बीजिंग की नीतियों में दलाई लामा के प्रति बदलाव तब स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर हुआ जब बारहवीं राष्ट्रिय जन कांग्रेस (NPC), यानि चीन की संसद जैसी चीज़ 15 मार्च 2016 को ख़त्म हुई। चीन ने एन.पी.सी. के सत्र और चिनिं के सी.पी.पी.सी.सी. (Chinese People’s Consultative Conference), जिन्हें एक साथ ‘टू बिग’ के नाम से भी जाना जाता है – उनके इस्तेमाल से तिब्बत के अलग अलग बौध गुटों और दलाई लामा के बीच और दरार डालने का प्रयास किया, ताकि उन्हें अलग थलग किया जा सके। तिब्बत स्वायत्त्त क्षेत्र के अधिकारीयों की टिप्पणियों पर ध्यान दें तो ‘टू बिग’ के समाप्ति पर उन्होंने स्पष्ट इशारा कर दिया था कि तिब्बत में जारी सख्ती में कोई कमी नहीं आएगी।
चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व के लिए तिब्बत भी एक व्यस्तता रही है, हालाँकि सी.पी.पी.सी.सी. चेयरमैन और पोलितब्यूरो की स्थायी समिति (पी.बी.एस.सी.) सदस्य, यु झेंगशेंग, ने अपनी सोलह पन्ने की रिपोर्ट में सी.पी.पी.सी.सी. के 2200 प्रतिनिधियों से बात करते समय तिब्बत का कोई विशेष जिक्र नहीं किया। उन्होंने सिर्फ इतना कहा कि, “हमने सांस्कृतिक एकता और धार्मिक सौहार्द्य का माहौल बनाये रखने का प्रयास किया है ताकि लोगों को एकजुट रखा जा सके और उनकी शक्तियां इकट्ठी, एक दिशा में काम करें। सी.पी.पी.सी.सी. ही चीन की प्रमुख राजनैतिक सलाहकार संस्था है, जो राष्ट्रिय अल्पसंख्यकों, ख़ास तौर पर तिब्बत और जिनजियांग क्षेत्र में गैर कम्युनिस्ट पार्टी की तौर पर काम देखती है। बाकी सचिवों की ‘टू बिग’ सत्रों के आस पास के दिनों में अलग अलग बैठकों में तिब्बत मुद्दे पर सीधी बात चीत हुई।
सी.पी.पी.सी.सी. के चेयरमैन यु झेंगशेंग ने अपनी रिपोर्ट में सोलह बार “धर्मों” का जिक्र किया, पिछले साल की होंगकोंग की ता कुंग पाओ की तुलना में देखें तो ये छह बार ज्यादा था। एक प्रमुख घटना ये भी हुई है कि रिपोर्ट में कार्यकर्ताओं को “धार्मिक समूहों के समाज सेवा के काम, उनके द्वारा रखी गई जमीन-जायदाद के इस्तेमाल और धार्मिक नियमों पर अपने इलाकों के धार्मिक समूहों को सलाह देने के लिए भी कहा गया है ताकि वो समाज के बदलावों के साथ चल सकें”। ख़ास तौर पर “धार्मिक समूहों की जमीन जायदाद सम्बन्धी नीतियों” का जिक्र ध्यान देने लायक है। रिपोर्ट पहली बार “धार्मिक दान” के मसले का भी जिक्र करती है।
अपने 3 मार्च 2016 की विज्ञप्ति में आधिकारिक समाचार एजेंसी जिनहुआ ने कहा है कि यु झेंगशेंग ने हाल के ही किउशी लेख के विचारों को ही आगे बढाया है और “सी.सी.पी. के सदस्यों और सी.पी.पी.सी.सी. राष्ट्रिय समिति के दायरे में काम करने वालों को अपनी विचारधारा को सार और पार्टी की दिशा में ही आगे बढ़ाने” को कहा है। सी.सी.पी केन्द्रीय समिति की वैचारिक पत्रिका किउशी (सत्य की ख़ोज) पार्टी और केन्द्रीय नेतृत्व के प्रति निष्ठा परिलक्षित होती है, “सी.पी.सी. केन्द्रीय समिति के प्रति वफादारी, उसके जनरल सेक्रेटरी ज़ी जिनपिंग के प्रति निष्ठा, उनके विचारों, आदर्शों, बताये गए रास्तों और नीतियों के प्रति समर्पण” से, साथ ही कहा गया है की “पूरे समाज को ज़ी के चीन के भविष्य के स्वप्न और राष्ट्रिय पुनरुत्थान के लिए एकजुट रहना चाहिए”।
शायद सी.सी.पी. के प्रति अपनी निष्ठा प्रदर्शित करने के लिए ही टी.ए.आर. से आये सी.पी.पी.सी.सी. और एन.पी.सी. के सत्रों में भाग लेने पहुंचे 18 प्रतिनिधियों ने पांच चीनी नेताओं की तस्वीर वाले बैज लगा रखे थे। एक में माओ ज़ेडोंग, डेंग जियाओपिंग, जियांग जेमिन, हु जिनटाओ और राष्ट्रपति ज़ी जिनपिंग थे तो दुसरे में सिर्फ ज़ी जिनपिंग की तस्वीर थी। तिब्बत के मठों और मंदिरों में भी माओ ज़ेडोंग, डेंग जियाओपिंग, जियांग जेमिन और हु जिनटाओ की तस्वीरें 2011 से दिखती हैं। हालाँकि तिब्बती प्रतिनिधियों में से एक ने बताया कि वो टी.ए.आर. की पचासवीं वर्षगांठ के मौके को प्रदर्शित करने के लिए बैज लगाये हुए है, लेकिन ज़ी जिनपिंग छवि सुधरने के बदले इसने निंदा को ही आमंत्रित किया। अंतिम दिन प्रतिनिधि बिना बैज के ही नजर आये !
कुछ रोचक घटनाओं ने "टू बिग" सत्रों के समय के आस पास ही तिब्बत मुद्दे की तरफ ध्यान आकर्षित किया। एक तो चीन की सरकारी न्यूज़ एजेंसी ‘जिनहुआ’ (मार्च 1, 2016) को सी.सी.पी के तिब्बती धार्मिक मामलों में दखल की सकारात्मक छवि बनाने की कोशिश कर रही थी। उन्होंने सुन चुन्लान, जो की पोलित ब्यूरो सदस्य और सी.सी.पी. सी.सी. के यु.ऍफ़.डब्ल्यू.डी. (United Front Work Department) के प्रमुख हैं उनके चीन द्वारा मनोनीत पंचेन लामा – ग्याल्तसें नोरबू, से उनके तिब्बत प्रवास के बाद बेजिंग लौटने पर मुलाकात को छापा। उन्होंने कहा की ग्याल्तसेन नोरबू ने कहा है की “वो सी.पी.सी. की केन्द्रीय कमिटी और ज़ी के निर्देशों का ख्याल रखेंगे”, उन्होंने ये भी वडा किया है कि “तिब्बती बौद्धों के समाजवादी विचारधारा के समाज के साथ मिलकर काम करने” पर भी वो बल देंगे। उन्होंने कहा कि वो तिब्बत की खुशहाली और शांति-व्यवस्था के लिए कार्यरत रहेंगे।
इसके विपरीत अगर देखें तो अमेरिका से रेडियो फ्री एशिया (आर.ऍफ़.ए.) के हवाले से खबर आई थी कि तिब्बत में विरोध बढ़ता जा रहा है और उन्होंने विरोध के लिए आत्मदाह की घटना को भी प्रसारित किया था। ये एक तिब्बती बौध भिक्षु कलसंग वांगडू द्वारा की आत्मदाह की घटना थी। वांगडू, रेट्सोखा अर्यालिंग मठ से थे जो कि कार्डजे तिबत्ती प्रान्त के स्वयायत प्रभाग न्याग्रोंग (जिन्लोंग) में सिचुआन प्रान्त में है और घटना 29 फ़रवरी 2016 की थी। बाद में टी.ए.आर. के प्रवक्ता ने ऐसी किसी घटना के होने से इनकार किया था। एक दूसरी आर.ऍफ़.ए. की रिपोर्ट में बताया गया था कि 1 मार्च 2016 को एक 33 वर्षीय तिब्बती औरत को नागबा प्रान्त में मेरुमा के सिचुआन इलाके में गिरफ्तार कर लिया गया था क्योंकि वो ‘दलाई लामा की तस्वीर के साथ चीनी नीतियों के खिलाफ नारे लगा रही थी।
दलाई लामा के समर्थन को तब और बल मिला जब 10 मार्च, 2016 को जिनेवा ग्रेजुएट इंस्टिट्यूट में चीनी दूतावास के 8 मार्च के लिखित विरोध को दरकिनार कर दिया। दलाई लामा का अमेरिका और कनाडा द्वारा संयुक्त रूप से प्रायोजित एक समारोह में अन्य नोबेल पुरस्कार विजेताओं के साथ स्वागत किया गया। चीनी दूतावास के लिखे ख़त में स्पष्ट लिखा है, “चीन चौदहवें दलाई लामा की अलगाववादी गतिविधियों का विरोध करता है, चाहे वो देश के नाम पर हो, संस्था के नाम पर हो, या किसी घटना के नाम पर हो। वो लोगों को “इस समारोह में शामिल होने से मना करते हैं और चौदहवें दलाई लामा और उनके साथियों से मिलने से भी रोकते हैं। ये समारोह दलाई लामा के तिब्बत से निकल भागने और ल्हासा के व्यापक दंगों को 57वीं सालगिरह भी थी जब अमेरिका, कनाडा और ग्यारह अन्य देशों ने चीन के वकीलों को गिरफ्तार करने का विरोध किया है।
इसके अलावा भी कुछ गौर करने लायक घटनाएँ हुई थी। दस मार्च 2016 को अमेरिकी कांग्रेस प्रतिनिधि मंडल के सुश्री नैंसी पेलोसी और जिम मैकगोवेर्न जिन्होंने साथ सैलून में पहली बार 2015 में तिब्बत प्रान्त का दौरा किया था, उन्होंने एक वक्तव्य जारी किया। उन्होंने कहा, “मानवाधिकारों की स्थिति चीन में व्यथित कर देने वाली है। हमारी यात्रा ने हमें बताया कि हमारे पास सिमित लेकिन उत्साहवर्धक अवसर हैं जिनसे चीनी सरकार को तिब्बत के प्रति अपनी नीतियों में बदलाव के लिए प्रेरित किया जा सकता है”। उन्होंने ये भी जोड़ा की, “चीन के साथ हमारी बात चीत में, हर स्तर पर, ये एक प्रमुख मुद्दा होना चाहिए। तिब्बत में मानवाधिकार, और चीन के अन्य इलाकों में मानवाधिकारों के लिए भी हमारे देश की जिम्मेदारी बनती है। ये कहना कि, “सिमित मगर उत्साहजनक अवसर हैं”, बताता है कि तिब्बत समर्थक शक्तियां पर्दे के पीछे भी अपने काम में लगे हैं।
एकदम अचानक ही अंतर्राष्ट्रीय शुगदेन समुदाय (आई.एस.सी.) का 10 मार्च, 2016 को दलाई लामा के तिब्बत से निकल भागने और ल्हासा में दंगों के 57वें वर्षगाँठ के मौके पर अचानक से “दलाई लामा के विरोध के प्रदर्शन” को पूरी तरह बंद करने और अपनी वेबसाइट को भी बंद कर देना भी आश्चर्यजनक फैसला था। दलाई लामा ने इस अवसर पर रयूटर्स की उस रिपोर्ट को भी इसका श्री दिया जिसमें उन्होंने खोजी पत्रकारिता का इस्तेमाल शुगदेन समुदाय के कामों के बारे में जानने के लिए किया था। दलाई लामा ने रिपोर्ट को “समग्र, सबका समन्वय करने वाला प्रस्ताव और काफी मददगार” बताया लेकिन आई.एस.सी. के फैसला करने का कारण पूछे जाने पर उनहोंने कहा की उन्हें “पता नहीं” कि इसका कारण क्या हो सकता है।
चीनी नीतियों में दलाई लामा के प्रति बदलाव के बारे में एक निर्देश 64 वर्षीय टी.ए.आर. के उप पार्टी सचिव पद्मा चोलिंग (बइमा चिलिन) के बयान से भी आता है। उन्होंने पत्रकारों से बात करते समय कहा कि दलाई लामा “अब कोई धार्मिक नेता नहीं रह गए क्योंकि भाग कर उन्होंने अपने देश और जनता के साथ छल किया है। अगर दलाई लामा वापस तिब्बत आना चाहते हैं तो उन्हें “तिब्बती आज़ादी” की अपनी मांग को सार्वजनिक तौर पर छोड़ना होगा और मानना होगा कि तिब्बत और ताइवान चीन के ना अलग किये जा सकने वाले हिस्से हैं जहाँ चीन की जनता की सरकार ही एकमात्र सरकार है। पद्मा चोलिंग की टिपण्णी गौर किये जाने लायक है और बेजिंग के तिब्बत रिसर्च से जुड़े झांग यूँ कहते हैं की ये दिखता है “दलाई लामा को केन्द्रीय सरकार अब धार्मिक नेता नहीं मानती, वो धर्म के प्रसार को छोड़कर अब अलगाववादी राजनीती के स्रोत समझे जाते हैं। झांग यून ये भी कहते हैं कि “ये परिवर्तन केन्द्रीय नेतृत्व के कई सालों के अध्ययन के आधार पर आई है, जिसमें वो मानते हैं की दलाई लामा का चीनी सरकार के प्रति विरोध ख़त्म होने वाला नहीं है। जिओंग कुंजिन जो कि नैतिक अध्ययन के प्रोफेसर हैं और चीन के मिन्जू यूनिवर्सिटी में कार्यरत हैं, वो ग्लोबल टाइम्स से बात करते समय कहते हैं “बइमा चिलिन की टिपण्णी केन्द्रीय सरकार की मंशा बताती है जो दलाई लामा की पहचान बदलना चाहती है, जो कि लम्बे समय से एक धार्मिक नेता माने जाते हैं।
संवाददाताओं से अलग से बात करते समय 7 मार्च 2016 को पद्मा चोलिंग ने दलाई लामा के विदेशि दौरों के प्रति चीनी विरोध दोहराया। उन्होंने दलाई लामा के ताइवान दौरे के प्रति चीन के “कड़े विरोध” की बात करते हुए कहा की “जो भी ताइवान में सत्ता में है और दलाई लामा को आमंत्रित करता है हम उसका विरोध करते हैं। सबको पता है कि दलाई लामा किस किस्म के व्यक्ति हैं। दलाई लामा को अपने अलगाववादी नजरिये को छोड़कर मातृभूमि को तोड़ने की अपनी कोशिशें बंद करनी चाहिए”।
नीतियों में ये बदलाव सी.सी.पी. सी.सी. पी.बी.एस.सी. के बंद दरवाजों के पीछे हुए 30 जून, 2015 के विमर्श का नतीजा है जिसके बाद कहा गया था कि, “केन्द्रीय सरकार का पुनःजागरण की प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण भूमिका है। ऐतिहासिक रूप से ये अनेक उदाहरणों में दोहराया जा चुका है। सरकारी न्यूज़ एजेंसी जिन्हुआ की रिपोर्ट में जोड़ा गया कि, “राष्ट्रिय सुरक्षा और एकता के मद्देनजर दलाई लामा की गतिविधियों पर चीनी सरकार की मंजूरी जरूरी है। एशिया न्यूज़ ने एक अनाम स्रोत के हवाले से बताया कि कम्युनिस्ट पार्टी की बैठक में ज़ी जिनपिंग ने कहा है की, “नए दलाई लामा चाहिए, बात ख़त्म! अगर चीज़ें सुचारू रूप से नहीं चलतीं तो सरकार सुधार के लिए कदम उठाने को तैयार है।
दलाई लामा पर “भगोड़े” होने और चीन की जनता से “धोखाधड़ी” करने का आरोप लगातार ही लगता रहा है। पहली बार चीन ने दलाई लामा को “राष्ट्र विरोधी” और “देशभक्तिहीन” तब कहा था जब उन्होंने अरुणांचल प्रदेश और तवांग को भारत का भाग बताया था। चीनी अधिकारीयों और दलाई लामा के प्रतिनिधियों के बीच 29 जून से 5 जुलाई 2007 के बीच हुई बातचीत में जब भारत चीन सीमा विवादों की बात छठे दौर की वार्ता में चली थी तब लगाया गया था।
यहाँ गौर करने लायक ये भी था इन वार्ताओं में दलाई लामा को अलग थलग करने की जोरदार कोशिश की गई। एक चीनी गायक और दो कलाकारों ने कर्मा कर्ग्यु गुट के तिब्बती बौद्धों के समारोह के लिए बोध गया का 14 फ़रवरी, 2016 में दौरा किया था, टी.ए.आर. के उप पार्टी सचिव, वू यिन्ग्जिए ने ये मुद्दा उठाने की 7 मार्च 2016 को सोची। एन.पी.सी. की बैठकों के मौके पर उन्होंने गायक फाये वोंग, कलाकार टोनी लुंग चिऊ-वाई और कलाकार हु जून की, बोध गया के 92वें जन्म समारोह में, 17वे ज्ञालवांग करमापा के समारोह में शामिल होने की निंदा की। उन्होंने कहा कि ये चाहे जिनते भी प्रभावशाली हो, और उनका चाहे जो भी उद्देश्य रहा हो, लेकिन 14 वें दलाई लामा के किसी भी समर्थन को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। चीन की आधिकारिक मीडिया ने भी इन कलाकारों की निंदा की। कलाकार फाये वोंग और टोनी लयूंग चिऊ-वाई ने कोई जवाब नहीं दिया लेकिन सोशल मीडिया अकाउंट से हु जून ने लिखा कि उन्हें पता नहीं था की वहां कोई “अलगाववादी” तत्व मौजूद थे। यहाँ गौर करने लायक है की दलाई लामा और उनके “लोगों” को ही निंदा के लिए चुन कर अलग किया गया। सैलानियों को उनसे मिलने से मन किया गया लेकिन ग्यालवा करमापा जो कि कर्मा कर्गयु गुट के तिब्बती बौद्धों के प्रधान हैं उन्हें किसी भी निंदा से बिलकुल अलग रखा गया। इस तरह से दलाई लामा को अलग थलग करने की कोशिशों के चीनी प्रयासों को और बल दिया गया जिसमें दलाई लामा को चीनी अन्य तिब्बती बौद्धों से अलग थलग करना चाहते हैं।
अपनी नेपाल नीति के तहत 2014 के मध्य में बीजिंग ने तिब्बती बौद्ध अनुयायियों को लुम्बिनी में समारोह आयोजित करने पर कुछ और छूट दी है। पहले लाभार्थी साक्य मत के और उनके अन्य समर्थक थे जिन्हें दशको बाद वहां मोनलम समारोह आयोजित करने का मौका मिला। ये नीति बौद्ध समुदायों में दरार लाने का प्रयास करती है, साथ ही दलाई लामा की धार्मिक सत्ता को भी कमजोर करती है। दलाई लामा को काठमांडू जाने की इजाजत नहीं होगी जब तक की वो सी.सी.पी. के बेजिंग नेतृत्व के मन मुताबिक बातें करना ना शुरू कर देते हैं। इसी बीच न्यिन्गमापा समुदाय ने पिछले साल बीजिंग की सत्ता को स्वीकारते हुए अपने पेनोर रिमपोचे को मान्यता दिलवाई है।
भारत पर संभावित प्रभाव डालने वाले कुछ और भी परिवर्तन हुए हैं। टी.ए.आर. के पर्यटन विकास कमीशन के चीनी उप निदेशक होन्ग वेई का एक अंग्रेजी चीनी दैनिक में बयान आया था जिसमे वो कहते हैं की अगले पांच सैलून में “तिब्बत स्थानीय और विदेशी पर्यटकों के लिए और खोला जायेगा। हम विदेशियों के लिए सफ़र को आसान बनायेंगे, वीसा की प्रक्रिया को सुविधाजनक करेंगे, साथ ही इन्तजार का समय भी कम करेंगे”। टी.ए.आर. के उप पार्टी सचिव पद्मा चोलिंग ने साफ़ किया है कि गैर चीनी यात्रियों को चीनी वीसा के अलावा इस क्षेत्र में यात्रा के लिए एक अलग परमिट की जरुरत होगी, लेकिन चीनी वीसा को पूरी तरह ख़त्म नहीं किया जायेगा। एन.पी.सी. ने एक नयी रेलवे लाइन चेंगडु में सिचुआन प्रान्त से होते हुए ल्हासा को जोड़ने के लिए बनाने की भी अनुमति दे दी है। ये एक सामरिक जरुरत का प्रोजेक्ट है, न्यिनग्ची से होकर एक बड़े सैन्य और मिसाइल अड्डे से होकर गुजरने वाली ये रेल लाइन अरुणांचल प्रदेश के पास चीनी सामरिक शक्ति को लाने का मौका देगी। नेपाल के तिब्बती बॉर्डर से सटे क्यिरोंग इलाके तक रेल लाइन को ल्हासा-शिगात्से प्रान्त से बढ़ा कर लाने की भी इजाजत दे दी गई है।
चीनी नीतियाँ ये साफ़ तौर पर दर्शाती हैं की वो अब दलाई लामा को एक धार्मिक नेता नहीं मानती और उनसे सम्बन्ध जारी रखने में उनकी कोई रूचि नहीं है। दलाई लामा के चीन लौटने के लिए पूर्व शर्तें रखकर वो उनके प्रयासों को भी नेस्तोनाबूद करने में जुटी हैं। इन सबका असर भारत पर भी पड़ेगा। यहाँ ख़ास तौर पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि चीन ने तिब्बत के अन्य बौद्ध समुदायों के धार्मिक नेताओं को भी अपने साथ मिलाने की कोशिशें शुरू कर रखी हैं।
(लेखक भारत सरकार के केन्द्रीय सचिवालय के पूर्व अतिरिक्त सचिव हैं और सेंटर फॉर चाइना एनालिसिस के प्रसीडेंट भी हैं।)
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