राष्ट्रीय औषधि नीति इतना विवादित विषय है कि पिछले चार दशक में एक के बाद सरकारें इससे जूझती रही हैं, लेकिन सही नीति तैयार नहीं कर पाई हैं। उपभोक्ताओं और औषधि उद्योग के न्यायसंगत हितों के बीच सही संतुलन बिठाने के लिए कई प्रयास किए गए किंतु दोनों ही पक्ष उनसे असंतुष्ट रहे। उपभोक्ताओं को लगता था कि ताकतवर औषधि निर्माण खेमे के सामने अक्सर सरकारें घुटने टेकती रही हैं और उद्योग की शिकायत थी कि हर ओर से बंदिशें लगाने के बाद उनसे काम करने की अपेक्षा की जाती है। नतीजा यह निकला है कि सरकार द्वारा लगाई गई बेजा बंदिशों से औषधि विनिर्माण क्षेत्र का नुकसान हुआ है और उपभोक्ता को ऐसी विषम नीति की कीमत चुकानी पड़ी है, जिस नीति ने आवश्यक और जीवनरक्षा दवाओं को आम आदमी की पहुंच से बाहर कर दिया है।
विषमताएं दूर करने के लिए अब नरेंद्र मोदी सरकार ने निर्णायक कदम उठाने की ठान ली है। उसने राष्ट्रीय औषधि नीति को दुरुस्त करने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। राष्ट्रीय औषधि नीति को पूरी तरह सही करने का केंद्र सरकार के निर्णय की लंबे अरसे से प्रतीक्षा थी और उसका स्वागत किया जाना चाहिए। मौजूदा परिवर्तन का उद्देश्य सर्वांगीण सुधार है और इसमें केवल कानून लागू करने के बजाय स्वास्थ्य संबंधी परिणामों को प्राथमिकता दी गई है। प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) के साथ मिलकर नीति आयोग द्वारा सुझाए गए उपायों में तीन बिंदुओं वाली नीति का निर्णय लिया गया है।
पहला बिंदु, इसका उद्देश्य मूल्य नियंत्रण व्यवस्था के तहत आने वाली दवाओं की संख्या कम करना है। मूल्य नियंत्रण औषधि उद्योग के लिए ही नहीं बल्कि मूल्य तय करने वाले राष्ट्रीय औषधि मूल्यनिर्धारण प्राधिकरण (एनपीपीए) के लिए भी तनातनी का क्षेत्र रहा है। सरकार को पता है कि किफायती दवाएं प्राप्त करना नागरिकों के लिए सपना बन गया है। मौजूदा व्यवस्था की तरह दवाओं की कीमतों पर नियंत्रण करना आवश्यक था क्योंकि किसी भी दवा को जैसे ही आवश्यक सूची में शामिल किया जाता है तो वह मूल्य नियंत्रण के दायरे में आ जाती है। आवश्यक औषधियों के लिए अधिकतम कीमत तय करने से जरूरतमंद लोगों विशेषकर गरीबों को दूसरे विकल्प तलाशने के लिए मजबूर होना पड़ता था, जिसे ‘समझौता’ ही कहा जा सकता है।
ऐसा भी देखा गया है कि उपभोक्ताओं को जरूरत पड़ने पर महंगी दवाएं खरीदनी पड़ती हैं। दूसरी ओर कीमतों पर बेजा प्रतिबंध औषधि कंपनियों के विकास में बाधा बन गई क्योंकि उससे निवेश में तो बाधा आई ही, नए आविष्कार और प्रतिस्पर्द्धात्मकता में भी कमी आई। इसीलिए सरकार ने एनपीपीाए के कार्यों की समीक्षा का निर्णय लिया है। मूल्यनिर्धारण संस्था के लिए अब दवाओं की कीमतें तय करना अनिवार्य नहीं होगा। जरूरत पड़ने पर सरकार ही यह काम करेगी। इससे सुनिश्चित होगा कि दवाएं किफायती हों और औषधि क्षेत्र में भी मजबूती आए।
दूसरा बिंदु, अच्छी विनिर्माण प्रणालियां स्थापित करने के उद्देश्य से सरकार निश्चित अवधि के बाद औषधि विनिर्माताओं के लाइसेंस का नवीकरण किए जाने की व्यवस्था समाप्त करने की योजना बना रही है। इसकी वजह यह है कि लाइसेंस शुल्क (औषधि लाइसेंस शुल्क समेत), नवीकरण शुल्क, स्थान परिवर्तन शुल्क एवं अन्य शुल्कों को पांच से दस गुना बढ़ाने का सरकार का इसी वर्ष का फैसला केमिस्ट संघों को अच्छा नहीं लगा था। केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संघ (सीडीएससीओ) दवाओं का विनिर्माण, बिक्री और वितरण लगातार करते रहने के लिए लाइसेंस देने हेतु 1945 के औषधि एवं सौंदर्य प्रसाधन नियम के प्रावधानों की समीक्षा पर विचार कर रहा है। इसका मूल उद्देश्य विनिर्माण की प्रक्रिया को सरल बनाना है ताकि कारोबार करना सुगम हो जाए और दवाओं की गुणवत्ता में भी सुधार हो जाए। अंत में सरकार औषधि एवं चिकित्सा उपकरण अनुसंधान के लिए मंजूरी प्रदान करने की प्रक्रिया की समीक्षा भी करना चाहती है।
तीसरा बिंदु, सरकार देश में चिकित्सा अनुसंधान का सरलीकरण चाहती है। मुट्ठी भर चिकित्सा संस्थानों, जिन्हें बहुत कम वित्तीय सहायता मिलती है, के बल पर और आधारभूत एवं नियामक सुविधाओं के बगैर देश में बहुत कम चिकित्सा अनुसंधान हुआ है। ‘करंट मेडिसिन रिसर्च एंड प्रैक्टिस’ में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार वर्ष भर में 100 से अधिक शोधपत्र केवल 25 संस्थानों (4.3 प्रतिशत) से आते हैं और यह देश में होने वाले कुल अनुसंधान का 40.3 प्रतिशत है। अध्ययन में पता चला कि इतने कम अनुसंधान के बुनियादी कारणों में से एक है उद्योग और अनुसंधान संगठनों पर बीमारियों के इलाज का भारी बोझ, जिसके कारण उनके पास शैक्षिक गतिविधियों के लिए समय ही नहीं रह जाता।
अध्ययन में यह भी कहा गया कि मार्गदर्शन की कमी और कोई आदर्श वरिष्ठ नहीं मिलना (क्योंकि उन्होंने ही न के बराबर शोध प्रकाशित कराए होते हैं) प्रमुख कारण हैं और वित्त तथा बुनियादी ढांचे के रूप में संस्थागत सहायता भी अपर्याप्त होती है। भावी चुनौतियों से निपटने के लिए भारत को प्रशिक्षित एवं युवा नवाचारी प्रतिभाओं की आवश्यकता है, इसे देखते हुए इस दिशा में सरकार के कदम की सराहना की जानी चाहिए।
इस जटिल मुद्दे पर अपनी प्राथमिकता का प्रदर्शन करते हुए पीएमओ ने पिछले महीने दो बैठकें कीं। पहली बैठक में स्वास्थ्य सचिव, नीति आयोग के प्रतिनिधि तथा औद्योगिक नीति एवं संवर्द्धन विभाग (डीआईपीपी) तथा सीडीएससीओ के अधिकारी मौजूद थे और उसमें दवाओं की गुणवत्ता तथा लाइसेंस की प्रक्रिया सुधारने पर ध्यान केंद्रित किया गया था। दूसरी बैठक औषधि उद्योग तथा स्वास्थ्य मंत्रालय के प्रतिनिधियों के बीच हुई, जिसमें औषधि उद्योग को मजबूत करने की भावी रणनीतियों तथा चीन के विनिर्माताओं को मिलने वाले तुलनात्मक लाभों के बारे में विस्तार से चर्चा की गई।
देश में पहली औषधि मूल्य नियंत्रण नीति औषधि (मूल्य प्रदर्शन) आदेश, 1962 एवं औषधि (मूल्य नियंत्रण) आदेश, 1963 की घोषणा चीनी आक्रमण के परिणास्वरूप लागू की गई, जिसने दवाओं की कीमत स्थिर कर दी गई। उसके बाद हाथी समिति की रिपोर्ट (1975) आई, जिसके कारण औषधि नीति का निर्माण हुआ, जो ऐतिहासिक उपलब्धि थी क्योंकि उसने राष्ट्रीय औषधि प्राधिकरण की स्थापना की और दवाओं पर चुनिंदा मूल्य नियंत्रण आरंभ किया। बौद्धिक संपदा अधिकार के नियमों, स्वदेश में औषधि निर्माण, मूल्य निर्धारण पर सख्त नियंत्रण आदि से जुड़े मुद्दे सुलझाने के लिए दो दशक बाद औषधि मूल्य नियंत्रण आदेश (डीपीसीओ) 1995 आया। सबसे बाद में औषधि मूल्य नियंत्रण आदेश (डीपीसीओ) 2013 आया, जो डीपीसीओ 1995 के उपरांत आया है और जिसने आवश्यक जीवनरक्षक दवाओं की अधिकतम कीमत तय कर दी। केवल 74 बल्क दवाओं पर नियंत्रण करने वाले पुराने आदेश के स्थान पर मई 2014 को इसे लागू किया गया। नए आदेश में दवाओं के 680 सूत्र अथवा फॉर्म्यूलेशन आते हैं।
दुख की बात है कि स्वदेशी विनिर्माण को प्रोत्साहन देने; औषधि क्षेत्र की तकनीकी क्षमताओं में वृद्धि करने और आवश्यक दवाओं की कीमतों पर नियंत्रण करने के लिए बनाई गई नीतियां न केवल अप्रभावी रहीं बल्कि सरकारों के गले का फंदा भी बन गईं। डीपीसीओ 2013 के दूसरे दुष्परिणाम भी हुए हैं। मूल्य नियंत्रण के उपायों ने कई ब्रांडों को बाजार से हटने पर मजबूर कर दिया और नई दवाओं के आने की गति धीमी हो गई। 2011 में किसी खास श्रेणी में औसतन चार नई दवाएं आती थीं, लेकिन 2014-15 में आंकड़ा घटकर केवल एक रह गया। नियंत्रित मूल्यों के कारण कम फायदा देखते हुए कई विनिर्माताओं ने ग्रामीण क्षेत्र में जाने का इरादा टाल दिया। इससे खपत पर भी प्रभाव पड़ा।
स्वास्थ्य सेवा बाजार की अग्रणी अनुसंधान कंपनी आईएमएस हेल्थ के अनुसार ग्रामीण भारत में मूल्य नियंत्रण वाली दवाओं की खपत 2014-15 में 7 प्रतिशत कम हो गई, जबकि मूल्य नियंत्रण से मुक्त दवाओं की बिक्री में 5 प्रतिशत वृद्धि हुई। उद्योग को लगता है कि यह हस्तक्षेप का सीधा परिणाम है, जिसे इंडियन फार्मास्युटिकल अलायंस के तत्कालीन महासचिव डीजी शाह ने “कृत्रिम” करार दिया। इसके अलावा छोटे विनिर्माताओं पर मूल्य नियंत्रण की तगड़ी मार पड़ी है, जिन्होंने कारोबार या तो कम कर लिया या छोड़ ही दिया, इसीलिए बड़े ब्रांडों को बाजार में और भी बड़ा हिस्सा मिल गया है तथा कुछ श्रेणियों में उनका एकाधिकार हो गया है। पिछले दशकों में लचर कार्यप्रणाली, गलत रवैये के कारण उच्चतम न्यायालय को दखल करना पड़ा। जुलाई 2015 में अदालत ने राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण नीति एवं 2013 के औषधि मूल्य नियंत्रण आदेश को “बेतुका एवं अनुचित” करार दिया।
एक गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) ऑल इंडिया ड्रग एक्शन नेटवर्क द्वारा डीपीसीओ 2013 को चुनौती देने वाली याचिका दाखिल किए जाने के बाद न्यायमूर्ति टीएस ठाकुर की अध्यक्षता वाले तीन सदस्यीय पीठ, जिसमें न्यायमूर्ति वी गोपाल गौड़ा और आर भानुमती शामिल थे, ने सरकार से इस बात की पड़ताल करने और यह बताने के लिए कहा कि आवश्यक दवाओं का नियंत्रित मूल्य इतना अधिक क्यों रखा गया है कि गरीब लिए उचित दामों पर जीवनरक्षक दवाएं हासिल करने से वंचित हो गए हैं। एनजीओ ने कहा कि मूल्य निंत्रण के लिए बाजार पर आधारित मूल्य निर्धारण का प्रयोग नहीं किया गया और 2013 की नीति के अंतर्गत कई मामलों में औसत उच्चतम मूल्य बाजार में सबसे अधिक मूल्य वाली दवा की कीमत से भी अधिक पाए गए। उसने यह भी कहा कि नई नीति के अंतर्गत औषधि विनिर्माता और व्यापारी 10 प्रतिशत से 1,300 प्रतिशत तक लाभ कमा रहे हैं। उसने कहा कि आवश्यक औषधियों की राष्ट्रीय सूची में केवल 348 दवाएं हैं। कई आवश्यक दवाओं को मूल्य नियंत्रण योजना में शामिल नहीं किया गया था।
उसके बाद पीठ ने केंद्रीय रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय के औषधि विभाग से कहा कि सभी संबंधित पक्षों की सुनवाई होने के छह महीने के भीतर वह एनजीओ की याचिका पर “तार्किक” आदेश जारी करे। पीठ ने कहा, “यह तरीका तार्किक और उचित नहीं दिखता। आपकी कीमत तमिलनाडु और केरल सरकारों द्वारा तय की गई कीमतों से 4,000 प्रतिशत अधिक है। यह किस तरह का नियंत्रण है?” अदालत से फटकार मिलने के बाद नवंबर, 2015 में सरकार ने डीपीसीओ 2013 की समीक्षा के लिए एक समिति का गठन किया। इस अंतरमंत्रालयी समिति में औद्योगिक नीति एवं संवर्द्धन विभाग, स्वास्थ्य मंत्रालय, राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण एवं औषधि विभाग के प्रतिनिधि शामिल थे। समिति को दवाओं की कीमतें तय करने, विशेषकर बाजार आधारित कीमतें तय करने की उस विधि की पड़ताल करनी थी, जिसका इस्तेमाल डीपीसीओ 2013 के अंतर्गत हो रहा था। दिसंबर 2015 में पेश की गई अपनी रिपोर्ट में समिति ने ‘ट्रेड जेनेरिक्स’ कहलाने वाली ही नहीं बल्कि सभी दवाओं के कारोबारी मार्जिन की सीमा तय करने की सिफारिश की। समिति ने महंगी दवाओं के लिए अधिकतम खुदरा मूल्य का 35 प्रतिशत कारोबारी मार्जिन निर्धारित करने की सिफारिश की। रिपोर्ट में सरकारी हस्तक्षेप तथा नियमन के माध्यम से उपभोक्ताओं के संरक्षण की सिफारिश की गई।
समुचित औषधि नीति बनाने में भारत की लड़खड़ाहट दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि वह राष्ट्रीय औषधि नीति बनाने की कोशिश करने वाले तीसरी दुनिया के शुरुआती देशों में था। विश्व स्वास्थ्य संगठन के कार्यक्रम ‘आवश्यक औषधि एवं स्वास्थ्य उत्पाद सूचना पोर्टल’ के अनुसार 1970 के दशक में अपनी पहली औषधि नीति के साथ भारत ने अच्छी शुरुआत की थी और उसनीतिने स्वदेशी औषधि उद्योग का तीव्र विकास किया था। किंतु उस नीति को 1980 के दशक में हल्का बना दिया गया, जब औषधि कंपनियों के खेमे ने ऐसी नीतियों की मांग की, जो उपभोक्ताओं के अनुकूल हों या न हों, उद्योग के अनुकूल अवश्य हों। 1990 के दशक तक नई आर्थिक नीति के दबावों के कारण यह प्रयास खत्म कर दिया गया। अंत में सार्वजनिक क्षेत्र का विवेकहीन विनियमन, उदारीकरण, निजीकरण किया गया, स्वास्थ्य सेवा में निजी निवेश कम कर दिया गया और आत्मावलंबन प्राप्त करने तथा मुट्ठी भर विदेशी दवा निर्माताओं से स्वदेशी विनिर्माताओं को बचाने के प्रयास भी थम गए।
निर्णय लेने वाली ढेर सारी संस्थाओं ने स्थिति और बिगाड़ दी। इस समय स्वास्थ्य मंत्रालय आवश्यक दवाओं की राष्ट्रीय सूची तैयार करता है; रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय के अंतर्गत औषधि विभाग आता है, जिसके अधीन राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण है; वाणिज्य मंत्रालय के अधीन भारतीय नीति एवं संवर्द्धन विभाग आता है, जो बौद्धिक संपदा अधिकारों की रक्षा के लिए उत्तरदायी है। और संस्थाओं का यह मकड़जाल शायद काफी नहीं था, इसीलिए दवाओं की मार्केटिंग की मंजूरी राज्य सरकारें देती हैं। इतने सारे पक्ष होने के कारण ठोस एवं अकाट्य औषधि नीति का निर्माण एवं क्रियान्वयन हमेशा ही बड़ी चुनौती बना रहेगा। इन पक्षों या हितधारकों को हटाया तो नहीं जा सकता, लेकिन अधिक सरल तथा सुगम प्रणाली लागू करनी होगी। पीएमओ के समर्थन के साथ नीति आयोग को यहीं पर बड़ी भूमिका निभानी है। दोनों का विभिन्न मंत्रालयों पर दबाव डालने तथा जनता के हित वाले उपाय लागू करने की क्षमता है।
इसी बीच प्रस्तावित नियमों का स्वागत है और सरकार ने क्षेत्र में 100 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का सुझाव भी दिया है, लेकिन उसे यह सुनिश्चित करना होगा कि निजी कंपनियां भी देश के भीतर निवेश करें। अभी औषधि उद्योग का आकार 20 अरब डॉलर है, जिसमें 5 प्रतिशत वार्षिक वृद्धि की संभावना है। माना जा रहा है कि 2020 तक उद्योग 15 प्रतिशत सालाना से तेज गति से बढ़ेगा। खामियों के बावजूद औषधि विनिर्माण क्षेत्र के पास कई सकारात्मक पहलू हैं - विनिर्माण की कम लागत, सस्ता अनुसंधान एवं विकास, प्रयोगशालाएं एवं बढ़ता हुआ व्यापार संतुलन - और उसे इनका पूरा फायदा उठाना चाहिए।
आवश्यक दवाओं के लिए कच्ची सामग्री के आयात हेतु चीन पर भारत की निर्भरता पुरानी समस्या है। ऐसा तब है, जब दुनिया भर को जेनेरिक और किफायती औषधियों की आपूर्ति करने में भारत का प्रमुख स्थान है। सीडीएससीओ के अनुसार देश में लगभग 84 प्रतिशत सक्रिय औषधि घटक आयातित होते हैं और उनमें से 60 प्रतिशत चीन से आता है। सरकार इस स्थिति से निपटने के लिए वर्तमान वित्त वर्ष के अंत तक बल्क औषधि विनिर्माण नीति लाने की योजना बना रही है। इसके लिए बुनियादी ढांचे, नवाचार और अनुसंधान सुविधाओं पर भारी खर्च करना होगा। इसके लिए विभिन्न स्वास्थ्य प्रणालियों पर नजर रखने और जनता की आवश्यकताओं को समझने की आवश्यकता है।
यह उत्साहजनक बात है कि सरकार ने सबसे पहले ई-फार्मा कंपनियों से दवाओं की बिक्री के मामले में मानक चिकित्सा शर्तों का पालन करने के लिए कहा है। इंटरनेट फार्मेसी एसोसिएशन द्वारा जारी “आत्म नियंत्रण आचार संहिता’ ने ई-फार्मा कंपनियों से किसी पंजीकृत चिकित्सक के नुस्खे की उचित प्रति (कागजी अथवा स्कैन की हुई) होने पर ही दवाएं बेचने के लिए और सुनिश्चित करने के लिए कहा है कि अनसूची एक्स वाली कोई भी दवा और आदत बन जाने वाली अन्य संवेदनशील दवाएं ऑनलाइन नहीं बेची जाएं।” दवाओं की बिक्री पर नजर रखना, ऑनलाइन औषधि कंपनियों की प्रामाणिकता जांचना तो आवश्यक है ही, यह सुनिश्चित करना भी आवश्यक है कि रोगी जाली नुस्खे की मदद से दवाएं न खरीद लें। नुस्खे के बगैर दवाएं बेचने वाली औषधि कंपनियों के लिए भी ऐसे ही प्रयास किए जाने चाहिए।
सशक्त औषधि नीति में सभी के हितों का उचित ध्यान रखा जाना चाहिए। इस मुद्दे को उपभोक्ता बनाम उद्योग की तरह नहीं बल्कि उपभोक्ताओं और उद्योग को साथ रखकर देखा जाना चाहिए। उद्योग को ऐसी नीति की आवश्यकता है, जो उसके विकास में, नए आविष्कारों में और कम कीमत पर अच्छी दवा उपलब्ध कराने में मदद कर सके। उपभोक्ता को पारदर्शी व्यवस्था चाहिए, जहां आवश्यक औषधियां जनता को कम कीमत पर मिल सकें और औषधि विनिर्माता कंपनियों को सरकार से अपनी बात मनवाने का मौका नहीं मिल पाए। माना जा रहा है कि नीति को दुरुस्त करने से सभी की जरूरतें पूरी हो जाएंगी। अन्यथा सरकार को एक बार फिर उच्चतम न्यायालय से फटकार सुननी पड़ सकती है और शर्मिंदा होना पड़ सकता है। सरकार द्वारा आरंभ किए गए नीति परिवर्तन का उद्देश्य गुणवत्ता की जांच, कम कीमत, दवाओं तक आसानी से उपलब्धता और औषधि विनिर्माण उद्योग के पनपने और फलने-फूलने लायक वातावरण प्रदान करना होना चाहिए।
(लेखिका द पायनियर में सहायक संपादक हैं और सामाजिक मुद्दों में उनकी विशेष रुचि है)
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