एक बार पुनः नेपाल की जनता राजशाही के समर्थन में काठमांडू की सड़कों पर है। उनकी स्पष्ट मांग है की पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह के नेतृत्व में नेपाल में राजशाही की स्थापना की जाये एवं नेपाल को एक संवैधानिक रूप से हिंदू राष्ट्र घोषित किया जाए। केपी शर्मा ओली के नेतृत्व वाली सरकार ने विरोध को कुचलना के लिए काठमांडू घाटी में सेना को तैनात कर दिया है साथ ही कुछ क्षेत्रों में कर्फ्यू की घोषणा भी कर दी गई है। इसके साथ ही ओली सरकार ने इन विरोध प्रदर्शनों के पीछे भारत सरकार को जिम्मेदार ठहराया है।
यह सर्वविदित है कि 1996 से 2006 के दौरान राजशाही के उन्मूलन हेतु नेपाल में गृह युद्ध लड़ा गया। इस दौरान सतरा हजार से अधिक नेपाली नागरिकों की मृत्यु हो गई और लाखों लोग विस्थापित हुए। यह गृह युद्ध नेपाली आर्मी और लोकतंत्र समर्थित कम्युनिस्ट गुरिल्ला सेना के मध्य चला। जिसकी परिणीति यह हुई की अंततः 2007 के अंतरिम संविधान द्वारा 240 वर्ष पुराने नेपाली राजतंत्र को उखाड़ फेंका गया। इसके बाद लगातार दो लोकतांत्रिक संविधान सभा ने नेपाल के लिए एक नया संविधान का निर्माण किया जो 2015 से लागू हुआ। इस संविधान में आधुनिक लोकतांत्रिक मूल्यों को समाहित किया गया एवं लम्बे समय से हासिये पर रहे लोगों को मुख्य धारा में लाने हेतु विशेष प्रावधानों की व्यवस्था की गई। परंतु इन सब के बावजूद आने वाले वर्षों में जमीनी स्तर पर कुछ अधिक बदलाव देखने को नहीं मिला। वर्तमान राजशाही समर्थित प्रदर्शन के माध्यम से लोग यह संदेश देना चाहते हैं कि यह लोकतांत्रिक व्यवस्था नेपाली आकांक्षाओं को पूर्ण करने में असमर्थ रही है। जिसको निम्न तीन बिन्दुओ के माध्यम से अधिक स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है।
प्रथमतः वर्ष 2008 से नेपाल में लोकतांत्रिक पद्धति स्थापित होने के बाद से राजनीतिक अस्थिरता बनी हुई है मसलन की पिछले 17 सालों में नेपाल में 13 प्रधानमंत्री शपथ ले चुके हैं एवं कोई भी प्रधानमंत्री अपना कार्यकाल पूर्ण करने में असमर्थ रहा है। लंबे समय से नेपाल में किसी भी राजनीतिक पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिल पाया और त्रि-शंकु संसद का निर्माण होता रहा। इस दौरान राजनीतिक पार्टियों द्वारा अपनी आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए जोड़-तोड़ की सरकारों का गठन किया गया एवं कई बार यह भी देखा गया कि CPN (UML) और CPN (MC) सरकार बनाने की चाह में नेपाली कांग्रेस से हाथ मिला लेती थी । यह कुछ इस प्रकार है कि भारत में भाजपा सरकार गठन करने के लिए कांग्रेस से गठबंधन कर ले। दूसरे और नेपाली प्रधानमंत्री की कुर्सी केवल कुछ ही कुलीन लोगों के मध्य घूमती रही। इसमें केपी शर्मा ओली, पुष्प कमल दहल 'प्रचंडा' एवं शेरबहादुर देउवा प्रमुख है। इस प्रकार के सर्कुलेशन ऑफ एलीट एवं गठजोड़ की सरकार न केवल जनता के विकल्प सीमित करती है बल्कि उन्हें ठगा हुआ भी महसूस कराती है।
दूसरा, यह की लंबे समय से लोग जिन मूल्यों के लिए राजशाही के खिलाफ खड़े हुए थे वे वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था में पूर्ण होते नजर नहीं आ रहे हैं। राजनीतिक भ्रष्टाचार, लालफीताशाही की गहरी होती जड़े, बेरोजगारी और तेज मुद्रास्फीति ने लोगों का लोकतांत्रिक व्यवस्था से मोह भंग कर दिया है। लोगों को उम्मीद थी कि स्थिर लोकतांत्रिक सरकार में राष्ट्र निर्माण हेतु तेजी से विकास नीतियां लागू की जा सकेगी परंतु अपेक्षा की विपरीत आर्थिक नीतियों में अस्थिरता एवं भ्रष्टाचार में भारी बढ़ोतरी देखी गयी। भूटानी शरणार्थी घोटाला 2023 इस संबंध में एक ज्वलंत उदाहरण है। नेपाल में बेरोजगारी की स्थिति इस बात से भापी जा सकती है कि 14% (3.5 मिलियन) लोग रोजगार के बेहतर अवसरों हेतु अन्य देशों में रह रहे हैं।
तीसरा, नेपाली जनमानस राजा को केवल एक राजनीतिक नेतृत्वकर्ता ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक एकता का प्रतीक भी मानता है। 2021 की जनगणना के अनुसार नेपाल में 82% आबादी हिंदू-धर्म मतावली का अनुसरण करती है। ये लोग राजा को विष्णु का अवतार मानते हैं जो सनातन धर्म का रक्षक है। इस प्रकार अधिकांश नेपालियों के लिए राजशाही और लोकतंत्र का प्रश्न सत्ता-संघर्ष से आगे बढ़कर उनकी मूल धार्मिक पहचान से जुड़ा हुआ है।
यह पूरे घटनाक्रम को भारत के नजरिए से देखा जाए तो प्रतीत होता है कि भविष्य में नेपाल में राजशाही का सत्ता में वापस आना भारत के लिए सकारात्मक होगा। क्योंकि वर्तमान नेपाली राजनीतिक पार्टियों ने भारत-नेपाल संबंधो को अत्यधिक नुकसान पहुंचाया है। वर्ष 2006 में भारत ने नेपाली लोकतंत्र समर्थक पार्टियों के मध्य कंप्रिहेंसिव पीस एग्रीमेंट करने में निर्णायक भूमिका निभायीं थी। जिसके परिणामस्वरूप 2008 में नेपाल में पूर्ण लोकतंत्र की स्थापना हो सकी। परंतु समय के साथ सरकार में कम्युनिस्ट राजनीतिक पार्टियों का बोलबाला बढ़ता गया जो वैचारिक रूप से अपने आप को चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के अधिक करीब पाते थे। इन कम्युनिस्ट सरकारों ने न केवल भारत के विरुद्ध चीनी कार्ड खेलने प्रारंभ कर दिया, बल्कि एक तरफ़ा रूप से मानचित्र में बदलाव कर सीमा विवाद को हवा देना, कोविड-19 और 2015 में संविधान विरोधी प्रदर्शन हेतु भारत को जिम्मेदार ठहरने जैसी गतिविधियों के माध्यम से भारत-नेपाल संबंधों को अपने न्यूनतम स्तर पर पहुंचा दिया।
यहां यह बात स्पष्ट कर देना जरूरी है कि नेपाली राजशाही के साथ भी भारत सरकार विभिन्न मुद्दों को लेकर असहमत थी और नेपाल में चीन के प्रवेश का श्रेय भी राजशाही को ही जाता है। परंतु वर्तमान कम्युनिस्ट सरकार की तरह नेपाली राजशाही ने कभी भी भारत की क्षेत्रीय अखंडता को चुनौती देने की कोशिश नहीं की। स्पष्ट रूप से भारत नहीं चाहता कि नेपाल में बांग्लादेश जैसी कोई भी अस्थिरता पैदा हो इसलिए भारत को चाहिए कि वह सभी पक्षों के संपर्क में रहे एवं आवश्यकता पड़ने पर अपनी निर्णायक भूमिका निभाने से हिचक्य नहीं।
अंत में कहा जा सकता है कि पिछले 75 सालों में नेपाल में सात संविधान लागू हो चुके हैं। शक्ति-सत्ता के संघर्ष ने नेपाल को लंबे समय तक अनिश्चित के दौर में रखा है भले ही वर्तमान लोकतंत्र विरोधी प्रदर्शन अपने शुरुआती दौर में है परंतु अगर इसे राजनीतिक पार्टियों द्वारा समय रहते गंभीरता से नहीं हल किया गया तो यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि नेपाल एक बार पुनः गृह युद्ध की आग में झुलस सकता है।
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