मैं शुरू में ही पाठकों को बताना चाहता हूँ कि यह लेख समस्या को ज्यादा उजागर करेगा उसके हल के बजाय, क्योंकि समस्या इतनी बड़ी है कि पहले उसी को परिभाषित करना आवश्यक है। पिछले काफी समय से भारतीय सेनाओं को और खासकर आर्मी को आलोचनाओं का केन्द्र बनाकर उसी छवि को प्रभावित करने के प्रयास किये जा रहे हैं।
कुछ लोग कह रहे हैं कि आर्मी का जनसम्पर्क विभाग कमजोर है जो इस प्रकार की आलोकचनाएं जिनसे उसकी छवि पर प्रभाव पड़ता है को ठीक प्रकार से प्रबंधन एवं उत्तर देने में विवश हैं। बहुत से आधारहीन आरोप सेना के विरूद्ध लगाये जाते हैं और इनसे हमारे सैनिकों और अधिकारियों का मनोबल प्रभावित होता है। भारतीय सेना ने अपने सम्पर्क, त्याग एवं मेहनत से अपनी छवि बनायी है परन्तु सोशल मीडिया तथा प्रैस के द्वारा कुछ आलोचक इसको खराब करने में लगे हैं।
यहां पर हमें दो बातों पर गौर देना चाहिए पहला अंतर्राष्ट्रीय सीमा के दूसरी तरफ पाकिस्तान है और इस समय विश्व का सबसे दक्ष, पेशेवर अपने क्षेत्र में विशेष स्थान रखने वाला जनसम्पर्क विभाग पाकिस्तानी सेनाओं के पास है। 1949 में पाकिस्तानी सेनाओं ने तीनों सेनाओं यानि आर्मी, वायुसेना तथा थलसेना के लिए एक संयुक्त इंटर सर्विसेज जनसम्पर्क विभाग बनाया था। इस विभाग का कामकाज सेनाओं के अधिकारी और सैनिक ही करते हैं। यह विभाग सेनाओं के लिए जनसम्पर्क का काम देखने के साथ साथ उनके लिए मनोवैज्ञानिक युद्ध भी लड़ता है। यह विभाग वहां की सेनाओं की छवि पाकिस्तान तथा पूरे विश्व में बनाने के साथ सेनाओं के लिए मारक क्षमता बढ़ाने वाले हथियार की तरह काम भी करता है और इसका इस समय सबसे बड़ा निशाना भारत है जिसके विरूद्ध यह 24x7 मनोवैज्ञानिक युद्ध लड़ता रहता है। पाकिस्तानी सेनाओं के इस विभाग की सबसे बड़ी उपलब्धि है कि इसकी सेनाओं की नकारात्मक छवि होते हुए भी इस समय पाकिस्तानी सेना का शुमार विश्व की 10 सबसे बेहतरीन सेनाओं में हो रहा है। जबकि इस सूची में भारतीय सेना का कोई स्थान नहीं है। हालांकि इन सूचियों का कोई महत्व नहीं है परन्तु फिर भी पाकिस्तानी सेना की ख्याति तो बढ़ ही रही है।
भारत में सेनाओं का जनसम्पर्क तीनों सेनाओं द्वारा कामचलाऊ तरीके से चलाया जाता है क्योंकि इनकी स्थापना मान्यता प्राप्त नहीं है और इस कारण आम जनता से संवाद स्थापित नहीं कर सकते। जनसम्पर्क का पूरा विभाग रक्षा मंत्रालय के पास है जिसे देश की रक्षा का जनसम्पर्क कार्यालय कहा जाता है। इस जनसम्पर्क विभाग में सिविल के योग्य पेशेवर कार्यकर्ता हैं परन्तु इनको आज के मनोवैज्ञानिक युद्ध, जनता की राय के प्रबंधन या सैन्य नीति के अनुसार संचार में कुशलता प्राप्त नहीं है। इसमें कुछ सेना के अधिकारी हैं परन्तु इनको सेना के वरिष्ठ कमांडरों के विचारों का या वे इन विचारों द्वारा किस ग्रुप पर प्रभाव डालना चाहते हैं इसका ज्यादा ज्ञान नहीं हैं। ये क्षेत्रीय जनसम्पर्क अधिकारी है जिनकी जबावदारी रक्षा मंत्रालय के जनसम्पर्क अधिकारी के प्रति ही होती है। इनकी क्षेत्रीय सैनिक कमांडरों के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं होती इसलिए इनको उनके विचारों के बारे में भी कोई अंदाजा नहीं होता। इस प्रकार हमारा रक्षा मंत्रालय का जनसम्पर्क विभाग स्वयं को नुकसान पहुंचाने का एक अच्छा उदाहरण है। इस प्रकार देश के वरिष्ठ सैन्य कमांडरों के विचारों से भिन्न रक्षा विभाग का जनसम्पर्क विभाग एक हंसी का पात्र कहलाने योग्य है। यह सब दर्शाता है कि हम सूचना जैसे क्षेत्र में कितने पिछड़े और समय के साथ नहीं हैं।
पाकिस्तान तथा भारत में जनसम्पर्क, जनता की राय का प्रबंधनन, देश की सुरक्षा के अनुसार सूचना का आदान प्रदान के क्षेत्र में बहुत बड़ा अंतर है। पाकिस्तान में इसको विशेष सैन्य विषयों के विशेषज्ञों द्वारा प्रबंधनन होने के कारण भारतीय सेना की छवि को बहुत हानि उठानी पड़ रही है और इस कारण हमारी सेनाओं को अपने देश में छवि के साथ साथ दुश्मन देश के ऊपर भी मजबूत प्रभाव डालने में असफल रहती है। सूचना के युग में जनता एवं दुश्मन के रूप में कई अलग अलग लक्ष्य हैं और इन लक्ष्यों के प्रबंधनन की भी कई अलग अलग विधियां हैं। परन्तु सैन्य सम्पर्क को हम अभी तक एक ही प्रकार से चला रहे हैं।
इस क्षेत्र में सेना ने बड़े बहादुरी पूर्ण प्रयास किये, सबसे पहले मिलिट्री इंटैलीजैंस डायरैक्ट्रेट (एम.आइ. डायरैक्ट्रेट) में एक कोष्ट (सेल) का गठन किया जिसने युद्ध संबंधी कुछ कूटनीतिक सूचना का कार्य किया। कारगिल युद्ध के समय मिलिट्री आप्रेशन डायरैक्ट्रेट (एम. ओ. डायरैक्ट्रेट ) ने युद्ध संबंधी सूचना के काम को अपने हाथ में ले लिया जिससे जो मीडिया युद्ध संबंधी सूचना हर पलपल की सूचना चाह रहा था उसको यह सूचना उन्हीं सेना के अधिकारियों से प्राप्त हो सके जो इस युद्ध में हिस्सा ले रहे थे। जैसा कि देश, दुनिया ने देखा कि किस प्रकार युद्ध क्षेत्र से सीधी सूचनाएं मिल रही थी जो कि एक स्वागतपूर्ण कदम था। इसके बाद तय किया गया कि सेना के लिए एक अलग जनसम्पर्क विभाग खोला जाना चाहिए और इस प्रकार अतिरिक्त निदेशक जनसूचना (एडीजीपीआइ) विभाग का गठन हुआ। इसके लिए भारत सरकार से स्थापना की मंजूरी ना होने के कारण उसके लिए स्टाफ सेना के और विभागों से लेकर इसका कामकाज चलाया जा रहा है। क्योंकि इसका गठन अनौपचारिक है, इसलिए रक्षा मंत्रालय के जनसम्पर्क विभाग से इसका टकराव रोजमर्रा की सेना संबंधी सूचनाओं के प्रसारण के संबंध में होता रहता है क्योंकि रक्षा मंत्रालय का विभाग इसके कारण अपने अस्तित्व को खतरे में समझ रहा है। इसके अलावा इस मसले को और उलझाने के लिए एक और विभाग इसी क्षेत्र में एम.ओ. के नियंत्रण में युद्ध संबंधी सूचना विभाग जिसे एडीशनल डायरेक्ट जनरल युद्ध सूचना विभाग काम कर रहा है। सेना की जनसम्पर्क कार्यप्रणाली इस समय बिखरी हुई है क्यों नहीं इन दोनों यानि एम.ओ. के नीचे कार्यरत एवं अतिरिक्त निदेशक जनसूचना को एक साथ कर दिया जाये जिससे पाकिस्तानी सेना की इंटर सर्विस पब्लिक रिलेशन विभाग की तरह युद्ध संबंधी और सेना के कार्यकलापों की सूचना के लिए एक सर्वसम्पन्न विभाग हो।
नेहरूजी के समय में सेना को शक की दृष्टि से देखने के कारण जनसम्पर्क का काम सेना से दूर रखा गया था परन्तु यह अब बीते जमाने की बात है। उन दिनों में यह कल्पना से परे था कि एक सैन्य वर्दी में व्यक्ति मीडिया से बात करे तथा जनता में अपनी अलग छवि बनाये। क्या भारत में सेना नेहरू जमाने से चले आ रहे इस भेदभाव से कभी पूर्णतया बाहर आ पायेगी। इसका सबसे बड़ा उदाहरण अभी अभी हरियाणा के प्रदर्शनों में देखने को मिला जब वहां पर सेना को बुलाया गया और आजकल अर्धसैन्य बलों द्वारा भी उसी प्रकार की काम्वेट यूनीफार्म पहनने के कारण सेना को अपनी पहचान के लिए सूचना पटों का प्रयोग करना पडे़ क्योंकि इतने सालों से आग्रह किया जा रहा था कि सेना जैसी वर्दी को किसी अन्य बल को ना पहनने दिया जाना चाहिए। जैसेकि सीआरपीएफ को खाकी रंग की काम्वैट यूनीफार्म दी जा सकती है। यहां पर यह विचारणीय है कि यूनीफार्म का मनोवैज्ञानिक प्रभाव होता है और इस प्रकार हम सेना के मनोवैज्ञानिक प्रभाव को हल्का कर रहे हैं। जैसाकि पहले सिविल उपद्रवों में सेना के आने के बाद बिजली की तरह जनता पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता था तथा स्थिति आसानी से नियंत्रण में आ जाती थी। इसी प्रकार पूरे जम्मू कश्मीर में वहां की पुलिस के द्वारा सेना जैसी वर्दी पहनने के कारण सेना की छवि भी वहां की जनता की नजर में पुलिस जैसी ही बन रही है। वर्दी के महत्वपूर्ण मुद्दे पर देश का सोशल मीडिया बिल्कुल शान्त नजर आ रहा है। अब समय आ गया है जब सेना की छवि को सुधारकर उसे पहले जैसी गरिमा प्रदान की जाय। सेना की छवि से खिलवाड़ का दूसरा बड़ा उदाहरण है आम्र्ड फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट (आफस्पा) के इस्तेमाल पर बहुत से भारतीय नागरिकों द्वारा इसके बारे में पूरी जानकारी ना होने के कारण गलत बयानी करना। देश में मानव अधिकारों के संरक्षणों के नाम पर आफस्पा के द्वारा लोग सेना को जम्मू कश्मीर में बलात्कार एवं हत्याओं के लिए बदनाम कर रहे हैं। इन लोगों को इस बात की पूरी जानकारी नहीं है कि वो कौन से कारण थे जिससे इस कानून को लागू करना पड़ा और इस प्रकार के तत्वों के झूठे शोर शराबे के कारण आफस्पा को भी हल्केपन से लागू करने के लिए सेना को बाध्य किया जा रहे हैं। इस समय देश के कुछ राज्यों में जिस भावना से आफस्पा लागू किया गया था अब वह भावना करीब करीब समाप्त हो गयी है इसलिए इस समय आवश्यकता है आफस्पा की जगह एक नया कानून लागू करने की जिसमें सेना की छवि एक दोस्त जैसे संगठन की लगे इसलिए सेना के जनरल स्टाफ को चाहिए कि वह रक्षा कूटनीति संबंधी सूचना को अपनी जिम्मेवारी मे ले ले। अब केन्द्रीय सरकार को मानव अधिकारों के मुद्दों पर गम्भीरता से विचार करना चाहिए जिनकी आड़ में कुछ अपने आपको मानव अधिकारों के रक्षक कहलाने वाले सेना पर हमला करते हैं।
जब भी मैं सोशल मीडिया पर सेना के अधिकारियों और उनकी छवि के बारे में बात रखता हूं तो मुझे बहुत से जबाव प्राप्त होते हैं। उनमे से एक इस प्रकार है। कृप्या इस समय जानिये कि आज की परिस्थितियों में सेना के जवानों और अधिकारियों का मनोबल किस प्रकार प्रभावित हो रहा है। जो राष्ट्र अपने देश की सेना की आवाज नहीं सुनता वह कचरे के डिब्बे में फैंक दिया जाता है। यह काफी सख्त बयान है फिर भी इस बयान पर रक्षामंत्री पारिकर को ध्यान देना चाहिए। पारिकर एक दूरदर्शी रक्षामंत्री हैं और वे सेनाओं के जनसम्पर्क एवं रक्षा के कूटनैतिक संचार पर ध्यान देकर अपनी कार्यशैली से इसको मौजूदा स्थिति से आगे बढ़ायेंगे। इस दिशा में पहला कदम होना चाहिए कि पाकिस्तानी सेना का इंटर सर्विस पब्लिक रिलेशन विभाग किस प्रकार काम कर रहा है। दूसरी तरफ चीन की पीपल लिबरेशन आर्मी का रक्षा का कूटनैतिक संचार वहां की नेशनल डिफैंस यूनीवर्सिटी करती है और इसी प्रकार विश्व के और सेनाएं भी करती हैं परन्तु हमारी नेशनल डिफैंस यूनीवर्सिटी का तो अभी नामोनिशान भी नजर नहीं आ रहा है।
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