नेपाल में 1951 में राणा के निरंकुश शासन के अंत के बाद से देश के पास सात बार संविधान थे। फिर भी, कोई संविधान इस देश में एक दशक से अधिक समय तक लागू नहीं रह पाया। पिछले सात दशकों के दौरान, नेपाला विभिन्न राजनीतिक प्रणालियों का गवाह रहा है-पूर्ण राजशाही से लेकर संवैधानिक राजतंत्र तक और इसके बाद गणतंत्र प्रणाली तक। सब की सब अपनी प्रकृति में भिन्न। इसी तरह, देश ने वेस्टमिंस्टर मॉडल पर आधारित बहुदलीय संसदीय प्रणाली के अलावा, "पंचायत प्रणाली" के अंतर्गत दल-रहित राजनीतिक शासन का भी प्रयोग किया है। यदि आम जनता की आवाज का अपना कोई मायने है, उसका कोई संकेत है, तो वर्तमान संविधान भी, जिसे हाल-फिलहाल 2015 में लागू किया गया था,वह भी टिकाऊ नहीं लग रहा है।
1990 में राजनीतिक परिवर्तन के बाद कम्युनिस्टों और कट्टरपंथी माओवादियों के अलावा, लोकतांत्रिक दलों ने भी थोड़े-थोड़े अंतराल पर देश पर शासन किया है। नेपाल ने 2008 में, हिंदू देश के रूप में अपना गौरव भी खो दिया और वह एक धर्मनिरपेक्ष राज्य में बदल गया। इसके बाद हिंदुओं की आबादी कम हुई है, जबकि मुसलमानों और ईसाइयों की आबादी बढ़ी है।
हालांकि, पिछले कुछ वर्षों में जो नहीं बदला,वह देश में सत्ता की संरचना है। इसमें आर्य-खस समूह की आबादी में पहाड़ी-ब्राह्मण और छेत्री शामिल हैं, जिनके प्रतिनिधि देश पर 250 वर्षों से शासन कर रहे हैं। यह समूह नेपाल की कुल आबादी का केवल 28 फीसदी का प्रतिनिधित्व करता है, लेकिन वे मधेशियों, जनजातियों (स्वदेशी लोगों), दलितों और अन्य वंचित वर्गों की 72 फीसदी आबादी को देश की प्रशासनिक व्यवस्था के विभिन्न स्तरों से दरकिनार करने में कामयाब रहे हैं।
नेपाल के वंचित समुदायों में, जिन्हें बड़े पैमाने पर सत्ता-संरचना से दूर रखा गया है, उनमें मधेशी और जनजातीय हैं, जो देश की आबादी का लगभग दो-तिहाई हिस्सा हैं। नेपाल के तराई क्षेत्र में मधेशियों का दबदबा है, वहीं पहाड़ियों और पर्वतीय क्षेत्रों में भी जनजातियों की समान रूप से मजबूत उपस्थिति है।
फिर भी, जनजातीय लोगों के लिए अपमानजनक शब्द 'मतवाली' इस्तेमाल किया जाता था। 1854 ईस्वी के बाद से इस शब्द का उपयोग शराब पीने वालों का मुलुकी ऐन (देश कोड) के रूप में किया जाता था। इसी तरह, मधेशियों को देश में दोयम दर्जे का नागरिक माना जाता है। ये दोनों समुदाय सामान्य रूप से और दलित, विशेष रूप से, देश में संसाधनों के आवंटन में, नागरिकता प्रमाण पत्र पाने में और प्रशासनिक, न्यायपालिका, राजनयिक, सुरक्षा एजेंसियों और राजनीतिक दलों में प्रतिनिधित्व के लिहाज से भेदभाव के शिकार रहे हैं।
इन वर्षों में, जनता और मधेशी दोनों समुदायों ने सरकार-प्रशासन के विभिन्न स्तरों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के अपने प्रयासों के तहत सरकार के खिलाफ आंदोलन शुरू किए। इसके लिए उन्होंने सड़कों पर और संसद में अपनी आवाज उठाने के लिए अलग-अलग जातीय-आधारित राजनीतिक दलों का गठन भी किया, लेकिन इनका अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पाया। यहां तक कि 2007 से 2008 के दौरान शुरू हुआ मधेश आंदोलन भी आगे चल कर 2015-16 में सफल नहीं हो सका। इसकी एक वजह तो यह थी कि मधेशी नेता जनजातीय और दलित समूहों के साथ मिल कर काम करने में विफल रहे। उनकी इस स्थिति का लाभ उठाते हुए, राज सत्ता ने सभी मधेसी और जनजाति के आंदोलनों को सख्ती से दबा दिया।
नेपाल में संघीय संविधान 2015 में लागू किया गया था। इसके बाद भी मधेशी, जाति और दलित समूह परस्पर बंटे रहे। हालांकि कई मधेशियों ने 2018 में होने वाले स्थानीय, प्रांतीय और संसदीय चुनावों में मधेस क्षेत्र के राजनीतिक दलों के बैनर तले भाग लिया था; जनजातीयों ने भी जनजातीय पार्टियों के बैनर तल चुनाव में हिस्सा लिया था। इसके अतिरिक्त, मधेशी और जनजाति लोगों ने भी नेपाली कांग्रेस, सीपीएन-यूएमएल और माओवादियों जैसे खस-आर्य समूह के प्रभुत्व वाले राजनीतिक दलों के बैनर तले भी चुनावों में शिरकत की थी। जैसे, उन्होंने न तो स्थानीय स्तर की इकाइयों में और न ही प्रांतीय विधानसभाओं और राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिनिधि सभा (HoR) में एक मजबूत उपस्थिति हासिल की।
इसके बाद, तथाकथित मधेश-आधारित राजनीतिक दलों ने खुद को राष्ट्रीय दलों के रूप में पेश करने के प्रयास में अपने नाम से 'मधेश' या 'तराई' शब्द हटा दिया। यही स्थिति जनजातीय राजनीतिक दलों के साथ भी थी। इस तरह की अनावश्यक गतिविधियों ने वंचित समुदायों की ताकत को और कमजोर कर दिया।
नेपाल में कम्युनिस्ट पार्टियां जनजातीय समूहों के भीतर इस विभाजन से सबसे अधिक लाभान्वित हुईं। यह देश में सबसे बड़ा जनजातीय समूह है, जो कुल जनसंख्या की 36 फीसदी है। माओवादियों सहित कम्युनिस्टों की सारी ताकत, जनजातियों की ताकत है, क्योंकि उन पार्टियों में जनजातीय लोगों की पर्याप्त उपस्थिति है। इस जातीय समूह के बीच उग्रवाद के कारण, कम्युनिस्ट आज तक सत्ता-संरचना उनकी उचित हिस्सेदारी दिए बिना ही उनका उपयोग कर रहे हैं।
नेपाल में माओवादी आंदोलन के जोर पकड़ने की वजह यह थी कि माओवादियों ने विभिन्न जातीय समूहों, विशेष रूप से स्वदेशी लोगों को उनकी सामाजिक-सांस्कृतिक परम्पराओं-प्रथाओं के आधार पर संघीय व्यवस्था के तहत राज्य बनाने जैसे मधेश प्रदेश, थारुवन प्रदेश, लिम्बुवान प्रदेश, किरात प्रदेश, नेवा प्रदेश तमसालिंग प्रदेश, तमुवन प्रदेश, मगरत प्रदेश और खाप्टाड़ प्रदेश के गठन का आश्वासन दिया था। लेकिन बाद में, माओवादियों को महसूस हुआ कि जातीय आधार पर राज्यों के गठन से मौजूदा कुलीन समूहों का सत्ता पर एकाधिकार ही समाप्त हो जाएगा तो उन्होंने अपने कदम पीछे खींच लिए।
चूंकि कम्युनिस्ट पार्टियों की देश की सांस्कृतिक-सामाजिक परंपराओं के आधार पर बनी अपनी कोई विचारधारा नहीं है, इसलिए वे कार्ल मार्क्स, लेनिन, माओ और चे ग्वेरा जैसे विदेशी विचारकों को अपना वैचारिक आधार बनाते हैं। दुर्भाग्य से, वे इस तथ्य की उपेक्षा करते हैं कि गौतम बुद्ध, जो नेपाल में पैदा हुए थे, उन लोगों की तुलना में कहीं अधिक समाजवादी या कम्युनिस्ट थे, जो खुद को ऐसा होने का दावा करते हैं। 'संघ' या 'कम्यून' पर बुद्ध का ध्यान नेपालियों के लिए अधिक आकर्षक हो सकता था क्योंकि इसकी जड़ें कहीं बाहर नहीं, बल्कि उनके ही समाज और संस्कृति में सन्निहित थीं।
साथ ही, कम्युनिस्टों ने कानून के शासन और जनजातियों के प्रशासनिक ढांचे से बहुत कम सीखा है। उन्होंने नेपाल में राजतंत्र के संस्थापक सम्राट पृथ्वी नारायण शाह के दिव्य उपदेश (दिव्य परामर्श) को भी दरकिनार कर दिया, जो उन्होंने 1774-75 में अपने जीवन के अंत में राज्य, कला, धर्मांतरण और हिंदू धर्म की रक्षा की आवश्यकता से संबंधित मुद्दों पर दिए थे।
इतना कि, कम्युनिस्टों ने विरासत में मिले भगवान राम के आदर्शों को आत्मसात करने में भी विफल रहे हैं, जिनकी प्रशासनिक संरचना को 'राम राज्य' कहा जाता है। राम-राज्य को अभी भी एक कल्याणकारी राज्य का मॉडल माना जाता है। लेकिन राम, कृष्ण या बुद्ध के दर्शनों को अपने वैचारिक आधार की आधारशिला बनाने के बजाय, वे उन विदेशी विचारकों का आँख मूंद करके अनुसरण कर रहे हैं,जिनकी विचारधारा शायद ही हमारे सामाजिक जीवन में सटीक बैठती है। यही एक कारण है कि कम्युनिस्ट शासन के दौरान मधेशियों और दलितों के कुछ वर्गों के अलावा, कई जनजातियों के लोग स्वयं को विदेशी धर्म स्वीकार करने के लिए उद्यत हो गए। हालांकि यह नेपाली संविधान की मूल भावना के खिलाफ है। अक्सर यह आरोप लगता है कि पश्चिम देश आइएनजीओ/एनजीओ के माध्यम से देश में धर्मांतरण का समर्थन कर रहे हैं।
जो लोग विदेशी धर्मों में परिवर्तित हो जाते हैं, वे समाज की मुख्यधारा से अलग-थलग पड़ जाते हैं। वे अपनी संस्कृति और परंपराओं से उखड़ जाते हैं। उन्हें यह सोचने पर मजबूर किया जाता है कि उनके या उनके पूर्वजों की जो भी स्वदेशी परंपराएं हैं, वे बेकार हैं और जो विदेशी मूल्य हैं,वे ही वास्तविक हैं।
पूर्व उप प्रधान मंत्री और लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के नेता राजेंद्र महतो ने अतीत में हुई उन गलतियों को दूर करने या भूलों के सुधार करते हुए नेपाल को "सांस्कृतिक बहुलवाद राष्ट्र" के रूप में विकसित करने के लिए जोरदार आवाज उठाई है, ताकि तराई/मधेश, पहाड़ियों और पर्वतीय क्षेत्रों के हाशिए पर रहने वाले लोगों और स्वदेशी समूहों को उनकी अनूठी सांस्कृतिक पहचान बनाए रखने और देश की प्रशासनिक व्यवस्था में उनका उचित हिस्सा दिला कर अल्पसंख्यक आर्य-खस समूह के देश के बहुसंख्यक स्वदेशी समूहों, मधेशी और दलितों पर कायम उनके एकाधिकार को समाप्त किया जा सके। महतो के इस तरह के प्रयास को जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से लोगों का व्यापक समर्थन मिला, क्योंकि इसका उद्देश्य न केवल लोकतांत्रिक मूल्यों और मानवाधिकारों को मजबूत करके सत्ता समीकरण के पूरे सरगम का पुनर्गठन करना था, बल्कि देश में स्वदेशी ताकतों के उदय और कम्युनिस्ट/ इंजीलवादी तत्व के पतन को सुनिश्चित करना भी था।
अगर मधेशियों, जनजातियों और दलितों जैसे वंचित समुदायों के हितों की सेवा करनी है, तो उन्हें अपने प्रति प्रशासन की सभी परतों में किए जाने भेदभावों एवं धर्मांतरण के खिलाफ सड़कों से लेकर संसद तक में एकजुट हो कर आवाज उठाने के लिए परस्पर सहयोगी बनाने की जरूरत है। इसके साथ ही, जीवन के सभी क्षेत्रों में "स्वदेशी" या "स्वदेशी" आंदोलन को बढ़ावा देने की सबसे अधिक आवश्यकता है-चाहे वह सामाजिक-सांस्कृतिक, धार्मिक, आर्थिक या राजनीतिक क्षेत्र में हो।
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