समस्त मानव जाति के लिए यदि ईश्वर का सर्वोत्तम वरदान कुछ है तो वह प्रकृति है। प्रकृति और मानव एक दूसरे के पूरक माने गए हैं। मनुष्य और प्रकृति के बीच संतुलित संबंध का आधार समरसता को माना गया है । यही भाव प्रकृति और व्यक्ति को एक दूसरे से जोड़ता है। प्रकृति और मनुष्य का संबंध आश्रय और आश्रित का है। प्रकृति संपूर्ण पृथ्वी ग्रह को अपने भीतर संरक्षण देती है। ‘प्रकृति’ किसी व्यक्ति, समाज, राज्य, या देश, की निजी संपत्ति नहीं होती। किन्तु यह कहना असत्य नहीं होगा कि सदियों से हमारे देश भारत का प्रकृति के साथ एक भिन्न एवं अनोखा संबंध रहा है। सर्व प्राचीन सभ्यता होने के कारण जीवन का अनुभव अन्य सभ्यताओं की अपेक्षा भारतीयों के पास अधिक रहा है।
आज हम देख सकते हैं कि पर्यावरण एवं प्रकृति के ह्रास को लेकर न सिर्फ भारत यद्यपि संपूर्ण विश्व अत्यधिक चिंतित प्रतीत होता दिखाई दे रहा है। पर्यावरण, प्रकृति से अलग नहीं है यद्यपि प्रकृति का ही अभिन्न अंग है और इसीलिए पर्यावरण संरक्षण को लेकर आज संपूर्ण विश्व में विभिन्न प्रकार के जागरूकता अभियान भी चलाये जा रहे हैं। किन्तु जिस प्रकृति का मह्त्व पश्चिमी देश इत्यादि आज समझ पा रहे हैं और उसके संरक्षण के लिए अत्यधिक चिंतित हैं, वही महान प्रकृति हजारों-लाखों वर्ष पूर्व हमारे देश के ऋषि-मुनि एवं विभिन्न विद्वानों द्वारा वेद, उपनिषद, शास्त्र महाकाव्य आदि में सर्व महत्वपूर्ण रूप में परिलक्षित की गई है। हमारे तत्व ज्ञानी ऋषि-मुनियों ने हजारों-लाखों, सदियों पहले ही यह अवलोकन कर लिया था कि प्रत्येक जीव का शरीर पांच भूत अर्थात पृथ्वी,जल,अग्नि,आकाश,तथा,वायु से ही निर्मित होता है और इसीलिए वे इस बात को पूर्ण रूप से जानते थे कि यदि इन पंच तत्वों में से एक भी दूषित हो गया तो इसके बेहद दुष्प्रभाव समस्त मानव जाति को प्रभावित करेंगे। ये पंचमहाभूत सिर्फ भारत में ही नहीं यद्यपि संपूर्ण संसार में व्याप्त है।
महाभारत के शांति पर्व में इसका उत्तम उल्लेख मिलता है कि
"इत्यैतैः पञ्चभिभूतैयुक्तं स्थावरजंगमम्।"
अर्थात संपूर्ण चल और अचल जगत इन पांच महा भूतों से बना हुआ है।
इन पांच महा भूतों में क्रमशः शब्द,स्पर्श रूप,रस,और,गन्ध, पंचतंत्र मात्राएं या गुण होते हैं ।
"गुणोत्तराणि सर्वाणि तेषां भूमिः प्रधानतः।।"
महाभारत के भीष्म पर्व के अनुसार, आकाश में 1 गुण 'शब्द', वायु में 2 गुण 'शब्द एवं स्पर्श', तथा अग्नि में 3 गुण 'शब्द, स्पर्श, एवं, रूप', है, तो जल में 4 गुण, शब्द, स्पर्श, रूप, एवं रस है किन्तु पृथ्वी में पांचो गुण "शब्द, स्पर्श, रूप, रस, एवं गंध" व्याप्त होने के कारण पृथ्वी पांच महाभूतों में श्रेष्ठ है।
और पृथ्वी पर पाया जाने वाला जीवन भी श्रेष्ठ एवं सर्वोत्तम है।
समस्त प्राणियों के जीवन की एकमात्र जननी प्रकृति ही है, और आज इस बात को सारा विश्व जान चुका है। कल तक जो पश्चिमी देश सिर्फ तकनीकी सभ्यता में विश्वास करते थे और तकनीकी युग को आगे बढ़ाने के लिए प्रकृति का नृशंस रूप से दोहन कर रहे थे, आज वही देश "World Environment Day" [विश्व पर्यावरण दिवस] मना कर संपूर्ण विश्व को जागरूक करने में लगे हुए हैं। जबकि भारत आदिकाल से प्रकृति की महत्वता एवं विशेषता को न सिर्फ जानता था यद्यपि इसके उचित संरक्षण के लिये प्रकृति के कण-कण को पूजनीय बताकर आँवला नवमी, तुलसी पूजा, वट सावित्री, गंगा दशहरा, इत्यादि जैसे विभिन्न पर्व का आयोजन कर इसकी रक्षा में विशेष योगदान देता रहा है। किन्तु समाज के कुछ मिथ्या वाचकों ने तर्कविहीन मिथ्यक कमॆकाण्ड इत्यादि फैलाकर हमारी युवा पीढ़ी को हमारी सत्य एवं अनमोल सनातनी धरोहर से दूर कर दिया है ।
हमारे शास्त्र एवं वेदानुसार, हमें जीवन देकर इसे सुचारु रूप से चलाने वाली प्रकृति ही हमारी जननी है और इस प्रकृति को जीवन देकर सुचारू रूप से चलाने वाली वह परम शक्ति ही विधाता, ईश्वर, या सर्वोपरि सत्ता है। आधुनिक युग में बहुत से लोग विशेषकर युवा पीढ़ी ईश्वरीय सत्ता को मानने से इंकार करती है किंतु इस बात का सर्वोत्तम उदाहरण गीता में मिलता है कि यदि किसी चीज की रचना हुई है तो रचनाकार भी अवश्य ही होता है अर्थात प्रकृति का भी कोई ना कोई रचनाकार तो अवश्य ही है। और इस रचनाकार का रहस्यमयी होना तर्कसंगत है, क्योंकि प्रकृति स्वयं में एक रहस्य है । और इस बात की पुष्टि निम्न श्लोक के माध्यम से की गयी है।
"निम्नोन्नतं वक्ष्यति को जलानाम् विचित्रभावं मृगपक्षिणां च।
माधुयॆमिक्षौ कटुतां च निम्बे स्वभावतः सवॆमिदं हिसिद्धम् ।।"
अर्थात यह प्रकृति स्वयं में एक रहस्य है पानी को गहराई और ऊंचाई किसने सिखाई,पशु एवं पक्षियों में विचित्रता किसने सिखाई,गन्ने में मधुरता और नीम में कड़वापन कहां से आया, यह सब स्वभाव प्रकृति के द्वारा दिए गए हैं, इसमें कोई भी परिवर्तन नहीं किया जा सकता है।
आज पश्चिमी सभ्यता से अत्यधिक प्रभावित होकर हमारे देश में तर्क से ज्यादा कु-तर्क ने जन्म ले लिया है। ज्ञानियों से ज्यादा अपूर्ण ज्ञानियों को प्राथमिकता मिलने लगी है। और शायद इसीलिए आज पश्चिमी देशों से ज्यादा बुरे हालात सर्वोत्तम प्रमाणिकता के साथ अपने प्रत्येक तथ्य को उजागर करने वाले महान भारत देश को देखने पड़ रहे हैं। एक देश जिसकी सभ्यता में ईश्वर से पहले प्रकृति को पूज्यनीय माना जाता है। जिस देश के इतिहास काल में रचित, वेद-पुराण,शास्त्र,उपनिषद,महाकाव्य, इत्यादि में हमारी जीवनदायिनी प्रकृति को दोहन से बचाने के लिए अत्यधिक सात्विक एवं धार्मिक कृत्यों का उल्लेख किया गया है,आज उसी भारत देश में मां कहलाने वाली विभिन्न नदियां विशेषकर मां गंगा जिनको स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में अपना ही स्वरूप बताया है अत्यधिक जीणॆ-शीणॆ हालत में आ गई है।
ॠग्वेद से लेकर अथर्ववेद और रामायण, महाभारत जैसे महाकाव्य, उपनिषद तथा भिन्न-भिन्न शास्त्रों में धार्मिक कृत्यों द्वारा प्रकृति एवं पर्यावरण को दोहन से बचाने के लिए मानव को विभिन्न स्तर पर शपथ दिलाई गई। बावजूद इसके आज आधुनिक सभ्यता में लिप्त कुछ लोग अपने भौतिक लाभ के लिए भारत की हरी-भरी धरती को वृक्ष विहीन, वन विहीन करने में लगे हुए हैं।तो वहीँ अज्ञानी एवं रूढ़िवादी लोग अन्ध विश्वास जैसी प्रवृत्तियों के कारण अपनी माँ समान प्रकृति नदी, वृक्ष, परिवेश, इत्यादि को अस्वच्छ कर प्रताड़ित कर रहे हैं। ऐसी अज्ञानतापूर्ण प्रवृत्तियों की वजह से आज भारत के न जाने कितने गांव और परिवेश जल विहीन होकर जल संकट से जूझते नजर आ रहे हैं। न जाने कितनी नदियां आज यमुना,साबरमती ब्रम्हपुत्र,गोमती इत्यादि का जल विशेषकर गंगा का जल, पवित्र गंगाजल के स्थान पर गंदाजल का ढेर बनती जा रही हैं।
जहां आजादी के 70 साल बाद देश के प्रधानमंत्री को देश की आर्थिक स्थिति को उत्तम बनाकर अन्य क्षेत्रों में विकसित करने की नीतियां बनानी चाहिए थी वहां देश के प्रधानमंत्री को हम भारतीयों को स्वच्छता अभियान चलाकर स्वच्छता के नियम सिखाने पढ़ रहे हैं। यह कोई गवॆ की नहीं यद्यपि भारतीयों के लिए शमॆ की बात है और यह अनुशासनहीनता की पराकाष्ठा का प्रतीक है और कुछ नहीं।कुछ व्यक्ति गलत कार्य इसलिए करते हैं क्योंकि उन्हें सही का ज्ञान नहीं होता तो वहीं कुछ व्यक्ति गलत कार्य इसलिए करते हैं क्योंकि वह स्वयं को सर्वज्ञानी समझते हैं और उनका अहम् उन्हें सही कार्य करने से रोकता है। प्रकृति सर्वतः सिद्धांत के प्रचलन पर आधारित है। यदि मनुष्य इसमें हस्तक्षेप ना करें,तो प्राकृतिक संतुलन सभी प्राणियों के जीवन को सुरक्षित रखता है।
वैदिक काल में भी पर्यावरण के प्रदूषित होने की समस्या उपस्थित हुई थी। देवताओं एवं असुरों द्वारा समुद्र मन्थन के रूप में प्रकृति का निर्दयतापूर्वक दोहन किया गया था, जिससे अमृतपान की लालसा के साथ-साथ हलाहल के रूप में उत्पन्न प्रदूषण से सम्पूर्ण पृथ्वी विचलित हो गई थी । कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि यह जहरीली फास्जीन गैस थी। उस समय भगवान शिव ने प्रदूषण रूपी हलाहल का पान कर सृष्टि को प्रदूषण मुक्त किया था। किन्तु आज के युग में प्रदूषण से उत्पन्न जहरीली गैस रूपी हलाहल का आलिंगन लाइलाज रोग एवं मृत्यु रूपी रौद्रावतार शिव ही करेगें। हमें प्रकृति के नियमों को उस सर्वोपरि सत्ता के एकमात्र रचनाकार के दृष्टिकोण से समझना चाहिए जिसने इन नियमों को रचा है। उनकी दृष्टि में पृथ्वी पर विचरण करने वाले सभी जीव उनकी संतान हैं, फिर चाहे उनका निवास जल, थल, या, नभ, कुछ भी हो और इतनी सरल सी बात खुद को सर्वबुद्धिमान एवं सर्वशक्तिशाली समझने वाले मनुष्य को समझ नहीं आती ।
आज हमारी समस्या का एकमात्र कारण है, किसी अन्य के अधिकारों एवं भावनाओं इत्यादि को संज्ञान में लिए बिना ही अपनी इंद्रिय तृप्ति की इच्छा को पूर्ण करने के लिए किसी भी हद तक जाना।
प्रकृति के तीन गुणों सतो, रजो, तथा तमो द्वारा सम्पूर्ण प्राणी जगत, माया रूपी भौतिक शक्ति के अधीनस्थ जीवन यापन करता है। इस बात को संस्कृत भाषा (देवनागरी लिपि में) के "पवर्ग" से और अधिक आसान रूप में समझा जा सकता है।
प - परिश्रम को दर्शाता है।
अर्थात इस संसार का प्रत्येक जीव अपने भरण पोषण तथा अपने जीवन संरंक्षण के लिए संघर्ष रूपी परिश्रम करता है।
फ- फेन या फेना शब्द को दर्शाता है।
अर्थात जब एक अश्व अत्यधिक मेहनत करता है, तो उसके मुख से झाग अर्थात फेना निकलता है।
इसी प्रकार कठिन परिश्रम करने पर हमारी जिह्वा भी सूख जाती है और हमारे मुख में झाग बनने लगता है।
ब- बन्धन के लिए द्योतित किया गया है। जीव समस्त प्रयासों के फलस्वरूप सब कुछ पा लेने के पश्चात भी असंतुष्ट प्राणी की भांति बन्धनों में बंधा रहता है।
भ-भय को दर्शाता है।
भौतिकता से परिपूर्ण जीवन में मनुष्य भय की प्रज्जवलित अग्नि में जलता रहता है क्योंकि कोई यह नहीं जानता कि आगे क्या होगा ?
अन्तिम अक्षर म है।
म- मृत्यु का सूचक है।
इस भौतिक संसार में सुख एवं सुरक्षा की हमारी सारी आशाएँ तथा योजनाएँ मृत्यु के द्वारा नष्ट हो जाती हैं।
अतः, इस प्रकार पवर्ग इस नश्वर संसार के लक्षण प्रर्दशित करता है।
दुर्भाग्य वश भारतीय अपनी आध्यात्मिक शक्ति से दूर होकर प्रकृति से भी दूर होते जा रहे हैं। अत्यधिक सरल एवं कोमल हृदय वाले मानव के द्वारा आज पशु-हत्या से लेकर वर्षा-वनों का विनाश, नदियों का ह्रास इत्यादि जैसे अनेक निर्दयी एवं भयावह कृत्य एवं दुर्व्यवहार किये जा रहे हैं। हमारी स्वाभाविक एवं वैधानिक भूमिका ईश्वर की प्रकृति का संरक्षण करने की है ना कि इसका भक्षण। शायद यह कहना असत्य नहीं होगा कि परमेश्वर द्वारा दी गई स्वतंत्रता का दुरुपयोग और उनके बनाए गए नियमों की अवहेलना कर अपनी अनुशासनहीनता का प्रदर्शन करना ही हमारे वर्तमान संकट का कारण है। यदि आज हमें जल संकट, भूकंप, भूस्खलन, महामारी इत्यादि जैसी अनवरत रूप से घटने वाली प्राकृतिक आपदाओं को भोगना पड़ रहा है तो इसके पीछे हमारा प्रकृति के प्रति निरंकुश, निदॆयी, एवं अनुशासन हीन व्यवहार है । कई बार लोग अज्ञानता वश सोचते हैं कि वैज्ञानिक प्रगति से मनुष्य अमर हो जाएगा जबकि यह निरर्थक एवं मिथ्या सोच है । कोई भी प्राकृतिक नियमों को रोक नहीं सकता ।
इसलिए श्रीमद्भगवद्गीता में भी भगवान श्री कृष्ण कहते हैं, कि भौतिक शक्ति दुरत्यया है, अर्थात इसे भौतिक उपायों से जीत पाना असंभव है। जीवन के सही अर्थ को न समझते हुए लोग पशु समान जीवन यापन कर रहे हैं। यह आधुनिक सभ्यता आत्मा की हत्या करने वाली सभ्यता बनती जा रही है । एक पशु जीवन के महत्व को जाने बिना ही एक क्रमिक विकास की कार्य शैली में लिप्त रहता है। किन्तु जब हमें यह मनुष्य का जीवन मिल जाता है तो हमारी जीवन के प्रति जिम्मेदारी भिन्न एवं अधिक आदर्शपूर्ण हो जाती है। अतः आधुनिक सभ्यता बड़ी जोखिम पूर्ण है यदि दुनिया में कोई भले ही अपने को सर्वोत्तम व्यापारी,राजनीतिक या कोई बड़ी हस्ती सोचकर निश्चिन्त है कि वे आधुनिक तकनीकी युग की सभी विशेष व्यवस्थाओं से लेस हैं या इंग्लैंड और अमेरिका जैसे धनी राष्ट्रों में पैदा होने से अपने को धरा का हिस्सा न मानकर आसमान रूपी उड़ान पर सवार होकर किसी प्रकार के अहंकार में जी रहे हैं तो मातृ रूपी प्रकृति सभी को विभिन्न तरीकों से सिखा देती है कि जीवन के सभी पद अस्थाई हैं।
श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं,
अर्थात इस भौतिक जगत की महत्ता जीवों के कारण है । वाशिंगटन, न्यूयार्क, सैन फ्रांसिस्को जैसे विशाल शहरों का महत्व सिर्फ तब तक है जब तक जीव वहां रहते हैं। और प्रत्येक जीव के लिए जीवन अतिआवश्यक है। और जीवन तब तक सुरक्षित है जब तक प्रकृति सुरक्षित है। किंतु आधुनिक सभ्यता के लोग अपने को सर्वोत्कृष्ट समझकर मदान्ध हो चुके हैं और इस महान मानव जीवन का दुरुपयोग कर इंद्रिय तृप्ति हेतु प्रकृति एवं पर्यावरण का दोहन करने मात्र में लगे हुए हैं किंतु वे यह भूल रहे हैं कि धरती का प्रत्येक प्राणी चाहे वह अमेरिकी,चीनी,जापानी या भारतीय हो, सभी ईश्वर एवं प्रकृति के अधीन है किन्तु सभी सिर्फ भौतिक जगत का भोग करना चाहते हैं और यही उनका सबसे बड़ा मानसिक रोग है। आज के इस तकनीकी युग में कुछ भारतीय युवा भारत की आध्यात्मिक संस्कृति का तिरस्कार करके प्रौद्योगिकी सीखने के लिए पश्चिम देशों में जाते हैं और जब वे देखते हैं कि जिन बातों को वे भारत में निरर्थक मानकर तिरस्कृत किया करते थे, आज पश्चिमी देश उन्हीं बातों का अनुसरण कर रहे हैं, तो उन्हें आश्चर्य होता है ।
आज हमारे लिए सर्वाधिक दुःख की बात यह है कि आधुनिक भारत ने आध्यात्मिक ज्ञान को ठुकरा दिया है, जो हमारी संस्कारित धरोहर ही नहीं यद्यपि भारत की शक्ति भी है। आज भारतीय सोचते हैं कि यदि वे पाश्चात्य सभ्यता एवं तकनीक का अनुकरण कर सके, तो वह सुखी बन सकेंगे किंतु वे यह नहीं देखते कि तकनीकी में भारतीयों से कई गुना अधिक बड़े-बड़े देश भी आज सुखी नहीं है। और भारतीय शास्त्र न केवल आध्यात्मिक ज्ञान अपितु भौतिक ज्ञान से भी परिपूर्ण है और यह अतुलनीय है। और यही नहीं यद्यपि वेदों में तो खगोल विज्ञान, गणित, चिकित्सा विज्ञान, एवं अनेक अन्य विषयों की चर्चा है। ऐसा नहीं है कि वैदिक युग में भौतिक विज्ञान की उन्नति नहीं हुई थी किन्तु तत्कालीन लोग इसे इतना महत्वपूर्ण नहीं मानते थे। उनकी रूचि आध्यात्मिक ज्ञान में अधिक थी। और इसी आध्यात्मिक ज्ञान की शक्ति के आधार पर भारत विश्व गुरु के रूप में सम्मानित हुआ । किंतु आज हमारी अनुशासनहीनता हमें शर्मसार कर रही है। आज भौतिकतावाद एवं पाश्चात्य सभ्यता में डूबे लोग अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए आर्थिक विकास के नाम पर अज्ञानता वश प्रकृति का शोषण करने में लगे हुए हैं, किंतु वे यह नहीं समझ पाते कि तथाकथित भौतिक आवश्यकताओं की वस्तुएं उत्पन्न करने में वे केवल समय का अपव्यय कर रहे हैं। क्योंकि यह सारी वस्तुएं समय के साथ नष्ट हो जाएंगी।
जयशंकर प्रसाद जी ने अपने महाकाव्य कामायनी में प्रकृति का वर्णन करते हुए लिखा है: कि
अतः प्रकृति के प्रति निष्ठुरता एवं अनुशासनहीनता को त्याग कर, आर्थिक विकास तथा भौतिक प्रगति का उपयोग यदि प्रकृति को सुरक्षित करने में किया जाएगा तो प्रगतिशील जीवन के एक नवीन पक्ष का उदय होगा। भारतीय जीवन शैली कल भी सर्वोत्तम थी, आज भी सर्वोत्तम है और यदि इसका पूर्ण सम्मान किया गया तो यह आने वाले भविष्य में समस्त संसार की गुरू बनकर पुनः स्वयं को सर्वोत्तम सिद्ध करेगी।
धन्यवाद्।
महाभारत, श्रीकृष्ण भावनामृत माया, शिवपुराण, श्रीमद्भगवद्गीता,
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