“मैं शेरों की उस फौज से नहीं डरता, जिसकी अगुआई भेड़ करती है; मैं भेड़ों की उस फौज से डरता हूं, जिसका मुखिया शेर होता है।”
सिकंदर महान
आगे बढ़ने का समय
अब सेना की कमान संभाल रहे सेना प्रमुख के नाम की घोषणा जब हुई थी तभी से इस मसले पर व्यापक चर्चा और सार्वजनिक बहस चलती आई है। यह अपेक्षा के अनुरूप था और इस बात का स्पष्ट सूचक था कि यह नियुक्ति कितनी महत्वपूर्ण है और अपने सशस्त्र बलों के प्रति लोगों में कितना विश्वास तथा स्नेह है।
सबसे पहले मैं स्पष्ट बता दूं कि जनरल बिपिन रावत सबसे उत्कृष्ट अधिकारी हैं, जिनका युद्ध तथा सक्रिय उग्रवाद वाले क्षेत्रों में सेवा का शानदार रिकॉर्ड है तथा निश्चित रूप से वह सेना को श्रेष्ठ नेतृत्व प्रदान करेंगे। मैं उनकी सफलता की कामना करता हूं और सेना को उनके नेतृत्व पर गर्व करना चाहिए।
इतना कहने के बाद मैं यह भी स्पष्ट कर दूं कि जिन दो सैन्य कमांडरों को लांघकर वह आए हैं, उनका भी सेवा का विलक्षण रिकॉर्ड रहा और स्वयं रक्षा मंत्री के शब्दों में, “उनका चयन नहीं होने का अर्थ यह नहीं है कि उनमें योग्यता की कमी है।” सरकार के चयन का समर्थन करने वाले मानते हैं कि नए सेना प्रमुख का जम्मू-कश्मीर में छद्म युद्ध का गहन अनुभव, पिछले वर्ष के म्यांमार अभियान में कोर कमांडर तथा सर्जिकल स्ट्राइक में उप सेनाध्यक्ष के रूप में उनकी भूमिका ने जनरल रावत को यह पद दिला दिया। किंतु लगभग 40 वर्ष के करियर में कुछ लोगों को अन्य की तुलना में कुछ विशेष परिस्थितियों का अधिक अनुभव मिलना लाजिमी ही है। हमारी व्यवस्था में तो ऐसा होना ही है, जहां ब्रिगेडियर के स्तर से अधिक के अधिकारियों को विभिन्न सेक्टरों एवं अभियानों में भेजा जाता है तथा उनमें से लगभग सभी के पास किसी भी कार्य में सभी प्रकार की सेनाओं को संभालने का अनुभव तथा योग्यता होती है। इतना कहने के बाद पैदल सेना (इन्फैंट्री) और बख्तरबंद कोर के बीच महज इसीलिए काल्पनिक प्रतिस्पर्द्धा की बात करना बेवकूफी ही होगी कि नए सेना प्रमुख इन्फैंट्री से हैं। इतने ऊंचे स्तर पर यह अहम नहीं है कि आप किस सेना से हैं क्योंकि सभी सेनाएं बराबर महत्वपूर्ण हैं और युद्ध में सबको अपनी-अपनी भूमिका निभानी होती है; कोई किसी की जगह नहीं ले सकता।
सेना प्रमुखों के पास पैनी दृष्टि तथा राष्ट्रीय/अंतरराष्ट्रीय स्तर पर व्यापक राजनीतिक-सामरिक जटिलताओं की गहन समझ होनी चाहिए ताकि वे देश के सैन्य बल पर नियंत्रण कर सकें। नीतिगत स्तर पर समझबूझ दिखाना अथवा किसी विशेष शस्त्र का अनुभव होना न तो उनकी विशेषता हो सकती है और न ही राष्ट्र के सर्वोच्च सैन्य कमांडर के लिए यह मुख्य योग्यता मानदंड हो सकता है। इस मामले में माना जा सकता है सरकार ने एक निर्णय लिया है, जो शेष सभी बातें एक जैसी होने पर केवल वरिष्ठता पर ध्यान देने की सामान्य परिपाटी से हटकर देश हित में लिया गया निर्णय है।
किंतु लोगों की तथा सशस्त्र सेना के भीतर के लोगों की आपत्ति यह है कि वरिष्ठता के पुराने सिद्धांत की अनदेखी तब तक नहीं होनी चाहिए थी, जब तक वरिष्ठता क्रम में नीचे का कोई अधिकारी बहुत अधिक योग्य नहीं हो। इसमें पेचीदा मामला यह है कि सरकार योग्यता का निर्णय कैसे लेगी और किसी का पक्ष लेने से कैसे बचेगी। सेना की अराजनीतिक प्रकृति हमारे स्थिर एवं मजबूत लोकतंत्र की सबसे सशक्त स्तंभ रही है। वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों को राजनीतिक नेतृत्व से लाभ मिलने की संभावना निश्चित रूप से स्वयं सैन्य बलों एवं राष्ट्र के दीर्घकालीन हित के विरुद्ध है एवं उससे भी बड़ी बात है कि इसमें बहुत खतरा है। इसलिए इससे बचना चाहिए और सेनाध्यक्ष जैसे महत्वपूर्ण पद पर चयन इसके आधार पर बिल्कुल भी नहीं होना चाहिए।
सैन्य कमांडरों का महत्व
यहां हमें सशस्त्र बलों के भीतर झांकना होगा और स्वयं से पूछना होगा कि हम सर्वश्रेष्ठ अधिकारियों को सैन्य कमांडरों के रूप में चुन रहे हैं अथवा नहीं और इस तरह सेनाध्यक्ष के चयन के लिए केवल सर्वश्रेष्ठ अधिकारियों को प्रस्तुत कर रहे हैं अथवा नहीं। सैन्य कमांडरों की गुणवत्ता का प्रमुख के चयन पर सीधा प्रभाव होता है।
आज युद्ध की बदलती प्रकृति में लड़ाई के कई पहलु होते हैं, जिनमें युद्ध के पारंपरिक एवं उप पारंपरिक तरीकों के साथ ही परमाणु अस्त्रों, सूचना, साइबर, अंतरिक्ष एवं विषमता भरी क्षमताओं का प्रयोग शामिल है, जो संयुक्त सैन्य वातावरण में किया जाता है। इसीलिए हथियारों, युद्ध प्रणालियों के आधुनिकीकरण एवं समस्त सैन्य शक्ति के युक्तिसंगत प्रयोग के मामले में भारतीय सैन्य बलों में बड़े बदलाव होना लाजिमी है। इस समूची कवायद में सैन्य कमांडर की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण होती है। हमारे यहां सैन्य कमांडरों के ऊपर विशाल भौगोलिक क्षेत्रों की जिम्मेदारी होती है और विभिन्न कमानों के पास समूचे जम्मू-कश्मीर, राजस्थान, समूचे पूर्वोत्तर आदि की जिम्मेदारी होती है। अपने संघर्ष क्षेत्रों में सभी बलों पर नियंत्रण करने के साथ ही सैन्य कमांडर सामरिक, अभियान संबंधी, प्रशिक्षण उपकरण, कार्मिक प्रशासन एवं लॉजिस्टिक मसलों में शीर्ष स्तर पर निर्णय लेने की प्रक्रिया में भी हिस्सा लेते हैं। इसके अलावा अर्द्धसैन्य प्रशासनिक, वित्तीय, लॉजिस्टिक एवं न्यायिक मामलों को संभालने वाले रक्षा प्रतिष्ठानों पर संस्थागत नियंत्रण रखना भी उनकी ही जिम्मेदारी होती है। इन सबको मिलाकर जिम्मेदारियां बहुत भारी हो जाती हैं।
अंत में सरकार को सैन्य कमांडरों के बीच से ही राष्ट्र के सेना प्रमुखों को चुनना होता है। इसीलिए यह स्पष्ट है कि योग्य प्रत्याशियों (कोर कमांडरों) के बीच से सबसे योग्य को ही सैन्य कमांडर चुना जाना चाहिए। लेकिन सैन्य कमांडरों की नियुक्ति की वर्तमान व्यवस्था में योग्य प्रत्याशियों के बचे हुए सेवा काल तथा वरिष्ठता पर ध्यान दिया जाता है, योग्यता पर नहीं। इस मोर्चे पर सुधार की निश्चित रूप से आवश्यकता है और आगे उसी पर बात की गई है।
वर्तमान व्यवस्था में खामियां
सैन्य कमांडर के पद पर नियुक्ति कोर कमान - जो सर्वोच्च परिचालनगत सेना होती है - से की जाती है (उदाहरण सेना के संबंध में दिया गया है, लेकिन यह अन्य सेवाओं पर भी सटीक लागू होता है)। उस योग्यता के अलावा, एक अन्य शर्त यह है कि ऐसे महत्वपूर्ण पद पर सार्थक योगदान एवं सततता की खातिर प्रत्याशी के पास सैन्य कमांडर के पद पर नियुक्त होने की सूरत में कम से कम दो वर्ष का सेवाकाल (नौसेना एवं वायु सेना के मामले में कम अवधि) होना चाहिए। अंत में, इन दोनों पैमानों पर खरा उतरने वालों में से वरिष्ठता क्रम के आधार पर सैन्य कमांडर नियुक्त किए जाते हैं। जैसा कि देखा जा सकता है कि वर्तमान कोर कमांडरों के बीच से सैन्य कमांडर के चयन की कोई गहन प्रक्रिया नहीं है। जब अधिकारियों को प्रत्येक पद पर कठोर चयन बोर्डों से गुजरकर आगे बढ़ना पड़ता है और कर्नल के बाद से प्रत्येक पद पर एक-दूसरे को लांघा जाता है तब ऐसे महत्वपूर्ण पद पर नियुक्ति के लिए यह प्रक्रिया क्यों होनी चाहिए।
जब भी सैन्य कमांडर का पद खाली होता है तब नियुक्ति के लिए 14 तत्कालीन कोर कमांडरों में से कई प्रत्याशी हो सकते हैं तथा कुछ और भी हो सकते हैं, जिन्हें अन्य पदों पर नियुक्त किया गया होगा। इन अधिकारियों में कई ऐसे होंगे, जो कोर का श्रेष्ठ तरीके से नेतृत्व करते किंतु पद खाली होते समय दो वर्ष का सेवाकाल नहीं बचे होने के कारण उन्हें सेना की कमान के लिए प्रोन्नत करने योग्य नहीं माना गया। इस प्रकार विलक्षण योग्यता वाले नेताओं के अनगिनत उदाहरण हैं, जिन्हें मजबूरी में दूसरे पदों पर सेवानिवृत्ति की बाट जोहने के लिए छोड़ दिया जाता है और कम योग्यता वाले अधिकारियों को सेना की कमान सौंप दी जाती है।
कोर कमांडरों को सैन्य कमांडरों के पदों पर प्रोन्नत करने के मामले में नियुक्ति के समय योग्यता को धता बताकर दो वर्ष के शेष सेवाकाल तथा वरिष्ठता को प्रमुख मानदंड माना जाना ही खामी है। इस व्यवस्था का अनुकरण बगैर तर्क के किया जाता था और यह चार पहलुओं पर आधारित होता था। पहला, कोर कमांडर को स्वतः ही सैन्य कमांडर बनने योग्य मान लिया जाता था, जो सभी मामलों में सही नहीं होता था। दूसरा, ऐसा समझा जाता था कि ऐसी वरिष्ठ स्थिति में प्रत्याशियों के बीच अनावश्यक प्रतिस्पर्द्धा समाप्त करने के लिए चयन प्रक्रिया से हाथ झाड़ लेना चाहिए, विशेषकर तब, जब शेष सेवा काल भी नियुक्ति में महत्वपूर्ण पहलू होता हो। तीसरा, वरिष्ठ पदों पर कार्यकाल की अवधि बहुत कम होने के कारण आगे चयन के लिए पर्याप्त जानकारी उपलब्ध है अथवा नहीं। अंत में, यह समस्या कि चयन बोर्ड का सदस्य कौन होगा? अकेले सेना प्रमुख से बोर्ड नहीं बन सकता।
“सबसे पहले योग्यता” - अतिमहत्वपूर्ण कसौटी
यह विसंगति भरी स्थिति है क्योंकि सेना में प्रत्येक दूसरी प्रोन्नति के लिए चयन का अनिवार्य मानदंड योग्यता है। चयन बोर्ड में मनोनयन होने के बाद ही अधिकारियों को उनकी पारस्परिक वरिष्ठता के क्रम में रखा जाता है। युद्ध के बदलते प्रारूप में सैन्य कमांडर द्वारा निभाई जाने वाली बेहद महत्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए यह बहुत आवश्यक है कि ऊपर दी गई समस्याओं के बावजूद गहन चयन के द्वारा ही इस स्तर पर प्रोन्नत किया जाए।
नीचे कुछ सुझाव दिए गए हैं, जिन पर विचार किया जा सकता है। सैन्य कमांडर के स्तर पर स्थिर कार्यकाल के फेर में लागू की गई दो वर्ष (वायुसेना में डेढ़ वर्ष और नौसेना में एक वर्ष) के सेवाकाल की शर्त को घटाकर 18 महीने किया जा सकता है, जिससे चयन के लिए उपलब्ध प्रत्याशियों की संख्या बढ़कर 16 से 18 प्रतिवर्ष हो जाएगी। चूंकि एक वर्ष में मोटे तौर पर चार से पांच पद खाली होते हैं, इसलिए चयन चार या पांच पर ही रुक जाएगा; और इससे वास्तव में गहन चयन होगा क्योंकि मंजूरी का प्रतिशत घटकर 25-30 प्रतिशत ही रह जाएगा।
इससे सुनिश्चित होगा कि न केवल सर्वश्रेष्ठ प्रत्याशी सैन्य कमांडर बनेंगे बल्कि सेना प्रमुखों के रूप में नियुक्ति के लिए भी सरकार के पास सर्वश्रेष्ठ प्रत्याशी उपलब्ध होंगे। उसके बाद प्रमुख के पद पर नियुक्ति के लिए सरकार के पास उपलब्ध सैन्य कमांडरों के बीच से तुलनात्मक चयन की न तो संभावना रह जाएगी और न ही आवश्यकता। यह प्रक्रिया राष्ट्र के सर्वश्रेष्ठ हित में होगी और यह भी सुनिश्चित होगा कि योग्यता इस स्तर पर इकलौता मानदंड बनकर ही नहीं रहे बल्कि ऐसा माना भी जाए।
जहां तक चयन प्रक्रिया की बात है तो तीनों सेनाओं के बीच निष्पक्षता तथा एकजुटता की खातिर तीनों सेना प्रमुख (और जब चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ अथवा स्थायी चेयरमैन चीफ्स ऑफ स्टाफ कमेटी की नियुक्ति होती है तो चार) मिलकर चयन बोर्ड बना सकते हैं। जिस सेना के लिए प्रत्याशी का चयन किया जा रहा है, उसका सेना प्रमुख बोर्ड का अध्यक्ष हो सकता है। कर्नल से लेकर ऊपर तक के सभी पदों के लिए चयन के बाद बोर्ड का परिणाम सरकार के पास मंजूरी के लिए भेजा जा सकता है। सेना प्रमुख के चयन के लिए प्रधानमंत्री, भारत के मुख्य न्यायाधीश तथा विपक्ष के नेता को मिलाकर समिति बनाने जैसी जिन व्यवस्थाओं का सुझाव दिया जा रहा है, वे ऐसी व्यवस्था में अवांछित मानी जाती हैं, जिसमें अन्य सेवाओं से उलट प्रत्येक स्तर पर कड़ी पैमाइश होती है। आप केवल दस्तावेज देखकर प्रमुख का चयन निस्संदेह नहीं कर सकते।
सैन्य कमांडरों के चयन की जरुरत!
हमारे सैन्य कमान ढांचे में और तैयारी के स्तर में व्यापक सुधार करने का समय काफी पहले ही आ चुका है। वर्तमान सरकार निर्णय लेने की क्षमता के लिए प्रसिद्ध है और वह इन सुधारों को लागू करती है तो अच्छा होगा। आज सैन्य कमांडरों के कड़े और व्यापक चयन की आवश्यकता है। सैन्य कमांडर इस प्रकार चुने गए तो प्रमुख के पद पर नियुक्ति के लिए भी सर्वश्रेष्ठ प्रत्याशी उपलब्ध होंगे। इससे वरिष्ठता के मानदंड को अनदेखा करने की आवश्यकता भी नहीं पड़ेगी क्योंकि सभी प्रत्याशी अत्यधिक योग्य होंगे।
लेखक पूर्व सेना प्रमुख हैं और वर्तमान में विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन के निदेशक हैं।
Post new comment