मैं जितना अधिक सोशल मीडिया को पढ़ता हूं उतना ही अधिक मुझे देश की मनोदशा के बारे में पता चलता है। देश की मनोदशा कभी भी स्थिर नहीं होती है, यह समय और आज दुनिया को आकार दे रहे सोशल मीडिया के साथ बदलती है। अगर हमारी खूफिया संस्थाएं और देश व जम्मू-कश्मीर राज्य के नेता सोशल मीडिया का विश्लेषण नहीं कर रहे हैं तो वे अंततः हर समस्या के संदर्भ में देश की मनोदशा को सही से समझने में चूक कर रहे हैं। हंदवाड़ा की घटना ने केवल जम्मू-कश्मीर ही नहीं बल्कि पूरे देश की भावनाओं को व्यापक स्तर पर उद्वेलित किया है। इससे एक और जहां घाटी में कुछ लोग निश्चित दुस्साहस करने के लिए उकसाये गए हैं वहीं दूसरी ओर इससे देश में व्यापक निराशा भी हुई है। वीडियो प्रसार किया जा रहा है, जवान इस भीड़ से सौम्यता और शांति के साथ निपट रहे हैं और केवल कुछ मौकों को छोड़कर चुपचाप अपने बंकरों में बैठे हैं। पूर्व की तरह ही अलगाववादी लोग इस मौके का फायदा उठाकर केवल कश्मीरी ही नहीं बल्कि कार्यकर्ताओं और अंतरराष्ट्रीय समुदाय की सहानुभूति लेने के प्रयासों में लगे हुए हैं। 2008-10 के दौरान सशस्त्र बलों पर पत्थर फेंकने की घटनाओं को एक अहिंसक आंदोलन के रूप में प्रचारित करने में काफी हद तक इन्होंने सफलता पाई थी। सड़कों पर हो रही यह लक्षित हिंसा बाहर से प्रायोजित और आंतकियों से संबंद्ध होने के बावजूद प्रशासन ने लोगों की धारणा को बदलने के लिए छोटे-मोट कदम उठाए थे। मुझे लगता है कि इस समय अलगाववादी लोग हर हिसाब से गलत दिशा में जा रहे हैं। लेकिन केंद्र के प्रबंधन तंत्र को इससे मिलकर निपटना होगा। इस समय अंतरराष्ट्रीय समुदाय आतंकवाद और इसके कट्टरवाद से पीड़ित है। अलगाववादी लोग इस घटना को स्वतंत्रता चाहने वालों को दबाये जाने के प्रयासों के तौर पर चित्रित करने का प्रयास करेंगे लेकिन केंद्र को चाहिए कि वह अंतरराष्ट्रीय समुदाय की चिंताओं को ध्यान में रखते हुए इस परिस्थिति से निपटे। कुछ साल पहले फिलिस्तीन में भी इसी तरह के असफल प्रयास किए गए थे। लेकिन हमास कोई बहुत ज्यादा संवेदना बटोर नहीं पाया था। राष्ट्रीय स्तर पर अगर बात करें तो लोग ये बिल्कुल नहीं चाहते हैं कि सेना इस तरह की घटनाओं से निपटने के लिए बहुत देर तक सौम्यता और शांति बरते और इस तरह की प्रयोजित घटनाएं घटती रहें। यह सेन्य नेतृत्व और नई सरकार जो इस समस्या को शुरू में सही तरीके से नहीं संभाल सकी, दोनों के लिए ही एक चुनौती है। जब गुस्सा भड़क रहा है तो राज्य सरकार और सेना को एक ही सतह पर काम करना चाहिए। यही अलगाववादियों के इरादों को नाकाम करने का सबसे सही तरीका है। संयम दिखाकर निश्चित ही मुख्यमंत्री सही दिशा में काम कर रही हैं लेकिन साथ ही अलगाववादियों को यह स्पष्ट संदेश भी देने की जरूरत है कि वे निर्दोष लोगों की जानों से खेलना बंद करें। हमेशा यह जरूरी नहीं है कि भीड़ को नियंत्रित करने के लिए चलाई जाने वाली गोली से पत्थर फेंकने वाले लोग ही मरें, पास खड़े दर्शकों में से भी किसी की जान जा सकती है। भीड़ पर चलाई गई गोली किसी को भी लग सकती है। आखिर क्यों वहां दंगों को नियंत्रित करने के लिए पर्याप्त काम नहीं किए जाते जब तक की कोई बड़ा हादसा ना हो जाए। यह लगभग सर्वविदित ट्रक स्कैनर जैसा ही है जिसे 1999 में शुरू किया गया था और यह आज उतना प्रभावी नहीं बनाया गया है, किसी को इसका जवाब देने की जरूरत है।
मैं वर्ष 2008-10 के दौरान बारामुला में हुए विरोध प्रदर्शनों की याद दिलाना चाहूंगा। इनमें से ज्यादातर का मैने सामना किया है। यह मेरे काम में एक तरह का अनुभव था। भीड़ रोज ही हमारी हिम्मत और धैर्य की परीक्षा लेती थी। साथ ही मुझे मेरे नियंत्रण रेखा की रक्षा और घुसपैठ की रोकथाम करने के मुख्य कार्य से भी विचलित करती थी। इसके लिए मैं अपने साथ काम कर रहे कुछ अच्छे सैन्य कर्मियों का धन्यवाद देना चाहूंगा जिनके कारण हम हमेशा ही इन समस्याओं का समाधान करने में सफल रहे, हालांकि वह स्थायी नहीं था। यह देखा गया कि पत्थर फेंकने की घटनाओं में एक तरह की समानताएं हैं और भीड़ में से कुछ निश्चित नशाखोर और मजदूर ही पत्थर फेंकने की घटनाओं में शामिल रहते हैं। ये नशाखोर इस बात से खुश थे कि पत्थर फेंकने के एवज में प्रतिदिन मिलने वाले 300 रुपये से वे अपने लिए नशे का सामान खरीद सकते हैं और मजदूर इस बात से खुश थे उन्हें इस काम के बदले मिलने वाले पैसे उनकी रोज की कमाई से ज्यादा थे। सभी खुश थे सिवाय उनके अभिभावकों को छोड़कर। यह समाज का वो अंग है जिसके साथ हमें मिलकर काम करने की जरूरत है।
यहां दो अनुभवों को बताने की जरूरत है। पहले के तहत एक पुराने शहर में अभिभावकों और बड़े लोगों से सीधा संपर्क किया गया। लगभग हर दिन लोगों को रात्रि कालीन चाय और पकौड़ों के साथ उनसे संपर्क किया गया और बातचीत की गई। पुराना शहर की पहचान सबसे ज्यादा पत्थर फेंकने वालों के तौर पर बन गई थी। इस बात की उम्मीद की गई थी कि अभिभावक वापस जाकर अपने बच्चों को इस बुराई से दूर हटाने की दिशा में कुछ काम करेंगे। ठीक इसी समय पर शहर में लगे कर्फ्यू में भी दूध और सब्जियों की आपूर्ति के लिए ढील दी गई। चूंकि सभी क्लिनिक बंद थे इसलिए सेना के सभी चिकिस्ता दस्तों को किसी भी बीमार के इलाज के लिए हमेशा तैयार रहने का निर्देश दिया गया था। जिलाधिकारी की तरफ से लगातार ये प्रार्थना आ रही थी कि विरोध पर उतारू भीड़ को नियंत्रित करने के लिए सेना को तैनात किया जाए। लेकिन केवल कुछ ही मामलों में ताकत का इस्तेमाल किया गया। अभिभावकों के साथ हुई बैठकों में यह संदेश देने से बचने का कोई प्रयास नहीं किया गया कि अगर सेना इस मामले में हस्तक्षेप करेगी तो वो हवा में गोलियां नहीं चलाएगी, इस कदम से केवल लोग मारे जाएंगे। यह स्थानीय स्तर पर समझाने का काम कर रहा प्रबंधन था।
दूसरा अनुभव बारामूला का है जब मैं श्रीनगर में था। शहर में फिर से अशांति की स्थिति पैदा हो गई थी। वही नशाखोर लोग, वही जवान, वही मजदूर और अन्य लोग जो तत्काल वहां मौजूद थे इसमें शामिल थे। उनमें से कुछ लोगों को गिरफ्तार कर श्रीनगर की केंद्रीय जेल में भेज दिया गया। वहां उन्हें घर का खाना खाना, मोबाइल सिम कार्ड उपलब्ध थे और वे रोजाना अपने परिवारजनों और दोस्तों से मिल रहे थे जो उन्हें समाज में एक नायक की तरह प्रस्तुत कर रहे थे। इस पर रोक लगाने के लिए जेल अधिकारियों को मनाने के सारे प्रयास विफल रहे।
तब कुछ अधिकारियों की तरफ से एक अच्छा विचार आया। आंतरिक अशांति की स्थिति से निपटने का अनुभव रखने वाली सेना की 46 आरआर ने वीडियो कैमरा टीम का गठन किया। भीड़ को झेलम के ऊपर बने पुल को पार करने की इजाजत दी गई और इस दौरान पत्थर फेंक रहे युवकों का वीडियो बनाया गया । यह लगातार दो दिन तक किया गया। जब पर्याप्त वीडियो साक्ष्य एकत्र हो गए और संबंधित युवकों की पहचान कर ली गई तो शेरवानी हॉल स्थित एक सामुदायिक केंद्र में उनका प्रदर्शन किया गया जो सेना की एक सद्भभावना सुविधा के तौर पर काम करता है। जम्मू कश्मीर पुलिस का उन्हें पहचानने और सहायता करने में सदा सहयोग रहा। जब अभिभावकों के सामने पत्थर फेंकते उनके बच्चों के वीडियों दिखाए गए तो कोई भी अभिभावक यह नहीं बोल पाया कि इन घटनाओं में उनका बच्चा शामिल नहीं है। बिना किसी झिझक के स्पष्ट रूप से यह संदेश दिया गया कि सेना और जम्मू-कश्मीर पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए गए नौजवानों को श्रीनगर केंद्रीय जेल से हटाकर जम्मू भेजा जाएगा। वहां घर का बना कोई खाना नहीं होगा, किसी को रोज मिलने की इजाजत नहीं होगी और कोई मोबाइल फोन भी नहीं होगा। वहां जाकर मिलने के लिए अभिभावकों को हर बार कम से कम 5000 रुपये टैक्सी पर खर्च करने होंगे। अब अभिभावक ये कल्पनाएं कर रहे थे कि वहां जेल अधिकारी उनके बच्चों के साथ कैसा व्यवहार करेंगे। जम्मू कश्मीर पुलिस को इस बात के लिए शाबासी देनी चाहिए कि उसने कुछ मामलों में इस योजना का पालन किया और इसका बहुत जबर्दस्त मनोवैज्ञानिक प्रभाव देखा गया। यह समझाने का एक तरह का प्रभावी तरीका था। उस गर्मी लगभग छह महीने बारामूला पूरी तरह से शांत रहा।
हालांकि यह एक तरह का पुराना तरीका है जो ऐसी परिस्थिति में प्रभावी नहीं होगा जब अलगाववादी लोग स्पष्ट तौर पर सेना के साथ टकराव की जमीन तैयार कर रहे हों। 2010 में अलगाववादी नेता गिलानी ने सेना के कैंपों का घेराव करने का आह्वान किया था। तब सेना ने एक बहुत ही कमजोर सा संदेश दिया था कि वह इस तरह की गतिविधियों से निपटने में कोई कोताही नहीं बरतेगी। इस समय अतीत में अपने कट्टरपन के लिए जाने वाले नुटनुस कस्बे में आरआर कैंप की घटना ने तूफान खड़ा कर दिया था। आरआर सैनिकों ने गोलियां चला दी थी और वहां कुछ मौतें हो गई थी। हालांकि अलगाववादी अब एक बड़ी गलती कर रहे हैं कि वे देश और दुनिया का मूड समझने में भूल कर रहे हैं। आप इस बात को बिल्कुल भी हल्के में नहीं ले सकते हैं कि प्रतिक्रिया हमेशा एक जैसी ही होगी। सड़क पर खून बहाने के अलावा भी अपनी प्रासंगिकता को दर्शाने के दूसरे तरीके हो सकते हैं। स्थानीय मीडिया को भी आत्मविश्लेषण करने की जरूरत है क्योंकि इस तरह की घटनाओं में बाल की खाल निकालने से स्थिति केवल बिगड़ती है और संघर्ष पैदा करती है। क्या आने वाले समय में स्थिति सुधरेगी या खराब होगी। वे स्पष्ट तौर पर दुनिया की स्थिति को समझने में विफल हो रहे हैं।
सेना की अपने आप में एक अलग पहचान बनाकर सैनिक और राजनीतिक नेतृत्व में भी मतभेद पैदा करने की कोशिशे की जा रही हैं। यह एक तरह का मनोवैज्ञानिक युद्ध है जो सौम्य धारणाओं से भी परे संगठित तरीके से लड़ा जा रहा है। इसके लिए केंद्र में राजनीतिक नेतृत्व के स्तर पर योजनाएं तैयार की जानी चाहिए और राज्य स्तर पर नेताओं को उन्हें तोड़ना मरोड़ना नहीं चाहिए। सेना और अन्य सुरक्षा बलों को भी इस दिशा में गंभीरता से काम करना चाहिए और उन्हें इसके कार्यान्वयन के लिए अधिकार भी मिलने चाहिए क्योंकि ऐसा ना हो कि राज्य निकाय इन्हें प्रभावहीन ही कर दें। अलगाववादियों की मांगों को मानने से इस मामले में कोई मदद नहीं मिलने वाली है। इसका श्रेय उमर सरकार को जाता है कि उसने तब तक कोई मांग नहीं मानी जब तक कि हालांकि अफस्पा एक बड़ा मामला नहीं बन गया।
यहां से स्थिति दो ही रास्तों पर आगे बढ़ने की संभावना है। पहला तो यह कि अलगाववादियों को स्पष्ट संदेश दे दिया जाए और उन्हें काबू में रखा जाए। और दूसरा यह कि अलगाववादी यह समझ ले कि नई सरकार को दबाव में लाया जा सकता है और अपने इरादों को आगे बढ़ाया जा सकता है। अलगाववादियों को नई सरकार द्वारा अपनाए जा रहे लचीलेपन से आश्चर्य हो सकता है जिसमें मैं ज्यादा उम्मीदें देख रहा हूं। नहीं तो यह आखिरीबार नहीं होगा जब हम कश्मीर की सड़कों पर अशांति देख रहे हो। यह बात सुनिश्चित करना बहुत महत्वपूर्ण है कि अलगाववादियों को अपने इरादों में कामयाब होने के लिए किसी भी तरह की कोई छूट ना दी जाए। क्या केंद्र सरकार, राज्य सरकार, सेना, पुलिस और केंद्रीय बलों को यह समझना जरूरी नहीं है कि आज के समय में जब सोशल मीडिया हर दिन का एजेंडा तय कर रहा है तो धारणा प्रबंधन कितना जरूरी है ? इस दिशा में पेशेवर तरीके से उठाए गए कदम यह सुनिश्चित करेंगे की अलगाववादी गतिविधियों में गिरावट आएगी और उन्हें कोई आंतरिक सहानुभूति नहीं मिलेगी।
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