय जनसंख्या पर आधारित हों। यदि भूगोल को चुनाव क्षेत्रों के गठन का आधार बनाया जाता है तो मतदान में पहाड़ों पर रहने वाले मतदाताओं का मधेशी मतदाताओं के मुकाबले अधिक दबदबा हो जाएगा, जो लोकतांत्रिक सिद्धांतों के खिलाफ है। इसके अलावा मधेशी राज्य की व्यवस्था में आनुपातिक प्रतिनिधित्व दिए जाने एवं नागरिकता कानूनों के उन पक्षपाती प्रावधानों को ठीक किए जाने की मांग करते हैं, जिन प्रावधानों के कारण उन मधेशियों के बच्चे सरकार एवं संवैधानिक संस्थाओं में शीर्ष पदों तक नहीं पहुंच सकते, जो मधेशी विदेशियों से विवाह कर लेते हैं।

दुर्भाग्यपूर्ण है कि जब भी मधेशी और जनजाति तथा अन्य वंचित वर्ग सरकार द्वारा लंबे समय से किए जा रहे भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाते हैं तो काठमांडू इसका दोष भारत पर मढ़ देता है। लोगों का ध्यान मधेशियों की प्रमुख मांगों से हटाकर भारत की ओर लगाने के लिए ऐसा जानबूझकर किया जाता है। शायद इतना काफी नहीं है, इसलिए मधेशी समुदाय को भारत के लिए काम करने वाले देशद्रोही बताया जाता है।

अक्सर मधेशियों और भारत को बदनाम करने के लिए भ्रामक और मनगढ़ंत बातें फैलाई जाती हैं। हाल ही में ऐसे ही एक लेख में एक काल्पनिक भारतीय सिद्धांत का जिक्र था, जो मधेशियों की “एक मधेश दो प्रदेश” के गठन की मांग के पीछे काम कर रहा है। नागरिकता के संबंध में संविधान के पक्षपाती प्रावधान समाप्त करने की मधेशियों की मांग को भी एक निश्चित भारतीय सिद्धांत के दिमाग की उपज बताया जाता है। यह मधेशियों के लक्ष्य के साथ सरासर अन्याय है।

ध्यान रखने वाली बात है कि स्वयं नेपाल के प्रधानमंत्री गिरिजा प्रसाद कोइराला ने आठ वर्ष पहले 2008 में आत्मनिर्णय के अधिकार के साथ “एक मधेश - दो प्रदेश” के गठन के लिए मधेशी नेताओं के साथ समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। यह समझौता ऐसे किसी काल्पनिक सिद्धांत के आने से काफी पहले किया गया था। और मधेशी जनता नागरिकता से संबंधित मुद्दे 1950 के दशक से ही उठाती रही है। लाखों लोग नागरिकता प्रमाणपत्र के अभाव में तराई में लाखों लोग बिना देश के नागरिकों की तरह रहते आए हैं। इस तरह वे न तो आर्थिक गतिविधियों में सहभागिता कर सकते हैं और न ही सरकारी नौकरियां पा सकते हैं।

आंदोलन के दौरान जब सरकार ने मधेशियों की मांगों को अनसुना कर दिया तो पिछले दिनों मधेशी नेताओं ने पहाड़ी जनजाति गुटों से हाथ मिलाकर फेडरल अलायंस बना लिया, जो जो 29 मधेशी और पहाड़ी जनजाति समूहों का गठबंधन है। संयुक्त विरोध कार्यक्रम आरंभ करने से पहले फेडरल अलायंस ने सरकार के सामने 26 सूत्रीय मांग पेश की, जिसमें संविधान को दोबारा लिखे जाने जैसे प्रावधान शामिल थे। मधेशी और पहाड़ी जनजातियों की नेपाल की कुल जनसंख्या में दो-तिहाई से भी अधिक हिस्सेदारी है। संविधान के विरुद्ध उनका संयुक्त आंदोलन इस बात का प्रतीक है कि देश की अधिकतर जनता इसके खिलाफ है।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि मधेशी और पहाड़ी जनजाति नेताओं ने 14 मई से काठमांडू घाटी में विभिन्न विरोध कार्यक्रम आरंभ कर दिए। संविधान के विरुद्ध आंदोलन का आधार तराई क्षेत्र से हटकर काठमांडू में पहुंच गया। वहां नेपाल सरकार के मुख्य प्रशासनिक कार्यालय सिंह दरबार और प्रधानमंत्री के आधिकारिक आवास को घेर लिया गया। इसके अलावा काठमांडू घाटी के विभिन्न हिस्सों में सभाएं की गईं। और अंत में नए संविधान के विरोध स्वरूप काठमांडू में क्रमिक अनशन जारी रखा गया है।

स्थिति की गंभीरता को समझते हुए सरकार ने हाल ही में फेडरल अलायंस के एक घटक यूनाइटेड डेमोक्रेटिक मधेशी फ्रंट (यूडीएमएफ) को बातचीत का न्योता भेजा। लेकिन यूडीएमएफ ने सरकार के साथ बातचीत के लिए कुछ शर्तें रखी हैं, जिनमें सरकार तथा मधेशी पीपुल्स राइट्स फोरम, नेपाल (एमपीआर-एफ) के बीच 2007 में हुए 22 सूत्री समझौते और 2008 में दूसरे मधेशी आंदोलन के बाद प्रधानमंत्री गिरिजा प्रसाद कोइराला तथा यूडीएमएफ के बीच हुए 8 सूत्री समझौते जैसे पिछले समझौतों को लागू करना भी शामिल है। उन समझौतों में सरकार मधेशियों को तराई में आत्मनिर्णय के अधिकार के साथ स्वायत्तशासी प्रदेश देने के लिए ही राजी नहीं हुई थी बल्कि उन्हें राज्य की मशीनरी के प्रत्येक क्षेत्र में आनुपातिक प्रतिनिधित्व देने के लिए भी तैयार हो गई थी। इसके अलावा मधेशी नेता यह भी चाहते थे कि सरकार यूडीएमएफ की 11 सूत्रीय और फेडरल अलायंस की 26 सूत्रीय मांगें पूरी करे। यूडीएमएफ के नेताओं ने सरकार के साथ अतीत में बातचीत के 36 दौर विफल रहने के बाद ये पूर्व शर्तें रखी हैं।

किंतु फेडरल अलायंस के गुटों के साथ गंभीरता से बातचीत करने के बजाय सरकार ने संविधान को लागू करने के उद्देश्य से देश की न्यायिक प्रणाली के पुनर्गठन का कार्यक्रम घोषित कर दिया। यदि संविधान लागू हुआ तो प्रत्येक संघीय प्रदेश में कम से कम एक उच्च न्यायालय होगा। इसके अलावा सरकार ने 2016 में दिसंबर के मध्य में स्थानीय चुनाव, 2017 में जून के मध्य में प्रांतीय चुनाव और उसी वर्ष दिसंबर के मध्य में संसदीय चुनाव कराने का फैसला भी कर लिया।

यदि सरकार आंदोलनकारी समूहों की शिकायतों का समाधान किए बगैर विभिन्न स्तरों पर चुनाव कराकर संविधान को लागू करने का प्रयास करेगी तो काठमांडू और फेडरल अलायंस के मध्य टकराव अवश्यंभावी है। आंदोलनकारी समूहों की सभी मांगों में सबसे प्रमुख है प्रादेशिक राज्यों का सीमांकन करना। आठ जिलों वाले प्रदेश संख्या दो को ही मधेशों के प्रभुत्व वाले क्षेत्र के रूप में रहने दिया गया है। मधेशी जनसंख्या के बहुमत वाले तराई के अन्य बारह जिलों को पहाड़ियों में मिला दिया गया है। मधेशी सरकार के साथ हुए समझौते के ही अनुरूप् तराई में केवल एक या दो अविभाजित प्रदेश चाहते हैं। इसी प्रकार पहाड़ी जनजाति समूह भी कम से कम उन इलाकों में जाति आधारित राज्य चाहते हैं, जहां पारंपरिक रूप से मागर, गुरुंग, शेरपा और किराती पहाड़ी जनजाति समूहों का प्रभुत्व रहा है।

कुछ वर्गों में यह धारणा है कि नेपाल यदि संघीय व्यवस्था के बजाय एकल प्रणाली की ओर लौट जाए और संसद के निचले सदन के लिए चुनाव क्षेत्र जनसंख्या के आधार पर तय किए जाएं तो वर्तमान समस्या का समधान हो सकता है। चूंकि एकल व्यवस्था में राज्य नहीं होंगे, इसलिए संसद के ऊपरी सदन यानी नेशनल असेंबली का प्रावधान समाप्त करना पड़ेगा।

किंतु सच यह है कि नेपाल संघीय व्यवस्था को छोड़कर एकल व्यवस्था की ओर नहीं लौट सकता क्योंकि इससे देश में और भी अस्थिरता आ सकती है। इसीलिए संविधान का पुनर्लेखन चाहे नहीं हो, उसमें इस प्रकार संशोधन करने की आवश्यकता है, जिससे मधेशियों, पहाड़ी जनजातियों, दलितों और हाशिये पर चले गए अन्य समूहों की मांगों को शामिल किया जा सके। आंदोलनकारी समूह उसी स्थिति में संविधान को अपना सकते हैं और उसे लागू होने दे सकते हैं। आंदोलनकारी समूहों के कष्ट दूर किए बगैर उन पर संविधान थोपने की कोई भी कोशिश निश्चित रूप से प्रतिकूल ही होगी।

झा नेपाल के त्रिभुवन विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रह चुके हैं।


Translated by: Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)
Published Date: 4th July 2016, Iamge Source: http://www.srilankaguardian.org
(Disclaimer: The views and opinions expressed in this article are those of the author and do not necessarily reflect the official policy or position of the Vivekananda International Foundation)

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