पाकिस्तान को एफ-16 दिए जाने पर अमेरिका का पीठ दिखानाः क्या यह एक वास्तविकता है?
Lt General S A Hasnain, PVSM, UYSM, AVSM, SM (Bar), VSM (Bar) (Retd.), Distinguished Fellow, VIF

पाकिस्तान के लिए एफ -16 उन्नत लड़ाकू विमानों की आपूर्ति पर अमेरिकी कांग्रेस का पीछे हटने की घटना, नीतिगत फैसला कम और हताशा से जन्मी कार्रवाई ज्यादा प्रतीत होती है। इस कार्रवाई ने पाकिस्तान के लिए एक अस्थायी असुविधा उत्पन्न कर दी है। समझौते के अनुसार, पाकिस्तान को 270 मिलियन डॉलर का भुगतान करना था और शेष 430 मिलियन डॉलर अमेरिका की ओर से सहायतार्थ आना था। अमेरिकी कॉग्रेस ने अपने हिस्से की अदायगी से मना कर दिया, नतीजतन पाकिस्तान को पूरे 700 मिलियन डॉलर का भुगतान अकेले ही करना पड़ता। तकनीकी तौर पर विमान की बिक्री अभी भी अवरुद्ध नहीं हुई है; लेकिन कम से कम यह अब मुफ्त भोजन की तरह नहीं रह गया जो वर्षां से होता आ रहा था।

अमेरिका-पाकिस्तान के रिश्ते काफी पुराने हैं, जो एक लंबे वक्त से चली आ रही है और इस दौरान पाकिस्तान ज्यादातर मौकों पर अमेरिका की सीमावर्ती राज्य की भांति व्यवहार करता आया है। हालांकि, जब से यह 2001 के अंत में अफगानिस्तान में अमेरिका के उलझन में शामिल हो गया, इसे अमेरिका की ओर से एक रणनीतिक सहयोगी मानते हुए, हथियार और मानवीय सहायता मुहैया कराई गई। एक अनुमान के मुताबिक अब तक यह सहायता 35 अरब डॉलर तक का हो चुका है। तालिबान के विरुद्ध एक सैन्य जीत सुनिश्चित करने में अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा सहायता बल (आईएसएएफ) की अक्षमता को देखते हुए और युद्ध के बाद धीरे-धीरे सेना की वापसी और पूरी तरह से वहां से हटने के निर्णय के बाद अफगानिस्तान और काबुल में इसके पश्चिम समर्थित सरकार के स्थिरीकरण को सुनिश्चित करने लिए अमेरिका को काफी हद तक पाकिस्तान पर निर्भर रहना पड़ा है। हालांकि, अशांत पश्चिमोत्तर सीमांत प्रांत और अफगानिस्तान से सटे अन्य सीमावर्ती इलाकों में उग्र विद्रोह/आतंकी अभियान, पाकिस्तान की खुद की सुरक्षा का सवाल बन गया है। वह यह भी मानता है कि इस आतंकी अभियान को भारत और अफगानिस्तान का समर्थन प्राप्त है, जिसकी वजह से भारत की पकड़ को कमजोर करने के लिए इसे अफगानिस्तान के भीतर अपने स्वयं के सामरिक स्थान की आवश्यकता है। इसकी तीसरी सुरक्षा संबंधी चिंता भारत जम्मू-कश्मीर में भारत से लगने वाली सीमा है।

संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान के पूर्व स्थाई प्रतिनिधि रहे मुनीर अकरम ने डॉन अखबार में लिखे एक टिप्पणी में अमेरिकी कांग्रेस के निर्णय के पीछे तीन कारणों का उल्लेख किया है। इसमें सबसे पहला कारण है, पाकिस्तानी डॉक्टर डॉ. शकील अफरीदी जिसने कथित तौर पर एक टीका कार्यक्रम की आड़ में बिन लादेन के ठिकाने से डीएनए सैंपल ले लिए थे, की रिहाई के लिए दबाव डालना है। दूसरा कारण, हक्कानी समूह के खिलाफ सैन्य कार्रवाई करने के लिए पाकिस्तान को मजबूर करना है। और, अंत में पाकिस्तान के पूर्वी मोर्चे पर भारत के खिलाफ थिएटर परमाणु हथियारों की तैनाती को रोकना है। अकरम, अवधारणाओं पर आधारित किसी भी मांग पर बनी सम्मति को नकारने की पाकिस्तान के प्रत्यक्ष निर्णय को पुरजोर तरीके से सही ठहराते हैं। पाकिस्तान का यह रवैया वास्तव में पिछले दो वर्षों में अपने विदेश मामलों को संभालने में उसकी प्रगतिशील आत्मविश्वास से उपजा है; आत्मविश्वास में यह अत्यधिक वृद्धि चीन के समर्थन से हुआ है।

ओबामा प्रशासन को अफगानिस्तान से पूर्ण रूप से अमेरिका की वापसी के लिए स्पष्ट रूप से पाकिस्तान की जरूरत है। लेकिन पाकिस्तान का लगातार यह मत रहा है कि वह षडयंत्रों का शिकार हुआ है और अफगानिस्तान की जमीन का उपयोग उसे हाशिए पर धकेलने के लिए किया जा रहा है। इसलिए पाकिस्तान का उद्देश्य उन नेटवर्कों को सक्रिय रखना है जो अफगान क्षेत्र में उसके नियंत्रण के लिए सहायक हां और भारत को इसके उपयोग से रोके। यही कारण अमेरिका के साथ उसके मतभेदों की जड़ भी है, जिसमें उसे लगता है कि अब एक बड़े रणनीतिक भागीदार के तौर पर वह भारत की ओर बढ़ता हुआ दिखाई पड़ रहा है।

कुछ मजबूरियां हैं जो अमेरिकी प्रशासन को पाकिस्तान को स्थिर रखने और अपने दांव यहां मजबूती से लगाने के प्रति बाध्य करता है। इनमें से सबसे महत्वपूर्ण पाकिस्तान की भू रणनीतिक स्थिति है। शायद ही कभी ध्यान में आया हो कि पाकिस्तान एक ऐसे भूभाग पर स्थित है, जहां चार सभ्यताओं के लक्षणों का आभास होता है। यहां फारसी, मध्य एशिया, भारतीय और चीनी सभ्यताओं के प्रभावों के रंगों की छटा है और इन सबकी गतिशीलता यहां आपस में मिलती हुई दिखाई पड़ती है। अतः मध्य पूर्व के करीब होने से, चीन से जुड़ते ही यह ’चीन पाकिस्तान आर्थिक कोरिडोर’ के रूप में दुनिया का एक महत्वपूर्ण संपर्क केंद्र बन जाएगा। हिंद महासागर के तट पर एक महत्वपूर्ण क्षेत्र पर अधिकार और यहां से मध्य एशिया के लिए अंतर्देशीय मार्गों का उपलब्ध होना, पाकिस्तान को भौगोलिक रूप से एक महत्वपूर्ण राष्ट्र बनाता है।

पाकिस्तान को शायद ही कभी यह एहसास होता हो कि भारत के एजेंडे में एक मजबूत आर्थिक शक्ति के रूप में उभरना, आर्थिक प्रगति का वाहक बनना और अपने लोगों को एक उच्च गुणवत्तापूर्ण जीवन प्रदान करना सबसे प्रमुख चीजें है। वहीं यदि पाकिस्तान की सेना जिसका पाकिस्तान की विदेश और सुरक्षा नीतियों में सीधा हस्तक्षेप होने के साथ ही सैन्य शक्ति पर दबदबा है, की बात करें तो, वह भारत से 1971 की अपनी हार का बदला लेने की इच्छा से प्रेरित है और भारत को अपने लक्ष्य की प्राप्ति से रोकना चाहता है। यह विचारधारा स्वयं को हराने वाली है और इसे अमेरिका ने नियमित रूप से हवा दी है और इसका जरिया बनाया है मानवीय और सैन्य सहायता (सामरिक तौर पर नियंत्रित करने के लिए एक साधन के रूप में इसका उपयोग किया जा सकता है) को। अमेरिका अपने प्रभाव की सीमाओं को पहचानने में विफल रहा है, पाकिस्तान की धोखाधड़ी की अनदेखी करता है और प्रमाणीकरण या मुख्य कार्यकारी अधिकारी के माध्यम से हथियार की आपूर्ति की नीति जारी रखे हुए है। अमेरिका, पाकिस्तान पर इस सबका पड़ने वाले संचयी प्रभाव और बड़े पैमाने पर दुनिया की अनदेखी करते हुए भारत के खिलाफ छद्म युद्ध जारी रखने की पाकिस्तान की नीति के मूल्यांकन में विफल रहा है। इस सैन्य हार्डवेयर के दोहरे उपयोग का विचार, जिसे पाकिस्तान की आंतरिक सुरक्षा को बढ़ाने वाला माना जाता है, अमेरिका को अच्छी तरह से मालूम है, लेकिन उपरोक्त गिनाए गए कारणों से वह इसे रोकने में नाकाम रहा है। इस्लामी कट्टरपंथ का गढ़ बन चुके पाकिस्तान पर अमेरिका द्वारा मजबूत प्रतिबंध लगाने में विफल रहने के कारण पाकिस्तानी सेना को अपने मनमुताबिक चलने की छूट मिल गई है।

अमेरिका एवं अन्य, पाकिस्तान की ओर से उत्तेजित करने वाली कार्रवाई के जवाब में भारत की ओर से हल्की प्रतिक्रिया की सही तस्वीर को समझने में असफल रहे हैं। भारत सरकार ने अपने लोगों से किए गए वादों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को जारी रखने के कारण, उकसावे में आकर सैन्य प्रतिक्रिया के रूप में जवाब देने के बजाए अपना ध्यान व्यापक विकास पर केंद्रित रखा है। हालांकि, चीन के साथ अपने मजबूत संबंधों, अमेरिका से सैन्य सहायता और अफगानिस्तान में शांति और स्थिरता के लिए अपनी महत्वपूर्ण भूमिका की व्यापक समझ के आलोक में पाकिस्तान के बढ़ते आत्मविश्वास का अनजाने में ही भारत की सहिष्णुता की दहलीज को पार कर जाने की संभावना है। भारत द्वारा एक बार स्पष्ट रूप से सैन्य विकल्प का उपयोग करने का निर्णय कर लिए जाने पर सुसज्जित परमाणु हथियारों को संतुलित नहीं किया जा सकेगा। इनके पास अपने परमाणु शस्त्रागार और उसके सिद्धांत की ताकत है जो स्पष्ट रूप से स्वीकार करता है कि क्षेत्र या सैन्य बलों के खिलाफ परमाण बम को छोड़ने पर दूसरे किसी विकल्प के उपयोग की संभावना नहीं बचेगी।

क्या अमेरिकी कांग्रेस द्वारा वर्तमान कार्रवाई भारत की पैरवी का नतीजा है? यही वह चीज है जिससे पाकिस्तान बाहर निकलने की कोशिश कर रहा है। इस सबके बावजूद, इस पैरवी ने सामरिक लिहाज से स्पष्ट रूप में कुछ हासिल नहीं किया है, कारण है कि अमेरिकी प्रणाली में पाकिस्तान के पक्ष में निर्णय को मोड़ने के पर्याप्त उपाय हैं। उसे किसी भी हालत में एफ -16 लड़ाकू विमान की आपूर्ति कर दी जाएगी। जाहिर है, भारत का अमेरिका के साथ उभरते सामरिक संबंधों में इतनी प्रागढ़ता नहीं आई है, जिससे अमेरिका के सहयोगी और भागीदार के रूप में पाकिस्तान के महत्व को कम किया जा सके। भारत-प्रशांत क्षेत्र में अफगानिस्तान को स्थिर रखने में भारत की भूमिका की तुलना में पाकिस्तान की भूमिका कहीं अधिक है, जिसे पुनर्संतुलन या एशिया के लिए धुरी के रूप में देखा जा रहा है। इस स्थिति में बदलाव की संभावना नहीं है अतः भारत को पाकिस्तान के साथ मुकाबला अनुपातों को बढ़ाने की अपनी ही नीति को पूरा करने की जरूरत है।

हाल ही में ईरानी सीमा के पास बलूचिस्तान में एक अमेरिकी ड्रोन हमले में मुल्ला मंसूर के मारे जाने के बाद, जोर-शोर से यह कयास लगाया जा रहा है कि यह हमला पाकिस्तान के स्वयं से उपलब्ध कराई गई जानकारी के आधार पर किया गया था। यदि यह सच है तो निश्चित तौर पर यह अमेरिकियों को मनाने और अमेरिकी कांग्रेस को सकारात्मक संकेत भेजने का पाकिस्तान का एक प्रयास था, जिससे उसके स्वयं के रास्ते का एक खतरनाक बाधा भी दूर हो गया। मंसूर पाकिस्तान की आईएसआई के साथ सहयोग नहीं कर रहा था और अगस्त 2015 की शांति प्रक्रिया में बाधक बना था। यदि वास्तव में मुल्ला मंसूर की हत्या में पाकिस्तानियों का हाथ है, तो यह साबित हो जाता है कि अंतरराष्ट्रीय जोड़-तोड़ और दिखावे के खेल में भागीदारी कितना बेठिकाना होता है।

यदि और कुछ नहीं तो, पाकिस्तान को एफ 16 विमान की बिक्री/आपूर्ति में अस्थायी रुकावट; अब जाकर पश्चिमोत्तर सीमांत प्रांत और फाटा सीमा क्षेत्र से बलूचिस्तान पर ड्रोन हमलों की अमेरिकी विस्तार को स्वीकार किया जाना अमेरिका के अफ-पाक नीति में बड़े परिवर्तन की ओर संकेत करता है। एफ -16 अभी भी किसी न किसी तरीके से पाकिस्तान के शस्त्रागार में पहुंच जाएगा, लेकिन यह कदम सामरिक परिदृश्य को बहुत हद तक बदलने में सफल होगा जिसे अब तक सुरक्षित समझा जा रहा था।


Translated by: Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)
Published Date: 13th June 2016 Image Source: http://www.rediff.com
(Disclaimer: The views and opinions expressed in this article are those of the author and do not necessarily reflect the official policy or position of the Vivekananda International Foundation)

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