लगभग एक शताब्दी पुराने फिलिस्तीनी आंदोलन की जटिल परिस्थिति के अपने आंतरिक आयाम हैं, सत्ता के लिए प्रतिद्वंदिता है और उसकी वैधानिकता है जबकि उसके ध्यान में इजराइल का यहूदी राज्य मुख्य केंद्र बना हुआ है। फिलिस्तीनी जबकि अपना स्वतंत्र एवं संप्रभु देश की मांग करते हैं, तेल अवीव, खासकर इसके धुर दक्षिण पंथी नेतृत्व, बिना इसे अत्यधिक रूप में सुनिश्चित करते हुए त्रुटिहीन सुरक्षा चाहते हैं। दोनों पक्षों में अविश्वास और घृणा गहरे घर कर बैठी हुई है। अरब देशों और इजराइल के बीच अनेक युद्धों के बाद, दखल-कब्जा, दो इंत्तिफादों, उग्रवाद, बेदखली और फिर से बसावट और इजराइल द्वारा सेना के अत्यधिक इस्तेमाल ने हिंसा के चक्र को जारी रखा है। अभी हाल ही में इजराइल और उग्रवादी समूह हमास के बीच 11 दिनों तक गाजा में जंग छिड़ी हुई थी, इलाके पर 2005 से ही हमास का कब्जा है। यहां तक कि दो मिलियन से भी अधिक फिलिस्तीनी 363 वर्ग किलोमीटर की तंग गाजा पट्टी में उनके प्रतिरोधी समूहों की पाबंदियों के बीच गर्हित दशा में पड़े हुए हैं। कासिम ब्रिगेड हर जंग के बाद अपनी सैन्य क्षमताएं बढ़ा लेता है, जो शिक्षाप्रद होना चाहिए। उनका इजराइल के नवाचारोन्मुख, अत्याधुनिक एवं प्रतिबद्ध रक्षा सेनाओं के साथ कोई मुकाबला नहीं है लेकिन वे न्यून तकनीक पर आधारित अपनी मारक क्षमता के कारण पूरे विश्व को चकित किए हुए हैं।
प्रत्येक व्यक्ति दो राष्ट्र समाधान चाहता प्रतीत होता है, जिसमें दोनों प्रतिद्वंद्वियों को तार्किक रूप से एक दूसरे के साथ अगल-बगल में रहने के लिए तैयार हो जाना चाहिए; ऐतिहासिक गलतियों, दावे और प्रति दावे के बावजूद। जैसा कि इतिहास दिखाता है कि कोई भी समाधान आसान नहीं है और यहां तक कि एक छोटा सा दावा भी बहुत बड़ा नुकसान कर सकता है।
फिलिस्तीन की एक बड़ी संरचनात्मक समस्या भी है। यह उसकी परस्पर फूट है, जो फिलिस्तीनी मसले के समाधान को खारिज कर देती है, कम से कम हमास के उद्भव के बाद से। इसके अलावा, अधिक समय से जारी जंग की स्थिति में अरब और इस्लामी देशों में थकान आ गई है। यह अमेरिकी उदासीनता या इंजीनियरिंग और अस्थिर क्षेत्रीय गतिशीलता की अंतर्धाराओं द्वारा आए भू-राजनीतिक परिवर्तनों से भी स्पष्ट था कि अब्राहम समझौते, जो कुछ अरब राज्यों और इज़राइल के बीच संघर्षपूर्ण मेल-मिलाप के बावजूद बहुत आवश्यक था, पर हस्ताक्षर किए गए थे।
लेकिन भले ही अरब नेतृत्व को गलियों से संरेखित किया जा सकता है, वे जीवंत हैं और सीधे तौर पर किसी भी ढिलाई का विरोध करते हैं। हालिया संघर्ष ने अरब की सड़कों को फिलीस्तीनी प्रवासी द्वारा किए गए प्रदर्शनों से ऊर्जस्वित कर दिया है, और अरब नेतृत्व पर एक बार फिर मुखर होने का दबाव डाला है।
राजनीतिक अवसरवाद में लगे दोनों पक्षों को वास्तविक और अनुमेय दोनों ही स्तरों पर भारी नुकसान है। लेकिन ठहरी शांति प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए अवसर की एक छोटी खिड़की खोली जा सकती है, बशर्ते कि दोनों पक्षों और चौतरफा गुटों एवं क्षेत्रीय ताकतें एक जगह मिलें। बड़ा मसला इजराइल एवं फिलिस्तीन में राजनीतिक द्रव्यता की स्थिति है कि कौन बातचीत करेगा? यह बड़ा सवाल है। सभी प्रकार से, नेतन्याहू के लिए यह रास्ते का अंत हो सकता है। लेकिन आगे आने वाले गठबंधन से किसी समझदारी की संभावना नहीं है। कोई दूसरा राबिन क्षितिज पर दिखाई नहीं दे रहा है।
हमास का उद्भव 1987 में मिस्र में हुआ था और उसके साथ आज भी अच्छा संबंध बना हुआ है और यही बाहरी दुनिया को देखने की एकमात्र खिड़की है, क्योंकि वे वर्षों प्रतिबंधित हैं। हमास ने न केवल अराफात और अब्बास के अधिकारों को चुनौती दी थी बल्कि वह फिलिस्तीनियों के बीच काफी लोकप्रिय हो गया है। विश्लेषक तथाकथित साजिश की थिअरी को खारिज नहीं करते जिसे इस्राएली मोसाद द्वारा अराफात और उनके फिलिस्तीनी लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन (पीएलओ) को लेकर प्रतिवाद में हमास ने शुरुआत में रचा था। यहां तक कि अराफात और उनके संगठन फतेह को बहुत बाद तक आतंकवादी घोषित रखा गया था। इसी तरह, अमेरिका, ब्रिटेन, यूरोपीयन यूनियन और इजराइल ने हमास को एक आतंकवादी संगठन घोषित किया है और उसे 2006 के बाद हुए चुनावों में भागीदारी की अनुमति नहीं दी गई है। हालांकि इससे पहले के चुनाव में उसके बेहतर प्रदर्शन के बावजूद यह कदम उठाया गया है। इस प्रकार, उसने गाजा पर कब्जा कर लिया और फिलिस्तीन के लिए एवं इंतिफादाज के बाद इजराइल के विनाश के लिए जंग कर रहा है। हमास का बुनियादी सिद्धांत, उसके काम करने का तरीका और लक्ष्य खुले तौर पर यहूदी देश इजराइल के विरुद्ध है।
हमास के 1988 बने चार्टर को 2017 में बदला गया था, जिसमें इजराइल के बने रहने अधिकार को खारिज करता है, सुनने में चाहे वह कितना भी ख्याली क्यों न लगे। चार्टर का अनुच्छेद 25 वजहों एवं मायनों को भी न्यायोचित ठहराता है और “लगातार बने कब्जे को सभी सरंजामों एवं तरीकों की आजमाइश के जरिये नेस्तनाबूद कर देने के लिए अलौकिक शक्तियों द्वारा और अंतरराष्ट्रीय नियम एवं कायदों द्वारा वैधानिक अधिकार सुनिश्चित किया गया है। इस अधिकार के क्रोड में सशस्त्र प्रतिरोध है, जिसे सिद्धांतों एवं फिलिस्तीनी लोगों के अधिकारों की रक्षा में एक रणनीतिक पसंद माना जाता है। ”
इसलिए, अगर कोई दो राष्ट्र संबंधी समाधान या इसी तरह का कोई अन्य हल निकाला जाना है, तब दोनों पक्षों को अपनी मनोवृत्तियों में कुछ मौलिक बदलाव लाने होंगे और कुछ अपने न्यायिक रुख में परिवर्तन करना लाजिमी होगा। प्राथमिक रूप से इजराइल को अपनी बगल में सुरक्षित, शांत एवं समृद्धि से रहने वाले एक संप्रभु देश फिलिस्तीन की स्थापना के लिए समझौते पर बात करनी होगी एवं अंतरराष्ट्रीय कानूनों एवं संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों की उल्लंघना पर बात करनी होगी। इसी तरह, हमास एवं अन्य फिलिस्तीनी संगठनों तथा उनके क्षेत्रीय संरक्षकों इजराइल के बने रहने के अधिकार को मानना होगा। हमास को अपना मकसद हासिल करने के लिए हिंसा के इस्तेमाल से बाज आना होगा क्योंकि उसके बगलगीर यहूदी देश ने उसके प्रति अपने संदेह एवं प्रतिरोधी कार्रवाइयों को त्याग दिया है, जिसकी वंचित फिलिस्तीनियों की तरफ से जबर्दस्त एवं अस्थिर प्रतिक्रिया उत्पन्न करती थी। यह एक सुखद उम्मीद भर हो शायद पर इसकी कोशिश तो अवश्य की जानी चाहिए। शांति के संकल्प और दोनों पक्षों के मुख्य सरोकार को हल करने वाली असल प्रतिबद्धता ही शांति प्रक्रिया को आगे ले जा सकती है। हमास एवं इजराइल अवलंब पर दो भार हैं, भले ही वे असमान रूप से संतुलित हों।
एक अतिशय महत्वपूर्ण एवं मुहंजोर मसला बचता है-यरुशलम की स्थिति। यह पुरातन पवित्र नगर तीन अब्राहमिक धर्मों की विवेक का भंडार-स्थल है। पैगम्बर मोहम्मद ने अल अक्स मस्जिद से ही जन्नत के लिए कूच किया था। जीसस ने मानवता के लिए इस पवित्र शहर की गलियों में सलीब को ढोया था। यहूदियों के लिए, टेम्पल माउंट एवं वेलिंग हॉल पुराने दिनों की याद ताजा करती है। और तो और, भारत की 15 फीसदी से ज्यादा आबादी का इस शहर के साथ मजहबी रिश्ता है, जो 800 साल से भी अधिक पुराने अल ज़ाविया अल हिंदिया-भारतीय धर्मशाला का निवास है, जिसे संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के हालिया विचार-विमर्श में भारतीय शांति वक्तव्य के रूप में उद्धृत किया गया है। इसकी भी मिसालें हैं कि प्रथम विश्व युद्ध में शामिल भारतीय सैनिकों ने अपनी असाधारण बहादुरी से इस पवित्र शहर की हिफाजत की थी। क्या यह “प्राचीन शहर” संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान एवं मौजूदा जॉर्डन के राजा के संरक्षण में मानवता के लिए शांति एक दूसरा “वेटिकन” हो सकता है, जहां इतिहास का बोझ और भूगोल की विडम्बना लोगों को धार्मिक लाइनों में लगातार बांटते रहने की बजाय उन्हें परस्पर शांति में, आदर में एवं खुशी में एकजुट करेगी।
अंतरराष्ट्रीय समुदाय एवं क्षेत्रीय देश जिनके दोनों पक्षों के साथ समान संबंध हैं, उन्हें साफ मन होना है और समाधान का एक हिस्सा बनना चाहिए और समस्या का स्थायीकरण नहीं करना चाहिए। मिस्र, कतर, ईरान, सीरिया एवं तुर्की का हमास के साथ अच्छे रिश्ते हैं, और वे युद्ध रोकने के उपकरण रहे हैं तथा बुरे समय में भी दोनों प्रतिद्वंद्वी पक्षों में सहयोग बनाने के लिए सेतु रहे हैं, उन्हें फिलिस्तीन सरकार के साथ मिलकर काम करने के लिए हमास नेतृत्व पर अवश्य ही दबाव डालना चाहिए, इसकी जो राजनीतिक जटिलताएं हों और इजराइल के साथ मूल से शुरू करना होगा क्योंकि सूखती जोर्डन नदी में बहुत सारा पानी बह चुका है। तेल अवीव को भी उचित एवं न्यायसंगत दो देशों के समाधान से होने वाले लाभों को ध्यान में रखना होगा, क्योंकि वह एक देश वाला समाधान नहीं चाहता है, जो अगर होता है तो, मेरे विचार में उसके भीतर अगले 100 साल तक जंग छिड़ी रहेगी। जब तक सभी नागरिकों के समान अधिकार नहीं है, इजराइल अपनी बाहरी सीमा पर सुरक्षा चाहता है,इस पर समझौता किया जा सकता है। मौजूदा समय में मात्र 20 फीसदी लोग ही समान अधिकार का उपभोग कर पाते हैं। या, कोई त्रि-देशीय समाधान की संभावनाओं को खंगाल रहा है, जो यह आवश्यक रूप से #3 विकल्प नहीं है, जिसे जोर्डनवासी नहीं चाहते हैं?
तेल अवीव एवं गाजा के बीच हालिया जंग के बीच देखा गया था कि शुरुआती ना-नुकुर के बाद चीजों को आगे ले जाने के लिए अमेरिका को आखिरकार नेतृत्व की कमान संभालनी ही होगी जो अभी को घरेलू एवं अन्य विदेश नीति के तकाजों को देखते हुए ऐसा करना नहीं चाहता है। लेकिन इस मोड़ पर, जब कि फिलिस्तीनी अमेरिका से उम्मीद लगाए बैठे हैं, तब उसका अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ना, सीधे तौर पर एक अपराध होगा। अगर अमेरिका इसमें नेतृत्व करता है तो बाकी सभी उसका अनुसरण करेंगे, नहीं तो एक ठंडा पड़ा संघर्ष प्राय: हर समय पहले से अधिक तीव्रता के साथ होता रहेगा। अमेरिकी विदेश मंत्री ब्लिंकेन का इस क्षेत्र का दौरा एक मायने में काफी महत्वपूर्ण था। उन्होंने राहत सहायता तथा गाजा के पुनर्निर्माण के उपायों की घोषण करने के अलावा, यरुशलम में रामाल्लाह के साथ संबंध स्थापित करने के लिए अमेरिकी कान्सुलेट को फिर से खोलने का भी वादा किया है। राहत एवं पुनर्निर्माण का काम हमास के हाथों में नहीं पड़ना चाहिए। हमास एक किरदार है और भले हम चाहे या न चाहें उससे निबटना होगा। स्पष्ट है कि, हमास अपने को इससे बाहर रखे जाने से नाराज है क्योंकि ऐसा प्रतीत होता है कि वह फिलिस्तीनियों के हितों के एक पवित्र संरक्षक के रूप में उभरा है।
चीन एवं रूस अन्य बड़े गैर-क्षेत्रीय देश हैं, जो इस विवाद में गहरे धंसे बिना ही अपने भू-राजनीतिक कारणों से फिलिस्तीन समर्थक भूमिका निभाते हैं। रूस का पहले के जंग के विस्तार न होने देने या युद्धविराम के रुख की बजाय तुर्की एवं मिस्र के साथ संबंध है क्योंकि वे इजराइल के साथ अपने संबंधों की भविष्यवाणी कर सकते थे। चीनी विदेश मंत्री वांग यी महीने भर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की अध्यक्षता करेंगे, उन्होंने समय न बरबाद करते हुए आगे आए और दोनों प्रतिस्पर्द्धियों को बातचीत के लिए पेइचिंग बुलाया जबकि यह साफ कर दिया कि वह संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के मुताबिक फिलिस्तीन का समर्थन करेंगे। इसे अमेरिका के ढुलमुलपन को निर्दिष्ट माना गया था क्योंकि जैसा कि माना जा रहा है कि वह मध्यपूर्व से वापसी के मोड में है।
भारत का पश्चिम एशिया के साथ बेहतर संबंध है और उसका फिलिस्तीनियों एवं इजराइलियों दोनों के साथ भरोसे का संबंध विकसित किया है। उसने सभी मुख्य मसलों को संतुलन में और तथ्यात्मक तरीके, खास कर ‘जस्ट फिलिस्तीनी कॉज’ के रूप में उठाने का हर संभव प्रयास शुरू कर दिया है। लेकिन भारत संवाद को शुरू कराने में और भी मदद कर सकता है, जो वह अमेरिका व अन्य चौतरफा गुटों एवं क्षेत्रीय देशों की सहमति से आगे बढ़ा रहा है। भारत का हमास के साथ सीधे-सीधे कोई संबंध न होते हुए भी उसे वहां रहना होगा। लेकिन भारतीय सहायता एवं प्रोजक्ट्स गाजा में फिलिस्तिनियों के पास भी पहुंच गया है। भारत अभी कोविड की दूसरी लहर से जूझ रहा है, फिर भी वह यूएन और पीए, दोहा या काहिरा के जरिए गाजा को मानवीय सहायता दे रहा है, यह एक अच्छा प्रारंभिक बिंदु हो सकता है। कुछ लोग महसूस करते हैं कि भारत को होम करते हुए अपनी उंगलियां नहीं जला लेनी चाहिए किंतु क्या भारत इन विकसित होते घटनाक्रमों से अपने को निरापद रख सकता है, अगर वह पश्चिम एशिया में अपने मौजूदा हितों को सुनिश्चत करना चाहता है और अगर वह क्षेत्रीय मामलों में एक विश्वसनीय किरदार निभाना चाहता है, जैसा कि वह एक शक्ति की तरह व्यवहार करता है, जिसने सभी पक्षों का भरोसा जीता है तो भारत की यह हैसियत फिर किसलिए है? शायद एक विशेष राजदूत को शांति और उम्मीद का संदेशवाहक बना कर भेजा जा सकता है। सचमुच शांति के अपने लाभांश हैं।
Translated by Dr Vijay Kumar Sharma (Original Article in English)
Post new comment