अफगानिस्तान आज जिस संकट से जूझ रहा है, वह अमेरिका और तालिबान के दोहा समझौते की नाकामी का नतीजा है। तालिबान ने कभी संघर्ष विराम नहीं किया और न ही सत्ता साझा करने की उसकी कभी मंशा रही। नतीजतन, अफगानिस्तान से अमेरिकी फौज की रवानगी के साथ उसकी हिंसा बढ़ती गई। माना जा रहा है कि अफगानिस्तान के करीब 150 जिलों पर तालिबान का कब्जा है और अपना प्रभाव बढ़ाने की जुगत में वह है। फिर भी, यह कहना गलत होगा कि आने वाले दिनों में अफगानिस्तान की नागरिक सरकार बेअसर हो जाएगी और पूरे मुल्क पर तालिबान का कब्जा हो जाएगा।
इसकी सबसे बड़ी वजह अफगान सुरक्षा बल हैं। वे वर्षों से तालिबान से लड़ रहे हैं। नाटो फौज से प्रशिक्षित ये सैनिक अपने दुश्मनों को हवाई हमलों से भी ढेर करने में माहिर हैं। करीब 40,000 से 50,000 विशेष कमांडो हैं अफगान सेना में। जाहिर है, तालिबानी लड़ाके इनके सामने नहीं ठहर पाएंगे। इसलिए तालिबान के लिए अफगानिस्तान के बडे़ व प्रमुख शहरों पर कब्जा करना आसान नहीं होगा। वास्तव में, अभी जिन 150 जिलों पर तालिबानी हुकूमत के दावे किए जा रहे हैं, वे बहुत छोटे-छोटे हैं। कई तो महज 10 मकान वाले जिले हैं, तो कुछ में एक से दो हजार की आबादी है। चूंकि अफगान सुरक्षा बल का पूरा ध्यान बड़ी आबादी वाले या महत्वपूर्ण इलाकों पर है, इसलिए इन छोटे हिस्सों पर तालिबान आसानी से कब्जा जमाने में सफल रहा। फिर, अमेरिका-तालिबान समझौते की शर्तों में यह भी शामिल था कि अमेरिकी सैनिकों को निशाना नहीं बनाया जाएगा और तालिबान ऐसी किसी तंजीम को पनाह नहीं देगा या उससे नाता नहीं रखेगा, जो वाशिंगटन के खिलाफ है। यह शर्त तालिबान के भी मुफीद थी, क्योंकि वह नहीं चाहता कि अमेरिका फिर से अफगानिस्तान में लौट आए। मगर अफगान सुरक्षा बल उसके निशाने पर बने रहे, जिसका माकूल जवाब अफगानी सैनिक भी देते रहे। इसका अर्थ यह है कि अमेरिकी सैनिक यहां जंग के मोर्चे पर तैनात नहीं थे, बल्कि वे अफगान सुरक्षा बलों को प्रशिक्षण दे रहे थे, गोपनीय सूचनाओं का आदान-प्रदान कर रहे थे और अफगान वायु सेना की देख-रेख कर रहे थे। यानी, अफगान सुरक्षा बल पहले से ही तालिबान से लोहा ले रहे हैं।
फिर बड़ी चुनौती क्या है? दरअसल, तालिबान दोतरफा वार कर रहा है। वह अफगान सैनिकों पर हमले तो कर ही रहा है, उनमें फूट डालने की भरसक कोशिश भी कर रहा है। अफगान फौज में कबीलाई लड़ाके ही नहीं, मूल अफगानी, ताजिक, पश्तून जैसी कौमों के सैनिक भी हैं। तालिबान इनमें दरार डालने के प्रयास कर रहा है। जुलाई के शुरुआती हफ्ते में सैकड़ों अफगान सैनिकों के भागकर ताजिकिस्तान चले जाने की घटना तालिबान की सफलता मानी जा सकती है। तीसरी चुनौती सियासी मोर्चे पर है। अफगानिस्तान का राजनीतिक नेतृत्व आज भी एक नहीं दिख रहा। वहां के नेताओं को समझना होगा कि उनकी आपसी तकरार सुरक्षा बलों का मनोबल तोड़ सकती है। यह स्थिति इस पूरे क्षेत्र के लिए सुखद नहीं है। मगर भारत को खासतौर से सावधान रहना होगा। यहां हमने न सिर्फ संचार लाइनें बिछाई हैं, सड़कें बनाई हैं, सलमा बांध, पुल आदि का निर्माण किया है, बल्कि कई ढांचागत परियोजनाओं के लिए आर्थिक सहयोग भी दिए हैं। इन तमाम निर्माण-कार्यों की सुरक्षा एक बड़ा मसला है। चूंकि हम किसी भी देश के अंदरूनी मामलों में दखल न देने की नीति अपनाते हैं, इसलिए स्थानीय लोगों को ही इन परियोजनाओं की रक्षा करनी होगी। मगर एक सच यह भी है कि ये सभी निर्माण-कार्य हरेक शासन की जरूरत होते हैं, इसलिए तालिबान इनको शायद ही तत्काल नुकसान पहुंचाए।
विश्व बिरादरी से अपने रिश्ते सुधारने के लिए तालिबान अलग-अलग देशों से कूटनीतिक संबंध बनाने के जतन भी कर सकता है। अभी तो वह अपने पुराने दौर जैसा कट्टर और बर्बर है। अपने अधीन इलाकों में शरीयत कानून लागू करने, लड़कियों के बाहर न निकलने, पुरुषों के दाढ़ी रखने, इस्लामी अमीरात बनाने और अन्य आतंकी जमातों के साथ अपने रिश्ते न तोड़ने का उसने एलान कर दिया है। मगर संभव है कि आने वाले दिनों में उइगर मुसलमानों को लेकर वह चीन से कोई कूटनीतिक समझौता करे। पाकिस्तान से भी वह अपने रिश्ते मजबूत कर सकता है, क्योंकि तालिबानी लड़ाकों को इस्लामाबाद की पूरी शह हासिल है। अफगान सुरक्षा बलों के हत्थे चढ़े तालिबानी आतंकियों के पास से पाकिस्तानी नागरिकता के सुबूत तो मिले ही हैं।
तब भी, यही कहा जाएगा कि साल 1990 और आज के अफगानिस्तान में काफी फर्क है। नए अफगानिस्तान में अब लाखों लड़के-लड़कियां शिक्षित और प्रोफेशनल हैं। वे राजनीतिक स्वतंत्रता और लोकतंत्र की अहमियत अच्छी तरह समझने लगे हैं। ऐसे में, तालिबान की कट्टर सोच को वे बड़ी आसानी से स्वीकार नहीं करेंगे। संभव है, यहां तलिबान के खिलाफ तकरार का दूसरा चरण, यानी ‘रेजिस्टेंस 2.0’ शुरू हो, जिसकी कमान नई पीढ़ी के हाथों में हो सकती है।
यहां भारत के पास करने के लिए बहुत कुछ नहीं है। फिर भी, नई दिल्ली को सबसे पहले पाकिस्तान के उस दुष्प्रचार को रोकना होगा, जिसमें वह अफगानिस्तान में भारत की हार का दावा कर रहा है। यह दुष्प्रचार बताता है कि अफगानिस्तान में पाकिस्तान छद्म तरीके से भारत से लड़ रहा था और अब तालिबान के बढ़ते प्रभाव से यह साबित होता है कि इस जंग में उसे जीत मिली है। जबकि, असलियत यही है कि भारत वहां किसी जंग में नहीं, बल्कि विकास-कार्यों में जुटा था, जिसे अफगान की हुकूमत और अवाम ने काफी पसंद भी किया है। भारत ने फिलहाल अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सक्रिय होने, संघर्ष विराम पर तत्काल सहमति बनाने, आसन्न राजनीतिक समझौते में पिछले दो दशकों की उपलब्धियों, मानवाधिकारों की रक्षा, शिक्षा आदि सुनिश्चित करने की बात कही है। विदेश मंत्री एस जयशंकर इस मामले में ईरान, रूस, चीन जैसे देशों से लगातार संपर्क में हैं। यानी, भारत कूटनीतिक रूप से हालात सामान्य बनाने के प्रयास कर रहा है, मगर फिलहाल यह नहीं कहा जा सकता कि हमारी कोशिशें कितना रंग लाएंगी। अच्छा तो यही होगा कि वहां संयुक्त राष्ट्र तुरंत दखल दे और अफगानिस्तान में तेजी से बदलते घटनाक्रम का संज्ञान लेकर सभी पक्षों को वार्ता कर मेज पर आने को बाध्य करे। हालांकि, इन सबके लिए हिंसा पर तत्काल रोक जरूरी है, जिसके लिए अभी तालिबान राजी नहीं दिख रहा।
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