पिछले दिनों पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचने वाले और उसकी अंतरात्मा को झकझोर देने वाले बिहार राज्य शिक्षा बोर्ड घोटाले ने निस्संदेह राज्य के शैक्षिक माहौल की दुर्गति से पर्दा उठा दिया है। उसने व्यवस्था का घिनौना सच दिखाया है, जहां वाजिब कीमत (आपको जो श्रेणी चाहिए, उसके आधार पर तय होती है) देकर बोर्ड परीक्षाओं में (जिन पाठ्यक्रमों को नहीं पढ़ा, उनके लिए भी) अंक और प्रमाणपत्र खरीदे जा सकते हैं। साल भर पहले बिहार में ही परीक्षा भवन की दीवारों पर स्पाइडरमैन की तरह चढ़ते और भीतर परीक्षा दे रहे छात्रों को नकल की पर्चियां देते लोगों की तस्वीरें देखकर पूरा देश सन्न रह गया था। इस बार की ही तरह उस समय भी राज्य सरकार ने कार्रवाई का वायदा किया था। इसमें कोई शक नहीं कि दोषियों को दंड मिलना चाहिए और बिहार सरकार शिक्षा व्यवस्था के साथ ऐसा मजाक जारी नहीं रहने दे सकती। लेकिन इस घटना को एक ही राज्य की समस्या मानना गलत होगा। अन्य राज्यों में भी परीक्षाओं में सामूहिक नकल की घटनाएं और फर्जी अंक तालिकाओं तथा प्रमाणपत्रों की बिक्री हुई है। वास्तव में यह सब हमारे देश की संपूर्ण शिक्षा व्यवस्था में आ गई सड़न को ही दर्शाता है।
पिछले कई वर्षों में केंद्र और राज्य सरकारें उच्च शिक्षा संस्थानों को बढ़ावा देने में बड़ा उतसाह दिखाती आई हैं। केंद्र सरकार शिक्षा रत्नों जैसे भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों और भारतीय प्रबंध संस्थानों की संख्या बढ़ाने में तथा भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान जैसे मेडिकल कॉलेज और अस्पताल खोलने में जुटी है। उसे विश्वास है कि संख्या बढ़ने से उच्च शिक्षा के इच्छुक अधिक से अधिक छात्रों को लाभ मिलेगा और इस आरोप को झुठलाने में मदद मिलेगी कि सर्वश्रेष्ठ पेशेवर संस्थान चुनिंदा सदस्यों वाले क्लब की तरह बन गए हैं। इस तर्क में कुछ सच्चाई हो सकती है, लेकिन इस बात पर बहस जारी है कि संख्या तेजी से बढ़ाने पर गुणवत्ता बिगड़ती है और कई शिक्षाविदों के लिए यह गंभीर चिंता का विषय है। लेकिन कोई भी तर्क दिया जाए, सत्य यही है कि उच्च शिक्षा के संस्थानों को बढ़ावा देने के फेर में सरकार प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा व्यवस्था पर पर्याप्त ध्यान देने में असफल रही है।
यह असफलता हर प्रकार से चौंकाने और हैरत में डालने वाली है। यह बिल्कुल वैसा ही है, जैसे बुनियाद को मजबूत किए बगैर ही इमारत की ऊपरी मंजिलें चुन दी जाएं। अगर हमारे स्कूलों - विशेषकर ग्रामीण भारत से - उत्तीर्ण होकर निकलने वाले ज्यादातर छात्रों की स्थिति खराब (हालांकि रकम मिलने के बाद कागजों में यह बहुत अच्छी बता दी जाती है) ही रही तो उच्च शिक्षा संस्थानों में प्रवेश के लायक समझ ही उनके पास नहीं होगी। विश्व के सर्वश्रेष्ठ कॉलेजों की वैश्विक रैंकिंग में भारतीय व्यावसायिक शिक्षा संस्थानों के नहीं आ पाने पर चिंता जताने के बजाय इस बात पर फौरन ध्यान देने की जरूरत है। यह याद रखना होगा कि स्कूलों से निकलने वाला प्रत्येक छात्र व्यावसायिक शिक्षा संस्थानों में नहीं जाता लेकिन उत्तीर्ण होने वाले हरेक छात्र के पास जीवन में आगे बढ़ने के लायक शैक्षिक कौशल होना चाहिए। लेकिन अगर वह कौशल ही ठीक नहीं है तो कोई उम्मीद ही नहीं होगी।
हमारी प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा व्यवस्था की स्थिति खतरनाक है और जरूरत है कि हम केवल खुश करने वाले आंकड़ों पर ध्यान देने के अलावा समस्याएं दूर करने पर ध्यान दें। उदाहरण के लिए हम शिक्षा की स्थिति पर 2014 की वार्षिक रिपोर्ट (एएसईआर 2014) देखकर प्रसन्न हो सकते हैं, जिसके अनुसार ग्रामीण भारत में 6 से 14 वर्ष आयु वर्ग के 97 प्रतिशत बच्चों ने स्कूलों में प्रवेश लिया है, 2014 लगातार छठा वर्ष था, जब ऐसे छात्रों का प्रतिशत 96 या अधिक रहा है और शैक्षिक सर्वेक्षण करने वाले एवं एएसईआर रिपोर्ट प्रकाशित करने वाले गैर सरकारी संगठन प्रथम के सदस्यों ने जब ग्रामीण स्कूलों का औचक दौरा किया तो 71 प्रतिशत छात्र कक्षाओं में मौजूद मिले। इन आंकड़ों से पता चलता हैः पिछले कुछ वर्षों में ग्रामीण भारत में प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों का जाल बढ़ गया है (यानी बच्चों को अपने गांवों में या करीब ही स्कूल की सुविधा मिल रही है), छात्रों को लुभाकर स्कूल लाने के तमाम सरकारी कार्यक्रम जैसे मध्याह्न भोजन आदि का लाभ मिल रहा है और ग्रामीण परिवार लगातार अपनी आमदनी का एक हिस्सा अपने बच्चों को शिक्षित करने के लिए निकाल रहे हैं चाहे इसके लिए उन्हें नजदीकी निजी स्कूलों में ही क्यों न भेजना पड़े। लेकिन ये आंकड़े यह नहीं बताते कि छात्रों में सीखने के और शिक्षकों में पढ़ाने के कौशल कितने निखर रहे हैं। इसे समझने के लिए ग्रामीण भारत (जिसका अशिक्षित लोगों की कुल संख्या में 75 प्रतिशत हिस्सा है) के लिए 2014 की एएसईआर रिपोर्ट के कुछ आंकड़े पेश हैं।
पहली बात यह है कि स्कूलों में कक्षा पांच में पहुंचने वाले बच्चों में 50 प्रतिशत कक्षा दो की पुस्तकें भी नहीं पढ़ पाते। पढ़ना एकदम बुनियादी कौशल है, जिसे छात्र उच्च शिक्षा की ओर बढ़ने से पहले सीखते हैं। जैसा कि आंकड़े बताते हैं, जिस बुनियाद पर इमारत खड़ी होनी है, दुर्भाग्य से वही टेढ़ी है। एएसईआर को पता चला कि ग्रामीण भारत के निजी स्कूलों में भी यह समस्या इसी तरह व्याप्त है, लेकिन सरकारी और निजी प्राथमिक एवं माध्यमिक स्कूलों के बीच अंतर बढ़ रहा है, जिसका अर्थ है कि निजी स्कूल कुछ समय में समस्याओं से निजात पा लेते हैं, लेकिन सरकारी स्कूल उन्हीं दिक्कतों में फंसे रहते हैं।
यही वजह है कि ग्रामीण भारत में भी अधिक से अधिक माता-पिता अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भेजना चाहते हैं। एएसईआर की रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण भारत में निजी स्कूलों में प्रवेश लेने वाले बच्चों की संख्या 2014 में 30.8 प्रतिशत तक पहुंच गई, जो 2006 में 18.7 प्रतिशत ही थी। दिलचस्प है कि 2006 से 2014 के बीच अधिकतर राज्यों में निजी स्कूलों में प्रवेश बढ़ा है, लेकिन बिहार में यह 13.7 प्रतिशत से गिरकर 11.2 प्रतिशत ही रह गया है। इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि सरकारी स्कूलों की उपलब्धता बढ़ी है, लेकिन छात्रों के बौद्धिक कौशल पर इसका कोई सकारात्मक प्रभाव पड़ता नहीं दिखा है।
दूसरा चिंताजनक आंकड़ा यह है कि कक्षा दो में पढ़ने वाले 20 प्रतिशत छात्र 1 से 9 तक संख्या ही नहीं पहचान पाए, 2010 में ऐसे बच्चों की संख्या 10 प्रतिशत ही थी, जिसका मतलब है कि हालात बद से बदतर हो गए हैं। कक्षा तीन के छात्रों की स्थिति भी बहुत अलग नहीं है। कुछ और आंकड़े हैं, जो और भी धुंधली तस्वीर दिखाते हैं और यहां उन्हें बताने की कोई जरूरत महसूस नहीं होती क्योंकि बात पहले ही कह दी गई है।
इसलिए प्रश्न ये हैं: केंद्र और राज्य सरकारों के कई वर्षों के स्पष्ट और स्वाभाविक प्रयासों के बावजूद भारत में स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता इतनी घटिया क्यों है? इसमें खराबी कब और कैसे आई? इतने कारण और जटिलताएं हैं कि इसका स्पष्ट उत्तर मिल ही नहीं सकता। किंतु अगर कोई इसके भीतर तक झांके तो कुछ पहलू साफ हो जाते हैं और ये सभी हमारी प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा व्यवस्था के संचालन से जुड़े हैं। पहला और एकदम बुनियादी पहलू शिक्षकों की योग्यता से जुड़ा है। ग्रामीण भारत में शिक्षण सबसे ज्यादा पसंद किया जाने वाला पेशा बन गया है क्योंकि इसमें आकर्षक वेतन भी है और रोजगार की सुरक्षा भी। अच्छे शिक्षकों को बुलाने के लिए इसका प्रोत्साहन की तरह इस्तेमाल किया जाना चाहिए था। किंतु विडंबना है कि एक के बाद एक राज्यों में इससे भ्रष्टाचार फैलता गया है, जहां उम्मीदवार चुने जाने के लिए मोटी रकम खर्च करने को तैयार रहते हैं क्योंकि उन्हें पता रहता है कि कुछ वर्ष नौकरी करने पर वह रकम वसूल हो जाएगी। राजनीतिक संरक्षण और अफसरशाही मशीनरी ने बिचौलियों की भीड़ पैदा कर दी है, जो रिश्वत के बदले किसी भी उम्मीदवार को नौकरी दिला सकते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो हो सकता है कि मेधावी उम्मीदवारों को हमेशा सरकारी प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों में पढ़ाने का मौका नहीं मिले, लेकिन औसत और निरे अक्षम उम्मीदवार रिश्वत देकर शिक्षक बन जाते हैं। ऐसी स्थिति में छात्रों के भविष्य का अंदाजा कोई भी लगा सकता है।
अब चयन की भ्रष्ट प्रक्रिया में दूसरा कारण भी जोड़ लीजिए, जो है शिक्षकों के प्रशिक्षण की गुणवत्ता। यहां आपको और भी बदतर तस्वीर दिखती है। शिक्षकों को प्रशिक्षित करने के लिए कई संस्थान हैं, लेकिन प्रशिक्षण की प्रक्रिया में आधुनिकता न के बराबर है। जब बच्चों को रटकर सीखने के लिए कहा जाता है तो इस बात की उम्मीद बेमानी ही है शिक्षकों को अपना कौशल निखारने और सीखने के लिए तैयार किया जा सकेगा। प्रसिद्ध शिक्षाविद डॉ. अशोक जे देसाई के शोधपत्र “प्रॉब्लम्स ऑफ टीचर एजूकेशन इन इंडिया” के अनुसार सरकारी प्रशासन ने शिक्षकों को शिक्षा के आधुनिक तरीके सिखाने पर बहुत कम ध्यान दिया है। उसमें इस बात पर भी दुख जताया गया है कि राष्ट्रीय शिक्षक प्रशिक्षण परिषद ने इसमें बहुत कम भूमिका निभाई है। यहां मसला यही है कि यदि उम्मीदवार रिश्वत देकर या राजनीतिक संरक्षण के बल पर शिक्षक बनते हैं तो वे अपनी योग्यता बढ़ाने का कष्ट क्यों करेंगे। उन्हें केवल वेतन और सुविधाओं से मतलब है और उसी के लिए उन्होंने रिश्वत दी है।
स्कूलों विशेषकर सरकारी स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता और कौशल स्तर खराब होने का तीसरा कारण बुनियादी ढांचे की कमी है। हाल ही में आए एक अध्ययन के अनुसार लगभग 60 प्रतिशत सरकारी स्कूलों में पेयजल ही नहीं है और 89 प्रतिशत में शौचालय नहीं हैं। देश भर में हजारों छात्रों को स्कूल से दूर रखने के लिए यही वजह काफी है। पर्याप्त कक्षाएं नहीं होने का अर्थ है कि ग्रामीण भारत में कई सरकारी प्राथमिक एवं माध्यमिक स्कूलों में विभिन्न कक्षाओं के छात्र एक ही कमरे में ठूंस दिए जाते हैं। कोई भी अनुमान लगा सकता है कि इससे छात्रों की सीखने की क्षमता को कितना नुकसान पहुंचता होगा। यह सच है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वच्छ भारत अभियान ने बड़ा परिवर्तन किया है और पिछले वर्ष में ही देश भर के स्कूलों में विशेषकर लड़कियों के लिए लाखों शौचालय बनाए गए हैं, लेकिन अब भी लंबा रास्ता तय किया जाना है।
लगता है कि हमारे आला अधिकारी शिक्षा व्यवस्था में आंकड़ों से ही संतुष्ट रहे हैं, जैसे कितने नए स्कूल खुले, कितने नए प्रवेश हुए, विभिन्न योजनाओं को कितनी रकम दी गई और कितनी नई योजनाएं शुरू की गईं आदि। इसका कारण यह है कि आंकड़े उन्हें पुरस्कार, सम्मान और बजट में अधिक रकम दिलाते हैं। उन्हें गुणवत्ता के पहलू पर अधिक गंभीरता के साथ ध्यान देना चाहिए। यदि वे ऐसा नहीं करते हैं तो आज सफेद हाथी (प्रदर्शन के मामले में) बन चुकी प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था और भी बड़ी समस्या बनती जाएगी।
सुधार नहीं करने का सबसे विध्वंसक प्रभाव बच्चों का मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 पर पड़ेगा (वास्तव में कई गंभीर स्वर आरटीई की असफलता पर चिंता जताने भी लगे हैं)। इस अधिनियम के अंतर्गत देश भर में 6 से 14 वर्ष आयु वर्ग के बच्चों अथवा कक्षा आठ तक सरकार द्वारा मुफ्त शिक्षा प्रदान करने का प्रावधान है। यद्यपि पिछले आधे दशक में आरटीई के कारण भारी संख्या में बच्चों ने प्रवेश लिया होगा लेकिन यदि प्राथमिक स्तर पर गुणवत्तापरक शिक्षा नहीं हुई तो हमारे पास ऐसे बच्चों के झुंड होंगे, जिनकी सीखने की क्षमता बहुत कम होगी, जो आगे जाकर उच्च शिक्षा के दबावों को झेलने में असमर्थ होंगे (जैसा कि होता रहा है, इससे त्रासद परिणाम आ सकते हैं) और वे उद्योग और शिक्षा जगत के लिए अयोग्य होंगे।
उम्मीद की जानी चाहिए कि केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा अगले कुछ महीनों में जिस नई शिक्षा नीति को प्रस्तुत किए जाने की अपेक्षा है, उसमें देश की प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा व्यवस्था का कायाकल्प करने के लिए अनिवार्य उपाय होंगे। और शिक्षा के माहौल को नया रूप देते हुए हमें 19वीं शताब्दी के कवि-दार्शनिक राल्फ वाल्दो इमर्सन के शब्द याद रखने चाहिएः “हम शब्दों के विद्यार्थी हैं: हम स्कूलों और कॉलेजों और पढ़ाई के कमरों में 10-15 साल तक बंद रहते हैं और आखिर में खाली हाथ बाहर आते हैं, हमें बस शब्द याद होते हैं, हम और कुछ नहीं जानते।”
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और टिप्पणीकार हैं।)
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