अफगानिस्तान के हालिया घटनाक्रमों के वैश्विक एवं क्षेत्रीय स्थिरता के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं। यह क्षेत्र तालिबान की हुकूमत में वापसी के साथ ही सबसे ज्यादा अस्थिर हो गया है। अफगानिस्तान से आतंकवाद एवं कट्टरता की ऊंची उठती लपटों का विश्व के अन्य हिस्सों को भी अपनी चपेट में ले लेने का खतरा उत्पन्न हो गया है। अमेरिकी फौज की वापसी ने एक क्षेत्रीय-शक्ति की एक शून्यता पैदा कर दी है, जिससे क्षेत्र में आगे चल कर और भी दुश्वारियां होने की आशंकाएं हैं।
तालिबानी हुकूमत ने जो ताकत हासिल की है, वह किसी भी लिहाज से वैध नहीं है। सत्ता में साझेदारी को लेकर उसके यहां कोई समझौता नहीं है; जिस अंतरिम कैबिनेट का तालिबान ने गठन किया है, वह सर्व समावेशी नहीं है, यानी इसमें देश-समाज के सभी तबकों की रहनुमाई नहीं है; इस कैबिनेट में शामिल अधिकतर मंत्री के नाम संयुक्त राष्ट्र की विश्व आतंकवादियों की सूची में दर्ज हैं। इनमें से कई मंत्री तो भारी-भरकम इनामी राशि वाले आतंकवादी हैं। तालिबान की विश्व दृष्टि मध्ययुगीन मूल्यों एवं मान्यताओं पर आधारित हैं, जो आधुनिक विश्व में व्यवस्था को सीधी चुनौती देती है।
कहने का आशय यह है कि तालिबान के आते ही जिहादी आतंकवाद का भूपरिदृश्य फिर से जीवंत हो उठा है। काबुल हवाई अड्डे पर इस्लाम स्टेट खुरासान (आइएस-के) का हमला तो बस उसकी एक झांकी है कि आगे वहां और क्या-क्या हो सकता है। विडम्बना है कि जिन ताकतों ने आज से पहले 20 साल तक तालिबान से खूनी लड़ाइयां लड़ी हैं, उसमें अपना खजाना खाली कर दिया है, और खून बहाए हैं, उन्होंने ही अफगानिस्तान का तख्त तश्तरी में रख कर तालिबान को सौंप दिया है, और अब वे उभरती कट्टरताओं से खतरों का सामना कर रहे हैं।
30 अगस्त 2021 को पारित संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससीआर) के प्रस्ताव संख्या-2593 में सभी पक्षों को तो नहीं, लेकिन कुछ सरोकारों पर चिंता जताई गई है। इसमें काबुल हवाई अड्डे पर आईएस-के के बारे में बात की गई है; अफगानिस्तान में आतंकवाद रोकने के काम को महत्व दिया गया है; अफगानिस्तान में रह रहे लोगों एवं अफगान-शरणार्थियों वाले देशों को भी मानवीय आधार पर सहायता उपलब्ध कराने के मुद्दे को चिह्नित किया गया है और कुछ सरोकारों को अपनी चिंता जताई है। प्रस्ताव में मानवाधिकारों, जिनमें महिलाएं, बच्चों एवं अल्पसंख्यकों भी शामिल हैं, उनके मानवाधिकारों के महत्व पर भी बल दिया गया है और सभी पार्टियों से एक समावेशी, बातचीत पर आधारित राजनीतिक समाधान निकालने की मांग की गई है। लेकिन प्रस्ताव में मादक द्रव्य के बारे में कुछ नहीं कहा गया है और अफगानिस्तान मामलों में बाहरी हस्तक्षेप पर चुप्पी साध ली गई है। इसके अलावा, इसका कोई ऑपरेटिव पैरा नहीं दिया गया है। ऐसे में सवाल है कि अगर तालिबान अपने पहले के वादे से मुकर जाता है तब क्या होगा। चीन और रूस का संयुक्त राष्ट्र में प्रस्ताव के दौरान गैरहाजिर रहने से तालिबानी हुकूमत को लेकर अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में फूट को दर्शाता है।
ब्रिक्स के नेताओं द्वारा भी 9 सितंबर 2021 को एक लंबा वक्तव्य जारी किया गया। संगठन के नेताओं ने अफगानिस्तान के मामले में अपनी चिंता जाहिर की और आह्वान किया कि मसले का हल शांतिपूर्ण तरीके से निकाला जाए। उन्होंने एक समावेशी अंतर अफगान संवाद की आवश्यकता पर जोर दिया, जो अफगान में स्थिरता, घरेलू शांति, कानून एवं व्यवस्था सुनिश्चित करें। इस वक्तव्य में आतंकवाद से संघर्ष करने की बात कही गई है, जिसमें अफगान में सक्रिय आतंकवादी संगठनों द्वारा दूसरे देशों में आतंकवादी हमले रोकने के लिए प्रयास किया जाना भी शामिल हैं। ब्रिक्स नेताओं ने जोर दिया कि अफगानिस्तान में मानवीय स्थिति का हल निकालने और मानवाधिकारों को सुनिश्चित करने की जरूरत है, जिनमें महिलाएं, बच्चे और अल्पसंख्यकों के मानवाधिकार शामिल हैं।
जबकि यूएनएससी के प्रस्ताव और ब्रिक्स के वक्तव्य में कुछ समानताएं हैं, लेकिन उनमें कुछ भिन्नताएं हैं, जिन पर गौर करने की आवश्यकता है। ब्रिक्स के वक्तव्य में यूएसएससीआर 2553 का उल्लेख नहीं करता है। इसमें आइएसआइएस-के का नामोल्लेख नहीं किया गया है और तालिबान का भी नाम नहीं लिया गया है। हालांकि यह मादक द्रव्य का उल्लेख करता है, जो कि यूएनएससीआर में नहीं है, लेकिन ब्रिक्स के वक्तव्य में मानवीय सहायता मुहैया कराने के संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव का कोई जिक्र नहीं है।
दोनों वक्तव्य में गौरतलब बिंदु यह है कि दोनों ही वक्तव्य अपूर्ण हैं। इसलिए कि दोनों वक्तव्य इसका उल्लेख ही नहीं करते कि तालिबानी हुकूमत एकमद गैरकानूनी है। वास्तव में तालिबान का कब्जा तख्तापलट से कम नहीं है, न तो वे तालिबान का समर्थन करने वाले पाकिस्तान की भूमिका का कोई के कोई ब्योरा ही देते हैं।
दिलचस्प है कि, अंतरराष्ट्रीय बिरादरी लगातार यह उम्मीद लगाए बैठी है, तालिबानी बदल सकते हैं। उनमें एक सकारात्मक बदलाव आएगा। हालांकि यह एक अवास्तविक संभावना ही है। हकीकत तो यह है कि तालिबानी जरा भी नहीं बदले हैं, लेकिन वे पहले की तुलना में मीडिया को साधने में ज्यादा सयाना हो गए हैं,बस। लोगों को खुश करने के लिए गोल-गोल बातें करते हैं लेकिन उन्होंने अपने हृदय परिवर्तन का एक भी संकेत नहीं दिया है, और नहीं इस दिशा में कोई कदम उठाया है। पिछले कुछ दिनों में महिलाओं, पत्रकारों एवं तालिबानी हुकूमत के प्रति विरोध भाव रखने वाले प्रदर्शनकारियों के प्रति उनके अत्याचारों के आए दृश्य विचलित करते हैं। अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने ऐसी बर्बरता पूर्ण कार्रवाई की एक स्वर में निंदा करने से भी परहेज रखा है।
ऐसा मालूम होता है कि तालिबान के साथ संबंध जोड़ने की दुनिया में जैसे एक होड़-सी मची है, जबकि वे लगातार अपने दमन-अत्याचार जारी रखे हुए हैं। ऐसे में तालिबान को घुमाव-फिराव वाले शब्दों में संदेश-संकेत देने की बजाय सख्त शब्दों में उसकी निंदा की जानी चाहिए। हम कुछ पश्चिमी देशों के शीर्ष स्तरीय प्रतिनिधिमंडलों को दोहा एवं इस्लामाबाद में आवाजाही करते देख रहे हैं। उनकी तरफ से ये गतिविधियां एक गैर कानूनी सरकार को कानूनी मान्यता को बढ़ावा देती हैं। इसके विपरीत, अंतरराष्ट्रीय समुदाय को तो इस बात की फिक्र करनी चाहिए कि इस समय अफगानिस्तान की सरजमी पर कई आतंकवादी समूह सक्रिय हैं। अल कायदा अभी जीवित है और वह हमले कर रहा है। आइएसआइएस-के के दांत निकल आए हैं। ऐसे में सवाल है कि आतंकवादी समूहों को क्यों सामान्य होने दिया जाए। यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि तालिबानी सत्ता के साथ संबंध बनाने की जल्दीबाजी एक बड़ी भूल साबित होगी। ऐसी हुकूमत को कानूनी जामा पहनाना एक गलती होगी।
ये आतंकी समूह आपस में जुड़े हुए हैं और पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आइएसआइ के अहम संरक्षण का आनंद ले रहे हैं। अब यह किसी से छिपा नहीं रहा कि तालिबान कैसे बना और उसका पालन-पोषण कैसे किया गया। किसने उन्हें विचरने के लिए एक सुरक्षित अभयारण्य मुहैया कराया? किसने अल कायदा सरगना ओसामा बिन लादेन को अपने यहां पनाह दी? काबुल में पाकिस्तान के विरोध में रैलियां निकाली जा रही हैं। जो स्वयं ही अपनी कहानी कहती हैं।
यह चौंकाने वाली बात है कि अफगानिस्तान को वर्तमान स्थिति तक पहुंचाने में पाकिस्तान की हद दर्जे की नकारात्मक भूमिका को कबूल करने में ना-नुकुर किया जा रहा है। तालिबान के कब्जे को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान द्वारा इसे ‘दासता की जंजीर’ तोड़ने जैसी एक महान घटना बताया गया। यहां समझना चाहिए कि वैश्विक जिहाद का आतंकी परिदृश्य पश्चिम में इस्लाम की ‘विजय’ की आकुलता का एक आख्यान है। यह पूरी तरह से खतरनाक आख्यान है, जो वैश्विक आतंकवाद को ऊर्जा देता है।
अंतरराष्ट्रीय समुदाय को अवश्य ही तालिबानी हुकूमत को मान्यता देने में जल्दीबाजी नहीं करनी चाहिए। 90 के दशक में केवल 3 देशों ने ही उसी मान्यता दी थी। इस लिहाजन तालिबान को मान्यता न देना बिल्कुल सही दृष्टिकोण होगा। संयुक्त राष्ट्र संघ से लगाए प्रतिबंध को नहीं हटाया जाए। अफगानिस्तान की संयुक्त राष्ट्र संघ में अफगानिस्तान को दी गई सीट तालिबान को नहीं दिया जाना चाहिए। ज्यादा से ज्यादा यह किया जा सकता है कि यूएनएससीआर 2593 के प्रस्ताव में कहे के मुताबिक मानवीय सहायता दी जा सकती है। संयुक्त राष्ट्र इसमें एक अहम रोल अदा करेगा।
20 साल बाद, इस क्षेत्र से नाटो और पश्चिमी फौजियों की वापसी निश्चित रूप से एक नए समीकरण का आगाज करेगी। रूस, चीन, पाकिस्तान, तुर्की, कतर, ईरान, भारत अपनी स्थितियों को फिर से समंजित करेंगे। ऐसे समय में चीन विश्व का नियम-कायदा लिखने का प्रयास कर रहा है।
अधिकतर अफगानी महसूस करते हैं कि उनके साथ विश्वासघात हुआ है और अमेरिका ने उन्हें उनके हाल पर बेसहारा छोड़ दिया है। अफगानियों ने एक विश्वसनीय सहयोगी के रूप में अमेरिका के चरित्र पर संदेह जताया है। इसलिए अमेरिका को अपनी खोई विश्वसनीयता को फिर से हासिल करने के लिए कड़ी मेहनत करनी होगी।
रूस इस खेल में धमाकेदार वापसी कर रहा है। लेकिन वह आतंकवाद एवं मादक द्रव्यों के अफगानिस्तान से आने वाली खेपों को लेकर असुरक्षित भी महसूस कर रहा है। इसी चिंता में उसने ताजिकिस्तान, किर्गिस्तान, उज़्बेकिस्तान और कजाकिस्तान के साथ आतंकवाद प्रतिरोधक क्षमताओं को मजबूत करने के लिए कई बैठकें की हैं।
तालिबान को चीन अपने आर्थिक और विकासात्मक साझेदार के रूप में दिख रहा है। ऐसे में, बीआरआइ को विस्तारित कर अफगानिस्तान तक ले जाया जा सकता है और इसे सीपीईसी से भी जोड़ा जा सकता है। लेकिन चीन को तालिबान से इस कठोर गारंटी की दरकार होगी कि वह पूर्वी तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट (ईटीआइएम) को अपनी सरजमीं से गतिविधियां चलाने की अनुमति नहीं देगा। इस बारे में तालिबान ने चीन को आश्वस्त तो किया है, लेकिन अभी यह स्पष्ट नहीं है कि वह अपने आश्वासन को अमल में भी लाएगा।
ईरान खुश है कि अमेरिका इस क्षेत्र से बाहर निकल गया है, लेकिन इसके साथ ही वह इस बात को लेकर भी गमजदा है कि अफगानिस्तान में पैदा हुई नई अस्थिरता ईरान के राजस्व पर नया बोझ न डाल दे। उसे अफगानिस्तान में पाकिस्तान की बढ़ती भूमिका को लेकर भी बहुत चिंता है।
इस पूरे घटनाक्रम में, पाकिस्तान तो अफगानिस्तान में अपने गहरे सामरिक सरोकार वाला संबंध कायम करने में कामयाब हो गया है। वह इसे अपनी विजय और भारत की पराजय के रूप में चित्रित करता है। उसने यह सफलतापूर्वक सुनिश्चित किया कि खूंखार हक्कनानी नेटवर्क तालिबान की अंतरिम सरकार में प्रमुख हैसियत पा जाएं। लेकिन उसकी कामयाबी में भी चिंता के कुछ कारण हैं, वह यह कि तहरीके-तालिबान-पाकिस्तान (टीटीपी) के फिर से फन काढ़ रहा है, जिससे पाक काफी परेशान है। टीटीपी ने हाल ही में पाक-अफगान सीमा के नजदीक आत्मघाती हमला कर पहले ही उसे डरा दिया है। कई लोगों का यह भी विश्वास है कि तालिबान पाकिस्तान के हाथ की ज्यादा दिन कठपुतली बना नहीं रहेगा और अंततः वह आजाद हो जाएगा।
अपने इतिहास में पाकिस्तान ने अपनी सामरिक स्थिति को खूब भुनाया है। यह1980 के दशक में तात्कालीन सोवियत संघ के खिलाफ अमेरिका के छद्म युद्ध में अग्रिम देश हुआ करता था। इधर, विगत 20 वर्षों में, वह आतंकवादी समूहों एवं अफगानिस्तान में जारी अमेरिका की लड़ाई उसका भरोसेमंद हो कर फायदा उठाता रहा। अब एक बार फिर, पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय समुदाय की लॉबिंग करने की कोशिश कर रहा है, इसलिए कि जब भी तालिबान से डील करने की बात होती है तो वह अपरिहार्य हो जाता है।
अफगानिस्तान में पाकिस्तान की फिर बढ़ती भूमिका, वैश्विक आतंकवाद के पुनर्जन्म के खतरे और क्षेत्र में एक नए गठजोड़ को लेकर भारत को चिंतित होना स्वाभाविक है। उसकी विदेश नीति रूस और ईरान के साथ एक महत्तर संबंध बनाने के पक्ष में सूक्ष्म बदलावों से गुजर सकती है। इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि तालिबानी सरकार चलाने में सक्षम होंगे। इसीलिए अफगानिस्तान एक विफल राज्य में बदल सकता है। स्थिति में एक विचलन है। पिक्चर अभी बाकी है।
Translated by Dr Vijay Kumar Sharma(Original Article in English) [3]
Links:
[1] https://www.vifindia.org/article/hindi/2021/september/22/afghanistan-mein-talibaanee-hukoomat-ke-asar
[2] https://www.vifindia.org/author/arvind-gupta
[3] https://www.vifindia.org/2021/september/11/implications-of-taliban-takeover-of-afghanistan
[4] https://www.hrw.org/sites/default/files/styles/embed_medium/public/media_2021/09/202109afghanistan_women_protest_rights.jpg?itok=KE9QGxUw
[5] http://www.facebook.com/sharer.php?title=अफगानिस्तान में तालिबानी हुकूमत के असर&desc=&images=https://www.vifindia.org/sites/default/files/202109afghanistan_women_protest_rights_0.jpg&u=https://www.vifindia.org/article/hindi/2021/september/22/afghanistan-mein-talibaanee-hukoomat-ke-asar
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