विवादित नक्शा छापना नेपाल का अदूरदर्शी कदम
Dr Rishi Gupta

नेपाल के राष्ट्रपति के आर्थिक सलाहकार चिरंजीवी ने मौजूदा वाम सरकार के दबाव के चलते इस्तीफ़ा 12 मई को इस्तीफ़ा दे दिया । आर्थिक सलाहकार चिरंजीवी ने नेपाल में हाल ही में जारी हुए सौ रुपए के नए नोटों पर विवादित नक़्से जिसमें भारत के कुछ भू-भागों को नेपाल ने अपना बताते हुए छापा है, की कथित तौर पर आलोचना की और भारत के साथ संबंधों पर विपरीत प्रभाव की बात कही थी। ज्ञात है कि वर्ष 2020 में नेपाल ने भारत के साथ तनाव के बीच कालापनी, लिपुलेख और लिम्पियाधुरा जैसे विवादित क्षेत्रों को अपना बताते हुए एक नया नक्शा पेश किया जिसकी भारत के आलोचना की थी और ग़लत बताया था। हालाँकि भारत ने भू-भाग विवाद का संज्ञान लेते हुए राजनयिक बात-चीत का रास्ता अपनाया था लेकिन मौजूदा वामपंथी सरकार नक़्शे के मुद्दे को राष्ट्रवादी रंग देने के साथ अपनी राजनीतिक साख को मज़बूत करने में लगी हुई है।

भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने इस कदम की कड़ी निंदा करते हुए कहा, “हम एक स्थापित मंच के माध्यम से अपनी सीमा मामलों के बारे में चर्चा कर रहे थे। और फिर इसके बीच में, उन्होंने (नेपाल ने) एकतरफा अपनी तरफ से कुछ कदम उठाए”। भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने मीडिया को संबोधित करते हुए इस मामले पर विदेश मंत्री जयशंकर की टिप्पणी को दोहराते हुए कहा कि नेपाल के इस तरह के एक तरफ़ा कदमों से ज़मीनी यथास्थिति और वास्तिविकता में कोई बदलाव नहीं होगा। भारत का स्पष्ट कहना रहा है कि कालापानी, लिपुलेख और लिम्पियाधुरा भारत के अभिन्न अंग हैं। ये क्षेत्र भारत के साथ नेपाल की सीमा के पश्चिमी किनारे पर स्थित हैं और रणनीतिक महत्व रखते हैं। ख़ासकर कालपनी जैसे क्षेत्र भारत, चीन और नेपाल के बीच एक महत्वपूर्ण सामरिक त्रिशंकु बनाते है ।

चूँकि भारत और चीन के बीच सीमा विवाद पिछले कुछ वर्षों में काफ़ी गहराया है ऐसे में नेपाल द्वारा भारत को उकसाना एक सही कदम नहीं है क्योंकि भारत एक पड़ोसी मात्र ही नहीं बल्कि एक सांस्कृतिक, आर्थिक और धार्मिक मित्र है और मित्रों से ऐसी अपेक्षा नहीं रहती। नेपाल ने भारत के साथ भू-भाग मुद्दे पर बहस वर्ष 2019 में शुरु की थी जब नेपाल ने भारत के नये मानचित्र पर आपत्ति जतायी थी। भारत ने संविधान में अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के साथ लद्दाख, जो कभी पूर्ववर्ती राज्य जम्मू और कश्मीर का हिस्सा था, को एक केंद्र शासित प्रदेश बनाया था। इन आंतरिक सीमा बदलावों के चलते भारत ने एक नया मानचित्र जारी किया था। नए भारतीय मानचित्र को नेपाल ने ग़लत बताया लेकिन आश्चर्य की बात यह थी कि भारत ने अपनी बाहरी सीमाओं पर कोई बदलाव ही नहीं किया था और भारत ने यह बात आधिकारिक तौर से नेपाल तक पहुँचाई।

प्रतिक्रियाओं से परे भारत के साथ भू-भाग विवाद में नेपाल के वाम दलों का राजनीतिक स्वार्थ निहित है जो राजनीतिक और राष्ट्रवादी तापमान को बढ़ाता है। 2015 की सीमा नाकेबंदी के बाद से ही नेपाल के प्रमुख राजनीतिक दलों, विशेष रूप से वामपंथी दल जैसे माओवादी केंद्र और नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (यूएमएल), ने मुद्दे को अपने राजनीतिक फ़ायदे के लिए तूल दी जिसके चलते भारत विरोधी ‘गो बैक इंडिया’ जैसे सोशल मीडिया अभियान चर्चा में आये। यह दिलचस्प बात यह है कि जब भी वामपंथी दल नेपाल में सत्ता संभालते हैं, वह भू-भाग विवाद को पुनर्जीवित करते में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं । नेपाल के राष्ट्रपति के आर्थिक सलाहकार का इस्तीफा स्पष्ट रूप से इस मुद्दे को खत्म ना होने देने के प्रति वाम-गठबंधन सरकार की इच्छा को दर्शाता है।

वाम दलों के राजनीतिक फ़ायदे के साथ इसमें चीन की साज़िश को भी नकारा नहीं जा सकता है। नेपाल में सोलह वर्ष पूर्व लोकतंत्र की स्थापना के समय से ही चीन नेपाल के वामपंथी दलों को लगातार लुभाने की कोशिश करता रहा है। चूँकि भारत की तरह चीन नेपाल के साथ सांस्कृतिक, आर्थिक और सामाजिक तौर से नहीं जुड़ा है ऐसे में चीन वामपंथी विचारधारा को ही एक आधार मानकर संबंधों की दुहाई देता रहता है। हाल ही में नेपाल के उप प्रधान मंत्री और विदेश मंत्री ने चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की केंद्रीय समिति के राजनीतिक ब्यूरो के सदस्य वांग यी के निमंत्रण पर चीन की अपनी पहली यात्रा की थी। यात्रा के तुरंत बाद इस नेपाल का इस तरह का भारत के साथ विवाद खड़ा करना, बाहरी तत्वों के शामिल होने की बात को नहीं नकारता।

लेकिन अपने भरसक प्रयासों के बावजूद चीन आज भी नेपाली जानता का समर्थन नहीं प्राप्त कर सका है। चीन की बीआरआई जैसी परियोजनाएं 'ऋण जाल' की चिंताओं के बीच रुकी हुई हैं। अधिकांश नेपाली अभी भी भारत के साथ अपने 'विशेष संबंधों' को महत्व देते हैं । ऐसे में विवादित नक़्शे को नयी मुद्रा पर छापकर नेपाल ने भारत के साथ मुद्दे को दो सुलझाने की संभावना कम कर दी है । विवादित क्षेत्रों को अपना बताना नेपाल कि लिए भविष्य में भारत से बातचीत के दौर को नगण्य करता है। साथ ही दिल्ली और काठमांडू के बीच कोई राजनयिक समझौता हो जाता है, तो संभवतः इसमें सीमाओं का पुनर्निर्धारण या क्षेत्रीय दावों को संशोधित करना शामिल होगा जो मौजूदा हालतों में मुश्किल है।

दूसरा, मुद्रा पर विवादित क्षेत्रों को छापने का मतलब है कि नेपाल इस मुद्दे को एक स्थायी लबादा पहना दिया है। यदि भविष्य में कोई समझौता होता है तो नेपाल को सभी जारी किए गए नोटों को वापस बुलाने और बदलने की आवश्यकता होगी, जो एक महंगी और तार्किक चुनौती हो सकती है। इसके अलावा, विवादित क्षेत्रों के संदर्भों को हटाने के लिए संविधान में संशोधन करने के लिए एक राजनीतिक सहमति की आवश्यकता होगी, जिसे हासिल करना मुश्किल हो सकता है, खासकर जब यह मुद्दा नेपाल के राजनीतिक परिवेश में गहराई से उलझ गया हो तो। ऐसे में नेपाल को यह समझना होगा कि मानचित्र और मुद्राएँ राष्ट्रीय पहचान का प्रतीक है जो देशभक्ति की भावनाओं में गहराई से निहित हैं। ऐसी संपत्तियों पर विवादित मानचित्र को छापने से पहले नेपाल को सभी राजनयिक मापदंडों और नुक़सानों का गहनता से विचार करने की आवश्यकता है।

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