अफगानिस्तान में 1990 के दशक में तालिबान ने रब्बानी सरकार को काबुल से हटा कर सत्ता पर कब्जा किया था। तब यह एक धीमी कवायद थी; वे देश के उत्तरी हिस्से पर दखल नहीं कर सके थे, लिहाजा, वह क्षेत्र नार्दर्न एलाइंस के अधीन ही बना रहा था। इस बार उन्हें पहले के बनिस्बत थोड़ी अधिक जीत मिली है। हालांकि पंजशीर घाटी अब भी उनके प्रभावी नियंत्रण से दूर है, पर उन्होंने बाकी देश को जीत लिया है। इस बार यह देखा जा रहा है कि तालिबानी बच-बच के बयान दे रहे हैं। अलबत्ता, उन्होंने साफ कर दिया है कि वे इस्लामिक अमीरात की स्थापना के प्रति प्रतिबद्ध हैं। इस बिना पर कहा जा सकता है कि अफगानिस्तान में सिर्फ हुकूमत ही नहीं बदली है, बल्कि इससे अफगानिस्तान का संविधान और 9/11 के बाद बना राज्य के ढ़ांचा भी बदल जाने वाला है। अनेक दोषों के होते हुए भी, अफगान-समाज ने पिछले दो दशकों के दौरान धीरे-धीरे लोकतांत्रिक व्यवस्था एवं नागरिक समाज की तरफ अग्रसर हुआ है। लेकिन अब यह प्रक्रिया और उसकी उपलब्धियां इतिहास के कूड़ेदान में चली जाएंगी।
पाकिस्तान ने तालिबान की फतह का इस्तक़बाल किया है। उसके प्रधानमंत्री इमरान खान ने इसे ‘अफगानियों द्वारा दासता की जंजीर को तोड़ना ’करार दिया है।1 उनकी यह प्रतिक्रिया उनकी खुशी का कोई पारावार न रहना बताती है। पाकिस्तान के सियासी दल जेयूआइ (एफ) के नेता मौलाना फजलुर्र-रहमान ने तालिबान के आमीर हैबतुल्लाह अखुंजादेह को एक बधाई संदेश भी भेजा है।2 हालांकि यह उस आदमी के लिए वाजिब रवैया ही कहा जाएगा, जिसने तालिबान को पाला-पोसा हो। इसमें हैरत पैदा करने वाली प्रतिक्रिया संघीय मंत्री सिरिन मजारी की है। सिरिन के एक महिला होने एवं मानवाधिकार को बढ़ावा देने की जवाबदेही वाले निभाने वाली मंत्री होने के नाते, तालिबानी हुकूमत में महिलाओं के अधिकार को लेकर उन्हें अपनी चिंता जाहिर करनी चाहिए थी। इसकी बजाए उन्होंने इस घटना को साइगॉन पल के रूप में वर्णित करते हुए बिडेन प्रशासन के सेट-बैक पर खुशी जाहिर की।3 आतंकवाद के विरुद्ध जंग में अमेरिका के सहभागी होने के बाद, और उससे 20 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक की धन राशि मदद लेकर भी पाकिस्तान अमेरिकी प्रयासों के अफगानिस्तान में औंधे मुंह गिरते देख काफी खुश है।
पाकिस्तान ने इस साझा जंग की शुरुआत से लगातार दोमुंही नीति रखता रहा है। उसके राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ ने सितम्बर 2001 को दिए अपने एक भाषण में अमेरिका की अगुवाई वाले गठबंधन में पाकिस्तान के शामिल होने सामरिक शर्तों पर किया गया फैसला बताया था। उन्होंने दावा किया कि यह फैसला पाकिस्तान को अपनी परमाणु परिसंपत्तियों की हिफाजत के लिए कराना पड़ा है। इसके एक दशक बाद, आइएसआइ के पूर्व प्रमुख जनरल गुल ने कहा, ‘हमारी आइएसआइ ने अमेरिका की मदद से (पूर्व सोवियत संघ) रूस को हराया था, और अब हम अमेरिकियों को अमेरिकियों की ही मदद से हराने जा रहे हैं।’4 यह तो सब जानते हैं कि पाकिस्तान ने ही तालिबान को संरक्षण और समर्थन दिया है। पाकिस्तान की विश्वासघाती फितरत अमेरिकियों को खूब मालूम थी। ओसामा बिन लादेन उसके ऐबटाबाद में रहते हुए मिला था, जो इस्लामाबाद के करीब था। एडमिरल माइक मुलेन ने हक्कानी नेटवर्क को आइएसआइ को वर्चुअल आर्म्स कहा था।
1990 के दशक में तालिबानी राज शिया हाजरा पर अत्याचार करने एवं उनकी हत्या करने, और बड़े पैमाने पर महिलाओं के अधिकारों को दबाने का दोषी था। क्या तालिबानी हुकूमत की यह दूसरी पारी पहली से एकदम अलहदा है?तालिबानियों ने तो कभी भी खुले तौर पर अपने को अल कायदा से अलग नहीं कहा है। उन्होंने अफगानिस्तान के संविधान को भी स्वीकार नहीं किया है। इस्लामिक अमीरात की अवधारणा में असहमति या बहुलतावादी नागरिक व्यवस्था की बहुत कम जगह है या एकदम ही कोई गुंजाइश नहीं है। विदेशी मीडिया ने अमेरिकी मिशन या सेना से जुड़े अफ़गानों के अफ़ग़ानिस्तान से बाहर निकलने की हड़बड़ी को कवर किया है। इनके मुताबिक बाहरी प्रांतों और शहरों के सामान्य परिवारों की दुर्दशा कहीं अधिक मार्मिक है। जैसे ही तालिबान फतह करते गए, वे पनाह लेने के लिए काबुल की तरफ भाग गए। उनमें से कई लोग तो पैदल ही ईरान और फिर वहां से तुर्की चले गए। जाहिर तौर पर उनमें से पहली तालिबान के अत्याचारों के शिकार हुए थे, वे जरा भी विश्वास नहीं करते कि उसकी हुकूमत पहले से बेहतर होगी। इसलिए वे दूसरी बार वही सब कुछ सहने के लिए राजी नहीं हैं।
तालिबानी की जीत के साथ, पाकिस्तान की फौज ने ‘सामरिक गहराई’ वाले संबंध के मकसद को पूरा कर लिया है। काबुल में उनकी दोस्ताना हुकूमत है। हालांकि पाकिस्तान काबुल की सत्ता हथियाने में तालिबान की विचारधारात्मक मदद करने की जवाबदेही से बच नहीं सकता। यह ट्रेंड कुछ पहले से ही रहा है। तहरीक-ए-तालिबान (टीटीपी) ने 2007 में उसके स्वात क्षेत्र पर कब्जा कर लिया था। टीटीपी पर 2014 में पेशावर की आर्मी स्कूल में बच्चों के कत्लेआम का इल्जाम है। हालांकि पाकिस्तान अपने पाले में अफगानिस्तान को लाने के बाहरी मकसद को पूरा करने के लिए लगातार प्रयास जारी रखा था। इसमें कोई संदेह नहीं कि टीटीपी काबुल में तालिबान की फतह से उत्साहित होगी। परमाणु शक्ति संपन्न पाकिस्तान का तालीबानीकरण भारतीय उपमहाद्वीप क्षेत्र की शांति एवं सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा है। इस खतरे को ईरान के निवर्तमान विदेश मंत्री जावेद जरीफ ने भांपा था। उन्होंने कहा था कि तालिबान भारत एवं ईरान के लिए तो उनकी सुरक्षा पर खतरा है लेकिन पाकिस्तान के लिए यह उसके वजूद पर खतरा है।
अफगानिस्तान में अमेरिकी उपस्थिति ने भिन्न-भिन्न ताकतों को तालिबान के समर्थन में एकजुट कर दिया था। अब वहां से अमेरिकियों के जाने के साथ उसके प्रति पहले रहे नकारात्मक रहे कारक लंबे समय तक नहीं बने रहेंगे। रूस और चीन दोनों ही अफगानिस्तान से अतिवादी दर्शन के मध्य एशिया तक फैलने के खतरे को लेकर आशंकित हैं। रूस में इसकी प्रतिक्रिया यह हुई है कि उसने उज्बेकिस्तान के साथ मिलकर उसकी अफगानिस्तान की सीमा से सटे एक संयुक्त सैन्य अभ्यास किया है।5 रूस एवं उज्बेकिस्तान ने ताजिकिस्तान के साथ भी सैन्य अभ्यास किया है। इसके अलावा, रूस ने चीन के साथ उसके शिंजियांग प्रांत में भी सैन्य अभ्यास किया है। चीन तालिबान के पूर्वी तुर्कमिस्तान इस्लामिक मूवमेंट (ईटीआइएम) से सांठगांठ को लेकर चिंतित है। ईरान ने अमेरिका की वापसी का स्वागत किया है। हालांकि वह अपनी पूर्वी सीमा पर अफगानिस्तान अतिवादी सुन्नी अभियान के उदय को बड़े ही समभाल से देखता नहीं रह सकता।
अफगानिस्तान छोड़ने वाले कद्दावर लोगों में अफगान सेंट्रल बैंक के गवर्नर अजमल अहमदी भी हैं। उन्होंने अपने देश की मौजूदा आर्थिक हालत को बेहद गंभीर बताया है। अफगानिस्तान के पास 9 बिलियन अमेरिकी डॉलर्स का कोष सुरक्षित है। इस राशि का अधिकांश हिस्सा विदेशों के बैंक एकाउंट में जमा हैं। अमेरिकी प्रशासन ने अमेरिकी कांग्रेस को सूचित किया कि वह इस धन को तालिबान को नहीं देगा। इसी तरह, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) ने विशेष धन निकासी अधिकारों के तहत 400 मिलियन डॉलर की निकासी नहीं कर सकता।6
भारत ने अफगानिस्तान में भारी मात्रा में विकास सहायता दी है। तालिबानी भी चाहते हैं कि भारत अपनी यह सहायता आगे भी जारी रखे। हमारा अफगान के बाजार में कोई दिलचस्पी नहीं है। इस तरह, बढ़त का संतुलन हमारे साथ है। हमारे पास इंतजार करने और तालिबानी हुकूमत के अगले रवैये पर नजर रखने का वक्त है। अगर तालिबानी हुकूमत की दूसरी पारी उसके पहले
संस्करण से सुधरी हुई है तो वे अफगानिस्तान में एक व्यापक आधार वाली सरकार बनाएं और उसमें सभी जातीय एवं भाषागत समूहों को अवश्य ही शामिल करें। तालिबान को अवश्य ही महिलाओं के अधिकारों का सम्मान करना चाहिए। उन्हें एकमुश्त यह भी आश्वासन देना चाहिए कि वे अफगानिस्तान की सरजमीं से किसी दूसरे देश के खिलाफ आतंकवादी गतिविधियां चलाने की इजाजत नहीं देंगे। इंडियन एअरलाइंस फ्लाइट IC 814 के अपहरण की साजिश आइएसआइ ने रची थी। लेकिन तालिबान ने और मसूद अजहर ने अपहर्ताओं का खुलेआम स्वागत किया था। अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में एक सहयोगी के रूप में स्वीकार जाने के प्रयास में, तालिबान को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उसकी सरजमीं का इस्तेमाल पाकिस्तान अपने भू-राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिए न कर सके।
Translated by Dr Vijay Kumar Sharma (Original Article in English) [3]
Links:
[1] https://www.vifindia.org/article/2021/september/28/taalibaan-kee-jeet-kshetr-par-usaka-asar
[2] https://www.vifindia.org/auhtor/shri-d-p-srivastava
[3] https://www.vifindia.org/2021/august/21/talibans-victory-implications-for-the-region
[4] https://economictimes.indiatimes.com/thumb/msid-84493044,width-1200,height-900,resizemode-4,imgsize-458181/1.jpg?from=mdr
[5] http://www.facebook.com/sharer.php?title=तालिबान की जीत: क्षेत्र पर उसका असर&desc=&images=https://www.vifindia.org/sites/default/files/1_7_0.jpg&u=https://www.vifindia.org/article/2021/september/28/taalibaan-kee-jeet-kshetr-par-usaka-asar
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