भारतीय सेना ने सितंबर के अंत में नियंत्रण रेखा (एलओसी) के दूसरी ओर जो लक्षित हमले (सर्जिकल स्ट्राइक) किए, वे राष्ट्रीय मानस पर इस तरह छा गए कि भारत के खिलाफ लगातार आतंकी कार्रवाई करते रहने और देश को निशाना बनाने वाले आतंकी संगठनों की मदद करने वाले पाकिस्तान को विशेषकर जम्मू-कश्मीर के उड़ी में सेना के शिविर पर हमले के बाद उत्तर देने के अन्य विकल्पों पर चर्चा ही बंद हो गई है। पिछली सरकारों के कार्यकाल में भारत के प्रभावहीन रवैये को देखते हुए ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ को पौरुष भरा जवाब माना गया। उसके बाद से लोहा गर्म है और भारतीय अधिकारी संकेत दे रहे हैं कि सितंबर में दिया गया जवाब इतने बड़े पैमाने और योजना वाला पहला जवाब था, लेकिन संभवतः यह आखिरी जवाब नहीं हो।
संभवतः राष्ट्र यही सुनना और देखना चाहता है। हमारी जमीन पर आतंकी घुसपैठ में मदद करने के लिए नहीं बल्कि सीमावर्ती क्षेत्र में रहने वाली जनता के बीच डर का माहौल बनाने के लिए भी पाकिस्तान सीमा पार से बिना उकसावे के गोलीबारी कर रहा है और भारतीय नागरिकों तथा जवानों को मारकर भारत को उकसा रहा है, जो उसके लिए बिल्कुल भी अच्छा नहीं है। भारतीय सेना ने भी तुरंत जवाब दिया है। खबरें हैं कि पिछले करीब दस दिन में पाकिस्तान रेंजर्स के 15 से अधिक जवान भारतीय सुरक्षा बलों के हाथ मारे गए हैं। इसके अलावा मीडिया रिपोर्ट हैं कि पाकिस्तान की 14 सीमावर्ती चौकियां तबाह कर दी गई हैं। पाकिस्तान सरकार इससे उसी तरह इनकार करती है, जैसे वह पाकिस्तान में भारत विरोधी सशस्त्र आतंकियों को दी जा रही मदद से इनकार करती रही है। सीमा पार हिंसा बढ़ने के साथ ही सरकार को हमलों का जवाब देने के लिए अधिक प्रभावी सैन्य उपाय अपनाने पड़ सकते हैं। हमारे सैन्य बल कोई भी कार्रवाई करने में सक्षम हैं, लेकिन राजनीतिक नेतृत्व को पाकिस्तान पर अंकुश लगाने के लिए कुछ असैन्य विकल्पों पर गंभीरता से विचार करना पड़ सकता है।
भारतीय सुरक्षा बलों ने पाकिस्तान द्वारा सीमा पार से हाल में की गई गोलीबारी, जिसमें हमारे जवान शहीद हो गए हैं, का पूरी ताकत से जवाब दिया है। खबरें हैं कि पहले जवाबी हमले में एलओसी के पार पाकिस्तान की कम से कम चार चौकियां नेस्तनाबूद हो गईं और उसके बाद हाल ही में 14 चौकियां और तबाह कर दी गई हैं। यह मानने के भी कारण हैं कि यदि पाकिस्तान सीमा पर संघर्ष विराम का उल्लंघन करने की मूर्खता करता है तो चाहे सेना हो या सीमा सुरक्षा बल, आने वाले दिनों में जवाबी हमले बढ़ा देंगी। इस ओर से राजनीतिक सत्ता और सेना का संदेश स्पष्ट हैः यदि भारतीय हितों को नुकसान पहुंचाया गया तो रुका नहीं जाएगा। पाकिस्तान को वहां चोट पहुंचाना जरूरी है, जहां उसे सबसे अधिक टीस होती है - उसके सैन्यकर्मियों और सैन्य प्रतिष्ठानों को निशाना बनाना। पाकिस्तान की हरकतों में जो तेजी आई है, उसे उसके सेना प्रमुख जनरल राहील शरीफ द्वारा इसी वर्ष के अंत में पद छोड़े जाने और नागरिक नेतृत्व, विशेषकर प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के साथ जारी उनके टकराव के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। सर्जिकल स्ट्राइक के कारण हुई फजीहत के बाद जनरल शरीफ थोड़ी इज्जत वापस हासिल कर ही जाना चाहते होंगे या हो सकता है कि राष्ट्रीय सुरक्षा को गंभीर खतरे के नाम पर वह सेवा में विस्तार की कोशिश कर रहे हों।
याद कीजिए कि उड़ी के बाद और सर्जिकल स्ट्राइक से पहले दो असैन्य विकल्पों पर गंभीरता से विचार किया जा रहा था, लेकिन अब उन्हें ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है और वे दो विकल्प थे - सिंधु जल संधि की समीक्षा और भारत द्वारा पाकिस्तान को दिए गए सबसे तरजीही राष्ट्र (एमएफएन) के दर्जे पर पुनर्विचार। दिलचस्प है कि सफल सर्जिकल स्ट्राइक की घोषणा से कुछ घंटे पहले ही पांच दशक से भी अधिक पुरानी सिंधु जल संधि की समीक्षा के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में बैठक हुई थी और प्रधानमंत्री ने कहा था कि “खून और पानी एक साथ नहीं बह सकते।” विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता विकास स्वरूप ने भी तीन हफ्ते पहले एमएफएन के दर्जे पर पुनर्विचार का संकेत यह कहते हुए दिया था कि “हमारे सुरक्षा एवं व्यापार हितों के आधार पर समीक्षा की जाएगी।” यह बयान पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के उस बयान के बाद आया था, जिसमें उन्होंने मारे गए कश्मीरी हिज्बुल कमांडर बुरहान वानी की तारीफ की थी।
भारत द्वारा सिंधु जल संधि पर अपने विकल्पों को नए सिरे से देखे जाने की उम्मीदें उस समय बढ़ गई थीं, जब भारत ने स्थायी सिंधु आयोग के आयुक्तों की बैठक रद्द कर दी थी और अनाम अधिकारियों ने कहा था कि बैठक तभी होगी, जब आतंकवाद खत्म हो जाएगा। आयुक्त आम तौर पर वर्ष में दो बार बैठक करते रहे हैं और ये बैठकें 1965 तथा 1971 के युद्धों और कारगिल संघर्ष के दौरान भी हुई थीं। पिछला सिलसिला तोड़ने से भारत सरकार के मिजाज और रणनीति में संभावित परिवर्तन का संकेत मिला। पाकिस्तान को कोने में धकेलने का यह अच्छा तरीका था क्योंकि इससे पाकिस्तान को उस मसले पर शिकायत करने का मौका ही नहीं मिला। सिंधु जल संधि में शिकायतों के निपटारे की तीन स्तरीय प्रणाली हैः विवादों को सबसे पहले वर्ष में दो बार होने वाली बैठकों में उठाया जाता है और उनके समाधान का प्रयास किया जाता है; यदि हल नहीं होता है तो इसे विश्व बैंक द्वारा नियुक्त निष्पक्ष विशेषज्ञ संस्था के सामने रखा जाता है; यदि निष्पक्ष विशेषज्ञ स्वीकार्य हल नहीं दे पाता है तो मामला संयुक्त राष्ट्र मध्यस्थता अदालत में जाता है। आयुक्तों की बैठक टालकर भारत ने चतुराई के साथ उन दोनों विकल्पों पर पानी फेर दिया, जिनका प्रयोग पाकिस्तान कर सकता था। दुर्भाग्य से उसके बाद से मामला अधर में लटका है और इस समय सैन्य विकल्पों पर ही ध्यान लगा हुआ है।
कई विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि भारत सरकार अंतरराष्ट्रीय संधि को तोड़ नहीं सकती और यदि वह ऐसा करने का निर्णय लेती है तो दुनिया भर में वह सम्मान खो देगी। संधि रद्द करने का डर इस गलतफहमी के कारण है कि भारत ने सिंधु जल संधि तोड़ने का संकेत दिया है। वास्तव में इस बात के अधिक संकेत हैं कि सरकारी गलियारों में इस विकल्प पर विचार तक नहीं किया जा रहा है। संधि पर पुनर्विचार का मतलब उसे तोड़ना नहीं होता; उसका मतलब संधि के दायरे में भारत के हितों को पूरी तरह सुरक्षित करना होता है। इस बात में कोई विवाद हो ही नहीं सकता कि इस मसले पर भारत सरकार ने पाकिस्तान का पूरा ध्यान रखा है। पाकिस्तान सरकार की हकतें देखते हुए भारत को इतनी उदारता दिखाते रहने की कोई जरूरत नहीं है, विशेषकर अगर उससे हमारे हितों को नुकसान पहुंचता हो।
जम्मू-कश्मीर में तुलबुल परियोजना ऐसी अनुचित उदारता का अच्छा उदाहरण है। जब पाकिस्तान (जो इसे वुलर बांध कहता है) ने आपत्ति जताई तो कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में 1987 में भारत ने काम पर एकतरफा रोक लगा दी थी। भारत ने झेलम नदी पर स्थित वुलर झील के मुहाने पर करीब 440 फुट लंबे और 40 फुट चौड़े बांध का निर्माण शुरू कर दिया था। वह पूरा हो जाता तो करीब 4,000 क्यूसेक पानी का प्रवाह, बेहतर नौवहन और श्रीनगर तथा बारामूला के बीच संपर्क में वृद्धि सुनिश्चित होती और इससे कश्मीर का आर्थिक कायाकल्प हो जाता। लेकिन पाकिस्तान ने दावा किया कि नौवहन परियोजना का निमा्रण संधि के खिलाफ है और इससे झेलम में पानी के प्रवाह पर भारत का नियंत्रण हो जाएगा। यह डर निराधार था और कई विशेषज्ञों ने उस समय यह बताया भी था। लेकिन जब पाकिस्तान ने अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता में जाने की धमकी दी तो भारत सरकार उसके दबाव में आ गई। इस प्रकार योजना आरंभ होने के तीन वर्ष बाद सरकार ने उसे रोक दिया। विडंबना है कि भारत ने 24 वर्ष बाद अपने पड़ोसी से कहा है कि वह इंतजार ही नहीं करता रहेगा और मामला सुलझाने के लिए स्वयं अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता का सहारा लेगा।
अचरज की बात नहीं है कि जम्मू-कश्मीर लंबे अरसे से विभिन्न केंद्र सरकारों से सिंधु जल संधि पर पुनर्विचार करने और तुलबुल परियोजना फिर शुरू करने के लिए कहता रहा है। पाकिस्तान की रजामंदी का इंतजार करते-करते परेशान होने के बाद 1984 में राज्य सरकार ने इस योजना पर काम शुरू किया था। उसे लगता था कि जिन दिनों में पानी का प्रवाह केवल 2,000 क्यूसेक रह जाता है और नाव चलाना भी मुश्किल हो जाता है, उन दिनों जल स्तर ठीक करने में यह परियोजना राज्य की मदद करेगी। किंतु केंद्र की ओर से स्पष्ट रणनीति नहीं अपनाए जाने के कारण परियोजना रुक गई। अब जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने कहा है कि संधि से राज्य को नुकसान हुआ है। सितंबर के अंत में श्रीनगर में एक कार्यक्रम के दौरान उन्होंने कहा, “सिंधु जल संधि की बात हो रही है। इस संधि के कारण हमें नुकसान हो रहा है। हमें मुआवजा मिलना चाहिए और हम पाकिस्तान से मुआवजा नहीं मांग सकते। चाहे बिजली परियोजनाएं हों या कुछ और हो, हमें जो भी मिलता है, वह मिलना ही चाहिए।” दूसरे शब्दों में महबूबा मुफ्ती ने केंद्र से कहा है कि या तो भारत के पूरे लाभ के लिए सिंधु जल संधि का इस्तेमाल हो या राज्य को घाटे की भरपाई की जाए।
नरेंद्र मोदी सरकार के लिए इस बार कड़ा रुख दिखाने और तुलबुल परियोजना को फिर शुरू करना महत्वपूर्ण है। यदि पाकिस्तान मध्यस्थता के लिए जाना चाहता है तो जाने दिया जाए। पाकिस्तान सरकार ने यूं भी भारत की दशकों की उदारता के बदले किसी तरह की उदारता नहीं दिखाई है। विदेश मामलों में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री के सलाहकार सरताज अजीज ने तो हाल ही में दावा कर डाला कि इस मसले पर भारत का प्रयास “युद्ध की कार्रवाई” माना जाएगा। पाकिस्तान किशनगंगा जलविद्युत संयंत्र और अन्य परियोजनाओं के बारे में लगातार शिकायत करता रहा है। खबरें हैं कि पाकिस्तान सरकार ने इस संभावना के लिए तैयारी शुरू कर दी हैं। झेलम को छोड़िए, पाकिस्तान तो चेनाब और नीलम के पानी के नियंत्रण के मसले पर भी शिकायत करता रहा है। अटॉर्नी जनरल के नेतृत्व में इसके अधिकारियों ने विश्व बैंक के वरिष्ठ कर्मचारी से मुलाकात की, जिसका उद्देश्य सिंधु जल संधि के प्रावधानों के अनुरूप मध्यस्थता की के उसके अनुरोध के बारे में बातचीत करना था। मध्यस्थता अदालत बिठाने में विश्व बैंक की महत्वपूर्ण भूमिका होती है क्योंकि न्यायाधीश नियुक्त करने में वही मदद करता है; दोनों पक्षों यानी देशों को दो-दो मध्यस्थ तय करने होते हैं। विश्व बैंक इससे यूं भी जुड़ा है क्योंकि 1960 में विश्व बैंक की निगरानी में ही भारत और पाकिस्तान ने सिंधु जल संधि पर चर्चा की थी और उसे अंतिम रूप दिया था।
मौजूदा विवाद को देखते हुए यह जानना दिलचस्प है कि सिंधु जल संधि भाईचारे के माहौल (हालांकि यह बहुत कम चला क्योंकि पांच वर्ष बाद पाकिस्तान ने 1965 का युद्ध छेड़ दिया) में हुई थी। या शायद इसमें कोई ताज्जुब नहीं होना चाहिए क्योंकि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू विदेश में अपनी छवि चमकाने के लिए दुश्मन देश के प्रति भी उदारता दिखाने को तैयार रहते थे। नेहरू और पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान ने 19 सितंबर, 1960 को संधि पर हस्ताक्षर किए। जरा उदारता तो देखिएः नेहरू ने सिंधु का 80 प्रतिशत जल पाकिस्तान को तोहफे में दे दिया, जो लगभग 6,000 अरब घन फुट प्रति वर्ष बैठता है। इसकी तुलना कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच विवाद से कीजिए, जिसमें उच्चतम न्यायालय ने कर्नाटक से कावेरी का केवल 3.8 अरब घन फुट पानी तमिलनाडु के लिए छोड़ने के लिए कहा है और आपको पता लग जाएगा कि यह मात्रा कितनी अधिक है। लेकिन आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री के लिए यह उदारता पाकिस्तान के प्रति “सद्भावना” थी। अब हमें पता चल गया है कि इतने दशकों में सद्भावना का जवाब कैसे दिया गया।
यह संधि सिंधु नदी और उसकी सहायक नदियों के पानी के इस्तेमाल पर नियंत्रण करती है। इसमें कहा गया है कि रावी, व्यास और सतलज के पानी पर भारत का ‘नियंत्रण’ होगा, जबकि सिंधु, चेनाब और झेलम पर पाकिस्तान का नियंत्रण होगा। चूंकि सिंधु का पानी भारत से बहता है (हालांकि नदी तिब्बत से निकलती है), लेकिन देश को इसके केवल 20 प्रतिशत पानी के इस्तेमाल का अधिकार है। सिंधु जल संधि में विवाद निस्तारण प्रणालियों का भी प्रावधान है, जिसमें विश्व बैंक द्वारा कराई जाने वाली अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता भी शामिल है।
हो सकता है कि सिंधु जल संधि से निकलना व्यावहारिक विकल्प नहीं हो, लेकिन भारत सरकार को कम से कम उन परियोजनाओं को तो आगे बढ़ाना चाहिए, जो सिंधु के जल का पूरी तरह इस्तेमाल करती हैं। 1960 के बाद से तस्वीर बदल चुकी है। एकतरफा ‘सद्भावना’ बनाए रखने का माहौल अब नहीं बचा है। इतना ही नहीं, पता चला है कि भारत द्वारा सिंधु जल संधि पर पुनर्विचार की खबरों के बीच चीन ने भारत में आने वाली ब्रह्मपुत्र नदी की एक सहयोगी नदी को रोक दिया है। चीन सरकार कहती रही है कि तिब्बत में जलविद्युत परियोजना से भारत पर असर नहीं पड़ेगा, लेकिन यहां विशेषज्ञ इसे मान नहीं रहे। चीन का निर्णय निश्चित रूप से भारत पर यह दबाव डालने के लिए भी है कि सिंधु संधि पर पुनर्विचार नहीं किया जाए और पाकिस्तान को यह आवश्वासन देने के लिए भी है कि उसकी सहायता के लिए चीन सरकार हर तरीका आजमाएगी।
1996 में पाकिस्तान को भारत से मिला एमएफएन का दर्जा भी सिंधु जल संधि जैसा ही है। मोदी सरकार को इस पर पुनर्विचार का फैसला अभी करना है। विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के शुल्क एवं व्यापार पर आम समझौते (गेट) के अनुरूप भारत को यह एकपक्षीय निर्णय लिए 20 वर्ष गुजर चुके हैं, लेकिन पाकिस्तान सरकार ने इसका प्रत्युत्तर नहीं दिया है। इसके बजाय उसने गैर-भेदकारी बाजार प्रवेश (एनडीएमए) समझौता किया है। अगर पाकिस्तान को अपनी घरेलू राजनीतिक और सैन्य विवशताओं के कारण भारत को एमएफएन का दर्जा देने में हिचक है तो यह उसकी समस्या है। यदि भारत एमएफएन के दर्जे पर पुनर्विचार का फैसला करता है तो विश्व समुदाय शायद ही इसका कड़ा विरोध करेगा। पाकिस्तान को बहुत फायदा हुआ है; उदाहरण के लिए उसका सीमेंट निर्यात कारोबार बढ़ गया है और दोनों देशों के बीच माल की आवाजाही से ही इसके प्रांतों की अर्थव्यवस्थाएं चल रही हैं। संप्रग के कार्यकाल में भारत ने अपना बिजली ग्रिड सीमा पार पंजाब तक पहुंचाने तथा पाकिस्तान से गैस का आयात करने का प्रस्ताव दिया था, लेकिन उसका कुछ फायदा नहीं हुआ।
पाकिस्तान को दिया गया एमएफएन का दर्जा वापस लेने से कारोबार के मामले में भारत को कोई नुकसान नहीं होगा। भारतीय उद्योग व्यापार मंडल (एसोचैम) के अनुसार भारत के लगभग 645 अरब डॉलर के कुल वस्तु व्यापार में पाकिस्तान की हिस्सेदारी केवल 2 अरब डॉलर से कुछ ज्यादा है। भारत से पाकिस्तान को निर्यात 2 अरब डॉलर से कुछ अधिक है (जो उसके कुल निर्यात के 1 प्रतिशत से कम है) और आयात में पाकिस्तान की हिस्सेदारी तो और भी कम - केवल 0.13 प्रतिशत - है। इतना ही नहीं, भारत तेजी से प्रगति कर रहा है और दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्थाओं में गिना जा रहा है तथा सभी उसे लुभाने की कोशिश कर रहे हैं। दूसरी ओर पाकिस्तान अपने ही बनाए आर्थिक नर्क से जूझ रहा है। पाकिस्तानी अखबार डॉन ने एक खबर में ब्लूमबर्ग के हवाले से कहा कि अर्थव्यवस्था में अच्छी वृद्धि के बाद भी देश पर कर्ज की अदायगी में चूक का खतरा मंडरा रहा है क्योंकि उसका 42 प्रतिशत विदेशी ऋण (लगभग 50 अरब डॉलर ) इसी वर्ष अदा किया जाना है। पाकिस्तान का 77 प्रतिशत बजट कर्ज चुकाने में ही खर्च हो जाता है।
यहां तुलना करना सही होगाः इंडियन डिफेंस न्यूज के अनुसार सितंबर में पाकिस्तान का विदेशी मुद्रा भंडार 23.6 अरब डॉलर था, जबकि भारत का भंडार 371 अरब डॉलर था। पाकिस्तान का कुल वस्तु निर्यात 21 अरब डॉलर था, जबकि भारत का 262 अरब डॉलर था। पाकिस्तान के जीडीपी की तुलना में विदेशी ऋण का अनुपात 65 प्रतिशत के पास पहुंच गया था, जबकि भारत के लिए यही आंकड़ा 23.7 प्रतिशत था, जो काफी कम था। इसके अलावा पाकिस्तान में विदेश से भेजे गए धन की मात्रा लगातार कम हो रही है। दि एक्सप्रेस ट्रिब्यून के एक संपादकीय का हवाला देते हुए रक्षा समाचारों की इस वेबसाइट ने कहा, “विदेश से मुद्रा आना कम हो गया है और पिछले वर्षों की तुलना में जुलाई और अगस्त के दौरान प्रत्यक्ष विदेशी निवेश 53 प्रतिशत कम हो गया।”
पाकिस्तान का आर्थिक संकट मोटे तौर पर भारत-विरोधी रुख के कारण ही है। वहां की सरकार की ज्यादातर ऊर्जा भारत द्वारा होने वाले काल्पनिक हमलों का जवाब देने में ही खर्च हो जाती है, जिन्हें सुरक्षा के लिए खतरा बता दिया जाता है। आतंकवाद को सरकारी नीति के समान बढ़ावा देने की पाकिस्तान की फितरत ने उसे दुनिया भर में और भी अलग-थलग कर दिया है और इस कारण विश्व भर के निवेशक पाकिस्तान में धन लगाने को तैयार नहीं हैं। इस तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी विदेश यात्राओं का उपयोग भारत के लिए निवेश इकट्ठा करने हेतु करते हैं, लेकिन पाकिस्तान के प्रधानमंत्री हर जगह कश्मीर में भारत की भूमिका की शिकायत करते (जिसे अब कोई सुनना भी नहीं चाहता) घूमते हैं। बची-खुची कसर घर में ही पूरी हो रही है, जहां तुनकमिजाज पाकिस्तानी मंत्री भारत और उनके देश के बीच युद्ध छिड़ने की सूरत में परमाणु अस्त्र का इस्तेमाल करने की धमकी दे रहे हैं।
पाकिस्तान का एमएफएन दर्जा खत्म करने से पहले भारत कुछ और भी कर सकता है; वह पाकिस्तान को डब्ल्यूटीओ की विवाद निपटारा संस्था के पास ले जा सकता है और अपने लिए एमएफएन दर्जे की मांग कर सकता है। हालांकि ऐसा हो गया तो भी यह सांकेतिक जीत ही होगी क्योंकि भारत को इससे कोई व्यावसायिक लाभ नहीं होगा। इसीलिए उसे दर्जा खत्म करना चाहिए और जरूरत पड़ने पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसके लिए संघर्ष भी करना चाहिए। किंतु भारत के नीति निर्माता इस समय सीमा पार से लगातार जारी और निर्दोष नागरिकों को निशाना बना रही अकारण गोलीबारी और संघर्ष विराम के उल्लंघन से निपटने में व्यस्त हैं। पाकिस्तान की इस हरकत के कारण अंतरराष्ट्रीय सीमा और नियंत्रण रेखा पर गंभीर सैन्य टकराव हो रहा है और उससे सेना के जरिये ही निपटना होगा। पाकिस्तान के सैन्य नेतृत्व को यह स्पष्ट संदेश दिया जाना अनिवार्य है कि हमारी सेनाएं किसी भी कीमत पर देश की सुरक्षा और संप्रभुता की रक्षा करेंगी और पाकिस्तानी सेना को अपने अनुचित दुस्साहस की भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। इसीलिए सिंधु जल संधि और एमएफएन के विकल्पों को अभी प्रतीक्षा कराई जा सकती है।
(लेखक द पायोनियर में ओपिनियन एडिटर, वरिष्ठ राजनीतिक टिप्पणीकार और लोक मामलों के विश्लेषक हैं)
Post new comment