चूंकि देश कोविड-19 की दूसरी घातक लहर के दुष्प्रभाव से जूझ रहा है, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इसके लिए आलोचनाओं की जद में आ गए हैं। इनमें कुछ आलोचनाएं उचित हैं और कुछ अनुचित। इस घातक लहर को मोड़ने और इसके दुष्प्रभावों को कम करने में उनकी नाकामयाबी के लिए उनकी आलोचना की जा रही है। एक हद तक यह समझ में आने वाली बात है कि एक सबसे बड़े नेता के रूप में वे ऐसी आलोचनाओं के लिए तड़ित-चालक हैं और जब इस संदर्भ में जवाबदेही की बात आती है, तो देश में बाकी अन्य सभी भागीदारों के साथ वे ऱ़डार की जद बच कर निकल जाते हैं।
जैसे कि भारत कोविड-19 की तीव्र वेदना से गुजर रहा है और जैसा कि मोदी सरकार अपने दूसरे कार्यकाल की पहली आधी अवधि के करीब पहुंच गई है, ऐसे में उनकी सरकार के समस्त क्रियाकलाप और उसके प्रदर्शनों एक तटस्थ आकलन उपयुक्त होगा। हालांकि यह कोई आसान काम नहीं है, क्योंकि इस मामले में पूरी तरह ध्रुवीकरण हो गया है-एक तरफ वे हैं, जो मोदी सरकार द्वारा लिए गए किसी फैसले या निर्णय में कोई अच्छाई देखने के लिए तैयार ही नहीं हैं। और दूसरे ध्रुव पर वे लोग हैं, यह मानने के लिए राजी नहीं हैं कि कुछ ऐसे क्षेत्र हैं, जहां सरकार का प्रदर्शन कमजोर रहा है, या जहां उससे कुछ चूक हुई हैं।
मोदी सरकार के समग्र प्रदर्शनों के आकलन के लिए कुछ बुनियादी तथ्यों पर विचार करने के पहले अधिकतर विश्लेषक भी इस बात को मानेंगे कि सरकार ने भारत पर अमिट छाप छोड़ी है। बीते 7 वर्षों के दौरान देश अधिक आश्वस्त और महत्वाकांक्षी हो गया है। इसने राष्ट्रों के अंतरराष्ट्रीय समुदाय में अपनी बेहतर हैसियत बनाई है। वह मसलों के हल में लकीर का फकीर बनने की बजाय नई एवं आधुनिक सोच-विचार के आधार पर करने को लेकर भयभीत नहीं है। सबसे बढ़कर यह कि महिलाओं और युवाओं के प्रति अपनी जागरूक पहुंच को लेकर अधिक समावेशी हो गया है। आज का भारत इसीलिए 2014 के भारत से बिल्कुल भिन्न है। प्राथमिक रूप से यह मोदी द्वारा व्यवस्था में समावेश की गई असाधारण ऊर्जा की वजह से है, जिसे उनके धुर विरोधी भी नकार नहीं सकते।
मोदी सरकार द्वारा शुरू किए गए सुधारों का विस्तृत विवरण नीचे दिया गया है। सामाजिक-आर्थिक नीतियों, सुरक्षा-संबंधी उपायों और विदेश नीति के संदर्भ में उठाए गए कदम अपने विषय-क्षेत्र और विस्तार को लेकर विलक्षण एवं अपने आप में साहसिक हैं।
सशस्त्र सेनाओं की जरूरतों को महत्त्व देने, खासकर उनकी सेवा-शर्तों को दुरुस्त करने, उपकरणों को मुहैया कराने और प्रबंधन संरचनाओं को बेहतर करने की जरूरतों के लिहाज से मोदी सरकार पहले की सभी सरकारों की तुलना में अधिक संवेदनशील रही है। इस प्रकार, 2015 में ‘वन रैंक वन पेंशन’ पद्धति को संस्थागत रूप देने पर सहमति जताई गई, जिस मांग को उनकी पूर्ववर्ती सरकारों ने विगत 45 वर्षों से टालती रही थी। पूरा नहीं किया था। मोदी सरकार ने चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ संस्था को अमलीजामा पहनाया, जिसकी सुरक्षा सुधार के उपाय सुझाने के लिए 2001 में गठित मंत्रियों के समूह ने सिफारिश की थी लेकिन इस मामले को भी पूर्ववर्ती सरकारों ने अमलीजामा नहीं पहनाया था। इसी प्रकार, खास महत्व के डिफेंस प्लेटफार्म के आयात का मसला भी कांग्रेस सरकार के समय लटकता रहा था, जैसे नवीनतम तकनीक पर आधारित राफेल लड़ाकू विमान सौदे को पुनरुज्जीवित किया गया ताकि हमारी रक्षा सामग्री में खतरनाक रिक्तियों को भरा जा सके। इसके अतिरिक्त, मोदी सरकार रक्षा उपकरणों में आत्मनिर्भरता के महत्व को पहचानती हुई रक्षा उपकरणों के निर्माण में निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित करने में अत्यंत सक्रिय रही है। उसे इस मामले अतीत से अलग हटकर रक्षा उपकरणों को निर्यात में कोई हिचक नहीं हुई है। उसने सशस्त्र सेनाओं को प्रोत्साहित किया है कि वे स्थानीय आपूर्तिकर्ताओं से अपनी रक्षा जरूरतें पूरी करें, यहां तक कि तेजस जैसे परिष्कृत युद्धक विमान के लिए भी ऑर्डर दें।
उतनी ही महत्वपूर्ण बात यह है कि मोदी सरकार ने पाकिस्तान और चीन के साथ अपने व्यवहार में पिछली सरकारों की शिथिलता को त्याग दिया है। उसे भारत में आतंक का निर्यात करने के लिए पाकिस्तान को दंडित करने में सर्जिकल स्ट्राइक्स और बालाकोट हमले को लेकर कोई हिचक नहीं हुई है। चीन के मसले पर मोदी सरकार न केवल मजबूती से खड़ी रही है, उसने भारतीय भूभाग में चीन की घुसपैठ को रोक दिया है बल्कि चीनी आयात को कम करने, कई चीनी एप्स पर प्रतिबंध लगाने और हमारी 5G ट्रायल में उसकी कंपनियों को भागीदारी करने से रोकने जैसे दंडात्मक उपाय भी किए हैं। इस ने अमेरिका के साथ हमारे सघन संपर्क या क्वाड के सतत विकास के मसले पर चीन को वीटो करने की इजाजत नहीं दी है।
एक उल्लेखनीय साहसिक निर्णय में, अपनी पूर्ववर्ती किसी भी सरकार से असहमत होते हुए, इसने अनुच्छेद 370 को संविधान से हटाकर जम्मू-कश्मीर को भारतीय राजनीति की मुख्यधारा में मिला लिया। यह अनुच्छेद अलगाववादियों के लिए खुराक बना हुआ था और देश में होने वाली सुधार-प्रक्रियाओं के लाभों से स्थानीय लोगों को लाभान्वित होने देने से रोकता था। यह एक कदम जम्मू-कश्मीर को भारत में एकीकृत करने की दिशा में एक लंबा सफर तय करेगा और क्षेत्र में आतंकवाद को काफी हद तक कम कर देगा।
भारत के लिए विदेश में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से बढ़कर और कोई ब्रांड एंबेस्डर नहीं हो सकता था, जिन्होंने अपने पहले कार्यकाल में ही लगभग 60 देशों की यात्रा की थी- यह संख्या उनके पूर्ववर्ती की तुलना में लगभग 2 गुना है। इसे भी कोई इनकार नहीं कर सकता कि अपनी विलक्षण मेधा, शानदार वक्तृत्व क्षमता और अपने समकक्षों के साथ सहज तालमेल बिठाने की उनकी असाधारण क्षमता ने भारत की वैश्विक हैसियत को बहुत ऊंचा कर दिया है। जबकि भारतीय प्रवासी इस बढ़े हुए कद का लाभ उठाने में सक्षम रहे हैं, स्वयं भारत ने अन्य बातों के अलावा 200 बिलियन डॉलर के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का वास्तविक लाभ प्राप्त किया है जो पहले के उनके 5 वर्ष की तुलना में 2 गुना अधिक है। बहुआयामी राजनीतिक संदर्भ में भारत का सितारा बुलंदी पर है। अनेक क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय समूहों में प्रतिनिधित्व करने के अलावा, यह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का एक अस्थाई सदस्य है, विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की एक्जीक्यूटिव बोर्ड का अध्यक्ष है, एससीओ (शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गेनाइजेशन) और ब्रिक्स (ब्राज़ील, रूस, इंडिया, चीन और साउथ अफ्रीका) का भी सदस्य है, और हाल ही में बने क्वाड (चतु्ष्टय) का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। क्वाड एक बेहद सक्रिय कदम है और इसने चीन की चुनौतियां प्रतिक्रिया में आकार लिया है।
मोदी के नेतृत्व में भारत का अमेरिका के साथ संबंध पहले के सभी समय की तुलना में अभी शीर्ष पर है, अमेरिका में हालिया हुए नेतृत्व परिवर्तन के बावजूद। भारत और अमेरिका आज परस्पर एक समृद्ध और बहुआयामी संबंधों का आनंद ले रहे हैं, और वे अनेक क्षेत्रों-व्यवसाय से लेकर स्वास्थ्य तक, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी से लेकर जलवायु परिवर्तन तक साझेदार हैं। रक्षा संबंधी संवेदनशील मामलों में भी एक सघन संबंध विकसित हुआ है। अमेरिका से इन संपर्कों के बावजूद रूस-भारत संबंध में जरा भी शिथिलता नहीं आई है, जो आज भी अनेक क्षेत्रों में, खास कर रक्षा उपकरणों की आपूर्ति मामलों में, भारत का एक विश्वसनीय साझीदार बना हुआ है। इसी तरह, आसियान के साथ और इजरायल के साथ अपने सघन संबंधों का निर्वाह मोदी सरकार की विशेष सफलता है तो वह खाड़ी के देशों के साथ ही गहन संबंध बना रही है। यह भारत के विदेश मंत्री को ओआइसी के विदेश मंत्रियों की अबू धाबी में 2019 में हुई बैठक में बुलाने से परिलक्षित हुआ है। सऊदी अर्माको ने भारत के तेल शोधन में भारी निवेश का निर्णय किया है और संयुक्त अरब अमीरात हमारे सामरिक महत्व के तेल भंडारों के रख-रखाव में मदद कर रहा है। इन दोनों देशों ने भारत-पाकिस्तान मतभेद के मामलों में बड़ी सहायक पोजीशन ली है। खाड़ी देशों के साथ सघन संबंधों के विकास की तरह ही भारत के जापान, ऑस्ट्रेलिया, वियतनाम, दि फिलीपींस आदि देशों के साथ भी हाल के वर्षों में संबंध और भी गहरे हुए हैं, शायद चीनी धमकियों की प्रतिक्रिया के रूप में।
नरेन्द्र मोदी की ‘नेबरहुड फर्स्ट पॉलिसी’ को आंशिक सफलता मिली है। हालांकि कुछ देशों के साथ असाधारण संबंध बने हैं, इनमें अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान और मालदीव शामिल हैं। साथ ही, श्रीलंका और नेपाल के साथ बिगड़े संबंधों में भी उल्लेखनीय सुधार हुआ है, जबकि पाकिस्तान और चीन के साथ संबंध वर्षों से खराब रहे हैं। हालांकि इसके लिए मोदी सरकार को दोष नहीं दिया जा सकता क्योंकि इसने उनके साथ संबंध सुधारने के लिए कोई भी प्रयास नहीं छोड़ा था। पाकिस्तान के संदर्भ में मोदी ने तो एक अभूतपूर्व कदम यह उठाया था कि उन्होंने अपने पहले कार्यकाल 2014 में शपथ-ग्रहण समारोह में दक्षिण एशिया के सभी पड़ोसी देशों के साथ पाकिस्तान के प्रधानमंत्री तक को आमंत्रित किया था और इसके बाद पाकिस्तान की यात्रा कर सबको चौंका दिया था। लेकिन उनके ये सभी कदम पाकिस्तान द्वारा भारत में आतंकवाद के अथक निर्यात के सामने धराशायी हो गए जो यह स्पष्ट रूप से प्रदर्शित करता है कि दोनों के बीच तनावपूर्ण संबंध काफी हद तक पाकिस्तान के भारत विरोधी डीएनए का परिणाम है। इसी तरह, चीन के साथ मोदी मित्रता की राह पर बहुत दूर तक गए जो उनकी 2014 में शी जिनपिंग को भारत आने के न्योता देने में परिलक्षित होता है और फिर बाद में बुहान और महाबलीपुरम की बैठकों में झलकता है। लेकिन इसने भी वांछित परिणाम नहीं दिए क्योंकि प्रभुत्ववादी चीन इस क्षेत्र में अपना दबदबा बनाये रखने की चाह में भारत को एक चुनौती के रूप में देखता है। हालांकि इन असफलताओं के बावजूद, मोदी के नेतृत्व में भारत को एक शुद्ध सुरक्षा प्रदाता के रूप में माना जाता है। वह न केवल पड़ोस में होने वाली किसी भी मानवीय त्रासदी में सबसे पहले पहुंचने वाला या मदद देने वाला देश रहा है, बल्कि कोविड-19 वैश्विक महामारी के दौरान भी विश्व के 150 देशों को दवाओं, उपकरणों और टीके से सहायता प्रदान की है।
यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि ऊपर कहे गए मोदी सरकार के योगदानों की उनके कट्टर आलोचकों ने सराहना नहीं की। हालांकि आलोचकों ने उनके विरुद्ध तीन गंभीर आरोप लगाए कि मोदी के रहते भारत में लोकतंत्र को धक्का पहुंचा है, कि यह सरकार मुसलमानों के साथ भेदभाव करती रही है और कि इसने कोविड-19 जैसी वैश्विक महामारी से निपटने में पूरी तरह से विफल रही है।
मोदी सरकार के शासनकाल में भारत में लोकतंत्र को नजरअंदाज करने का आरोप मनगढ़ंत है, निराधार है। यह इस तथ्य से जाहिर होता है कि किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री को विरोधियों एवं मीडिया की तरफ से इतना बदनाम नहीं किया गया या उनकी आलोचनाएं नहीं की गई हैं, जितना कि मोदी को बदनाम किया जाता है और उनकी आलोचनाएं की जाती रही हैं। इसके अलावा, निष्पक्ष चुनाव आयोग के तत्वावधान में देश के विभिन्न हिस्सों में तय समय पर चुनावों का नियमित होना जारी है। हालांकि उसमें कहीं-कहीं बीजेपी की जीत हुई है तो विभिन्न विरोधी पार्टियां भी चुनाव जीती हैं, स्पष्ट है कि पूरी तरह सक्रिय लोकतंत्र के बिना यह काम संभव नहीं हो पाता। इसके अतिरिक्त, भारत में स्वतंत्र मीडिया और स्वतंत्र न्यायपालिका है, ये दोनों सद्भाव से रह रहे हैं कि सरकार भारतीय लोकतंत्र के प्रति प्रतिबद्ध है और उसके रहते इस को कोई खतरा नहीं है। इस प्रसंग में, अगर इन सब के लिए सरकार को दोष ठहराना ही ठहराना है तो उसे समय-समय पर देश भर में होने वाले असंख्य गैरकानूनी आंदोलनों, जो कभी-कभी तो हफ्तों-महीनों चलते रहे हैं, जो कभी खत्म होते नहीं लगते, जैसे कि शाहीनबाग का धरना-प्रदर्शन और कृषि कानूनों के विरुद्ध ‘आढ़तियों’ का धरना-प्रदर्शन, जो आम कानून का पालन करने वाले नागरिकों को उसकी आवाजाही की स्वतंत्रता से वंचित कर दिया है, इन सबके खिलाफ सख्ती से निपटने में विफल रही है। मोदी सरकार को इस बात के लिए भी दोषी ठहराया जा सकता है कि उसने सरासर अक्षम, हिंसा और राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों को बढ़ावा देने वाली हमारी कुछ राज्य सरकारों के अधिकार नहीं छीन लिए हैं।
मुसलमानों से भेदभाव किए जाने का मुद्दा कुछ ऐसा ही है, जिसे बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जाता रहा है। यह सरकार द्वारा श्रृंखलाबद्ध तरीके से लिए फैसले के आधार पर लगाया जाता है, जैसे राम मंदिर का निर्माण, नागरिकता संशोधन अधिनियम, गोकशी के विरुद्ध उपायों-प्रावधानों इत्यादि को लेकर ऐसा ख्याल किया जाता है। लेकिन इनमें से कोई भी कदम मुस्लिम समुदाय के विरुद्ध नहीं है, बल्कि बहुसंख्यक समुदाय की भावनाओं और हितों के सम्मान में था। यह दुखद है कि भारत में कुछ लोग इसे धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों के उल्लंघन के रूप में देखते हैं क्योंकि दशकों से राष्ट्र मुस्लिम हितों को बढ़ावा देने और बहुसंख्यक भावनाओं को पूरी तरह से अनदेखी करने का आदी हो गया था।
मोदी सरकार ने ‘सबका साथ सबका विकास’ के अपने सिद्धांत के मुताबिक सभी समुदायों के साथ समान व्यवहार की बात करते हुए पहले से चले आ रहे इस असंतुलन को दूर करने का प्रयास किया, क्योंकि मुस्लिम समुदाय अपनी विशेष हैसियत का लाभ नहीं उठा पा रहे थे और उन्हें देश के अन्य सभी समुदायों मुताबिक ही उनके साथ व्यवहार किया जा रहा था तो इसे कुछ लोगों ने उनके प्रति भेदभाव किया जाना मानने लगा। ऐसे तत्व यह भूल गए कि केवल मोदी सरकार ही तीन तलाक जैसी सामाजिक-धार्मिक बुराइयों, जिसने देश की मुस्लिम महिलाओं को सदियों से त्रस्त कर रखा था, उसको समाप्त करने के लिए सक्रिय हुई और साहसिक कदम उठाया।
कोविड-19 महामारी के कुप्रबंधन के लिए अकले मोदी सरकार को दोषी ठहराना गलत है। कोई भी तटस्थ विश्लेषक इस बात पर गौर करेगा कि इस मामले में समूचे भारत का प्रदर्शन बहुत ही खराब रहा है-अग्रिम मोर्चे के स्वास्थ्यकर्मियों की एकल निष्ठा को छोड़कर। तो इस विफलता का दोष लोगों का है, राज्य सरकारों का है, केंद्र सरकार का है, हमारे नौकरशाहों का है और हमारे राजनीतिक नेताओं का है।
लोग इसलिए दोषी हैं, क्योंकि बार-बार चेतावनी देने के बावजूद उन्होंने कोविड-19 से जूझने के लायक संयमित व्यवहार को नहीं अपनाया जिससे महामारी बेकाबू हुई और फिर पूरे देश को अपने राक्षसी क्रूरता की जद में ले लिया। इस स्थिति को और बदतर बनाते हुए कुछ लोग संसाधनों की जमाखोरी कर रहे हैं और ऑक्सीजन एवं दवाओं की कालाबाजारी कर रहे हैं। राज्य सरकारें कोविड-19 की आचार संहिता को लागू न करवा सकने, जमाखोरी और कालाबाजारी के होने देने तथा वैश्विक महामारी की दूसरी लहर के संकेतों को न पढ़ सकने, महीनों पूर्व बनाई गई योजनाओं के मुताबिक अपने चिकित्सा ढांचे का संवर्धन न करने, इन कमियों को समय रहते दूर करने की केंद्र सरकार की चेतावनियों की अनसुनी करने तथा धरातल पर गंभीर संकट के उभार को भांपने में लापरवाह रहने के लिए दोषी हैं।
केंद्र सरकार भी इस हिस्से की अपनी भूमिका को लेकर पूरी तरह आरोप-मुक्त नहीं है। इसे कोरोना महामारी की दूसरी लहर की तीव्र मारकता का अनुमान करने में सक्षम होना चाहिए था, जिस तरह उसने पहली लहर का अनुमान किया था। इसी के मुताबिक उसे इसकी आशंका को कम करने और खराब परिदृश्य ने निबटने के लिए पूरे देश की स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं के उचित तरीके से उन्नयन के लिए कदम उठाने चाहिए थे, आवश्यक होने पर कठोर उपाय भी करने चाहिए थे। यह दलील कि कोई भी महामारी की दूसरी लहर का इस क्रूरता से आगमन का अनुमान नहीं कर सकता था, महज दिखावटी है। इस प्रसंग में, 1918 में अमेरिका में आई स्पेनिश फ्लू की दूसरी लहर को याद किया जाना चाहिए, जिसमें पहली लहर की तुलना में चार गुनी मौतें हुई थीं। भारत में भी, स्पेनिश फ्लू की दूसरी लहर पहले की तुलना में अधिक घातक साबित हुई थी और कहा जाता है कि बम्बई के श्मशानों में चिताएं रात-दिन जलती रहती थीं। इसके अलावा, अभी हाल में ही अनेक पश्चिमी देशों को कोविड-19 की दूसरी विनाशकारी लहर से साबका पड़ चुका था और उनमें से कुछ देशों ने अपने यहां लॉकडाउन भी किया था। सबसे बढ़कर, जीनोम अनुक्रमण पर काम करने वाली या INSACOG की राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं के एक संघ ने मार्च की शुरुआत में ही कोरोना वायरस के वैरिएंट स्ट्रेन के बारे में सरकार को आगाह किया था, जो विशेष रूप से संक्रामक था, और जिसके पूरे देश में फैलने का खतरा था। आखिरकार, कोविड-19 से संक्रमित होने के मामले फरवरी के मध्य में जहां लगभग 9,000 थे, वे 23 मार्च को लगभग 47 हजार की वृद्धि के साथ चौगुने से भी अधिक हो गए थे। तभी इससे निपटने वाली तमाम इकाइयों को आने वाले संकट को भांप कर सतर्क हो जाना चाहिए था। मोदी सरकार के बचाव में यह कहा जा सकता है कि इसने 2021 की जनवरी में एडवाइजरी को दोहराते हुए राज्य सरकारों से अपने चिकित्सा ढांचे को चुस्त-दुरुस्त करने के लिए कहा था। दरअसल, जैसा कि सूचना प्रसारण मंत्री ने संकेत दिया कि प्रधानमंत्री मोदी ने 17 मार्च 2021 को राज्यों के मुख्यमंत्रियों को संबोधित करते हुए संक्रमण और पीड़ितों के बढ़ते मामले को देखते हुए “सेकेंड पीक” को रोकने के महत्व पर जोर दिया था। इस संदर्भ में, उन्होंने अनुरोध किया था कि “स्थानीय स्तर पर शासन की दिक्कतों को देखा जाना चाहिए, उनकी समीक्षा की जानी चाहिए और उनका हल निकाला जाना चाहिए। हमारा आत्मविश्वास अति आत्मविश्वास में नहीं बदलना चाहिए और हमारी सफलता लापरवाही में तब्दील नहीं होनी चाहिए।” दुखद है कि, प्रधानमंत्री की ये चेतावनियां यहां अनसुनी कर दी गईं। अगर उन्होंने इसे गंभीरता से लिया होता तो हम आज कहीं बेहतर स्थिति में होते। लेकिन यहां एक बार फिर केंद्र को और अधिक प्रभावपूर्ण तरीके से सक्रिय रह कर यह सुनिश्चित करना चाहिए था कि उसकी भेजी हुई एडवाइजरी पर वास्तव में अमल हो रहा है किया उसे यूं ही एक कागज का टुकड़ा समझ लिया गया है। इस स्तर की एक राष्ट्रीय आपदा में राज्यों द्वारा बरती गई अकर्मण्यता को देखते हुए राष्ट्रपति शासन ही लगाया जाना लाजमी होता। बेशक, इसके चलते मोदी सरकार के कट्टर आलोचकों को इसे लोकतंत्र के रूप पर एक और प्रहार का दावा करने का मौका मिल जाता!!!!
पिछले साल से ही स्वदेशी टीके के विकास और उत्पादन को प्रोत्साहन देने और समर्थन करने के लिए जबकि मोदी सरकार की सराहना की जानी चाहिए। इसके लिए भी प्रशंसा की जानी चाहिए कि उसने विरोधियों की गैरजवाबदेह और विखंडनकारी टिप्पणियों के बावजूद इस साल के प्रारंभ से ही टीकाकरण की शुरुआत की। यहां भी नीतियों निर्माण में दोष है। ऐसा प्रतीत होता है कि केंद्र सरकार ने शुरुआत में ही छह से नौ महीने की अवधि में कुल आबादी के लगभग 30% को कवर करने वाले एक मामूली टीकाकरण कार्यक्रम की परिकल्पना की थी। तभी सरकार को यह सलाह दी जाती कि उसे अधिक से अधिक छह महीने में पूरी आबादी के प्रतिरक्षण के लिए अधिक महत्वाकांक्षी और योजना बनानी चाहिए। यह आवश्यक था क्योंकि इस मिजाज की महामारी के लिए टीका एक मैजिक बुलेट की तरह काम करता है। अगर यह दृष्टिकोण होता तो इस कार्य में सरकार द्वारा पहले की तुलना में भारी निवेश किया जाता ताकि हमारी आवश्यकताओं के अनुरूप टीके के उत्पादन में भारी वृद्धि की जा सके।
यह तब टीकाकरण की हमारी अलता-पलती नीति की-टीके लेने की पात्रता औऱ उसके दाम को तय करने-दोनों मामले में- और आज जो हम टीके की कमी से जूझ रहे हैं, उन्हें दूर किया जा सकता था। किसी भी स्थिति में यह उम्मीद की जानी चाहिए कि मोदी सरकार अब कम से कम टीके की हमारी क्षमताओं को बेशुमार बढ़ाएगी बल्कि के उत्पादकों को कोविड-19 के नए-नए रूपों के मुताबिक अद्यतन करते रहने पर जोर देगी। दरअसल इसे अगले कुछ वर्षों तक सालाना स्तर पर करते रहने की जरूरत होगी जैसा कि तमाम फ्लू के टीके के मामले में किया गया था।
वैक्सिंग डिप्लोमेसी के लिए मोदी सरकार को काफी अनापेक्षित आलोचनाओं को झेलना पड़ा है। इस संदर्भ में इस तथ्य पर गौर किया जा सकता है कि भारत से जिस टीके का निर्यात किया गया, वह कोविशिल्ड था-ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी एस्ट्रा जेनेका वैक्सीन-जिसे भारत के सीरम इंस्टीट्यूट ने उत्पादित किया था और वह संविदा के मुताबिक ऐसा करने के लिए बाध्य था क्योंकि टीके के उत्पादन के लिए उसने विदेशों से धन लिया हुआ था। इसी तरह, हमारे टीके के भंडारण में की कमी आवश्यक इस वजह से नहीं है कि हमने उसका निर्यात कर दिया बल्कि यह कमी टीके को स्थानीय स्तर पर विकसित नहीं किए जाने और उसके सीमित उत्पादन की वजह से हुआ। यह भी दिमाग में रखा जाना चाहिए कि स्वास्थ्यजनित आपदा के दौर में दूसरे राष्ट्रों के प्रति मित्रता का हाथ बढ़ाना भारत की अच्छी परंपराओं में से है और जिसे पूरी दुनिया में सराहना की जाती रही है। मोदी की वैक्सीन डिप्लोमेसी इसीलिए सही दिशा में एक कदम थी और यह निरंतर विदेशी सहायता के लिए काफी हद तक जिम्मेदार है, जो भारत को कोरोना वायरस की दूसरी लहर से निबटने में मिल रही है।
स्वास्थ्य और गृह मंत्रालयों में बैठे नौकरशाह और विशेषज्ञ भी इस संकट के कुप्रबंधन के लिए जवाबदेह हैं क्योंकि वे इस मामले में सीधे-सीधे उत्तरदाई थे। वे लोग दूसरी लहर की परिकल्पना करने और उससे असर को कम से कम करने के इंतजामात में विफल हो गए। जैसा कि निर्वाचन आयोग ने भी रेखांकित किया है, संबद्ध राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण में निर्वाचन आयोग इस अवधि के दौरान चुनाव कराए जाने में होने वाले जोखिम को लेकर आगाह किया था। हालांकि इसे भी अवश्य नोट करना चाहिए निर्वाचन आयोग कोई दूसरे ग्रह पर नहीं रहता है और उसे स्वयं भी पहल कर इन चुनावों को स्थगित कर देना चाहिए था। बेशक वहां की सरकारों को भी राज्यों में चुनाव स्थगन की वकालत करनी चाहिए थी।
अंततोगत्वा,हमारी सभी राजनीतिक पार्टियों ने मिल कर देश को परास्त कर दिया। इसके लिए उनके सदस्य दोषी हैं,जिन्होंने अक्सर बिना मास्क के ही बड़ी-बड़ी रैलियों और सभाओं का आयोजन किया एवं इसके लिए कार्यकर्ताओं को प्रोत्साहित किया और ऐसा करते हुए कोविड-19 के उपयुक्त संयमित व्यवहारों का अनुपालन नहीं किया। दूसरी ओर, निरर्थक एवं प्रति-उत्पादक आरोपों में संलग्न रहने के द्वारा माहौल को खराब किया जबकि ऐसे समय में रचनात्मक सहयोग की आवश्यकता थी। कुछ विरोधी पार्टियों के कुछ सदस्य तो यहां तक चले गए कि टीके के बारे में अफवाहें फैलाईं और इनके जरिए टीकाकरण अभियान को ही विफल करने का प्रयास किया। इस प्रकार वे टीके को लेकर लोगों की हिचक बढ़ाने के लिए जिम्मेदार हैं, जिससे टीकाकरण के प्रारंभिक चरण पर नकारात्मक असर पड़ा था।(हालांकि दूर-दराज के गांवों के लोग आज भी टीके के लिए तैयार नहीं हैं और वे इसे संदेह की नजर से देखते हैं।)
कोविड-19 की वजह से देश में बने निराशा में माहौल में, प्रधानमंत्री के लिए लाजमी है कि वह मौजूदा स्थिति के बारे में लोगों से संवाद बनाकर उन्हें अपने विश्वास में लें। वहीं, सुधार के कदम उठाए जा रहे हैं। यह वास्तविकता है कि इस संकट से त्वरित बाहर आने में देश को सक्षम बनाने के लिए सभी भागीदारों को जिम्मेदारीपूर्ण व्यवहार करने की आवश्यकता है। नेतृत्व का ऐसा आचरण जो पिछले साल कोविड-19 के पहले प्रकोप के समय दिखा था, उसको दोहराया जाना देश के मनोबल को बढ़ाने वाला होगा।
कोविड-19 महामारी से निबटने में कमियों-खामियों के अलावा मोदी सरकार शासन की कमी और अप्रभावकारी नीतियों के मसले को ठीक से हल करने में फेल हो गई है, जो देश को पीड़ित करती है और उसकी जीवनीशक्ति को नष्ट करती है। मोदी सरकार ने अवधारणा प्रबंधन के मामले में संलग्न नहीं रही है, जो देश द्वारा की जा रही निराधार आलोचनाओं को रोकने और उन्हें कम से कम करने के लिए आवश्यक है।
शासन की कमी के चलते, मोदी सरकार द्वारा की गई अनेक प्रशंसनीय पहलों के परिणामों का असर उनके अभीष्ट की तुलना में कम हुआ है। इसमें सालों साल क्रमिक रूप से वृद्धि होती गई है और इसने सभी स्तर और सभी क्षेत्रों में सेवाएं प्रदान करने के काम को बुरी तरह प्रभावित किया है की सेवाओं को मुहैया कराने कि काम को बुरी तरह प्रभावित किया है। शासन के स्तर पर यह कमी नौकरशाहों की उदासीनता, नवाचार की कमी और संचालन की अनुपस्थिति की वजह से है। स्वच्छ भारत, मेक इन इंडिया, स्मार्ट सिटी आदि कार्यक्रम उस हद तक सफल नहीं हुए जिस हद तक उनको होना चाहिए क्योंकि उस शेष लक्ष्य के लिए उसकी अवधारणात्मक स्पष्टता की अपेक्षा है, एक टाइम फ्रेम बनाना है जिसमें इन उपलब्धियों को हासिल किया जाना है, इनके लायक आवश्यक संसाधन जुटाना, और इसे हासिल करने पर विचार करना, और इनको समय पर पूरा करने के लिए इनके क्रियान्वयन और निगरानी मशीनरी को सुनिश्चित करना। एक बार ऐसे कार्यक्रम की घोषणा कर दी जाती है तो एक जवाबदेह नौकरशाही को चाहिए कि वह इसमें अतिरिक्त विवरणों को जोड़े, कार्यप्रणाली का स्वरूप तय करे और उसे समय पर पूरा करने के लिए अपेक्षित प्रक्रियाओं को अपनाए। पर दुख के साथ कहना पड़ता है कि ऐसा कुछ नहीं हुआ। शासन-प्रशासन की यह कमी कोविड-19 संकट के दौरान नाटकीय रूप से और बढ़ गई, जिसका देश अभी सामना कर रहा है। एक प्रभावी नौकरशाही इस संकट को दूर करने या इसके असर को कम से कम में व्यापक रूप में सफल हो गई होती।
नौकरशाही की उदासीनता पर कामयाबी हमारी प्रशासनिक प्रक्रियाओं और संरचनाओं में एक व्यवस्थित आमूल-चूल बदलाव की मांग करेगी, जो हमारे औपनिवेशिक शासनकाल से विरासत में मिली हुई है। नियम और नियमनों को सरल बनाना, स्पष्टता की संस्थापना, अच्छी तरह की गई परिकल्पना, और प्रत्येक मसले पर एक समग्र मानक के क्रियान्वयन की प्रक्रियाओं, अधिकारियों के सशक्तिकरण और उन्हें खास-खास कामों के लिए जवाबदेह ठहराए जाने से स्थिति को सुधारने में मदद मिलेगी। उच्च नागरिक सेवाओं के लिए प्रदर्शन की उत्कृष्टता की मांग करना और जवाबदेही के उच्चतम मानकों को निर्धारित करना आवश्यक है।
ऐसा प्रणालीगत आमूलचूल परिवर्तन समय-साध्य होगा। प्रधानमंत्री कार्यालय में एक निगरानी इकाई अवश्य ही गठित की जानी चाहिए, जो सुनिश्चित कर सके कि शीर्ष महत्व की परियोजनाएं और कार्यक्रम प्रभावी और समयबद्ध तरीके से क्रियान्वित किए जा रहे हैं। स्थानीय स्तर पर शासन को बुनियादी मसलों पर मुहैया कराए जाने के काम को संभवत: कैबिनेट सेक्रेटरी के स्तर पर मुख्य सचिवों के जरिए निगरानी कर किया जा सकता है। जहां राज्य प्रतिक्रिया विहीन हैं, वहां कैरट एंड स्टिक नजरिये-जिसमें अच्छे कार्यों के लिए पुरस्कार और खराब के लिए दंड का विधान होता है-को शासन के प्रमुख मुद्दों पर काम के बेहतर निष्पादन सुनिश्चित करने के लिए तैयार किया जाना चाहिए।
भारत में अप्रभावी पुलिस व्यवस्था वर्षों से गंभीर रूप से क्षीण होती उसकी क्षमता भारतीय जीवन की दशकों से एक वास्तविकता रही है। सभी तरह के अपराध पूरे देश में बेधड़क होते रहे हैं और लोगों का पुलिस मेंबहुत कम भरोसा है जो अपराधिक तत्वों में भी किसी तरह के भय का संचार नहीं करती। गो-रक्षा के लिए हिंसा की अनियंत्रित घटनाएं, बाबा राम रहीम एपिसोड, देश के अनेक हिस्सों में बार-बार होने वाले दंगे भारत में पुलिसिंग की कमजोरियों को प्रदर्शित करते हैं। पुलिस जो पहले सरजमीनी सूचनाएं देने के काम आती थीं, अब ऐसा नहीं रहा। यह दुखद किंतु सच है कि हमारे पुलिसकर्मी काम के भारी दबाव में हैं और कम वेतनमान पर काम करते हैं। वे उपकरणों से कम लैस हैं और खराब तरह से प्रशिक्षित हैं। उनमें कई भ्रष्ट भी हैं। फिर उनके ऊपर राजनीतिक प्रभाव उनकी प्रभाविता को और भी नजरअंदाज कर देता है, उसे कमतर कर देता है। इस समस्या के हल पहले की गठित कमेटियों की सिफारिशों पर अमल कर सुनिश्चित किया जा सकता है, जिनमें रिक्तियों, प्रशिक्षण और संवेदनशीलता में बड़े अंतर को पाटे जाने के सुझाव भी शामिल हैं।
इस संदर्भ में एक उलझा मुद्दा यह वास्तविकता है कि विधि व्यवस्था राज्य का मसला है और पुलिस आधुनिकीकरण को लेकर दिए गए कुछ सुझावों के क्रियान्वयन के मसले को कुछ राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारों की वजह से अटक जाने की संभावना है,जो इस मद में अपेक्षित संसाधनों को खर्च किए जाने के प्रति अनिच्छुक हैं। विगत में केंद्र सरकार इस मकसद के लिए भारी राशि आवंटित करती थी लेकिन बाद में वह छोटी रकम देने लगी क्योंकि राज्य राष्ट्रीय संसाधनों के एक बड़े अनुपात के लाभार्थी हैं और चूंकि यह पुलिसिंग राज्य का विषय है, इसीलिए इस बारे में राज्यों को ही आवश्यक कदम उठाने की बात तार्किक है। राज्य हालांकि पुलिस व्यवस्था पर कम से कम खर्च करते हैं और उनके वेतन के लिए कम राशि का प्रावधान रखते हैं। इस गतिरोध से बाहर आने के लिए पुलिस आधुनिकीकरण के मद में प्रत्येक राज्य में एक निलंब खाता (एसक्रो अकाउंट) खोले जाने चाहिए, जिसमें केंद्र और राज्य अपने-अपने हिस्से की निर्धारित राशि जमा करें और राज्य इस राशि को केवल पुलिस आधुनिकीकरण पर ही खर्च करें।
राजनीतिक प्रभावों से पुलिस को अलहदा रखने के संबंध में, सर्वोच्च न्यायालय का सितंबर 2006 में दिया गया दिशा-निर्देश एक स्पष्ट मार्गदर्शन करता है। संक्षेप में, यह दिशानिर्देश पुलिस अधिकारियों के कार्यकाल का निर्धारण करने, उनकी तैनाती और स्थानांतरण एवं उनसे संबंधित सभी मसलों से राजनीतिक हस्तक्षेप को परे रखने की परिकल्पना की गई है। दुखद है कि इन सुधारों का अनेक राज्य सरकारों द्वारा विरोध किया गया और इस तरह से इस मसले पर क्रियान्वयन नहीं हो सकता। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देशों को लागू करने के लिए सरकार को इस मसले पर जोर देना होगा। यदि आवश्यक हुआ तो इसे चुनाव का मुद्दा बनाया जाना चाहिए क्योंकि देश में अच्छी पुलिस व्यवस्था में राजनीतिक हस्तक्षेप एक अभिशाप है।
निष्कर्षत: मोदी सरकार ने अपने कार्यकाल में बेहतर काम किया है,लेकिन अफसोस की बात है कि उन्हें भारत में और विदेश में ख़राब मीडिया मिला है, यहां तक कि प्रथमदृष्टया सर्वोत्कृष्ट उपायों के रूप में बनाए गए कृषि कानूनों की न केवल तीखी आलोचनाएं की गईं बल्कि यह व्यापक स्तर पर और लंबे समय तक चलने वाले आंदोलन के कारण बन गए। इनमें से बहुतों की उपेक्षा की जा सकती थी अगर सरकार प्राथमिक स्तर पर प्रभावित होने वाले लोगों के साथ अत्यधिक पारदर्शिता और व्यापक बातचीत के आधार पर काम करती। इसके अलावा, यह ध्यान रखना चाहिए कि घरेलू और विदेशी दोनों मीडिया में अवधारणात्मक प्रबंधन के लिए प्रणाली को एक संस्थानिक रूप दिया जाना चाहिए। मीडिया अवधारणात्मक प्रबंधन के लिए हमेशा से एक परम आवश्यक उपकरण रहा है, है और आगे भी रहेगा। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि मोदी सरकार ने इसे आंतरिकता प्रदान नहीं किया है, ऐसा प्रतीत होता है।
Translated by Dr Vijay Kumar Sharma (Original Article in English) [3]
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[2] https://www.vifindia.org/author/shri-satish-chandra
[3] https://www.vifindia.org/article/2021/may/11/modi-government-an-evaluation
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