पिछले कुछ दशकों में नेताजी सुभाष चंद्र बोस पर सार्वजनिक चर्चा उनकी मृत्यु के विवाद में इस कदर उलझी हुई रही है कि हम उनके जीवन और उनके योगदान पर पर्याप्त ध्यान देना ही भूल गए हैं। भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में नेताजी का योगदान किसी से भी कम नहीं है, लेकिन उसको हमारे देश में स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर की आधुनिक भारतीय इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में भी कम कर आंका गया है या उसे कम दर्शाया गया है। इसके अलावा, भविष्य के राष्ट्र-निर्माण से संबंधित विचारों में भी उनके योगदान का कभी उल्लेख नहीं मिलता है। सवाल है कि वर्तमान पीढ़ी के ऐसे कितने छात्र हैं, जो जानते हैं कि ये नेताजी ही थे, जो आजादी के बाद भारत में अपनाई गई आर्थिक योजनाओं के उतने ही मास्टरमाइंड थे, जितने का श्रेय जवाहरलाल नेहरू को दिया जाता है? स्वतंत्रता-बाद की भारतीय इतिहास की पाठ्यपुस्तकें, जिनमें पंचवर्षीय योजनाओं का व्यापक रूप से उल्लेख किया जाता है,वे इस तथ्य पर कभी चर्चा नहीं करती हैं। बिपन चंद्र और रामचंद्र गुहा जैसे प्रसिद्ध इतिहासकार भी आर्थिक नियोजन के संदर्भ में सुभाष चंद्र बोस के नाम का उल्लेख तक नहीं करते हैं।
राजनीति इतनी गहरी होती चली गई है कि दूसरी पंचवर्षीय योजना के वास्तुकार प्रशांत चंद्र महालनोबिस ने अपनी पुस्तक टॉक ऑन प्लानिंग में जवाहरलाल नेहरू को भारत में आर्थिक नियोजन का पुरोधा कह कर समादृत करते हैं। महालनोबिस ने लिखा है: "कांग्रेस अध्यक्ष की पहल पर, अक्टूबर 1938 में दिल्ली में उद्योग मंत्रियों का एक सम्मेलन बुलाया गया था, जिसका विचार था कि 'गरीबी और बेरोजगारी,राष्ट्र की सुरक्षा की समस्याओं का हल और सामान्य रूप से देश का आर्थिक उत्थान औद्योगीकरण के बिना नहीं किया जा सकता है।' और इस सम्मेलन की सिफारिश पर, कांग्रेस अध्यक्ष ने अक्टूबर 1938 में पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय योजना समिति का गठन किया था, जिसने भारत में आर्थिक समस्याओं पर सोच को एक निर्णायक मोड़ दिया।"[1] महालनोबिस के इस बयान को हमारे ध्यान में लाने वाले विद्वान शंकरी प्रसाद बसु थे, जिन्होंने बताया कि तथ्य को छिपाने से अधिक कपटपूर्ण कार्य और कोई नहीं हो सकता, जैसा कि महलानोबिस ने 1938 के कांग्रेस अध्यक्ष का उल्लेख तो किया था, लेकिन उनका नाम नहीं लिया था, जैसे यह ईशनिंदा माना जाता।[2] वे कांग्रेस अध्यक्ष और कोई नहीं, सुभाष चंद्र बोस ही थे।
कांग्रेस कार्य समिति ने 1937 में एक प्रस्ताव पारित किया था कि राष्ट्रीय पुनर्निर्माण और सामाजिक नियोजन से संबंधित महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर विचार करने के लिए अंतर-प्रांतीय विशेषज्ञों की एक समिति बनाई जाए। नेहरू तब कांग्रेस अध्यक्ष थे और निश्चित रूप से इस प्रस्ताव को स्वीकार करने में उन्होंने एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, लेकिन जैसा कि शंकरी प्रसाद बसु ने तर्क दिया था, इससे उन्हें एक अहम मुद्दे का बहिष्कार करना पड़ा-उस प्रस्ताव में अकाल से लेकर सिंचाई, और नदी सर्वेक्षण तक सब कुछ विस्तार से उल्लेख किया गया था, पर उसमें इस सवाल से ऐहतियातन परहेज किया गया था कि भारत को औद्योगिकीकरण के रास्ते पर चलना है या कि कुटीर उद्योगों का पुनरुद्धार करना है? [3] कांग्रेस के भीतर तब एक महत्त्वपूर्ण लॉबी थी, जो औद्योगिकीकरण का विरोध कर रही थी। नेहरू के बाद अगले कांग्रेस अध्यक्ष सुभाष चंद्र बोस ने अपने हरिपुरा संबोधन और अन्य भाषणों में इस तरह के तीखे सवालों को उठाया था और स्पष्ट रूप से कहा था कि भारत के सामने औद्योगिकीकरण ही एकमात्र रास्ता है, जबकि यह आश्वस्त करते हुए कि " हमें औद्योगीकरण के साथ सामंजस्य बिठाना चाहिए और इसकी बुराइयों को कम करने के उपाय तलाशने चाहिए। इसके साथ ही, हमें अपने कुटीर उद्योगों को पुनरुज्जीवित करने की संभावनाओं का पता लगाना चाहिए, जहां कारखानों की अपरिहार्य प्रतिस्पर्धा से बचाव की संभावना हो।"[4]
यहां यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि सुभाष चंद्र बोस की प्रारंभिक स्थिति के रूबरू औद्योगीकरण के प्रश्न की तुलना में बदलाव आया था। निश्चित रूप से 25 वर्षीय युवक सुभाष मशीनों के मानव जीवन और सभ्यता में 'जहर' घोलने के कारण औद्योगीकरण के पक्ष में नहीं थे। लेकिन जैसे-जैसे वे एक राजनीतिक नेता के रूप में परिपक्व होत गए, उन्होंने देश के विकास में मशीन की अगुवाई वाले औद्योगीकरण के महत्त्व को स्वीकार किया। इस सन्दर्भ में औद्योगीकरण के मुद्दे पर बोस की प्रख्यात वैज्ञानिक मेघनाद साहा के साथ विचारों के सार्थक आदान-प्रदान का उल्लेख करना रोचक होगा। प्रो. साहा चरखा और "बुलकार्ट" (बैलगाड़ी) वाली गांधीवादी मॉडल की अर्थव्यवस्था के मुखर आलोचक हुआ करते थे। उन्होंने 1935 में खुद की स्थापित पत्रिका साइंस एंड कल्चर के संपादकीय में उस पर टिप्पणी की थी और जिस पर सुभाष चंद्र बोस ने भी अक्टूबर 1935 में एक लेख लिखा था। बोस ने प्रो. साहा के साथ इस बात पर उत्साहपूर्वक परिचर्चा की थी कि राष्ट्रवादी उद्देश्यों को हासिल करने के लिए विज्ञान के संसाधनों का पूरी तरह से उपयोग कैसे किया जा सकता है। 21 अगस्त 1938 को आयोजित इंडियन साइंस न्यूज एसोसिएशन की एक आम बैठक में, मेघनाद साहा ने कांग्रेस अध्यक्ष सुभाष चंद्र बोस से यह सवाल किया: "क्या मैं पूछ सकता हूं कि भविष्य का भारत ग्रामीण जीवन के दर्शन बैलगाड़ी को पुनर्जीवित करने जा रहा है, जिससे कि आगे भी दासता बनी रहे ? या वह एक आधुनिक औद्योगिक राष्ट्र बनने जा रहा है, जो अपने सभी प्राकृतिक संसाधनों को विकसित करके अपने लोगों को गरीबी, अज्ञानता से मुक्त करेगा और उनकी रक्षा-सुरक्षा करेगा और राष्ट्रों के समूह में एक सम्मानित स्थान प्राप्त करेगा और इस प्रकार सभ्यता में एक नया दौर शुरू करेगा? [5] बोस ने भी इसका उत्तर उतनी ही प्रगल्भता से दिया था। जैसा कि अपेक्षित था, इस औद्योगीकरण के समर्थक विचार ने कांग्रेस के भीतर उन वर्गों को झकझोर कर रख दिया था, जिनमें सबसे प्रमुख गांधी थे [6], जिन्होंने भारतीय समाज की सभी बीमारियों के लिए एकमात्र रामबाण के रूप में खादी को व्यापक रूप से अपनाने की परिकल्पना कर रखी थी।
औद्योगीकरण हो या न हो, युवा सुभाष चंद्र बोस ने 1921 से (या शायद उसके पहले से) 'नियोजन' के महत्त्व को महसूस कर लिया था, जैसा कि 1921 में चित्तरंजन दास को लिखे गए उनके पत्रों से पता चलता है। बोस कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में अपने चुनाव के बाद ही राष्ट्रीय योजना को एक ठोस आकार देने के लिए सक्रिय हो गए थे। मई 1938 में, उन्होंने बॉम्बे में कांग्रेस कार्य समिति की एक बैठक बुलाई, फिर उसी वर्ष जुलाई के महीने में कार्य समिति की ही एक और बैठक बुलाई। इसके बाद उनका अगला उपक्रम अक्टूबर में उद्योग मंत्रियों का सम्मेलन आहूत करना था, और अंत में दिसम्बर 1938 में अखिल भारतीय राष्ट्रीय योजना समिति की पहली बैठक बुलाई गई थी।19 अक्टूबर 1938 को, सुभाष चंद्र बोस ने नेहरू को एक पत्र में लिखा था: "मुझे आशा है कि आप योजना समिति की अध्यक्षता को स्वीकार करेंगे। यदि इसे सफल होना है तो आपको यह अवश्य करना चाहिए।"[7] तो इस प्रकार, एक वर्ष से भी कम समय में, बोस के पास इस योजना की पूरी रूपरेखा के साथ-साथ उसका तंत्र भी मौजूद हो गया था।
सुभाष बोस स्वतंत्र भारत की आर्थिक योजना के कई तत्वों का उल्लेख अपने अपने विभिन्न व्याख्यानों में पहले ही कर चुके थे। 1938 के अपने हरिपुरा संबोधन में, आंतरिक अंतर्विरोधों के कारण ब्रिटिश साम्राज्य के टूटने, आधुनिक युद्ध में हवाई शक्ति के उदय के कारण ब्रिटेन की सैन्य शक्ति में गिरावट आने का सटीक अनुमान कर लिया था, और फिर यह विलक्षण भविष्यवाणी की थी कि "भारतीय लोगों को सत्ता के हस्तांतरण को बेअसर करने"[8] के लिए अंग्रेजों के भारत छोड़ने के पहले अपरिहार्य रूप से देश को बांट देंगे। इनके मद्देनजर बोस ने पहले ही कई सिद्धांत तय कर लिए थे,जिन्हें बाद में स्वतंत्र भारत में अपनाया गया था। बोस के भाषण में इस बात के प्रचुर संकेत मिलते हैं कि वे जल्द ही आजादी मिलने को लेकर किस हद तक निश्चित थे। उनके द्वारा उजागर किए गए सिद्धांतों में सरकार के एक लोकतांत्रिक स्वरूप को अपनाना, नागरिकों के मौलिक अधिकारों को बनाए रखना, अल्पसंख्यकों की सुरक्षा करना और उनके सामाजिक एवं आर्थिक विकास के लिए विशेष प्रावधान करना, भारत का एकीकरण और अखंडीकरण (रियासतों के विलयन का मुद्दा) शामिल थे। सांस्कृतिक स्वायत्तता के संरक्षण के साथ-साथ राष्ट्रीय एकता की उपलब्धि (उन्होंने रेडियो, टेलीविजन, फिल्मों आदि की मदद से देश के विभिन्न हिस्सों को एक साथ लाने की बात भी की) हासिल करना, एक सामान्य भाषा विकसित करने की आवश्यकता जताते हुए हिंदी और उर्दू का मिश्रण से बनी भाषा को आदर्श मानते हुए इसके लिए प्रस्ताव रखा, जनसंख्या नियंत्रण की बात कही और भविष्य के राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के लिए विजन दिया। इन सभी मुद्दों को 1947 के बाद नए भारतीय राष्ट्र राज्य द्वारा व्यवस्थित रूप से अपनाया गया था।
सुभाष चंद्र बोस के हरिपुरा संबोधन के कुछ अंश इस प्रकार हैं:
"यद्यपि पुनर्निर्माण की विस्तृत योजना देना समय से पहले की कवायद लग सकती है, पर हम कुछ सिद्धांतों पर भी यहां विचार कर सकते हैं, जिनके अनुसार हमारे भविष्य का सामाजिक पुनर्निर्माण होना चाहिए। मेरे मन में इसको लेकर कोई संदेह नहीं है कि गरीबी, निरक्षरता और बीमारी के उन्मूलन, और वैज्ञानिक उत्पादन एवं वितरण से संबंधित हमारी प्रमुख राष्ट्रीय समस्याओं को समाजवादी तर्ज पर ही प्रभावी ढंग से निपटाया जा सकता है। हमारी भावी राष्ट्रीय सरकार को सबसे पहला काम यह करना होगा कि पुनर्निर्माण की व्यापक योजना तैयार करने के लिए एक आयोग का गठन करना होगा। इस योजना के दो भाग होंगे-एक तात्कालिक कार्यक्रम और दूसरा, एक लंबी अवधि का कार्यक्रम...
पुनर्निर्माण के संबंध में, हमारी प्रमुख चिंता यह होगी कि अपने देश से गरीबी को कैसे मिटाया जाए। इसके लिए हमारी भूमि वितरण व्यवस्था में आमूल-चूल सुधार की आवश्यकता होगी, जिसमें जमींदारी का उन्मूलन किया जाना भी शामिल है। कृषि ऋणग्रस्तता को समाप्त करना होगा और ग्रामीण आबादी के लिए सस्ते ऋण का प्रावधान करना होगा। उत्पादक और उपभोक्ता दोनों के लाभ के लिए सहकारी आंदोलन का विस्तार करना आवश्यक होगा। भूमि से उपज बढ़ाने की दृष्टि से कृषि को वैज्ञानिक आधार देना होगा।
आर्थिक समस्या का हल करने के लिए कृषि सुधार ही पर्याप्त नहीं होगा। राज्य के स्वामित्व और राज्य के नियंत्रण में औद्योगिक विकास की एक व्यापक योजना अनिवार्य रूप से बनानी होगी। एक नई औद्योगिक प्रणाली का निर्माण करना होगा...योजना आयोग को सावधानीपूर्वक विचार करना होगा और तय करना होगा कि आधुनिक कारखानों की प्रतिस्पर्धा के बावजूद कौन-कौन से घरेलू उद्योगों को पुनरुज्जीवित किया जा सकता है और किस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर उत्पादन को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए...भारत जैसे देश में कुटीर उद्योगों के लिए बहुत जगह होगी, विशेष रूप से कृषि से जुड़े हाथ-कताई और हाथ से बुनाई सहित उद्योगों के मामले में।
अंतिम बात जो कि महत्त्वपूर्ण है, वह यह कि योजना आयोग की सलाह पर राज्य को उत्पादन और विनियोग दोनों के क्षेत्र में हमारी पूरी कृषि और औद्योगिक प्रणाली को धीरे-धीरे सामाजिक बनाने के लिए एक व्यापक योजना को अपनाना होगा।"[9]
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि बोस का हरिपुरा संबोधन कांग्रेस अध्यक्षीय अभिभाषण के इतिहास में एक अनूठा संबोधन है। यह एक ऐसा संबोधन है, जहां बोस ने भविष्य के भारत की एक परिकल्पना का एक चित्र उकेर दिया था। अगस्त 1938 की इंडियन साइंस न्यूज एसोसिएशन की एक आम बैठक में मेघनाद साहा के सवालों पर बोस की प्रतिक्रिया, 2 अक्टूबर 1938 को दिल्ली में आयोजित उद्योग मंत्रियों के सम्मेलन में बोस का संबोधन और बॉम्बे में आयोजित पहली अखिल भारतीय राष्ट्रीय योजना समिति में 17 दिसंबर 1938 को उनका उद्घाटन भाषण-सभी के सभी सुभाष चंद्र बोस द्वारा परिकल्पित आर्थिक योजना की एक स्पष्ट एवं संपूर्ण रूपरेखा प्रदान करते हैं। अपने उद्घाटन भाषण में, बोस ने कहा था कि राष्ट्रीय योजना समिति ने "सबसे पहले अपना ध्यान मूल उद्योगों पर निर्देशित करना होगा अर्थात, वे उद्योग जो अन्य उद्योगों को सफलतापूर्वक चलाते हैं-जैसे कि बिजली उद्योग, धातुओं के उत्पादन के लिए उद्योग, भारी उद्योग। रसायन, मशीनरी और उपकरण, और संचार उद्योग जैसे रेलवे, टेलीग्राफ, टेलीफोन और रेडियो।"[10] ठीक यही सब काम दूसरी पंचवर्षीय योजना ने किया था। इसके पहले बोस ने जब कहा कि "बिजली आपूर्ति के मामले में हमारा देश पिछड़ा हुआ है", तो उन्होंने भविष्य में पंचवर्षीय योजनाओं के भारत के बिजली क्षेत्र के विकास में निवेश की अपरिहार्यता का अनुमान लगा लिया था। और बिजली आपूर्ति की महत्ता को घर लाने वाले व्यक्ति थे मेघनाद साहा।
बोस के हरिपुरा भाषण ने स्वतंत्र भारत की भावी सरकार के लोकतांत्रिक स्वरूप, रियासतों के एकीकरण, अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और मौलिक अधिकारों जैसे मुद्दों के संबंध में, कांग्रेस के भीतर आम सहमति को प्रतिबिंबित किया था, जिस पर वह कई ऐतिहासिक प्रक्रियाओं के परिणामस्वरूप पहुंची थी। नेहरू के स्वीकृत समाजवाद और गरीबी उन्मूलन, जमींदारी उन्मूलन, भूमि सुधारों, ग्राम सहकारी समितियों और अन्य समाजवादी-विचार वाले मुद्दों, और अन्य मुद्दों जैसे कि भाषा प्रश्न आदि पर सुभाष चंद्र बोस के साथ साझा किए गए विचारों को नकारने का कोई सवाल ही नहीं है। नेहरू और बोस कांग्रेस के भीतर युवा, समाजवादी समूह के थे, और दोनों ने अपने भाषणों में इस बात पर प्रकाश डाला था कि साम्राज्यवाद को पूंजीवाद से अलग नहीं किया जा सकता है-यानी दोनों मौसेरे भाई हैं। हालांकि, उपरोक्त चर्चा से यह पर्याप्त रूप से स्पष्ट होता है कि बोस ने निश्चित रूप से योजना से संबंधित ठोस विचारों को अभिव्यक्ति दी थी और कांग्रेस के अपने अध्यक्ष पद के दौरान-कुछ हलकों के विरोध के बावजूद-उनके तत्काल कार्यान्वयन के लिए जो कुछ आवश्यक था, वह सब कुछ किया था; लेकिन इन तथ्यों को आधुनिक भारत के इतिहास-लेखन में पर्याप्त रूप से प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया है।
दूसरे, सुभाष चंद्र बोस के शब्दों की शक्ति की कोई सानी नहीं है। उनकी वाणी में यह ऐसी शक्ति थी कि जिस पर-उनके साथियों, ब्रिटिश राज और भारत के लोग अवश्य ही गौर करते थे। इस अर्थ में, बोस लोगों के सच्चे नेता थे-नेताजी-जो एक जन्मजात नेता थे। कलकत्ता नगर निगम में सुभाष के विभिन्न पदों पर प्रशासक के रूप में उनके प्रारंभिक दिनों का उल्लेख करना महत्त्वपूर्ण है।1924 में वे कलकत्ता नगर निगम के सीईओ बने और उसके ढ़ांचे में अपने कार्यों से ऐसे बदलाव लाए कि अंग्रेज भी उनकी लोकप्रियता से डरने लगे थे। बोस इतने लोकप्रिय थे कि 1930 में जब वे जेल में थे, तभी उन्हें निगम का मेयर चुना गया था। स्वामी विवेकानंद ने एक बार लिखा था: "हर कोई नेतृत्व करने के लिए पैदा नहीं हुआ है...कई लोग महसूस करते हैं, लेकिन कुछ ही अपने को व्यक्त कर सकते हैं। यह दूसरों के लिए अपने प्यार और प्रशंसा और सहानुभूति को व्यक्त करने की शक्ति है, जो एक व्यक्ति को दूसरों की तुलना में इस विचार को फैलाने में बेहतर तरीके से सफल होने में सक्षम बनाती है।"[11] बोस निश्चित रूप से इस तरह के एक नेता के एक सबल उदाहरण थे।
बोस किसी समाजवादी से कम नहीं थे; और वे कोरे सिद्धांतवादी समाजवादी नहीं थे, बल्कि व्यवहार में भी एक समाजवादी थे। उनकी सरल जीवन शैली और नगर निगम के अन्य कर्मचारियों के साथ समानता के सामाजिक व्यवहार ने उन्हें अपने सहकर्मियों का प्यार जीता और उन्हें समाजवाद का एक जीवंत अवतार बना दिया। वे ' म्युनिसिपल सोशलिज्म' के भी समर्थक थे। वे म्युनिसिपल सोशलिज्म से प्रभावित थे क्योंकि उन्होंने वियना में इस प्रयोग को देखा था। वहां के लोगों के लिए आवास, शिक्षा, चिकित्सा राहत और सामाजिक कल्याण तक पहुंच सुनिश्चित किए जाने में म्युनिसिपल सोशलिज्म की सफलता को साकार होते देखा था। म्युनिसिपल सोशलिज्म के संदर्भ में, उन्होंने इस बात पर भी प्रकाश डाला था कि "लोकतंत्र का वास्तविक विद्यालय स्थानीय स्वशासन ही है।"[12] समाजवाद की ऐतिहासिक रूप से सिद्ध समस्याओं पर कोई निर्णय लेने से पहले, पाठक को यह याद दिलाना महत्त्वपूर्ण है कि ये 1930 और 40 के दशक की बात है,जब दुनिया में महान राजनीतिक और वैचारिक उथल-पुथल हो रही थी और साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के बारे में स्थापित विचारों पर तरह-तरह के सवाल उठाए जा रहे थे। समाजवाद न केवल पूंजीवाद की बल्कि साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद की भी आलोचना था, जिसे पूंजीवाद के साथ अटूट रूप से बंधा हुआ देखा गया था।
इन सबके बावजूद, सुभाष बोस के इस तरह के योगदान की शायद ही कभी प्रशंसा या इतिहास के इतिहास में उल्लेख मिलता है। उनके लिए सबसे अच्छी तरह से ज्ञात कारणों के लिए, बिपन चंद्र ने लिखा:"यद्यपि जवाहरलाल नेहरू की निस्संदेह सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका थी, अन्य समूहों और व्यक्तियों ने भी समाजवादी दृष्टिकोण को लोकप्रिय बनाने में महत्ती भूमिका निभाई थी। सुभाष बोस एक ऐसे व्यक्ति थे, हालांकि समाजवाद की उनकी धारणा जवाहरलाल की तरह वैज्ञानिक और स्पष्ट नहीं थी।"[13] चंद्रा का इससे जो भी मतलब था, उन्होंने अपने इन विश्वासों की वजह नहीं बताई। उनका यह भी दावा है: "यह सबसे ऊपर जवाहरलाल नेहरू थे जिन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन को एक समाजवादी दृष्टि प्रदान की और वे 1929 के बाद भारत में समाजवाद और समाजवादी विचारों के प्रतीक बन गए थे।"[14] विपिन चंद्रा ने सुभाष चंद्र बोस के हरिपुरा भाषण का न तो अपनी किताब India’s Struggle for Independence और न ही India Since Independence में इसका उल्लेख किया है, म्युनिसिपल सोशलिज्म या उनके अन्य भाषणों से संबंधित उनके विचारों पर चर्चा या जिक्र तो दूर की बात है।
सुभाष चंद्र बोस के समाजवाद, योजना और राष्ट्र-निर्माण से संबंधित विचारों पर समुचित चर्चा न करने का एकमात्र कारण उनके योगदान को कमतर आंकने की इच्छा हो सकती है। इस निबंध का उद्देश्य सुभाष चंद्र बोस को भारत खास कर आधुनिक भारत के वास्तुकार (जो वे निश्चित रूप से उसके वास्तुकारों में से एक थे) की उपाधि दिलाने के लिए झगड़ा करना नहीं है। हम इसका एकमात्र श्रेय बोस को दिए जाने की अपील नहीं करेंगे, जैसा कि आजादी के बाद से जवाहरलाल नेहरू को अधिकतर कामों के लिए महिमामंडन किया गया है। इस निबंध का उद्देश्य केवल यह बताना है कि स्वतंत्र भारत में राज्य-संरक्षित तथाकथित 'राष्ट्रवादी' इतिहास-लेखन में नेताजी सुभाष चंद्र बोस के महत्ती योगदान और उनकी समृद्ध विरासत को लगभग पूरी तरह से भुला दिया गया है। लिहाजा, अब समय आ गया है कि नेताजी को इस मसले पर बराबरी का स्थान दिया जाए-जो उनका हक है।
[1]सिटेड इन शंकरी प्रसाद बसु, सुभाषचंद्र ओ नेशनल प्लानिंग,कलकात्ताः जयश्री प्रकाशन,1970, प्रस्तावना।
[2]वही।
[3]वही,पेज 72-73.
[4]सुभाष चंद्र बोस: पॉयनियर ऑफ इंडियन प्लानिंग, निउ दिल्ली: प्लानिंग कमीशन,1997, पेज-41
[5]वही, पेज 70.
[6]विस्तृत विवरण के लिए, देखें-बसु, सुभाषचंद्र ओ नेशनल प्लानिंग, पेज100-124.
[7]सुभाष चंद्र बोस: पॉयनियर ऑफ इंडियन प्लानिंग पेज-86.
[8]वही, पेज, 27.
[9]वही, पेज, 37-42.
[10]वही, पेज, 89.
[11]लेटर्स ऑफ स्वामी विवेकानंद, कोलकाता: अद्वैत आश्रम, 2013, पेज, 366.
[12]सुभाष चंद्र बोस: पॉयनियर ऑफ इंडियन प्लानिंग, पेज, 67
[13]बिपिन चंद्र एवं अन्य, इंडिया’ज स्ट्रगल फॉर इंडिपेंडेंस, गुरुगांव: पेंग्युन, 2016, पेज-262.
[14]वही, पेज 297-298.
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[1] https://www.vifindia.org/article/hindi/2022/february/18/netaji-subhas-chandra-bose-aur-bharat-me-aarthik-yojna
[2] https://www.vifindia.org/author/arpita-mitra
[3] https://www.vifindia.org/article/2022/january/22/netaji-subhas-chandra-bose-and-economic-planning-in-india
[4] https://www.thenewsminute.com/sites/default/files/styles/slideshow_image_size/public/SubhashChandraBose_190121_Wikepedia_1200.jpg?itok=k6R9nvWk
[5] http://www.facebook.com/sharer.php?title=नेताजी सुभाष चंद्र बोस और भारत में आर्थिक योजना&desc=&images=https://www.vifindia.org/sites/default/files/SubhashChandraBose_190121_Wikepedia_1200_0.jpg&u=https://www.vifindia.org/article/hindi/2022/february/18/netaji-subhas-chandra-bose-aur-bharat-me-aarthik-yojna
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