पाकिस्तान के अगले सेना प्रमुख कमर जावेद बाजवा की नियुक्ति की घोषणा से पहले जो अटकलें लगाई जा रही थीं और जो उत्साह था, उसे देखते हुए बीते जमाने के बैंड ‘द हू’ के गीत ‘वॉण्ट फूल्ड अगेन’ की पंक्तियां याद आती हैं, जिसका शीर्षक (भारत-पाकिस्तान संबंधों को और पाकिस्तानी सेना को देखते हुए) बिल्कुल उपयुक्त लगता हैः मीट द न्यू बॉस, सेम एज द ओल्ड बॉस। शीर्षक में प्रश्नचिह्न केवल इस बात पर है कि पाकिस्तान के नए बॉस के पद संभालने से पहले ही अधिक निराशावादी या संशयवादी न बना जाए और बातचीत के लिए कुछ गुंजाइश छोड़ी जाए।
जनरल बाजवा को जनरल राहील शरीफ का उत्तराधिकारी चुनते समय प्रधानमंत्री नवाज शरीफ अच्छे की ही उम्मीद कर रहे होंगे। इस चुनाव की पहली वजह तो नए सेना प्रमुख की कथित राजनीतिक विश्वसनीयता ही है। प्रधानमंत्री के रूप में नवाज शरीफ को जो सात सेना प्रमुख मिले, उनके साथ उनका अनुभव बहुत अच्छा नहीं रहा है। प्रधानमंत्री के तौर पर नवाज शरीफ के पहले कार्यकाल में असलम बेग ने पहले खाड़ी युद्ध के दौरान असैन्य सरकार की खुलेआम अवहेलना की और उनकी स्थिति बहुत खराब हो गई, जब उनका कार्यकाल खत्म होने से छह महीने पहले ही उनके उत्तराधिकारी का ऐलान कर दिया गया। उनके उत्तराधिकारी आसिफ नवाज जंजुआ के कराची में चले अभियान के मामले में नवाज शरीफ के साथ बेहद तनावपूर्ण संबंध रहे। जब नवाज शरीफ ने बीएमडब्ल्यू कार की शक्ल में जंजुआ को घूस देने की कोशिश की तो संबंध और बिगड़ गए। जंजुआ की मौत पद पर रहते हुए ही हो गई और अगले सेना प्रमुख अब्दुल वाहिद कक्कड़ ने टकराव खत्म करने के लिए नवाज शरीफ और तत्कालीन राष्ट्रपति दोनों को पद से इस्तीफा देने के लिए मजबूर कर दिया। प्रधानमंत्री के रूप में दूसरे कार्यकाल में जब सेना प्रमुख जहांगीर करामात ने राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के गठन की अपील की तो नवाज शरीफ ने उनसे ही त्यागपत्र ले लिया। अगले सेना प्रमुख परवेज मुशर्रफ ने नवाज शरीफ का सत्तापलट कर दिया और उन्हें जेल में डाल दिया तथा बाद में निर्वासित कर सऊदी अरब भेज दिया। प्रधानमंत्री के तौर पर वर्तमान कार्यकाल में नवाज शरीफ के अशरफ कयानी के साथ ठीकठाक संबंध रहे, जो सेना प्रमुख के तौर पर दूसरा कार्यकाल स्वीकार कर साख काफी गंवा चुके थे। राहील शरीफ के साथ एक बार फिर स्थिति तनावपूर्ण ही रही और बीच-बीच में ऐसा भी लगा कि सेना और सरकार के रिश्ते टूटने के कगार पर हैं। हालांकि सत्तापलट की नौबत नहीं आई किंतु असैन्य सरकार सेना के इशारों, हुक्म या इच्छा पर ही चली। अब सवाल यह है कि आठवीं बार नवाज शरीफ भाग्यशाली साबित होंगे या नहीं?
हालांकि जनरल बाजवा वरिष्ठता सूची में चौथे स्थान पर थे, लेकिन उनके चयन से वरिष्ठता या योग्यता सूची का उल्लंघन नहीं होता। सूची में ऊपर के तीनों अधिकारी जनरल बाजवा के बैच के ही हैं, इसलिए वरिष्ठता के सिद्धांत का अधिक उल्लंघन नहीं हुआ है बल्कि यह देखते हुए उल्लंघन कम ही माना जाएगा कि रक्षा मंत्रालय से प्रधानमंत्री के पास पांच नाम भेजे गए थे और प्रधानमंत्री अपनी मर्जी से किसी को भी चुन सकते थे। वरिष्ठतम जनरल को और वरिष्ठता देते हुए चेयरमैन जॉइंट चीफ्स ऑफ स्टाफ बना दिया गया है, जो यू ंतो नाम मात्र का पद है, लेकिन तकनीकी रूप से सेना प्रमुख से ऊपर है। अगले दोनों जनरलों को नजरअंदाज कर दिया गया है और सूची में चौथे नाम पर मुहर लगा दी गई है। नियुक्तियों के संदर्भ में जनरल बाजवा के सेना का नेतृत्व करने के लिए आवश्यक सभी योग्यताएं हैं, लेकिन नजरअंदाज किए गए एक अधिकारी इशफाक नदीम अहमद ने नए सेना प्रमुख की तुलना में अधिक बड़े और महत्वपूर्ण पद संभाले हैं, जैसे डीजीएमओ, चीफ ऑफ जनरल स्टाफ (सीजीएस), स्ट्राइक कोर के कमांडर आदि। वास्तव में माना जाता है कि ऑपरेशन जर्ब-ए-अज्ब की रणनीति सीजीएस जनरल इशफाक ने ही तैयार की थी, जिसे जनरल राहील शरीफ ने अपनी एकमात्र उपलब्धि माना है। सूची में तीसरे नंबर पर मौजूद जनरल रामदे सुर्खियों से दूर रहे, लेकिन नवाज शरीफ के साथ उनके परिवार के करीबी रिश्ते होने की बातें उन्हें प्रधानमंत्री का प्यादा जैसा बना देतीं और सेना में उनकी स्वीकार्यता और उनका रुतबा दोनों कम हो जाते।
जिस समय जनरल बाजवा को सेना प्रमुख बनाने की घोषणा हुई, उस समय वह प्रशिक्षण एवं मूल्यांकन महानिरीक्षक का पद संभाल रहे थे, जिसे हाशिये पर सरकाया हुआ माना जाता है, लेकिन पिछले दो मौकों से सेना प्रमुख बनने के लिए यह सबसे अहम पद माना जाने लगा है क्योंकि जनरल कयानी की जगह 15वें सेना प्रमुख बनने से पहले जनरल राहील शरीफ भी इसी पद पर थे। इससे पहले बाजवा एफसीएनए प्रमुख और 10 कोर (रावलपिंडी) के कोर कमांडर भी रह चुके थे। माना जा रहा है कि उनके चयन में इन दोनों ओहदों की प्रमुख भूमिका रही।
दूसरे उम्मीदवारों को नजरअंदाज कर जनरल बाजवा को चुने जाने की वजहें बहुत जटिल नहीं हैं। सबसे महत्वपूर्ण कारण यह है कि उन्हें ऐसा शख्स समझा जाता है, जो राजनीतिक मामलों में सेना के दखल में यकीन नहीं रखता और असैन्य सरकार को खोखला या अस्थिर बनाना नहीं चाहता। यह धारणा सही है या गलत, यह तो वक्त ही बताएगा। बहरहाल यह बात अक्सर भुला दी जाती है कि 2014 के उस नाजुक समय में वह रावलपिंडी कोर कमांडर थे, जब इस्लामाबाद में इमरान खान के धरने के कारण सैन्य हस्तक्षेप अपरिहार्य माना जा रहा था। माना जाता है कि उस समय जनरल बाजवा ने सरकार का पक्ष लिया था और सेना को रोका था और राहील शरीफ को नवाज शरीफ सरकार के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करने की सलाह भी दी थी। हालांकि यह सच है कि कुछ वरिष्ठ अधिकारियों के उकसावे के बावजूद राहील शरीफ शायद नवाज शरीफ के खिलाफ जल्दबाजी में कोई कदम नहीं उठाना चाहते थे, लेकिन गुपचुप यही बात चलती है कि असैन्य सरकार बनी रहे, इसे सुनिश्चित करने में जनरल बाजवा ने अहम भूमिका निभाई थी। जनरल बाजवा की इस भूमिका ने हमेशा सेना की मुट्ठी में कैद रहने वाली असैन्य सरकार के लिए उन्हें अगले सेना प्रमुख के रूप में आदर्श पसंद बना दिया होगा।
उनके चयन का दूसरा कारण शायद भारत, विशेषकर कश्मीर के मामलों में उनका अनुभव है। माना जाता है कि पाकिस्तान की सुरक्षा के लिए भारत की ओर से आने वाले जिस खतरे को पाकिस्तानी सुरक्षा प्रतिष्ठान हौआ बनाकर पेश करता रहा है, उसके मुकाबले वह आंतरिक खतरों को अधिक गंभीर मानते हैं। इसका यह मतलब नहीं है कि भारत के प्रति उनका रुख नरम है या उन्हें भारत से लगाव है, लेकिन वह भारत के प्रति विद्वेष रखने वाले पिछले सेना प्रमुख की तुलना में अधिक तार्किक और समझदार हैं। अगर वास्तव में ऐसा है तो पिछले कुछ महीनों में नियंत्रण रेखा पर बढ़ा तनाव कम हो सकता है। आने वाले महीनों में नियंत्रण रेखा पर क्या होता है, निश्चित रूप से यह इस बात पर अधिक निर्भर करेगा कि नए सेना प्रमुख जिहादियों को सीमा पार कर कश्मीर में हमले करने से रोक पाते हैं या नहीं। अगर पाकिस्तान आतंकवादियों को कश्मीर भेजना बंद कर देता है तो नियंत्रण रेखा पर तनाव कम हो जाएगा, लेकिन अगर पाकिस्तान आतंकियों को भेजता रहता है तो नियंत्रण रेखा पर तनाव बहुत अधिक बढ़ेगा।
जनरल बाजवा के चयन का तीसरा कारण यह है कि उन्हें नरम और शांत माना जाता है, जो अपने काम में पूरी तरह सक्षम हैं, लेकिन जिनके भीतर घमंड, अकड़ नहीं है और वह आम नागरिकों को उस तरह हेय दृष्टि से भी नहीं देखते, जैसे कई सैन्यकर्मी देखते हैं। माना जाता है कि सामाजिक रूप से वह उदार हैं और सभी बातों को इस्लाम की नजर से नहीं देखते। जब पाकिस्तान कम से कम यह दिखा तो रहा ही है कि वह समाज में कट्टरपंथ का मुकाबला कर रहा है, उस समय जनरल बाजवा जैसा व्यक्ति इस्लाम की ओर रुझान वाले व्यक्ति से तो बेहतर ही रहेगा।
चूंकि जनरल बाजवा किसी आम सेना के नहीं बल्कि पाकिस्तान की सेना के प्रमुख होंगे, इसीलिए इस बात की कोई गारंटी नहीं है क वह उसी तरह के शांत व्यक्ति निकलेंगे, जैसी अपेक्षा असैन्य नेतृत्व कर रहा है। सीधी बात यह है कि सेना प्रमुख को आप चुनते हैं, केवल इसीलिए सेना प्रमुख आपकी बात नहीं मानने लगेगा और समय तथा परिस्थितियां आपके द्वारा नियुक्त किए गए व्यक्ति को आपके लिए ही मुसीबत बना देंगी। पाकिस्तान की राजनीति में यह अमिट कानून है और बहुत बहादुर या बहुत मूर्ख व्यक्ति ही इस बात पर अड़ सकता है कि जरनल बाजवा अपने पूरे कार्यकाल में हर मसले पर असैन्य सरकार की बात चुपचाप मानते रहेंगे। इस बात की पूरी संभावना है कि बाजवाा भारत के साथ तनाव कम करना चाहेंगे ताकि वह आंतरिक खतरों और (राहील शरीफ की करनी के कारण) बुरी तरह से अस्थिर अफगानिस्तान से आने वाले खतरों पर ध्यान केंद्रित कर सकें, लेकिन हो सकता है कि देश के भीतर, विशेषकर पंजाब में आतंकियों के अड्डे खत्म करने की कोशिश में वह असैन्य सरकार ही हावी हो जाएं। नवाज शरीफ सरकार और जनरल राहील शरीफ के बीच भी यह टकराव का बिंदु था और अगर बाजवा खास तौर पर पंजाब में आतंकी नेटवर्क के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करना चाहेंगे तो इस मुद्दे पर उनसे भी टकराव हो सकता है। भारत के साथ तनाव में कमी भी इस बात पर निर्भर करती है कि पाकिस्तानी सेना देश के भीतर से काम कर रहे आतंकवादियों के खिलाफ किस तरह कार्रवाई करती है और ‘खराब’ जिहादियों (जो पाकिस्तान पर हमला करते हैं) तथा ‘अच्छे’ जिहादियों (जो भारत और अफगानिस्तान पर हमला करते हैं) के बीच फर्क करना बंद करती है या नहीं। यदि यह फर्क जारी रहेगा तो भारत के साथ सीमा पर तनाव रहना तय है।
जनरल बाजवा पाकिस्तानी के सेना के सामरिक रुख को कितना बदल सकते हैं, यह बात तुरंत तो नहीं, लेकिन करीब छह महीनों में स्पष्ट हो पाएगी। पहले छह महीनों में उन्हें यह दिक्कत आ सकती है कि उनके अधिकतर कोर कमांडर और प्रमुख सेना अधिकारी उनके साथ के ही होंगे और बड़ा बदलाव करने में बाजवा अधिक सक्षम नहीं होंगे। लेकिन करीब छह महीने के बाद वह विभिन्न महत्वपूर्ण पदों पर अपने लोगों को नियुक्त करने की स्थिति में आ जाएंगे। किंतु उसके बाद भी किसी सेना प्रमुख के लिए अपनी संस्थाओं की प्रकृति और दृष्टिकोण बदलना इतना आसान नहीं होता क्योंकि संस्था के भीतर से ही इसका प्रतिरोध होता है। इतना ही नहीं, वह संस्था के विभिन्न हितों को भी नजरअंदाज नहीं कर सकते, जो हित अक्सर असैन्य प्रभुत्व के सिद्धांत के विरुद्ध होते हैं। न ही वह इस्लाम, भारत तथा अन्य मसलों पर सेना के भीतर मजबूती और गहराई से पैठ बनाए हुए विचारों की अवहेलना भी नहीं कर सकते हैं। पाकिस्तानी सेना के प्रमुख जैसा ताकतवर सेना प्रमुख भी अधिक से अधिक यही कर सकता है कि धीरे-धीरे काम किया जाए, कुछ दकियानूसी नजरिया खत्म किया जाए और स्थिति को अलग दिशा में ले जाने की कोशिश की जाए।
नए सेना प्रमुख से पाकिस्तानी सेना जैसी दकियानूसी सेना में विशेषकर भारत के मुद्दे पर क्रांतिकारी परिवर्तन लाने की अपेक्षा करना मूर्खता कहलाएगी। याद रहे कि कयानी और राहील शरीफ दोनों ने आंतरिक खतरे को पाकिस्तान के लिए सबसे महत्वपूर्ण खतरा बताया था फिर भी उन्होंने भारत के साथ तनाव बढ़ाने वाले काम ही किए। जहां तक भारत का सवाल है, नियंत्रण रेखा पर तनाव कुछ कम हो सकता है, लेकिन पाकिस्तानी सेना प्रमुख के ओहदे पर नए व्यक्ति के आने से भारत और पाकिस्तान के बीच गाढ़ी दोस्ती हो जाएगी, यह सोचना वैसा ही है, जैसा असंभव का संभव होना।
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