रक्षा बजट 2018-19 की एक झलक
G. Mohan Kumar

रक्षा बजट 2018-19 में, पिछले वर्ष की तुलना में कोई विशेष फ़र्क नहीं है। कुल 4,04,365 करोड़ के परिव्यय, जिसमें 1,08,853 करोड़ पेंशन हेतु देय भी शामिल है, से रक्षा परिव्यय कुल केंद्रीय सरकारी खर्चे का 16।6 प्रतिशत है। पेंशन से इत्तर रक्षा बजट में कुल परिव्यय 2,79,305 करोड़ रूपए का है। इसमें राजस्व परिव्यय 1,85,323 करोड़ है और पूँजी परिव्यय 93,982 करोड़ है। परिव्यय में महज 7।7 की वार्षिक वृद्धि की गयी है, जो मुद्रास्फीति को नज़र में रखते हुए काफी साधारण प्रतीत होती है। सकल घरेलु उत्पाद यानी जीडीपी में रक्षा सेवा परिव्यय की हिस्सेदारी में गिरावट है, जिसकी वर्तमान हिस्सेदारी 1।49 प्रतिशत है। पूँजी परिव्यय एवं राजस्व परिव्यय का अनुपात 66:34 है जो बढ़ते हुए अंतर की ओर इशारा करता है। इसके अलावा बढती पेंशन देयता में हुई बढ़त भी अपने आप में चिंताजनक है। सीमा सड़क हेतु सकल अनुविता का आवंटन भी उतनी ही चिंता का विषय है।

राजस्व आवंटन

बजट प्रस्तुति के बाद से ही इस बात की काफ़ी चर्चा है कि कई रिपोर्ट् इस ओर इशारा करतीं है की सेवाओं के लिए प्रायोजित आवंटन और वास्तविक आवंटन में काफ़ी बड़ा अंतर पाया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि जहाँ तीनों सेवाओं ने 1, 99,696 करोड़ राशी की आवश्यकता का ब्यौरा दिया था, उन्हें केवल 1,65,166 करोड़ ही आवंटित किए गये, यानी 34,530 करोड़ रूपए की कमी इस राशी में है। आर्मी यानि थल सेना में सबसे ज्यादा कमी है। स्वयं उप- सेना प्रमुख ने यह बयाँ दिया था कि सेना के अभियान एवं रखरखाव हेतु 9200 करोड़ रूपए से ज्यादा और युद्धोपकरण में 5000 करोड़ से अधिक राशी की कमी आवंटन में हुई है। साथ ही तीनों सेनाओं में इस बात की भी चिंता है कि वस्तु एवं सेवा कर को आवंटन में ज्यादा तहरीज नही दी गयी है। यह भी प्रतिवेदित किया गया है की सेना के बजट में की गयी मामूली बढ़ोतरी, तनख्वाह एवं भत्ते में बढ़ोतरी और महँगाई दर के चलते पूरी नही पड़ रही है। अन्य दोनों सेवाओं में भी कुछ ऐसे ही हालात हैं। पिछले कुछ समय से सेना के पास बेहतर क्रियान्वन और अभियानों की तत्कालीन कार्यवाही को ध्यान में रखते हुए भण्डारण के लिए उपयुक्त वित्तीय शक्तियाँ उपलब्ध हैं। मगर सम्भावना यह भी है कि बजट में आवंटन को लेकर हो रही सुगबुगाहट के बाद वे अपनी प्रत्यायोजित शक्तियों का उपयोग करने में अधिक सक्षम न हों सकें।

पूँजी आवंटन

93,982 करोड़ रूपए का पूँजी आवंटन, वर्तमान वर्ष के संशोधित अनुमान से 8।7 प्रतिशत ज्यादा है। 1,55,996 करोड़ रूपए की प्रक्षेपित आवश्यकता के बाद भी 82,590 करोड़ का आवंटन किया गया है जोकि 53 प्रतिशत है। जैसा की राजस्व व्यय के मामले में, सेनाओं द्वारा प्रक्षेपित आवश्यकताओं में और असल आवंटन के बीच का फ़र्क काफ़ी ज्यादा है। यह भी प्रतिवेदित है कि, अधिग्रहणके पूँजी परिव्यय से प्रतिबद्ध देयताओं की पूर्ती करने में भी सक्षम न हों सकें, जो अधिग्रहणके पूँजी व्यय का एक बड़ा हिस्सा है। इस तरह से स्थिति में तब तक सुधर की कोई गुंजाईश नहीं जब तक संशोधित अनुमान के स्तर पर कुछ महत्वपूर्ण बदलाव नही किये जाते। सामान्य संसाधनों के लिए हो रही समस्या से सेना के राजस्व व्यय में वृद्धि हुई है जिसमें वेतन और भत्ता भी शामिल है और पूँजी आवंटन को प्रभावित करता है। परिणामस्वरूप, राजस्व एवं पूँजी व्यय के बीच के अनुपात में विषमता और पूँजी अवयवों में लगातार गिरावट हो रही है। 2017-18 के रक्षा बजट में, थल सेना के कुल आवंटन में पूँजी व्यय की केवल 17 प्रतिशत हिस्सेदारी थी। यह पिछले कुछ वर्षों से लगातार गिर रही है। नौसेना और वायुसेना में इसके विपरीत यह हिस्सेदारी 51 प्रतिशत और 55 प्रतिशत क्रमशः है।

इससे सेना को उपकरणों के आधुनिकरण और हथियारों में नई तकनीक के अधिष्ठापन में कठिनाईयों का सामना करना पड़ सकता है। खासतौर पर इसलिए क्यूंकि थल सेना के पास पहले ही काफी पुराने हथियार मौजूद है। थल सेना के हिस्से के पूँजी बजट में कमी और वेतन एवं अभियान कार्यक्रमों में बढ़ते व्यय ने सम्पूर्ण रक्षा सेवा प्राक्कलन के राजस्व व्यय और पूँजी व्यय के बीच एक बड़ा अंतर स्थापित कर दिया है। यह अनुपात अब 66:34 है और पूँजी व्यय में लगातार गिरावट आ रही है।

रक्षा बजट को पुनः संतुलित करने की त्वरित आवश्यकता है। रक्षा मंत्रालय द्वारा गठित शेकटकर समिति की रिपोर्ट ने रास्ता दिखाया है मगर सेवाओं के कामकाज को एकीकृत करने और कार्यों को दोहराने की प्रक्रिया को रोकने के लिए अभी बहुत कुछ करने की आवश्यकता है। रक्षा सुधारों पर सही दिशा के साथ कार्य करने की जरूरत है। रक्षा भूमि (17 लाख एकड़), जो सेना की महत्वपूर्ण संपत्ति है, उसका रचनात्मक ढंग से भविष्य की आधारभूत संरचना से जुडी परियोजनाओं हेतु संसाधन जुटाने के लिए प्रयोग किया जाना चाहिए। पेंशन देता से सम्बंधित मसलों पर भी नए तरीकों की आवश्यकता है। केंद्र सरकार द्वारा 2004 में आम नागरिकों के लिए लागू की गयी नई पेंशन स्कीम का परिक्षण करना भी उचित हो सकता है। हालाँकि, केवल इससे उपकरणों के आधुनिकरण हेतु आवश्यक पूँजी बजट की वृद्धि पर कोई प्रभाव नही पड़ेगा।

संसाधनों की आपूर्ति के बीच सेना, रक्षा मंत्रालय और वित्त मंत्रालय के बीच ये मतभेद कोई नई बात नही हैं। आवंटन में कमी पर अक्सर वित्त मंत्रालय अक्सर ही सेनाओं द्वारा वित्तीय वर्ष के अंत तक पूरे आवंटित बजट का उपयोग न किये जाने की और सेना द्वारा गैर-आवश्यक व्यय प्रक्षेपित करने की बात करता है। मगर ऐसी घटनाएं भी सामने आई है जहाँ वित्त मंत्रालय ने वित्तीय वर्ष के अंतिम तिमाही तक खरीद के भुगतान को स्थगित किया है। इसकी वजह शायद संसाधनों की आपूर्ति हो सकती है। जरूरत से अधिक प्रक्षेपण देने से सेनाओं के बीच ही निराशा और झुंझलाहट बढ़ेगी। ‘और चाहिय’, की यह बीमारी और सामान्य प्रशासन द्वारा उसके विपरीत जाने से सेना और सामान्य जनों के आपसी समबन्ध पर असर पड़ेगा। सच जो भी हो, इस बात की प्रशंसा की जानी चाहिए की वर्तमान रक्षा बजट में संवार्द्धिता, एक समय-आधारित रक्षा आधुनिकृत कार्यक्रम के पैमानों से, अविलंबिता से और माँगों से पूरी तरह से कटी हुई है।

सेना द्वारा प्रस्तावित दीर्घ-कालीन एकीकृत परिप्रेक्ष्य नीति (एलटीआईपीपी), जिसमें सेना के हर अंग से जुड़े अधिग्रहणकार्यक्रम दर्ज है और तकनीकी उन्नयन के लिए एक दिशा प्रदान करता है। इस नीति को अक्सर एक ऐसा ख़्वाब बताया जाता है जिसकी पूरी होने की सम्भावना कम ही है। इसकी मुख्य वजह शायद संसाधनों की कमी ही है। हालाँकि यह बात सच है, मगर यह भी सम्भव है की सेना अपनी प्राथमिकताओं को दुश्मनों से होने वाले खतरे, संसाधनों की कमी और अन्य कारकों की तर्ज पर तय करे। लेफ्टिनेंट जनरल डी। एस। हुड्डा, पूर्व उत्तरी थल सेना कमांडर ने द हिन्दू में हाल ही में प्रकाशित (20 मार्च) अपने एक लेख में एक संक्षिप्त रणनैतिक आवलोकन की आवश्यकता की बात कही थी जिसके माध्यम से भविष्य में खतरों के लिए एक दीर्घ-कालीन क्षमता वाली नीति बनाई जा सके। हमारी रक्षा नीति को काफी कल्पनाशील और दूरगामी होना चाहिए। इसे अब पारंपरिक रूप से ढोने से बजाये हमें तकनीक के इस्तेमाल पर ज़ोर देना होगा। आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस, नेट-आधारित युद्ध सामग्री नई चुनौती और नये अवसर दोनों है। टीथ-टू-टेल अनुपात, तकनीक-केन्द्रित अभियान और अभियानों की सामूहिकता पर संख्यात्मक ताकत के बजाये अधिक नीति निर्धारण की आवश्यकता है।

जब इस तरह की रणनीति और क्षमता योजनायें कार्यरत होंगी, तो सेनाओं के तीनों अंगों के पास एक मूलभूत व्यय की रूपरेखा होगी और तब फिजूलखर्ची को रोक कर जरूरी योजनाओं पर व्यय किया जा सकेगा जिसके लिए वित्त मंत्रालय को मंजूरी देनी ही होगी। यह सभी की जिम्मेदारी है जिसका निर्वाह इससे जुड़े सभी लोगों आपसी सामंजस्य के साथ करना होगा। प्रधामंत्री कार्यलय, रक्षा मंत्रालय एवं वित्त मंत्रालय के साथ मिलकर एक संयुक्त प्रणाली तैयार की जा सकती है जो सुरक्षा योजनाओं से रूबरू होकर उनके परिव्यय पर कार्य करे। यदि रक्षा मंत्रालय और वित्त मंत्रालय इन आवश्यकताओं पर सहमत होते है तो इससे पूरी प्रक्रिया और भी आसान हो जाएगी। इस बीच प्रधानमंत्री कार्यालय मध्यस्थता की भूमिका निभाता है। इस तरह की योजना यदि लागू होती है तो दीर्घ-कालीन अवधी के लिए आवश्यक फंड्स की उपलब्धता सुनिश्चित करनी ही होगी। उपकरणों के आधुनिकरण ऐअव्म तकनीक के अधिग्रहण हेतु समय-सीमा गंभीरता से निर्धारित करनी होगी। यदि समय-सीमा का ध्यान नही रखा गया तो सेनाओं को तकनीकी विषमता का सामना करना पड़ सकता है। इस कारण समय-आधारित अर्जन के अनुपालन से ही लम्बे समय तक फंड्स की उपलब्धता सुनिश्चित की जा सकती है। इसमें लक्ष्य-आधारित रवैय्ये की आवश्यकता नही है। मुख्य आवश्यकता वर्तमान रक्षा के तरीकों का आधुनिकरण करने हेतु निर्धारित अवधी में आवश्यक पूँजी सुनिश्चित करना है।

अपने मौजूदा परिवेश में पूँजी बजट, ‘प्रतिबद्ध देयता’ की ऐतिहासिक गलती में ढला हुआ लगता है, जो पिछले अधिग्रहण के निर्णयों का परिणाम है। पूँजी बजट का 90 प्रतिशत इन्ही ‘प्रतिबद्ध देयता’ को पूरा करने में जाता है और बचा 10 प्रतिशत उन नवीन प्रतिबद्धताओं का भुगतान करने में होता है जिनपर किसी विशेष वर्ष में हस्ताक्षर किये गये थे। अधिग्रहण, काफी धीमे और प्रक्रिया-आधारित होते है, ‘आवश्यकता की स्वीकृति पत्र’ की एक बार पुष्टि होने पर उसे अनुबंध का रूप लेने में पांच से दस वर्ष लगते है।

इस तरह की देरी से ख़रीदे गये उपकरण, प्राप्ति तक पुराने हो जाते है। एक पञ्च-वर्षीय अधिग्रहण योजना, जहाँ हर तरह की वित्तीय प्रतिबद्धता को संज्ञान में लेती है वहीँ नई ‘आवश्यकता की स्वीकृति पत्र’ से उपजने वाली समस्यायों पर ध्यान देने में असक्षम है। अतः सही तरीका यही है की एक वर्ष या उससे कम अवधी में ही खरीद से जुड़े सभी निर्णय लिए जायें। देरी के कई कारणों में से एक यह है कि खरीद हेतु जो उपकरण परिक्षण हेतु भेजा जाता है, उसमें भी कई महीनें अथवा वर्षों का समय लग जाता है। यदि ऐसी कोई प्रणाली हो जो एलटीआईपीपी द्वारा किसी उपकरण की आवश्यकता पर प्रस्तावित आवश्यक उपकरण से जुड़े सभी परिक्षण कर सके और इनकी सेवा से जुडी गुणवत्ता की जरूरतों का पहले ही पारदर्शी रूप से ऐलान किया जाए, तो काफी समय की बचत हो सकती है।

यह खरीद प्रक्रिया से अलग एक तरह की प्रमाणिक प्रक्रिया के रूप में स्वतंत्र रूप से किया जा सकता है। एक बार उपकरण को प्रमाणित कर दिया गया, उसके पश्चात् उस प्रक्रिया को जल्द आगे बढ़ाना चाहिए। इस समांनांतर प्रक्रिया को रक्षा मंत्रालय की खरीद प्रक्रिया के साथ सामंजस्य बैठाते हुए पूरा करना होगा, जिसे निगरानी की आवश्यकता होगी।

रक्षा के क्षेत्र में ‘मेक इन इंडिया’ को बढ़ावा देने हेतु रक्षा मंत्रालय को रणनैतिक सहभागिता पर जोर देना होगा और बड़े उपकरण जैसे, लड़ाकू विमान, हेलीकॉप्टरों, पनडुब्बीयों और हथियारों-लैस वाहनों की खरीद को समांनातर रूप से अंजाम देने की आवश्यकता है, एक के बाद एक नही। आधुनिक मिसाइलों के स्वदेशी निर्माण को बढ़ावा देने की आवश्यकता है और चेतावनी यंत्रों और भविष्य के इन्फेंट्री लड़ाकू वाहनों के लिए ‘मेक’ परियोजनाओं को शुरू करने की आवश्यकता भी है। इन परियोजनाओं को बिना किसी देरी और वित्तीय अनियमितता के गंभीरता से शुरू करने और आगे बढ़ाने की जरूरत है।
रक्षा उद्योग में रक्षा बिक्री को बढ़त देने के लिए, कई बड़ी परियोजनाओं को एक साथ शुरू करने की जरूरत है जिससे यह ‘काफ़ी लोगों तक’ तक पहुँच सकें। इनका गंभीर रूप से समय-सीमा पर निर्धारित होना जरूरी है, जिससे की परियोजनाएं समय पर पूरी हो सकें। यह एक राष्ट्रीय मिशन है और रक्षा मंत्रालय व् वित्त मंत्रालय को इसे पूर्ण सहयोग प्रदान करना होगा जिससे यह सफ़ल हो सके।
अतः यह आवश्यक है की रक्षा बजट में ये दो नई विशेषताएं शामिल की जायें: (i) एक पन्द्रह-वर्षीय परिपेक्ष्य (ii) गैर-कालातीत। पिछले पन्द्रह वर्षों में सुरक्षा रणनीति पर आधारित सभी अधिग्रहणों को इसी वास्धि के दौरान पूरा किया जाए और इसके लिए रक्षा मंत्रालय और वित्त मंत्रालय के बीच आपसी सहमती बनाई जाये। वार्षिक बजट को हर वर्ष के अंत में फंड्स की आवश्यकता का एक ब्यौरा देना चाहिए। इससे लगातार योजना को दोहराने की आवश्यकता बनी रहेगी। उदाहरण के लिए, 2018-19 से लेकर 2033-34 तक की योजना में 2033-34 तक का पूरा सुनियोजित परिव्यय दिया जाना चाहिए, 2019-20 में यह परिपेक्ष्य वर्ष 2034-35 तक का हो जाना चाहिए। कुल मिलाकर, इसमें अगले 15 वर्षों के लिए जरूरी फंड्स का उल्लेख दर्ज रहेगा।

फंड्स के प्रति यह प्रतिबद्धता उनकी अवधी के साथ प्रत्येक वित्तीय वर्ष के अंत में तय की जाएगी। इसका सुझाव हाल ही में रक्षा संसदीय समिति ने दिया था, जिसे वित्त मंत्रालय ने ठुकरा दिया। इसको ठुकराने की मुख्य वजह इस प्रकार है: (i) यदि गैर-कालातीत पूँजी बनाई भी जाती है तो बची हुई राशी का प्रयोग बिना संसद की मंजूरी के नही किया जा सकता। (ii) ऐसी कोई समर्पित रसीद नही है जो इस तरह के कोष का निर्माण कर सकें। (iii) पूँजी को एक जगह जमा करके रखाना उसके एनी उपयोग को बाधित कर सकता है। उससे बेहतर है उसका प्रयोग जरूरी चीज़ों के लिए किया जाए। गैर-कालातीत पूँजी अक्सर सह-इष्टतम उपयोग को आमंत्रित करती है। (iv) भारत के समेकित पूँजी में से इस तरह की पूँजी को तैयार करना भारतीय संविधान के अनुच्छेद 266 (1) के विरुद्ध है। (v) अन्य मंत्रालयों से भी इस तरह की माँग उपज सकती है।

इनमें से कोई भी कारण इतना मजबूत नही है जो रक्षा सम्बंधित गैर-कालातीत पूँजी के इस विचार को ख़ारिज कर सके। प्रशासनिक तौर पर इस तरह की अस्वीकृति रोज की बात है। कानून, नियम और नियमावली अपने आप में खत्म नही होते बल्कि खात्में को अंजाम देते है। राष्ट्र सुरक्षा के महत्वपूर्ण मसले को लेकर यह जरूरी है कि मौजूदा नियमों, कानूनों अथवा प्रक्रियायों में उचित बदलाव किया जाए। सभी सम्बंधित मंत्रालयों को भी राष्ट्र सुरक्षा की तैयारी के लिए सहयोग करना चाहिए।

बजट आवंटन में एक अन्य मुद्दा जिसपर ध्यान देने की आवश्यकता है वह सीमा सड़क है। सीमा सड़क संगठन एक बहु-उपयोगी रणनैतिक इकाई है जो कई महत्वपूर्ण कार्यों को अंजाम देने में सक्षम है मगर मौजूदा हालात में संसाधनों की कमी से जूझ रही है। इस संगठन में प्रभावी सुधार हेतु रक्षा मंत्रालय ने कई नीतियों में परिवर्तन किए है जिसमें प्रतिनिधियों के अधिकार, मुख्य सडकों पर रियायत, सड़क निर्माण में बाहरी स्त्रोतों की उपलब्धता आदि। शामिल है। बाहरी स्त्रोतों को शामिल करने से बड़े बदलाव आ सकते है और सड़क निर्माण एवं व्यय में भी सकारात्मक परिवर्तन देखने को मिल सकते है।
सड़क निर्माण हेतु परियोजनाओं में खुले तौर पर बाह्य स्त्रोत, किसी नामचीन सड़क निर्माता को नही लुभा सकेंगे यदि सीमा सड़क संगठन उनको समय पर भुगतान नही करेगा। इसलिए कार्य बजट में उचित बढ़ोतरी करनी ही होगी। लेकिन बजट में इस वर्ष 4,600 करोड़ आवंटित हुए है जो पिछले वर्ष से केवल संवर्द्धित रूप से अधिक हैं। इसके अतिरिक्त भी सीमा सड़क संगठन को 4,000-5,000 करोड़ रूपए की जरूरत होगी, यदि इन्हें मुख्य सड़क निर्माण परियोजनाओं को समय पर पूरा करना है। सुरंगों के निर्माण को भी गति पकडनी होगी यदि सडकों को सदाबाहर तौर पर बनाया जा रहा है। दारचा-लेह ध्रुव, दारचा-पदम्-निमू ध्रुव आवश्यक सुरंगे है और इनपर भविष्य में वार्षिक तौर पर काफी व्यय होने की भी सम्भावना है। अरुणाचल में मौजूद सुरंगों को भी प्राथमिकता देनी होगी। वित्त मंत्रालय को कम से कम दो-तीन वर्षों में इस बात पर गौर करने की जरूरत है, हालाँकि मौजूदा बजट में इस बात के कोई संकेत नही मिल रहें है।

(लेखक पूर्व रक्षा सचिव हैं। ये लेखक के निजी विचार हैं और वीआईएफ का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।)


Translated by: Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)
Image Source: https://commons.wikimedia.org/wiki/File:Indian_Ministry_of_Defence-1.jpg

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