पाकिस्तान के सेना प्रमुख पद पर लेफ्टिनेंट जनरल कमर जावेद बाजवा की नियुक्ति के साथ ही जनरल राहील शरीफ के संभावित उत्तराधिकारी के बारे में चल रही अटकलों पर विराम लग गया, लेकिन सरकार तथा सेना के कमजोर रिश्तों के भविष्य पर चर्चा इससे तेज हो जाएगी। हालांकि जनरल शरीफ फरवरी में कह चुके थे कि तीन वर्ष का अपना कार्यकाल पूरा होने पर वह सेवानिवृत्त हो जाएंगे तथा विस्तार पाने का प्रयास नहीं करेंगे, लेकिन इस पर बड़ा संशय था। पाकिस्तान में सेना प्रमुख का बदला जाना बहुत बड़ी घटना होती है, जिससे पहले अटकलों और उत्सुकता का लंबा दौर चलता है और साजिशों की बातें भी उड़ती रहती हैं। विस्तार मांगे बगैर पद छोड़ने का जनरल शरीफ का निर्णय पाकिस्तान में असाधारण और गरिमामय माना जा रहा है क्योंकि उनसे पहले इस पद पर रहे बहुत कम व्यक्तियों ने ऐसा किया है। यदि उनमें से सभी ने अपने कार्यकाल पूरे किए होते और आदेशों को पलटा नहीं होता तो पाकिस्तान में अब तक 15 के बजाय 24 सेना प्रमुख हुए होते। दो को छोड़कर शेष सभी पूर्व प्रमुखों को विस्तार मिल गया और उनमें से चार ने केवल विस्तार ही नहीं लिया बल्कि चुनी गई सरकार का तख्तापलट कर देश की कमान भी अपने हाथों में ले ली। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि सेना तथा देश के प्रति जनरल शरीफ का सबसे बड़ा योगदान यह रहा कि उन्होंने अपना वायदा निभाया और समय पर पद छोड़ रहे हैं तथा अपने उत्तराधिकारियों के लिए उदाहरण भी प्रस्तुत कर रहे हैं। यह वास्तव में विलक्षण है क्योंकि इस बात की अटकलें तेज थीं कि भारत के साथ तनाव के नाम पर वह अपने कार्यकाल का विस्तार करा सकते हैं।
किसी भी स्थापित लोकतंत्र में सेना प्रमुख का बदलना आम बात हो सकती है, लेकिन पाकिस्तान में प्रमुख का बदलना सरकार बदलने से ज्यादा न सही, उसके बराबर महत्व की घटना तो होती ही है। लोकतंत्र की तमाम संस्थाओं के बावजूद सेना प्रमुख देश का सबसे ताकतवर व्यक्ति होता है।
सरकार और सेना के समीकरण
अब मियां साहिब ने एक बार फिर, अपने वर्तमान कार्यकाल में दूसरी बार, अपनी पसंद का सेना प्रमुख इस उम्मीद में नियुक्त किया है कि कष्ट भरे अतीत के बावजूद सेना पर उनका मजबूत नियंत्रण रहेगा।
नवाज शरीफ ने इस नियुक्ति में वरिष्ठता के सिद्धांत को जानबूझकर अनदेखा कर दिया और जनरल बाजवा ने चार लेफ्टिनेंट जनरलों को पछाड़कर यह पद हासिल किया। पाकिस्तान मीडिया में कहा भी गयाः “प्रधानमंत्री निश्चित रूप से ऐसा सेना प्रमुख चाहते थे, जो देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था का समर्थक हो, जो संसद की श्रेष्ठता में विश्वास करता हो और जो देश की बेहतरी के लिए काम कर सकता हो।” इतना ही नहीं, मीडिया में यह भी कहा गया कि जनरल बाजवा उन कोर कमांडरों में शामिल थे, जिन्होंने 2014 में इमरान खान द्वारा प्रदर्शन के दौरान देश की राजधानी में हिंसा भड़कने पर सैन्य हस्तक्षेप नहीं किए जाने की सलाह दी थी; नवाज शरीफ सरकार के लिए वे सबसे कष्ट भरे दिन थे। इसीलिए जनरल बाजवा “सुरक्षित जनरल” होने की सभी शर्तें पूरी करते हैं।
किंतु सेना की कमान के आसान परिवर्तन का बहुत अधिक अर्थ निकालना गलत होगा क्योंकि पाकिस्तानी सेना संस्थागत रूप से बेहद मजबूत पेशेवर सेना है और नाजुक मौके आने पर व्यक्तिगत पसंद अधिक मायने नहीं रखती। इस संस्थागत मजबूती का कारण हैः-
इसीलिए व्यक्ति की आदत के आधार पर निष्कर्ष निकालने से काम नहीं चलेगा। फिर भी सरकार और सेना के कड़वे रिश्तों को देखते हुए ऐसे “सुरक्षित” जनरलों को चुनने की बात समझ में आ जाती है, जो असैन्य प्रभुत्व को चुनौती नहीं देंगे। लेकिन इतिहास बताता है कि कथित “सुरक्षित” जनरल को चुनना किस तरह बेकार साबित हुआ है।
जुल्फिकार अली भुट्टो ने जनरल जिया उल हक को चुना, जो पेशेवर कौशल के बजाय अपने धार्मिक विश्वास के लिए जाने जाते थे। जनरल जिया के एक पूर्ववर्ती लेफ्टिनेंट जनरल गुल हसन खान का दावा था कि एक वरिष्ठ अधिकारी ने एक बार कहा था कि जिया उल हक सैन्य अधिकारी होने के लायक भी नहीं हैं। इसके अलावा जनरल जिया पाकिस्तानी सेना के दो ताकतवर समुदायों पठान या राजपूत से नहीं आते थे, इसलिए उनसे कोई खतरा नहीं हो सकता था। इसीलिए भुट्टो को वरिष्ठता क्रम में सातवें स्थान पर मौजूद सीधे-सादे और धार्मिक रुझान वाले जिया उल हक सुरक्षित दांव लगे और उन्हें सेना प्रमुख बना दिया गया। इसके बाद जो कुछ हुआ, वह सभी को पता है।
पिछले दो मौकों पर नवाज शरीफ को भी अपनी पसंद के सेना प्रमुखों के हाथों तकलीफ उठानी पड़ी है। जनरल आसिफ नवाज जंजुआ की अचानक मौत के बाद 1993 में नवाज शरीफ और राष्ट्रपति गुल इशाक खान ने छह जनरलों को अनदेखा करते हुए जनरल अब्दुल वहीद कक्कड़ को सेना प्रमुख बना दिया। उसके बाद राष्ट्रति और प्रधानमंत्री शरीफ के बीच छिड़ा सत्ता संघर्ष सेना के दखल के बाद खत्म हुआ और दोनों को पद से हटाने तथा नए सिरे से चुनाव कराने में जनरल वहीद कक्कड़ की मुख्य भूमिका रही थी। 1998 में एक बार फिर नवाज शरीफ को लगा कि पठान और पंजाबी बहुल सेना पर मुहाजिर सेना प्रमुख की पकड़ उतनी मजबूत नहीं रहेगी और वह असैन्य नेतृत्व के सामने कभी मजबूत चुनौती पेश नहीं कर पाएगा। यही सोचकर उन्होंने जनरल परवेज मुशर्रफ को नियुक्त किया, लेकिन अगले ही वर्ष मुशर्रफ ने नवाज शरीफ का तख्तापलट ही नहीं किया, उन्हें जेल में भी डाल दिया और बाद में उन्हें सऊदी अरब के लिए निर्वासित कर दिया।
जनरल राहील शरीफ के साथ भी स्थिति आसान नहीं रही। सेना ने विदेश नीति में अमेरिका, अफगानिस्तान और भारत से जुड़े अपने पसंदीदा विषयों पर दबदबा कायम रखा। उफा के बाद भारत-पाक वार्ता पटरी से उतरने का एक कारण यह भी था कि सेना कश्मीर को एजेंडा में शामिल करने पर अड़ी हुई थी। पाकिस्तान के रक्षा मंत्री की कुर्सी उस समय बाल-बाल बच गई, जब जनरल मुशर्रफ पर राजद्रोह के मुकदमे के दौरान उन्होंने कुछ टिप्पणी कर दीं और सेना ने यह कहते हुए अपनी नाखुशी जाहिर की कि रक्षा मंत्री का पद पर बना रहना सेना तथा असैन्य सरकार के मधुर रिश्तों के लिए शायद अच्छा नहीं रहे। जनरल राहील शरीफ ने 2014 में पेशावर में आर्मी पब्लिक स्कूल के छात्रों की हत्या के बाद बनाई गई राष्ट्रीय कार्य योजना के क्रियान्वयन में नाकाम रहने के लिए असैन्य सरकार को सार्वजनिक तौर पर लताड़ा था। उन्होंने आगाह किया था कि अगर असैन्य सरकार ताल से ताल मिलाकर कदम नहीं उठाती है तो सैन्य अभियान से मिले फायदे खत्म हो जाएंगे।
विदेश नीति के क्षेत्रों में सेना बहुत सक्रिय रही है, जैसा भारत के साथ पाकिस्तान के संबंधों में देखा गया; उफा के बाद हुए गतिरोध को छोड़ भी दिया जाए तो पठानकोट हमले में मौलाना मसूद अजहर की भूमिका जांचे जाने के मामले में स्वयं प्रधानमंत्री के आश्वासन के बावजूद बहुत कुछ नहीं हुआ। असैन्य पृष्ठभूमि वाले राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को हटाकर लेफ्टिनेंट जनरल जंजुआ की नियुक्ति से संकेत मिलता है कि सेना ही आखिरी फैसला लेती है। इसीलिए यह संयोग मात्र नहीं है कि विभिन्न विदेश यात्राओं विशेषकर मध्य एशिया और अफगानिस्तान में दोनों शरीफ एक साथ यात्रा करते थे। रिश्तों में कड़वाहट इस वर्ष अक्टूबर में चरम पर पहुंच गई, जब पाकिस्तानी मीडिया ने असैन्य तथा सैन्य नेतृत्व के बीच टकराव की खबर दी और बताया कि पाकिस्तानी विदेश सचिव ने सैन्य नेतृत्व से कहा कि आतंकवादियों (हक्कानी नेटवर्क और जैश-ए-मोहम्मद जैसे भारत केंद्रित संगठन) के खिलाफ कार्रवाई करें या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग-थलग पड़ने के लिए तैयार रहें। हालांकि सरकार ने इस खबर की पुष्टि नहीं की और सूचना मंत्री को बर्खास्त कर दिया, लेकिन पोल खुल चुकी थी।
एक के बाद एक सेना प्रमुखों की लगाम कसकर उन्हें अपने हिसाब से चलाने की कोशिश में असैन्य सरकार की नाकामी की कहानी बहुत कष्टप्रद है। व्यक्ति कोई भी हो, सैन्य और असैन्य नेतृत्व के बीच समीकरण देश में मौजूद परिस्थितियों से, अमेरिका और पश्चिम एशिया में पाकिस्तान के सहयोगियों के रुख से निर्धारित होते हैं। पिछले कुछ समय से अमेरिका की जगह चीन तेजी से पाकिस्तान के रणनीतिक सहयोगी की जगह लेता जा रहा है, इसीलिए भविष्य में पाकिस्तान के घरेलू घटनाक्रम में चीन वही भूमिका निभाएगा, जो अभी तक अमेरिका निभाता आ रहा था।
सेना का पलड़ा भारी क्यों?
पिछले कुछ समय में पाकिस्तानी सेना ने असैन्य नेतृत्व को एक सीमा तक स्वायत्तता दे दी है। किंतु राष्ट्रीय सुरक्षा, आतंकवाद निरोध के पारंपरिक क्षेत्रों में उसने अपनी मजबूत पकड़ बरकरार रखी है और विदेश नीति, विशेषकर भारत, अफगानिस्तान और अमेरिका के साथ संबंधों के मामले में तो उसके इशारों पर ही चल रही है। असैन्य सरकार को अर्थव्यवस्था चलाने दी गई है और फिलहाल पंजाब में प्रधानमंत्री के गृहक्षेत्र में आतंकवाद निरोधक अभियानों पर नियंत्रण करने दिया गया है।
सैन्य तथा असैन्य संबंधों की बदतर स्थिति के लिए असैन्य नेतृत्व अधिक जिम्मेदार है। भारत और पाकिस्तान दोनों को अपनी-अपनी सेनाएं ब्रिटिश भारतीय सेना से ही विरासत में हासिल हुई थीं। इसीलिए यह सोचने वाली बात है कि भारत में सेना ने कभी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के लिए काम क्यों नहीं किया और पाकिस्तान में सेना अपने अधिकार क्षेत्र से इतर क्षेत्रों में दखल देने का मौका क्यों नहीं गंवाया - इस मूल कारण दोनों देशों में असैन्य नेतृत्व की गुणवत्ता से दिखाई देता है। पाकिस्तानी असैन्य नेतृत्व शुरुआत से ही विभिन्न कारणों से अपनी वैधता स्थापित करने में नाकाम रहा है। इस तरह अकुशल नेतृत्व ने तेजतर्रार जनरलों को अपनी सीमाएं पार करने का पर्याप्त मौका दिया। जनरल अयूब खान ने 1958 में सरकार का तख्तापलट करने से कई वर्ष पहले अपनी चतुराई से विदेश कार्यालय को पछाड़ दिया था, जब 1954 में उन्होंने अमेरिका के साथ संबंध बेहतर करने में प्रमुख भूमिका निभाई और पाकिस्तान अमेरिका का सहयोगी बनकर उभरा।
असैन्य नेतृत्व के विरुद्ध झुकाव वाला वैसा ही कौशल संतुलन अब देखा जा सकता है। लगातार भ्रष्टाचार के आरोप झेल रहे और निष्पक्ष जांच के लिए तैयार नहीं हो रहे नेतृत्व का घटिया प्रशासन तथा उच्च विभागों पर एक ही कुनबे का आधिपत्य लोकतांत्रिक संकल्प का मुंह चिढ़ाता है। पाकिस्तानी विशेषज्ञ अक्सर यह कहकर अपनी निराशा जता चुके हैं कि प्रधानमंत्री नवाज शरीफ और उनकी टीम के पास देश को संकट से निकालने का स्पष्ट एजेंडा ही नहीं है। इससे पनपी स्थिति यह सुनिश्ति करती है कि जनता असैन्य नेतृत्व के बजाय सेना को ही तरजीह दे।
उपरोक्त बातें निवर्तमान सेना प्रमुख को मिली जबरदस्त मीडिया कवरेज से ही नहीं बल्कि जनता को उनसे मिले दुलार से भी साबित होती हैं। कुछ मौकों पर दोनों शरीफ एक साथ थे और लोग प्रधानमंत्री के बजाय जनरल की तारीफ में नारे लगा रहे थे। लोगों की धारणा यही है कि असैन्य नेता काम नहीं कर पाते और अपना अधिकतर समय तथा संसाधन स्वयं को चुनावों में गड़बड़ी अथवा वित्तीय घोटाले (ताजातरीन मामला ‘पनामा गेट’ का है) के आरोपों से बचाने में ही लगाते रहते हैं। 2014 में जर्ब-ए-अज्ब अभियान शुरू करने के बाद जनरल की लोकप्रियता तेजी से बढ़ी। अभियान के बाद पाकिस्तानी तालिबान के हमलों में कमी आई है और इस तरह सेना की लोकप्रियता और भी ऊंचाई पर पहुंच गई है। सेना की लोकप्रियता बढ़ी है और असैन्य नेतृत्व का राजनीतिक आधार कम हुआ है।
पाकिस्तान के शक्ति समीकरण में पाकिस्तानी सेना के केंद्रीय तत्व होने का एक और कारण यह है कि पाकिस्तान पश्चिम एशिया में अमेरिका का शीत युद्ध कालीन सैन्य सहयोगी बन गया। अमेरिका और पाकिस्तानी सेना का बहुत पुराना तथा मजबूत रिश्ता है, जो जनरल अयूब खान की अगुआई में 1954 में उस समय शुरू हुआ था, जब पाकिस्तान ने अमेरिका के साथ ‘पारस्परिक रक्षा सहयोग समझौते’ पर हस्ताक्षर किए थे और उसके बाद वह अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, थाईलैंड, फिलीपींस, ऑस्ट्रेलिया तथा न्यूजीलैंड के साथ दक्षिण पूर्व एशियाई संधि संगठन (सीटो) में शामिल हुआ था। अगले वर्ष पाकिस्तान ‘बगदाद पैक्ट’ में शामिल हो गया, जो ब्रिटेन, तुर्की, इराक और ईरान के साथ आपसी रक्षा समूह था।
अमेरिका से पाकिस्तान को मिलने वाली ज्यादातर वित्तीय सहायता सैन्य सहयोग के रूप में होती है क्योंकि अमेरिका ने हमेशा माना है कि इस क्षेत्र में उसके भू-राजनीतिक उद्देश्य पूरे करने में पाकिस्तान की भूमिका रहेगी और इसीलिए पाकिस्तानी सेना की अहमियत और भी बढ़ गई। ब्रूस रीडेल की नीचे दी गई पंक्तियां इस विचार को और मजबूती देती हैं कि पाकिस्तान-अमेरिका गठबंधन का मूलभूत उद्देश्य अमेरिका की भू-राजनीतिक जरूरतें पूरी करना है, पाकिस्तान को आधुनिक प्रगतिशील लोकतंत्र बनाना नहीं: “दशकों से पाकिस्तानी अमेरिका से एक ही बात कह रहे हैं, उनके देश से अपने बाजार में व्यापार की अनुमति दे दो। 1991 के बाद से अमेरिका में पहुंचने वाले प्रत्येक पाकिस्तानी राजदूत ने मुझसे यही बात कही हैः सहायता नहीं व्यापार से उन्हें आधुनिक नागरिक समाज बनाने, महिलाओं को सशक्त करने, पाकिस्तान का निर्माण करने के इच्छुक उद्यमियों को मजबूती देने और आतंकवाद के बजाय शांति को बढ़ावा देने में मदद मिलेगी। उसके बजाय अमेरिकी सरकार पाकिस्तानी कपड़ों पर अन्य देशों के कपड़ों के मुकाबले तीन गुना शुल्क लगाती है।”
कुल मिलाकर इस बात की पूरी संभावना है कि असैन्य-सैन्य तालमेल का दिखावा करने वाली मौजूदा व्यवस्था चलती रहेगी; लेकिन जब भी सेना को ऐसा लगेगा कि असैन्य नेतृत्व अपनी हद पार कर उसके अधिकार क्षेत्र में दखल दे रहा है तो वह अपनी ताकत आजमाने में हिचकेगी नहीं।
भारत के लिए आगे क्या?
भारत में आम धारणा यही है कि असैन्य नेतृत्व भारत के साथ शांति चाहता है और सेना ही उसे रोक रही है। पिछले एक वर्ष में गुरदासपुर से शुरू होकर पठानकोट वायुसेना अड्डे और इस वर्ष सितंबर में उड़ी में हुए तमाम आतंकी हमलों, जिनके कारण भारत को नियंत्रण रेखा के पार लक्षित हमले (सर्जिकल स्ट्राइक) करने पड़े, सेना की भूमिका के बारे में धारणा को और भी मजबूत करते हैं।
सर्जिकल स्ट्राइक के बाद नियंत्रण रेखा पर अस्थिरता बनी हुई है और संघर्ष विराम का उल्लंघन भी कई बार हुआ है, जिससे दोनों पक्षों में सैन्यकर्मी और नागरिक मारे गए हैं। कश्मीर में स्थिति का जिक्र करते हुए भारत के बारे में जनरल शरीफ के कठोर बयान इस बात का संकेत देते हैं कि सेना असैन्य नेतृत्व को भारत के साथ किसी भी तरह के मेलमिलाप से रोकने के लिए शायद जम्मू-कश्मीर में अशांति का बहाना बना रही है। अपने विदाई भाषण में भी जनरल राहील शरीफ ने भारत को कश्मीर में किसी भी तरह का आक्रामक रुख नहीं अपनाने की चेतावनी दी थी। हालांकि अगले सेना प्रमुख ने नियंत्रण रेखा पर स्थिति सुधरने की उम्मीद जताई है, लेकिन सेना मुख्यालय में यह बयान दिए जाने के कुछ घंटे पहले ही जम्मू के नजदीक नगरोटा में सेना के ठिकाने पर उड़ी हमले के बाद से अभी तक का सबसे घातक हमला हुआ, जिसमें दो अधिकारियों समेत सात जवान शहीद हो गए।
हालांकि माना जा रहा है कि भारत के साथ रिश्ते सुधारने की नवाज शरीफ की इच्छा का नए सेना प्रमुख समर्थन कर सकते हैं। समाचार पत्र डॉन ने भी जनरल बाजवा की बात करते हुए ऐसा ही लिखा हैः “बताया जाता है कि कश्मीर और उत्तरी क्षेत्रों में बहुत काम करने के बाद भी वह भारत के मुकाबले आतंकवाद को देश के लिए बड़ा खतरा मानते हैं।” किंतु यह नई बात नहीं है; पिछले दो सेना प्रमुख जनरल कयानी और जनरल राहील शरीफ भी ऐसा ही मानते थे। जनरल कयानी तो सार्वजनिक तौर पर ऐसा लगभग कह ही दिया था, जब उन्होंने कहा थाः “पाकिस्तान के सामने बाहरी खतरे तो बने रहेंगे, लेकिन अभी आंतरिक खतरों पर फौरन ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है।” जनरल राहील शरीफ ने पाकिस्तानी सेना का वह सिद्धांत बनाने में अहम भूमिका निभाई थी, जिसमें भारत को प्रमुख खतरा नहीं माना जाता है। लेकिन प्रमुखों के विचारों से वास्तविक अंतर शायद ही आया और भारत-पाकिस्तान के रिश्तों में तनाव बरकरार रहा।
नए सेना प्रमुख के सामने मौजूद चुनौतियों की चर्चा करते हुए पाकिस्तानी मीडिया ने लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे भारत केंद्रित गुटों के साथ निपटने के मसले का विशेष तौर पर जिक्र किया था। उन रिपोर्टों में कहा गया है कि किसी समय सेना की “संपत्ति” या “बल बढ़ाने वाले” ये समूह अब संभवतः अपनी चमक खो चुके हैं और इसीलिए उनसे निपटा जाना चाहिए या उन्हें काबू में किया जाना चाहिए। इन रिपोर्टों में तो यह संभावना तक जताई गई है कि इन गुटों को मुख्यधारा में लाने की योजना पहले ही बनाई जा चुकी है क्योंकि एक धारणा यह भी है कि अगर इन गुटों पर लगाम नहीं कसी गई तो भारत पर किसी बड़े आतंकी हमले की सूरत में वे पाकिस्तान के लिए बड़ा बोझ बन सकते हैं। लेकिन खतरे के बारे में शीर्ष सैन्य नेतृत्व की धारणा बदलने की अटकलों के बाद भी वास्तविक परिवर्तन तभी हो सकते हैं, जब क्षेत्र की भू-राजनीति में बदलाव होगा। भारत से खतरे का भूत ही पाकिस्तान की राजनीति में सेना की केंद्रीय भूमिका का सबसे अहम कारण रहा है। इसीलिए बड़ा सवाल यह है कि खतरे की धारणाओं का आकलन बदलने बगैर पाकिस्तानी सेना अपना रवैया क्यों बदलेगी। जैसा पहले ही कहा गया है, संस्थागत रवैया ही भविष्य की राह तय करेगा और किसी व्यक्ति की पसंद का अधिक से अध्किा सतही प्रभाव ही हो सकता है।
अब पाकिस्तान में दो-दो नेतृत्व होने के संबंध में भारत के असमंजस की बात करते हैं क्योंकि भारत के साथ संबंध कायम रखना पूरी तरह पाकिस्तानी सेना के अधिकार क्षेत्र में आता है। असैन्य नेतृत्व की सीमाएं जगजाहिर हैं और इसीलिए असैन्य तथा सैन्य नेतृत्व के बीच मतभेदों की बात करना बेकार ही नहीं बल्कि खतरनाक भी है क्योंकि जब भी असैन्य नेता शांति की कोशिश करते हैं तो इनके कारण संदेह और भी बढ़ जाता है। यह एकदम स्पष्ट है कि पाकिस्तान की कोई भी पहल सेना के समर्थन के बगैर नाकाम ही रहेगी। अतीत की घटनाएं इसकी गवाह हैं - जब लाहौर की बस यात्रा का अंत कारगिल में हुआ था। इसका दोष किसे दिया जाए, इसे छोड़ भी दें तो यह कहने की जरूरत नहीं कि पाकिस्तान के साथ तनाव बढ़ना पाकिस्तान के मुकाबले भारत के लिए ज्यादा महंगा पड़ता है, जान के मामले में न सही खर्च के मामले में तो पड़ता ही है। वजह यह है कि भारत की अर्थव्यवस्था बहुत अधिक विकसित है, आकार में लगभग दस गुनी है, वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ अधिक जुड़ी हुई है और 3 प्रतिशत की औसत दर के साथ अपेक्षाकृत तेजी से बढ़ रही है। सीधे शब्दों में कहें तो मूडीज या एसऐंडपी को पाकिस्तान के मुकाबले भारत की स्थिति से अधिक फर्क पड़ेगा।
इतना ही नहीं, यह मानने में भी कोई परेशानी नहीं कि स्वतंत्रता के बाद से ज्यादातर समय तक भारत-पाक रिश्ते ‘जैसे को तैसा’ के सिद्धांत पर चलते आए हैं। परिणामस्वरूप गतिरोध ही बना रहता है। नतीजा यही होता है कि कीमती जानें गंवाई जाती हैं और रणनीतिक लक्ष्य हासिल नहीं होता। यह स्थिति प्रथम विश्वयुद्ध की खाइयों वाली लड़ाई जैसी ही है। अगर भारत दशकों के गतिरोध को तोड़ने का फैसला करता है तो हमें पाकिस्तान से निपटने के नए तरीके निकालने होंगे। हम पाकिस्तान में शक्ति समीकरण को तो नहीं बदल सकते, लेकिन हम अपनी प्रतिक्रिया को तो बदल सकते हैं। हमें भारत और पाकिस्तान के बीच अंतर की कहानी आगे बढ़ानी होगी जैसे भारत लोकतंत्र है, जबकि पाकिस्तान के निर्माण के बाद से ही वहां अधिकतर समय सैन्य शासन रहा है, भारत धर्मनिरपेक्ष है, जबकि पाकिस्तान धार्मिक पहचान की बुनियाद पर बना देश है आदि। रणनीतिक कारणों के बजाय विचारधारा के ऐसे चश्मे से देखने पर दोनों ओर अधिक संदेह और वैरभाव पनपता है।
हमें खुद को “लोकतंत्र और शांति वाले सिद्धांत” के जाल से मुक्त कराना होगा, जो कहता है कि लोकतंत्र एक दूसरे से युद्ध नहीं करते, लेकिन लोकतंत्र और अधिकारवादी सत्ता के बीच लड़ाई होती है। जान के कम से कम नुकसान के साथ वांछित रणनीतिक परिणाम सुनिश्चित करने के लिए पाकिस्तान की खतरा संबंधी धारणाओं और उन धारणाओं के मुख्य कारणों को समझना अनिवार्य है। वास्तव में जरूरी है कि हम इन संबंधों को नफा-नुकसान के चश्मे के बगैर देखना शुरू करें और ऐसा संवाद शुरू करें, जो रिश्तों के समीकरण को निष्पक्ष भाव से देखता हो। ‘इस्लाम के किले’ का पहरेदार होने के दावों और उसके साथ जुड़े वैचारिक झुकाव के बावजूद पाकिस्तानी सेना पेशेवर संस्था होने के कारण दुनिया के बारे में अपनी समझ बनाने में, खतरों को समझने में और अपनी भू-राजनीतिक रणनीति तैयार करने में यथार्थपूर्ण दृष्टि अपनाती है। इसीलिए भारत के संबंध में उसकी रणनीति निश्चित रूप से उन्हीं वास्तविक और विश्वसनीय खतरों से बनी है, जो पाकिस्तान को भारत की ओर से लगते हैं।
भारत के प्रति पाकिस्तान का व्यवहार मुख्य रूप से दो बातों से तय होता है। पहली और सबसे महत्वपूर्ण बात, दोनों देश हर मामले में एक दूसरे से कितने अलग हैं। यह अंतर और चिरस्थायी अविश्वास मिलकर अस्तित्व के लिए ऐसे खतरे की भावना पैदा करते हैं, जिससे पाकिस्तान पारंपरिक धरातल पर नहीं निपट सकता। दूसरी बात, पश्चिम के साथ अपने सैन्य गठबंधन के कारण पाकिस्तान अधिकतर समय तक अपनी क्षमता से बढ़कर काम करने में सक्षम रहा है। इसीलिए पश्चिम के लगातार संरक्षण ने शक्ति का ऐसा भ्रम पैदा कर दिया है, जो पाकिस्तान को ये अंतर स्वीकार करने से रोकता है। शीत युद्ध के दौरान पाकिस्तानी सेना की भू-राजनीतिक प्रतिबद्धताओं के कारण आरंभ हुए इस मेल-मिलाप ने पाकिस्ताना को सामाजिक कल्याण के उद्देश्य वाला आधुनिक देश बनाने के बजाय ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ पर जोर देने वाला देश बनाने में अहम भूमिका निभाई है, जिसके केंद्र में सेना है।
ऐसी पृष्ठभूमि में कुछ वर्गों की राय है कि भारतीय वार्ताकार सीधे पाकिस्तानी सेना से बात करें और सियाचिन, सर क्रीक, आतंकी घुसपैठ और अफगानिस्तान में स्थिति समेत सभी विवादित मसलों पर चर्चा करें। उनका कहना है कि सभी बड़ी शक्तियां सीधे पाकिस्तानी सेना से बात करती हैं; उन देशों के प्रमुख तो सेना प्रमुख से अलग से मुलाकात करते ही हैं, वहां के विदेश और रक्षा सचिव भी सेना प्रमुख से मिलने के लिए सेना मुख्यालय पहुंचते हैं। उनका तर्क है कि सीधा संपर्क होने से एक दूसरे की रणनीतिक मंशा समझने का मौका मिलेगा और यह अविश्वास तथा गलत अनुमान की आशंका कम करने में भी सहायक हो सकता है। शत्रु की सेना से बात करने का तर्क कितना भी सद्भावना भरा हो, उसके और भी हानिकारक परिणाम हो सकते हैं तथा वह भारत के लोकतांत्रिक विधान की वैचारिक संरचनाका उल्लंघन भी करता है। इसीलिए अमेरिका वाली व्यवस्था, जहां पाकिस्तान के साथ बातचीत में पेंटागन सक्रिय भूमिका निभाता है, भारत में नहीं दोहराई जा सकती।
इस्लाम को हटा दें और यथार्थवादी ढांचे के भीतर रखकर देखें तो कश्मीर विवाद वास्तव में संसाधनों का विवाद भी नजर आता है। पाकिस्तान मुख्यतया कृषि प्रधान समाज है, जो सिंधु जल प्रणाली से आने वाले पानी पर निर्भर है और जिसके अधिकतर जल का उद्गम जम्मू-कश्मीर है या जल उसी राज्य से होकर गुजरता है। इसीलिए पाकिस्तान के नजरिये से भारत लाभप्रद स्थिति में है, जिससे भारत के पास पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था का गला घोटने का मौका आ जाता है और यह स्थिति निश्चित रूप से राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा है। इसीलिए अपने जन्म से ही पाकिस्तान कश्मीर को प्राप्त करने के अपने रणनीतिक लक्ष्य की पूर्ति के लिए सरकार से इतर राजनीतिक प्रभाव वाले पक्षों का इस्तेमाल किया है क्योंकि उसे पता है कि भारत से सीधे लड़ाई करने से इस लक्ष्य की पूर्ति नहीं हो सकती। अब परमाणु हथियारों के आने के बाद उसे लगता है कि भारत के साथ युद्ध की स्थिति में चतुराई के साथ परमाणु हथियार तैनात कर वह भारत की ओर से पारंपरिक हमले का खतरा समाप्त कर लेगा। इसीलिए ताकत के मामले में भारत से काफी पिछड़ने के कारण पाकिस्तानी सेना को जो खतरा दिखता है और भारत से बराबरी करने की जो कोशिश वह हरदम करती रहती है, वही भारत और पाकिस्तान के रिश्तों में कड़वाहट और तकलीफ की जड़ है।
(लेखक स्वतंत्र विश्लेषक हैं, जो स्विट्जरलैंड में रहते हैं)
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