प्रधानमंत्री का 500 और 1,000 रुपये के नोट बंद करने अर्थात् विमुद्रीकरण का फैसला ऐतिहासिक है, जिसे जनता की सराहना मिली है। सरकार को आशा है कि निकट भविष्य में भ्रष्टाचार, काले धन और आतंकवाद की बुराइयों के विरुद्ध युद्ध में विजय प्राप्त होगी। प्रधानमंत्री ने भारत के तीव्र विकास के लिए पहले भी ‘डिजिटल इंडिया’, ‘स्किल इंडिया’, ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ और ‘मेक इन इंडिया’ जैसे कई कदम और योजनाएं आरंभ की हैं। किंतु वांछित लाभ प्राप्त करने के लिए उनकी प्रगति और परिणाम पर करीब से नजर रखने की आवश्यकता है।
अगर सरकार की आपूर्ति प्रणाली यानी समूची अफसरशाही ईमानदारी के साथ नहीं जुड़ती है और मेहनत के साथ काम नहीं करती है तो कोई एक व्यक्ति सुशासन के एजेंडा में सफल नहीं हो सकता। संयुक्त राष्ट्र मानव विकास रिपोर्ट 2015 में दिए गए विश्व मानव विकास सूचकांक में भारत के 130वें स्थान को ही देखिए। यह आकलन जन्म के समय जीवन प्रत्याशा, नवजात मृत्यु दर, प्रसूता मृत्यु दर, सफाई रखने वाली आबादी, स्वच्छ जल प्राप्त करने वाली आबादी और कुपोषणग्रस्त बच्चों के प्रतिशत जैसे महत्वपूर्ण मानकों पर आधारित होता है। उत्पादकता और संस्थागत विकास के मामले में भारत विकसित देशों से बहुत पीछे है, इसलिए थोड़े से सुधार भी उसे बहुत आगे पहुंचा सकते हैं। किंतु लोकतंत्र और आर्थिक सुधार ही पर्याप्त नहीं हैं। हमें प्रभावी और सक्षम अफसरशाही वर्ग तथा सशक्त संस्थाओं की आवश्यकता है, जो परिणाम, जवाबदेही और न्याय सुनिश्चित करें। तभी हम अपनी पूरी क्षमता से काम कर पाएंगे। कायाकल्प करने के लिए सरकार द्वारा आरंभ किए गए सुधारों और विकास संबंधी कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में सफलता तभी मिल सकती है, जब भारतीय ‘बाबू समुदाय’सुशासन की राह में आने वाली बाधाओं पर सटीक हमला करेगा। “न्यूनतम शासन-अधिकतम प्रशासन” 2014 के लोकसभा चुनावों से पहले प्रचार अभियान के दौरान मोदी सरकार का प्रमुख वायदा रहा है।
‘बाबू समुदाय’ क्या है? 20वीं शताब्दी के शुरुआती वर्षों से ही भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों तथा अन्य सरकारी अधिकारियों के लिए ‘बाबू’ शब्द का प्रयोग होता है और भारतीय अफसरशाही को “बाबू समुदाय” कहा जाता है। वास्तव में इसमें सरकार की नीतियां और कार्यक्रम लोगों तक पहुंचाने के लिए जिम्मेदार तथा सरकारी धन से वेतन पाने वाला प्रत्येक कर्मचारी शामिल होगा। इस जमात में संसद तथा राज्य विधानसभाओं के सदस्य, अफसरशाह, विश्वविद्यालयों एवं विद्यालयों के शिक्षक, चिकित्सक, नगर निगमों के कर्मचारी, सरकारी कर्मचारी, वैज्ञानिक समुदाय, पुलिस अधिकारी, डाक एवं रेलवे सेवाएं, न्यायपालिका और कई अन्य श्रेणियां आती हैं। इसीलिए लेख को यहां से आगे बढ़ाने के लिए हमारे पास बाबू की परिभाषा है।
भारत में लोकतंत्र सबसे ताकतवर वाहक है और इसे अपनी सबसे प्रभावशाली ताकत यानी राजनीतिक व्यवस्था को सही रास्ते पर लाने की आवश्यकता है। राजनीतिक व्यवस्था को अब ताकत के नजरिये से देखा जाता है, यह नहीं सोचा जाता कि ताकत क्या पाने के लिए है, इसलिए जो लोग राजनीति चला रहे हैं या उनके आसपास हैं, राजनीति उनके लिए अपने हित साधने का माध्यम बन गई है। लोकतंत्र कुछ बड़े आदर्शों को जनता की आशाओं एवं आकांक्षाओ के साथ जोड़ने के बजाय वोट बैंक की इच्छाएं पूरी करने का साधन जितनी तेजी से बनता जाता है, उतना ही यह आदर्श स्थिति बनाने का प्रयास नहीं करता है बल्कि यथास्थिति पर जोर देने लगता है।1
हॉन्गकॉन्ग की पॉलिटिकल एंड इकनॉमिक रिस्क कंसल्टेंसी ने भारतीय अफसरशाही को एशिया में सबसे खराब दर्जा दिया है और कहा है कि इसके अधिकारियों को कभी-कभार ही जवाबदेह ठहराया जाता है तथा कंपनियों में सरकार के प्रति अविश्वास का असली कारण भी वे ही हैं।2 श्रम एवं रोजगार सचिव मृत्युंजय सारंगी ने कहा था कि यदि एक अधिकारी राजनीतिक दबाव में फाइल पर हस्ताक्षर करने से इनकार करता है तो उसके बदले दस अन्य अधिकारी वह काम करने के लिए तैयार रहते हैं।3 पूर्व प्रमुख सचिव पुलक चटर्जी कह चुके हैं कि अधिकारी नए कदम उठाने में असफल रहते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि “यथास्थिति बरकरार रहने पर भी सरकार में उनसे कोई कुछ नहीं पूछेगा।”4 वह यह भी कहते हैं कि सरकारों ने नीतिगत मोर्चे पर अच्छा काम किया है, लेकिन सामूहिक कार्य की भावना नहीं होने के कारण क्रियान्वयन और आपूर्ति में कसर रह गई है और अक्सर वे अपने खेमों में ही काम करती रह गई हैं। श्री नरेश चंद्रा कहते हैं कि वरिष्ठ अधिकारियों को आगे आकर नेतृत्व करना होगा। “हमें श्रीधरन से सीखना चाहिए और सरकार ने जिस तरह विभागों के बीच सुचारु सहयोग से दिल्ली मेट्रो बनाई, उससे सबक सीखना चाहिए। अगर हमारे विभाग अलग-अलग काम करते तो श्री श्रीधरन अभी तक दिल्ली में सुरंगें ही खोद रहे होते।”5
साथ ही साथ कुछ शीर्ष अधिकारी अपने खराब प्रदर्शन के कारण भी बताते हैं, जिन पर तुरंत ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। “अधिकतर अधिकारी किसी राजनीतिक खेमे के नहीं होते हैं। उनमें से कुछ में स्वार्थ के कारण राजनीतिक ताकतों के बेहद निकट हो जाने की आदत होती है, लेकिन जैसे ही सत्ता का केंद्र बदलता है, वे तुरंत खुद को उनसे अलग कर लेते हैं।”6 “अधिकारियों को राजनेताओं से यह आश्वासन भी चाहिए होता है कि यदि वे बड़ी गलती नहीं करेंगे तो उन्हें कम से कम तीन वर्ष तक एक ही जगह काम करने दिया जाएगा। स्थानांतरण से एक विभाग की गंदगी दूसरे विभाग में पहुंच जाती है। यदि सुशासन ही लक्ष्य है तो कोई भी विभाग कम महत्वपूर्ण नहीं है। अधिकारी सत्ता से मिलने वाले संकेतों का बहुत ध्यान रखता है। यदि वह देखता है कि किसी ईमानदार अधिकारी को बिना किसी गलती के केवल इसीलिए सजा मिल रही है क्योंकि उसने किसी मंत्री या विधायक की बात नहीं मानी तो वह समझ जाएगा कि निष्पक्ष बने रहने का कोई फायदा नहीं है। वह अपनी कार्यशैली को उसी के अनुरूप ढाल लेगा। लेकिन नुकसान प्रशासन का होगा। इसका अर्थ होगा कि जिसे भी अपना सही-गलत काम कराना है, उसे राजनीतिक व्यक्ति के पाास जाना होगा, जो कुछ लोगों के काम कराता रहेगा। लेकिन ज्यादातर लोगों के पास ऐसे संपर्क नहीं हैं, इसलिए उन्हें तकलीफ उठानी होगी। भ्रष्ट अधिकारियों पर सख्ती करने से पहले उच्चतम स्तर पर ईमानदारी और भरोसा कायम रखना होगा।”7
सरकार के कल्याणकारी कार्यक्रमों की सुस्त गति के लिए अधिकारी राजनेताओं पर दोष मढ़ते हैं और राजनेता अधिकारियों को दोषी ठहराते हैं। वर्तमान सरकार के सत्ता संभालने के बाद से ही प्रशासनिक तंत्र को दुरुस्त करने के लिए लगातार बदलाव किए जाने के समाचार नियमित अंतराल पर मिलते रहे हैं। विभागों के सचिवों को कम से कम 10 पुराने कानून पहचानने और समाप्त करने के लिए कहा गया, जो तेज निर्णय प्रक्रिया में बाधा डालते हैं और यह भी कहा गया कि फाइलों की आवाजाही भी अधिकतम चार स्तरों तक ही सीमिति रखी जाए। निर्णय लेते समय विभागों के बीच टकराव आम बीमारी है, उसे भी सहयोग के जरिये कम करने के लिए कहा गया और असफल रहने की सूरत में फाइलों पर बैठने के पुराने अफसरशाही रवैये के बजाय प्रधानमंत्री कार्यालय से बात करने के लिए कहा गया। जानकारी को बेहतर तरीके से संभालने के लिए फाइलों का डिजिटलीकरण करना और ऑनलाइन जानकारी प्रदान करना प्रशासनिक पारदर्शिता एवं सक्षमता सुनिश्चित करने के लिए आरंभ किए गए कुछ तकनीकी उपाय हैं। सभी प्रशासनिक अधिकारियों को करणीय एवं अकरणीय कार्यों की जानकारी देने वाले 1968 के अखिल भारतीय सेवा (आचार) नियमों में संशोधन किए गए। अफसरशाही ने इन संशोधनों का पूर्णतया पालन किया या नहीं, यह तो समय बीतने पर ही पता चलेगा।8
बताया गया है कि देश भर में लगभग 600 विभागों, 2,000 से अधिक अधीनस्थ कार्यालयों तथा 10,000 से अधिक संबद्ध सरकारी संगठनों में कर्मचारियों की आवश्यकता तथा नियुक्तियों का विश्लेषण करने के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय ने कैबिनेट सचिवालय, कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग तथा व्यय विभाग से वरिष्ठ विश्वस्त अधिकारियों का एक कार्यबल भी गठित किया है। यह कवायद प्रशासनिक तंत्र का आकार दुरुस्त करने के लिए ही नहीं है बल्कि तंत्र में आ चुकी कई खामियां दूर करने के लिए भी है। इन खामियों में सेवानिवृत्त अधिकारियों के आराम के लिए सृजित पद भी हैं और वे पद भी हैं, जो जिन कार्यक्रमों के लिए बनाए गए थे, वे कार्यक्रम भी लंबे समय पहले समाप्त किए जा चुके हैं। प्रत्येक विभाग में बेहद कुशल पेशेवरों और समर्पित तथा विशेषज्ञ प्रौद्योगिकी अथवा संचार टीमों की नियुक्ति भी इस बड़े सुधार कार्यक्रम का हिस्सा बताई जा रही है। इस कवायद की आवश्यकता बहुत समय से थी और आकार दुरुस्त करने का उद्देश्य स्पष्ट रूप से “न्यूनतम शासन” ही है।9
सुशासन प्रदान करने के लिए बाबू समुदाय को भी सदाचार, निष्ठा, जिम्मेदारी, कानून एवं नियमों के सम्मान, कार्य के प्रति प्रेम, समयनिष्ठा के सिद्धांतों का पालन करना चाहिए और उन्हें जीवन में हर क्षेत्र में लाभ उठाने से बचना चाहिए। बाबू समुदाय को तंत्र तैयार करने, समूह की भावना जगाने पर ध्यान देना चाहिए और अपना ही काम बनाने की भावना त्याग देनी चाहिए। सुशासन देने का काम अब किसी एक मंत्रालय अथवा विभाग का नहीं रह गया है। यह अफसरशाही वाले विभागों के जटिल तंत्र का काम है। ‘दिल्ली के स्मॉग’ की समस्या ने दिखाया है कि प्रत्येक व्यक्ति की सेहत किस तरह पूरे पारितंत्र की सेहत पर निर्भर है और असंतुलन से ये जटिल तंत्र कितने बिगड़ जाते हैं।
सभी तंत्रों में टकराव भी होते हैं और दबाव भी। विभागों के बीच विश्वास बढ़ाने के लिए बाबू समुदाय को सुशासन, संबंधों तथा संचार के लिए दीर्घकालिक और महत्वपूर्ण प्रयास करने होंगे। विभिन्न तंत्रों में नई प्रौद्योगिकियों के बढ़ते प्रयोग का प्रभावी रूप से उपयोग किया जा सकता है। वापस जाने का कोई अर्थ नहीं है। प्रत्येक मंत्रालय अथवा राज्य सरकार का तंत्र इतना जटिल है कि कोई एक व्यक्ति उसमें परिवर्तन नहीं ला सकता। एक विभाग पर केंद्रित रहने के बजाय पूरे तंत्र के बारे में सोचने वाला एकजुट बाबू समुदाय ही सफल होगा और टिका रहेगा। असंतुलन खत्म नहीं होंगे। वे तो तंत्र के भीतर ही होते हैं। लेकिन एक-दूसरे से मिलकर काम करने, आवश्यक सूचना तुरंत साझा करने की इच्छा एवं किसी संगठन की चहारदीवारी के भीतर बंधकर काम करने की अनिच्छा ही वांछित बदलाव ला सकती है। कोई एक विभाग सभी जरूरतें पूरी नहीं कर सकता क्योंकि वे एक दूसरे पर निर्भर होते हैं और न ही हर मर्ज की कोई एक दवा है। वर्तमान अफसरशाही को समाप्त करने का विचार नहीं है बल्कि इस क्षेत्र में पहले की किए गए प्रयासों का लाभ उठाने और उन प्रयासों को किसी एक विभाग की चहारदीवारी से बाहर ले जाने का विचार है। सुशासन का प्रमुख घटक है गलतियां स्वीकार करना एवं समय से उनमें सुधार करना। इसी तरह सजाएं और भी सख्त होने चाहिए तथा स्थानांतरण एवं निलंबन का नितांत भारतीय तरीका नहीं अपनाना चाहिए क्योंकि उन्हें बाद में रद्द कर दिया जाता है।
बाबुओं को अपने उन कर्मचारियों से निपटने की असली ताकत दीजिए, जो फाइलें लटकाते हैं और हथेलियां गर्म होने पर ही उन्हें आगे बढ़ाते हैं। केंद्रीय प्रशासनिक पंचाट (कैट) जैसी शिकायत निवारण संस्थाओं को वास्तविक अधिकार दीजिए। उन्हें राजनीतिक शिकंजे से मुक्त करिए। अपनी अफसरशाही को दिए गए दर्जे (रैंकिंग) पर शर्मिंदा होकर और उसका कारण जानकर शायद सरकार अफसरशाही के कायाकल्प पर गंभीरता से विचार करेगी।10 अगर बाबू समुदाय को बेईमानी के पर कतरने हैं तो रूढ़िवादी, बेहद तकनीकी और नियंत्रणकारी मानसिकता के बजाय नीति तथा कार्यक्रम क्रियान्वयन की वास्तविक समझ की आवश्यकता है।11 अधिकार को सार्थक प्रदर्शन में बदलने वाली सरकारी संस्थाओं में निवेश के बगैर स्थिति बदल नहीं सकती। सरकार द्वारा तैयार की गई नई योजनाएं ऊर्जा देती हैं किंतु इसे स्वयं ही पूरे तंत्र में इस तरह नहीं बांटतीं, जिससे स्थिति में बुनियादी परिवर्तन हो जाए। ये पहले से मौजूद असंतुलन को बढ़ाती भर हैं।
जब परिवर्तन रुक-रुककर होता है, लेकिन तेजी से होता है तो उपलब्ध शक्तियों और उनके उपयोग पर नियंत्रण के लिए तैयार की गई प्रणालियों के बीच अंतर इतना अधिक हो जाता है कि उसे उचित नहीं ठहराया जा सकता। इसका एक परिणाम यह होता है कि समुदाय के प्रति अपने संभावित कर्तव्य के विषय में विचार नहीं करने वाली यह शक्ति तंत्र के साथ बेईमानी करने का प्रयास करती है ताकि उसे जिम्मेदारी से स्थायी रूप से मुक्ति मिल सके। जो असंतुलन यह उत्पन्न करती है, वही इसका सबसे पहला बहाना बन जाता है क्योंकि तंत्र के सभी घटक गौण हो जाते हैं, इसलिए असंतुलन को ठीक करना लगभग असंभव ही हो जाता है।12 इसीलिए असंतुलन में कमी लाना शीर्ष प्राथमिकता बन गई है। आत्म-नियमन की पुरानी प्रणालियां या तो समाप्त हो गई हैं या परिवर्तन की प्रकृति तथा गति के कारण अप्रासंगिक हो गई हैं और जो नई प्रणालियां हैं, वे उन लोगों के स्वार्थों तले कुचल दी गई हैं, जिनके पास बहुत अधिक ताकत है। इसीलिए अब हम बहुत अधिक कानूनों से घिरे हैं, लेकिन प्रभावी नियमन नहीं है।13 आशा है कि नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया (नीति आयोग) सुशासन और भारत के इस्पाती ढांचे के कायाकल्प की पहेली का उचित उत्तर प्रदान करेगा।
भारतीय समाज विशेषकर मध्यम एवं उच्च वर्ग को भी भारत के कायाकल्प में निश्चित भूमिका निभानी है। आज समाज सीधे-सादे भ्रमों का पुलिंदा भर बनकर रह गया है। एक ओर कोई व्यक्ति आजादी के बाद से अभी तक समानता की मांग करता आ रहा है, लेकिन उसे न केवल हिंदू, मुसलमान, सिख आदि होने में गर्व होता है बल्कि वह उस जाति व्यवस्था का झंडा भी बुलंद रखता है, जो असमानता को सबसे अधिक बढ़ावा देती है। वह अपनी संतान को जनसेवक बनाना चाहता है ताकि वह लाल बत्ती की शेखी बघार सके और कुलीन वर्ग का हिस्सा बन सके, लेकिन उससे पहले तक वह वीआईपी संस्कृति का जमकर विरोध करता है। समस्या यह है कि वह पाखंड करता भर नहीं है बल्कि उसी के बल पर फलता-फूलता भी है। उसे नैतिकता से नहीं बल्कि नैतिकता के विचार से प्यार है।14
सरकारों को दूसरों से अपनी प्रशंसा सुनना अच्छा लगता है। प्रशंसा के प्रति इस लगाव में समस्या यही है कि यह हमें अपनी कमियों की ओर नहीं देखने देता और इसीलिए आत्म-सुधार की आशा बहुत कम रह जाती है। यद्यपि यह सच है कि सारी आलोचना शायद ठीक नहीं हो लेकिन यदि हम आलोचना को स्वीकारने से इनकार कर दे ंतो इस बात की पूरी संभावना है कि हम सही आलोचना को भी अनदेखा कर दें। हम प्रशंसा ग्रहण कर लेते हैं, बिना यह सोचे कि हमने प्रशंसा के लायक कुछ किया भी है या नहीं। लेकिन जब आलोचना होती है तो हम मान लेते हैं कि यह पूरी तरह गलत है। सरकार और अफसरशाही को पारदर्शिता, करुणा और दूसरों के कल्याण के प्रति अधिक सम्मान उत्पन्न करना होगा। जब कोई काम क्रोध अथवा घृणा के कारण किया जाता है तो उसके नतीजे नुकसानदेह होते हैं, जबकि करुणा और सम्मान के कारण किए गए काम के लाभदायक परिणाम होते हैं।
संदर्भः
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