कृषि उत्पाद के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य
Rajesh Singh

राजनीतिक और आर्थिक दोनों ही दृष्टिकोण से कृषि संवेदनशील विषय है। आधे से अधिक श्रमशक्ति इसी क्षेत्र में लगी हुई है, आबादी का बड़ा हिस्सा ग्रामीण भारत में रहता है, कृषि से संबंधित कामों में लगे लोगों की खर्च करने योग्य आय में इजाफे से देश भर में उपभोक्ता उत्पादों की बिक्री और विनिर्माण उद्योग पर बड़ा प्रभाव होता है, सरकार से नाखुश ग्रामीण भारत चुनावों के नतीजे तय कर सकता है और सरकार द्वारा हजारों करोड़ रुपये का निवेश पाने के इरादे से बनाई गईं प्रोत्साहनपूर्ण नीतियों के नतीजे पर महज एक किसान की आत्महत्या पानी फेर सकती है। आश्चर्य की बात नहीं है कि पिछले काफी समय से सरकारें कृषि क्षेत्र को खुश रखने के रास्ते तलाशती रही हैं - हालांकि नतीजे हमेशा उनकी उम्मीदों के मुताबिक नहीं होते हैं। किसानों को उनका न्यायोचित अधिकार सुनिश्चित करने के लिए बाजार में हस्तक्षेप करने का एक बेहद टिकाऊ तरीका है न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का निर्धारण, जो सरकार किसानों से उनके उत्पाद खरीदने के लिए तय करती है।

आम तौर पर वर्ष में एक बार नए एमएसपी की घोषणा की जाती है और विपक्षी दल हमेशा उसकी तीखी आलोचना करते हैं। वे सरकार पर मामूली बढ़ोतरी करने और किसानों के साथ विश्वासघात करने का आरोप लगाते हैं। यह नियम बन गया है और जब नरेंद्र मोदी सरकार ने हाल ही में वर्ष 2016-17 की खरीफ फसलों के लिए एमएसपी में बढ़ोतरी को मंजूरी दी तब भी आलोचना की गई। उत्पादों के प्रकार एवं उप-प्रकार के आधार पर 3 प्रतिशत से 9 प्रतिशत तक इजाफा किया गया। सरकार ने दलहनों एवं तिलहनों का उत्पादन बढ़ाने के लिए एमएसपी के ऊपर बोनस (दलहन के लिए 425 रुपये प्रति क्विंटल और तिलहन के लिए 100 रुपये प्रति क्विंटल) का भी ऐलान किया। कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) की सिफारिशों के आधार पर आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति ने इन्हें मंजूरी दे दी। विपक्षी दल के नेताओं ने प्रधानमंत्री को याद दिलाया कि उन्होंने किसानों को ‘लागत के ऊपर 50 प्रतिशत’ दाम दिलाने का वायदा किया था। दूसरे शब्दों में उन्होंने मांग की कि सरकार किसानों को ऐसा एमएसपी दे, जिससे फसल उगाने में लगे समूचे खर्च के साथ-साथ 50 प्रतिशत मार्जिन भी सुनिश्चित हो।

‘लागत के ऊपर 50 प्रतिशत’ के फॉर्मूले का समर्थन प्रख्यात कृषि वैज्ञानिक एम एस स्वामीनाथन भी करते हैं, जिन्होंने 2006 में राष्ट्रीय कृषक आयोग की अध्यक्षता की थी और किसानों की प्रतिष्ठा बहाल करने तथा उन्हें आर्थिक रूप से मजबूत करने के इरादे से इस समाधान की जोरदार सिफारिश की थी। उन्होंने एक बार कहा था, “दवा कंपनियां 500 प्रतिशत मुनाफे पर काम करती हैं। ऐसा कोई कारोबार नहीं है, जिसमें 50 प्रतिशत से कम मुनाफा हो। तो किसान ही हर वक्त दुख क्यों उठाएं?” सरकार की आलोचना करने वालों को यह बात बहुत भली लगनी चाहिए क्योंकि वे यही दिखाने की कोशिश में जुटे हैं कि वर्तमान सरकार किसान विरोधी है। आलोचना करने का फायदा और भी ज्यादा है क्योंकि कृषि प्रधान राज्यों उत्तर प्रदेश और पंजाब में जल्द ही विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। केंद्र इस षड्यंत्र से बेखबर नहीं है, सरकार के कुछ वर्गों को लगता है कि टुकड़ों में ही सही, लागत के ऊपर 50 प्रतिशत का फॉर्मूला लागू होना चाहिए ताकि आलोचकों को चुप कराया जा सके। लेकिन वे यह भी याद दिलाते हैं - जिसे विपक्षी नेता अनदेखा कर देते हैं - कि कृषि क्षेत्र में उत्पादन की लागत पिछले दो वर्षों में अपेक्षाकृत कम रही है। इसके अलावा कृषि उत्पादों के वैश्विक मूल्य भी नीचे आए हैं। साथ ही महंगाई की कम दरों ने शेष जनता की तरह किसानों को भी राहत दी है क्योंकि इससे उनकी आय बढ़ गई है। फिर इस बात पर गंभीरता से विचार चल रहा है कि कम से कम चावल के लिए एमएसपी (जिसमें पिछले वर्ष की अपेक्षा केवल 3.6 प्रतिशत इजाफा हुआ है) अधिक हो सकता था।

एमएसपी उम्मीद के मुताबिक नहीं बढ़े तो भी आदर्श परिस्थितियों में महंगाई कम होने और खेती की लागत घटने से किसानों के पास अधिक धन होना चाहिए। किंतु दुनिया भर में कृषि जिंसों के दाम घटने से उन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है और यह दलील दी जा रही है कि दामों में इस तरह गिरावट आने पर उचित एमएसपी और भी जरूरी हो जाता है। उदाहरण के लिए एक रिपोर्ट के अनुसार मार्च 2016 में समाप्त हुए वित्त वर्ष में केवल 24 अरब डॉलर के भारतीय कृषि उत्पादों का निर्यात हुआ, जबकि 2013-14 में 33 अरब डॉलर का निर्यात हुआ था। याद रखना चाहिए कि केवल सरकार ही नहीं बल्कि निजी कंपनियां भी निर्यात के लिए किसानों से कृषि उत्पाद खरीदती हैं। अगर अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमतें कम हैं तो किसानों पर भी असर पड़ेगा। निश्चित रूप से किसानों को सहारा देने के लिए सरकार ऐसे निर्यात पर सब्सिडी दे सकती है किंतु सब्सिडी का विचार लंबा चलने वाला नहीं है और न ही यह लंबे समय के लिए किसानों को राहत दे सकता है। इसके अलावा जब सरकार सब्सिडी को दुरुस्त करने मे जुटी है, उस समय नई सबिसडी शुरू करना वांछित नहीं होगा - हालांकि विकट परिस्थितियों में ऐसा जरूरी हो सकता है।

भारतीय कृषि वैश्विक दामों में कमी से ही प्रभावित नहीं हुई, भारतीय चावल के दो बड़े बाजारों नाइजीरिया और बांग्लादेश ने शुल्क लगा दिए हैं, जिनसे इन बाजारों में हमारे निर्यात गैर प्रतिस्पर्द्धी हो गए हैं। अप्रैल 2015 से फरवरी 2016 के बीच नाइजीरिया को भारतीय गैर-बासमती चावल का निर्यात 80 प्रतिशत से भी अधिक घट गया। फिर भी आर्थिक आधार के बजाय राजनीतिक आधार पर अधिक एमएसपी देने से इस संकट का समाधान नहीं होता बल्कि संकट और बढ़ जाता।

यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हो चुका है कि अर्थव्यवस्था की सहनशक्ति से अधिक एमएसपी से खाद्य महंगाई बढ़ सकती है। हैदराबाद में इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस के संकाय द्वारा कराए गए एक अध्ययन में पता चला कि 2005 से 2012 के बीच गेहूं और चावल के एमएसपी में भारी भरकम बढ़ोतरी से खाने-पीने की महंगाई बढ़ गई। (किसानों ने अपनी अधिक से अधिक उपज सरकारी एजहेंसियों को बेच दी, जिसके दूसरे परिणाम भी हुए। उदाहरण के लिए भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) की पहले से ही दरकती और कम क्षमता वाली भंडारण प्रणाली पर और बोझ पड़ गया, खबरों के मुताबिक 2014-15 में केवल ऊंचे एमएसपी के कारण सरकार को उपज बेचने पर तुले किसानों से खरीदा गया 40,000 टन खाद्यान्न एफसीआई के गोदामों में ही सड़ गया।)
राष्ट्रीय लोक वित्त एवं नीति संस्थान (एनआईपीएफपी), नई दिल्ली के लिए जून 2015 में तैयार एक दस्तावेज में भी यह बात मानी गई थी। इसके लेखक ने कहा, “भारत में खाद्य महंगाई बढ़ाने में न्यूनतम समर्थन मूल्यों की भी बड़ी भूमिका पाई गई है। एमएसपी में वृद्धि की दर का अगले वर्ष की थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) आधारित मुद्रास्फीति पर बहुत प्रभाव होता है।” एमएसपी में समय-समय की वृद्धि ही खाद्य महंगाइ के लिए अकेली जिम्मेदार नहीं है - बढ़ती आबादी द्वारा खपत में भारी वृद्धि का भी इसमें योगदान है - किंतु इस कारक को राजनीतिक जुमलों के नीचे दबाया न तो जा सकता है और न ही जाना चाहिए।

एनआईपीएफ के दस्तावेज में यह स्वीकार किया गया कि ऊंची खाद्य महंगाई और अधिक एमएसपी के बीच संबंध की बात “विभिन्न अध्ययनों” में साबित हो चुकी है। साथ ही कहा गया कि एमएसपी में बढ़ोतरी से “खाद्य मूल्य प्रभावित होते हैं क्योंकि जिन 25 जिंसों के एमएसपी की घोषणा की गई है, डब्ल्यूपीआई के बास्केट में उनकी लगभग 7.3 प्रतिशत हिस्सेदारी है।” एमएसपी आधार मूल्य होता है और थोक मूल्य से कम होता है। दस्तावेज में बताया गया कि आधार मूल्य (एमएसपी) जितना अधिक होगा, थोक मूल्य भी उतने ही बढ़ जाएंगे और खाद्य महंगाई होगी, जो राष्ट्र और स्वयं किसानों को सबसे अधिक कष्ट देगी। दाल, गेहूं और चावल जैसे उत्पादों के मामले में यह बात सिद्ध करने के लिए इस अध्ययन में लिखित प्रमाणों का प्रयोग किया गया। इसमें पाठकों को ध्यान दिलाया गया कि 2012-13 के दौरान एमएसपी में वृद्धि की दर 2001-02 से 2006-07 के बीच हुई वृद्धि दर से काफी अधिक थी और परिणाम यह हुआ कि उससे पहले के आठ वर्षों में से पांच में अनाज की महंगाई दो अंकों में रही तथा 2007 से 2012-13 के बीच चावल में महंगाई की औसत दर 8.8 प्रतिशत और गेहूं के लिए दर 9 प्रतिशत रही। याद रहे कि 2004-05 और 2013-14 के बीच जब देश खाद्य महंगाई से परेशान था, उस समय गेहूं के एमएसपी में 9.1 प्रतिशत की वार्षिक चक्रवृद्धि दर से बढ़ोतरी हुई और चावल के लिए यह दर 9.9 प्रतिशत थी।

विशेषज्ञ चाहे अधिक एमएसपी को उचित ठहराएं या उस पर चिंता जताएं, उनमें से ज्यादातर इस बात पर सहमत दिखते हैं कि आधार मूल्य प्रणाली की समीक्षा की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए यह चावल और गेहूं के पक्ष में झुकी हुई है। इन उत्पादों के आकर्षक एमएसपी के फेर में पड़कर किसान अन्य फसलें उगाने की कोशिश नहीं करते। इससे दो समस्याएं उत्पन्न हो गई हैं। पहली तो यह है कि अक्सर मांग से अधिक उत्पादन हो जाता है, जिससे कीमतें लुढ़क जाती हैं और किसानों को परेशानी होती है। दूसरी यह है कि (अधिक एमएसपी के कारण) इन उत्पादों पर आवश्यकता से अधिक निर्भरता ने किसानों को दूसरी अधिक आकर्षक फसलों - उदाहरण के लिए नकदी फसलों - की ओर जाने से और अपनी आय बढ़ाने से रोक रखा है। इसीलिए कई विशेषज्ञ मानने लगे हैं कि एमएसपी फसल निरपेक्ष होना चाहिए और उसमें ऐसी कोई भी फसल शामिल होनी चाहिए, जिसे किसान उगाना चाहता है।

हालांकि तात्कालिक और आसन्न संकटों से निपटने के लिए बाजार में हस्तक्षेप के माध्यम के रूप में सरकार एमएसपी का प्रयोग किसी भी समय कर सकती है और उसे करना भी चाहिए। उदाहरण के लिए पिछले दो मॉनसून सत्रों में मौसम प्रतिकूल रहने के कारण घरेलू उत्पादन में तेज कमी के परिणामस्वरूप दालों की कीमतें हाल ही में चढ़ गई थीं। खुदरा कीमतें 100 रुपये प्रति किलोग्राम से भी ऊपर निकल गई थीं। 2015-16 में भारत को मांग पूरी करने के लिए 60 लाख टन दालों का आयात करना पड़ा (घरेलू उत्पादन 1.70 करोड़ टन रहने का अनुमान था), जबकि 2014 में उसने 40 लाख टन का आयात किया था। अगले वर्ष घरेलू उत्पादन में करीब 20 लाख टन की गिरावट आ गई। स्थिति को ध्यान में रखते हुए केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 2016-17 में मोजांबिक से लगभग 1 लाख टन दाल के आयात का प्रस्ताव मंजूर कर दिया, हाल में प्रधानमंत्री की मोजांबिक यात्रा के दौरान दीर्घावधि आयात का समझौता किया गया। ऐसी परिस्थिति में (दाल की खेती को बढ़ावा देने के इरादे से) सरकार ने इस उत्पाद के एमएसपी में खासा इजाफा किया है और एमएसपी के अतिरिक्त बोनस का भी ऐलान किया है।

लेकिन याद रखा जाना चाहिए कि केवल एमएसपी बढ़ाने से समस्या दूर नहीं होगी। सरकार को अपनी खरीद प्रणाली को अधिक प्रभावी बनाने के लिए उसमें कुछ बदलाव करने होंगे। तमाम विशेषज्ञ इसकी जरूरत पर जोर देते रहे हैं। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के हाल के अध्ययन के अनुसार देश भर में कई किसानों को न तो एमएसपी प्रणाली का पता है और न ही खरीद एजेंसी की जानकारी है। इसके अलावा सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) में रिसाव की पुरानी समस्या तो है ही। एमएसपी के पीछे दोहरा उद्देश्य हैः किसानों को न्यायोचित कीमत देना और उनसे खरीदे गए उत्पादों के एक हिस्से को पीडीएस के माध्यम से सब्सिडी के द्वारा जरूरतमंदों तक पहुंचाना। ‘रिसाव’ की सरल व्याख्या है सरकारी एजेंसियों द्वारा आपूर्ति किए गए खाद्यान्न तथा पीडीएस के जरिये अंतिम उपभोक्ता को उपलब्ध खाद्यान्न की मात्रा के बीच अंतर। यदि प्रणाली अंतिम छोर तक आपूर्ति में असफल रही है तो कुल मिलाकर एमएसपी के फायदे खत्म ही हो जाते हैं और सरकार ठगी रह जाती है - पहले वह एमएसपी देती है और उसके बाद अपने आप पीडीएस के जरिये सब्सिडी का बोझ लाद लेती है, जो सब्सिडी वांछित लाभार्थियों तक पहुंचा ही नहीं पाती।

इस वर्ष अच्छे मॉनसून के बीच सरकार उम्मीद कर सकती है कि एमएसपी के जरिये उसके हस्तक्षेप के अच्छे परिणाम नजर आएंगे। चावल, गेहूं और दालों जैसे आवश्यक अनाजों के उत्पादन में हमारी स्थिति और भी आरामदेह हो सकती थी। किंतु इसमें अपनी ही चुनौतियां हैं, जिनसे सरकार को निपटना होगा। प्रचुर उत्पादन के लिए प्रभावी भंडारण व्यववस्था की आवश्यकता होती है, एफसीआई को अपने गोदाम आधुनिक बनाने होंगे और दुरुस्त करने होंगे। इसके अलावा अगर आवश्यकता से बहुत अधिक उत्पादन हो जाता है तो बाजार में कीमतें ढह जाएंगी, जिसका किसानों पर प्रतिकूल असर होगा। आखिरकार किसान आवश्यकता से अधिक उपजी अपनी पूरी फसल एमएसपी प्रणाली के जरिये ही नहीं बेचता है और न ही सरकार समूची फसल को खरीद सकती है, इसलिए इसका बड़ा हिस्सा खुले बाजार में बेचा जाता है, जहां मांग और आपूर्ति के समीकरण समेत तमाम तरह की अनिश्चितताएं होती हैं।

(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक टिप्पणीकार एवं लोक मामलों के विश्लेषक हैं)


Translated by: Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)
Published Date: 12th August 2016, Image Source: http://www.financialexpress.com
(Disclaimer: The views and opinions expressed in this article are those of the author and do not necessarily reflect the official policy or position of the )

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