समकालिक चुनाव: सहमति, असहमति और समाधान
Shiwanand Dwivedi

समकालिक चुनाव अर्थात एक साथ सभी चुनाव कराने का मुद्दा इसबीच चर्चा में है। इसको लेकर पक्ष और विपक्ष में अनेक तर्क रखे जाते रहे हैं। इसके बावजूद यह दौर समकालिक चुनावों पर बहस के लिहाज से सर्वाधिक अनुकूल दौर माना जा सकता है। ऐसा मानने के पीछे कारण, केंद्र के सत्ताधारी दल का समकालिक चुनावों पक्ष में होना है। इसका एक सकारात्मक पहलू यह भी है कि केंद्र के साथ-साथ देश के ज्यादातर राज्यों में भी भाजपा की सरकारें हैं, लिहाजा असहमति के टकराव कम होने की अपेक्षा की जा सकती है। इसके बावजूद वर्तमान की इस अनुकूलता को समकालिक चुनावों को अमली जाना पहनाने के लिए पर्याप्त नहीं माना जा सकता, क्योंकि इसकी राह में आम सहमति का प्रश्न भी है।

वैसे तो समकालिक चुनाव कराने को लेकर बहस गत वर्षों में लगातार चली है, लेकिन इस बहस ने और अधिक जोर तब पकड़ा जब सत्ताधारी दल यानी भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने गत 13 अगस्त 2018 को विधि आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति बलवीर चौहान को एक आठ पृष्ठों का पत्र लिखा। इस पत्र का मजमून यही था कि भाजपा समकालिक चुनाव को लेकर सहमत तो है ही, साथ ही इस विषय को लेकर अपने सुझावों एवं कारणों के साथ चर्चा के लिए भी तैयार है। चूँकि यह पत्र भाजपा अध्यक्ष द्वारा लिखा गया, अत: इसे भाजपा का पक्ष मानना चाहिए। हालांकि इस पत्र के बाद मीडिया ने सूत्रों के हवाले से इसको लेकर एक अलग किस्म की चर्चा को जन्म दिया। इस पत्र को 2019 के चुनाव से जोड़ने का प्रयास भी हुआ, जो इस पत्र की मूल भावना से मेल नहीं खाता है। संभवत: आठ पृष्ठों का यह विस्तृत पत्र पढने की कोशिश न करने की वजह से मीडिया के एक धड़े ने इसकी व्याख्याय में चूक कर दी। अमित शाह द्वारा विधि आयोग के अध्यक्ष को लिखा यह पत्र समकालिक चुनावों के संदर्भ में तथ्यों, तर्कों और इसकी संभावनाओं का एक दस्तावेज प्रतीत होता है। इसमें जल्दी चुनाव कराने अथवा 2019 में सभी चुनाव एकसाथ कराने की तो दूर-दूर तक कहीं कोई बात नहीं की गयी है।

समकालिक चुनावों को लेकर उठ रहे सवालों और इससे जुड़ी चुनौतियों को इतिहास में दर्ज कुछ तथ्यों के आलोक में देखना भी जरुरी है। यह एक तथ्य है कि स्वतंत्रता के बाद 1951-52 में हुए पहले आम चुनाव में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एकसाथ हुए थे। इसके बाद 1967 तक देश में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ संपन्न होते रहे। लेकिन 1968-69 के दौर में देश के राजनीतिक घटनाक्रमों में हुए बदलावों और कुछ विधानसभा सहित लोकसभा के विघटन के बाद समकालिक चुनाव की प्रक्रिया में रुकावट की स्थिति पैदा हुई। इसके बाद से ही लोकसभा और विधानसभा के चुनाव अलग-अलग होने लगे। हालांकि समय-समय पर एक साथ लोकसभा और विधानसभा के चुनाव कराने को लेकर चर्चाएँ होती रही हैं। अत: ऐसा बिलकुल नहीं है कि यह चर्चा भारतीय जनता पार्टी द्वारा ही पहली बार लिखित पत्र अथवा सिफारिशों के रूप में शुरू की गयी है। इसकी चर्चा अस्सी के दशक में ही सामने आई थी और हाल ही में नीति आयोग और विधि आयोग ने भी समकालिक चुनावों की जरूरत पर बल देते हुए अपना पक्ष रखा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति रहते हुए प्रणब मुखर्जी भी समकालिक चुनावों को वर्तमान की बड़ी जरूरत बता चुके हैं।

इसी वर्ष 17 अप्रैल 2018 को विधि आयोग द्वारा समकालिक चुनावों पर तीन पृष्ठों का एक श्वेत पत्र जारी किया गया। इस मसौदे में विधि आयोग ने तथ्यों के आधार पर समकालिक चुनावों की जरूरत पर बल देते हुए इससे जुड़ी व्यापक चर्चा का आह्वान भी किया था। विधि के आयोग के मसौदे में समकालिक चुनावों को लेकर पूर्व में उठी मांगों अथवा सिफारिशों का हवाला भी दिया गया है। इतिहास में जाकर पड़ताल करें तो समकालिक चुनाव का विचार सबसे पहले चुनाव के आयोग द्वारा 1983 में जारी वार्षिक रिपोर्ट में आया था। इसके बाद 1999 में विधि आयोग की रिपोर्ट संख्या-170 और वर्ष 2015 में संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट संख्या-79 में भी समकालिक चुनावों पर सकारात्मक चर्चा उभर कर आई थी। इस विषय पर 2017 में नीति आयोग ने भी एक विश्लेषण पत्र जारी करके समकालिक चुनावों की सिफारिश की है।

इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत जैसा देश जहाँ 29 राज्य हों और कई स्तरों पर चुनाव होते हैं, वहां अलग-अलग समय पर चुनाव कराने की वजह से देश का कोई न कोई हिस्सा हर समय चुनावी मोड में रहता है। राजनीतिक दल भी चुनावी तैयारियों में रहते हैं। चूँकि जनता द्वारा चुने गये ज्यादातर जनप्रतिनिधि भी किसी न किसी राजनीतिक दल के सदस्य होते हैं, लिहाजा वे भी चुनावी गतिविधियों का हिस्सा स्वाभाविक तौर पर बनते हैं। सरकारी धन और सरकारी संसाधनों जैसे, प्रशासनिक अधिकारी, सरकारी कर्मचारी, सुरक्षा बल आदि, का चुनावों में इस्तेमाल स्वाभाविक है। इसके अलावा चुनावों के दौरान लागू आदर्श आचार संहिता का नकारात्मक प्रभाव भी विकास और प्रगति के कार्यों पर पड़ता है। आंकड़ों की कसौटी पर देखें तो मई, 2014 में केंद्र में भाजपानीत राजग की सरकार बनने के बाद से अबतक प्रत्येक साल लगभग चार से सात राज्यों में विधानसभा के लिए चुनाव हुए हैं। इसके अलावा स्थानीय निकायों के चुनाव भी अनेक राज्यों में हुए हैं। महाराष्ट्र का यह आंकड़ा, जिसका जिक्र भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के पत्र में है, चौंकाने वाला है कि ‘वर्ष 2016-17 के दौरान 365 दिनों में 307 दिन तक राज्य का कोई न कोई हिस्सा चुनावों की वजह से आदर्श आचार संहिता के अंतर्गत रहा है।’ ऐसे में सवाल है कि क्या वाकई देश को समकालिक चुनावों की तरफ ले जाने की पहल नहीं करनी चाहिए ? क्या इसके लिए यह सर्वाधिक अनुकूल अवसर नहीं है क्योंकि देश में सर्वाधिक हिस्से में सत्ता पर काबिज दल इसके लिए तैयार है! क्या इस अवसर को समकालिक चुनावों के लिहाज से इसलिए माकूल नहीं माना चाहिए, क्योंकि सत्ताधारी दल के साथ-साथ विधि आयोग और नीति आयोग जैसी संस्थाएं इसपर गंभीरता के साथ विचार कर रही हैं!

हालांकि एक अहम् सवाल यह भी है कि जब सबकुछ इतना माकूल है तो रुकावटें किन बिंदुओं पर हैं? समकालिक चुनावों की राह में रुकावट, सभी दलों की सहमति के प्रश्न पर है। चुनाव आयोग भी कह चुका है कि वह समकालिक चुनावों के लिए तैयार है, बशर्ते सभी दलों की इसपर एकमत बन जाए! वर्तमान की स्थिति में देखा जाए तो एकसाथ चुनाव कराने को लेकर भारतीय जनता पार्टी, शिरोमणि अकाली दल, अन्नाद्रमुक, समाजवादी पार्टी और तेलंगाना राष्ट्र समिति जैसे कुछ दल सहमत हैं। जबकि कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, द्रमुक, टीडीपी और वाम दल इसको लेकर सहमत नहीं दिख रहे हैं। अपवाद रूप में कुछ दलों को छोड़ दिया जाए तो एकसाथ लोकसभा और विधानसभा चुनाव कराये जाने को लेकर असहमत होने वाले सभी दल भाजपा के विरोधी दल हैं एवं कांग्रेस के अलावा लगभग सभी स्थानीय जनाधार वाले दल भी कहे जा सकते हैं। समकालिक चुनावों के खिलाफ खड़ी कांग्रेस और वामदलों ने ‘संघीय ढाँचे’ और लोकतंत्र का हवाला देते हुए इसका विरोध किया है। हालांकि कांग्रेस के विरोध का यह तर्क न तो संवैधानिक स्तर पर ही उचित दिखता है और न ही व्यवहारिक स्तर पर ही इसका कोई सार्थक सन्दर्भ समझ में आता है। कांग्रेस सहित कुछ दलों के विरोध का एक राजनीतिक कारण कुछ हद तक समझ में आता है कि यदि समकालिक चुनाव अभी हुए तो मोदी लहर में कहीं उनके हाथ से शेष राज्यों की सत्ता न चली जाए। लेकिन यह तब संभव है जब समकालिक चुनाव 2019 में हों, जो कि कानूनी स्तर पर भी फिलहाल संभव नहीं है। जहाँतक एकसाथ चुनाव कराने को लेकर व्यवहारिकता का प्रश्न है तो 1951-52 से लेकर 1967 तक यह व्यवहारिक ढंग से होता रहा है, जबकि उस दौर में संसाधन आज की तरह अत्याधुनिक नहीं थे। लिहाजा समकालिक चुनावों की व्यवहारिकता पर सवाल खड़े करना समझ से परे है। एक अन्य तर्क जो इस प्रणाली के विरोधियों द्वारा दिया जा रहा है, वह संघीय ढाँचे को कमजोर करने को लेकर है। लेकिन विरोधी यह नहीं बता रहे कि एकसाथ चुनाव कराने से संघवाद की भावना उन्हें किस प्रकार से कमजोर होती दिख रही है। वैसे भी भारत ‘संघ-राज्य’ न होकर ‘राज्य इकाईयों का संघ है’।

एकसाथ लोकसभा और विधानसभा के चुनाव कराने को लेकर जो बुनियादी चुनौती दिख रही है, वह कानूनी संशोधन और संसाधनों की उपलब्धता को लेकर है। यह सच है कि इस प्रणाली पर यदि सभी दल सहमत हो जाते हैं तो इसके लिए संविधान में कुछ संशोधन करने होंगे। अगर सभी दल इसपर सहमत हो जाते हैं तो इस मोर्चे पर कठिनाई नहीं आनी है। रही बात संसाधनों की उपलब्धता को लेकर तो दैनिक भास्कर की एक खबर के मुताबिक़ ‘16 मई को विधि आयोग के साथ बैठक के बाद चुनाव आयोग ने कहा था कि दोनों चुनाव साथ कराने के लिए 12 लाख ईवीएम और इतनी ही वीवीपीएटी मशीनों की जरूरत होगी। इनके खरीदने में 4500 करोड़ रुपए खर्च होंगे।‘ यह चुनौती भी इतनी बड़ी नहीं है जिसे पूरा नहीं किया जा सके। चूँकि चुनाव दर चुनाव बढ़ रहे चुनावी खर्चे की तुलना में यह राशि बहुत बड़ी नहीं नजर आती है। एक आंकड़े के अनुसार 2014 के आम चुनावों में लगभग सरकारी खजाने से 4000 करोड़ रूपये खर्च हुए थे, जो 2009 की तुलना में तीन गुना से ज्यादा है। ऐसे में एकसाथ चुनाव के लिए अगर संसाधनों की जरूरतों पर होने वाले खर्चे को देखें तो यह कोई कठिन रास्ता नहीं नजर आता।

दरअसल समकालिक चुनावों पर चल रही चर्चा के केंद्र में जब हम इसके पक्ष और विपक्ष की बहस का तुलनात्मक मूल्यांकन करते हैं तो ऐसा लगता है कि यह टकराव सुधारों की इच्छाशक्ति बनाम चंद राजनीतिक हितों के बीच का टकराव है। इस टकराव के ताने-बाने में विरोधियों द्वारा जो सवाल खड़े किये जा रहे हैं, वह तर्कों की कसौटी पर कहीं नहीं टिकते। हालांकि विधि आयोग ने समकालिक चुनावों पर देश के संविधान विशेषज्ञों, राजनीतिक दलों सहित इसके सभी हितधारकों को पक्ष रखने का अवसर दिया है। ऐसे में लोकतंत्र और चुनाव के सबसे बड़े हितधारक के रूप में देश के नागरिक हैं। क्या इसबात पर आम सहमति बन सकती है कि एक साथ चुनाव कराने को लेकर एक आम जनमत संग्रह कराया जाए, जिससे इस मुद्दे पर देश की जनता का मिजाज पता चले। यह जनमत संग्रह विधि आयोग अथवा चुनाव आयोग द्वारा बिना किसी दल को शामिल किये कराया जाना चाहिए। इसमें कोई दो राय नहीं कि हमें देश को सालों-साल चुनावी माहौल में रहने की स्थिति से निकालने की जरूरत है। चुनाव लोकतंत्र का पर्व अवश्य हैं, लेकिन पर्व के प्रति उत्सव मनाने की शर्त यह भी होती है कि वह हर घड़ी दरवाजे पर दस्तक नहीं देता हो। अत्यधिक चुनावी स्थिति से लोकतंत्र का यह पर्व संसाधनों और धन के दुरूपयोग के साथ-साथ नागरिकों के मन में नीरसता न पैदा करे, यह भी सोचना आवश्यक है। यह प्रश्न चुनावी हार-जीत से अधिक लोकतंत्र में विकास और प्रगति के राह को निर्बाध बनाते हुए आगे बढ़ने का है। आज की स्थिति में यदि एकसाथ सभी चुनाव हों तो सभी दल कुछ न कुछ खोने की स्थिति में होंगे। यह किसी एक दल की चुनौती नहीं है। अत: इसे दलगत आधार पर खोने-पाने की सोच से ऊपर उठकर देखने की आवश्यकता है।

(लेखक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च फैलो हैं)

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