कोरोना महामारी के बढ़ते प्रकोप को देखते हुए अमेरिका ने भारत और दक्षिण अफ्रीका के उस प्रस्ताव का समर्थन करने का फैसला किया है, जिसमें इन दोनों देशों ने ‘ट्रिप्स’ समझौते के कुछ प्रावधानों में छूट देने की बात कही थी। ट्रिप्स विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) द्वारा तय एक बहु-राष्ट्रीय समझौता है, जिस पर 1 जनवरी, 1995 को हस्ताक्षर किया गया था। इसमें बौद्धिक संपदा के अधिकारों की रक्षा के न्यूनतम मानक तय किए गए हैं। भारत और दक्षिण अफ्रीका पिछले साल अक्तूबर से ही बढ़-चढ़कर मांग कर रहे हैं कि कोरोना टीके या इसकी दवाइयों को लेकर बौद्धिक संपदा के अधिकारों को कुछ वक्त के लिए टाल दिया जाए, ताकि क्षमतावान देश कोरोना के टीके और दवाइयां बना सकें। इससे न सिर्फ दुनिया के हरेक जरूरतमंद देश तक दवाइयां व टीके पहुंच सकेंगे, बल्कि कोरोना महामारी से बड़े पैमाने पर लोगों की जान भी बचाई जा सकेगी। विश्व स्वास्थ्य संगठन भारत और दक्षिण अफ्रीका के इस प्रस्ताव पर क्या रुख अपनाता है, यह तो अगले महीने होने वाली इसकी बैठक में ही पता चल सकेगा, मगर इसमें अमेरिका का समर्थन काफी मायने रखता है। उल्लेखनीय है कि दवा-निर्माण के क्षेत्र से जुड़ी ऐसी कई अमेरिकी कंपनियां हैं, जो कच्चा माल, तकनीक आदि उपलब्ध कराती हैं। अमेरिकी सरकार के फैसले का भले ही वहां की कुछ दवा कंपनियों ने विरोध किया है, लेकिन डब्ल्यूटीओ की बैठक में सदस्य देशों की सरकारें फैसला लेती हैं, कंपनियां नहीं। हालांकि, अभी यह नहीं कहा जा सकता कि अमेरिका के राजी होने मात्र से पेटेंट में छूट संबंधी भारत व दक्षिण अफ्रीका के प्रस्ताव डब्ल्यूटीओ से पारित हो जाएंगे। इसकी बैठक में सर्वसम्मति से फैसला होता है और यूरोपीय देशों की कई कंपनियां इस प्रस्ताव के विरोध में हैं। इसलिए यह देखने वाली बात होगी कि वे अपनी-अपनी सरकारों पर कितना दबाव बना पाती हैं, या फिर वहां की सरकारें अपनी-अपनी दवा कंपनियों के दबाव को कितना नजरंदाज कर पाती हैं? वैसे, इस प्रस्ताव का पारित होना मानवता का तकाजा है। अभी पूरी दुनिया कोविड-19 की जंग लड़ रही है। 32 लाख से अधिक लोगों की जान जा चुकी है। बेशक, कई देशों में टीकाकरण अभियान की शुरुआत हो चुकी है, लेकिन करीब 120 राष्ट्र अब भी ऐसे हैं, जहां कोरोना टीके की एक भी खुराक नहीं पहुंच सकी है। ऐसा इसलिए हो रहा है, क्योंकि गिनी-चुनी कंपनियों के पास ही पेटेंट अधिकार हैं और वही टीके का उत्पादन कर रही हैं। चूंकि इन कंपनियों की क्षमता भी सीमित है और इनसे उत्पाद लेने की प्रक्रिया लंबी व जटिल, इसलिए खरीदार देशों तक टीके पहुंचने में भी वक्त लग रहा है। फिर कई देश महंगी कीमत होने के वजह से इन कंपनियों की मांग पूरी नहीं कर पाते हैं। लिहाजा, विश्व व्यापार संगठन यदि भारत और दक्षिण अफ्रीका के सुझाव को मान लेता है, तो भारत जैसे कई देशों में वैक्सीन निर्माण-क्षमता का विस्तार होगा और जरूरतमंदों तक टीके पहुंचाए जा सकेंगे। टीकाकरण अभियान को खासा गति मिल सकेगी। इस छूट के आलोचक तर्क दे रहे हैं कि यदि इस प्रस्ताव को मान लिया गया, तो दवा अथवा टीके के शोध और अनुसंधान पर असर पडे़गा। आपूर्ति शृंखला के कमजोर होने और नकली वैक्सीन या दवा को मान्यता मिलने की आशंका भी वे जता रहे हैं। मगर इसमें पूंजी का खेल भी निहित है। चूंकि ट्रिप्स समझौते के तहत कंपनियां सूचना व तकनीक साझा करने से बचती हैं, इसलिए उनका लाभ बना रहता है। पेटेंट में छूट मिल जाने के बाद उन्हें अपना लाभ भी साझा करना पड़ेगा, जिस कारण भारत और दक्षिण अफ्रीका के प्रस्ताव का विरोध किया जा रहा है। मगर विरोधियों को वह दौर याद करना चाहिए, जब विशेषकर अफ्रीका में एड्स का प्रसार अप्रत्याशित रूप से दिखा था। उस समय एड्स की ‘ट्रिपल कॉम्बिनेशन थेरेपी’ 10,000 डॉलर सालाना प्रति मरीज की दर से विकसित देशों में संभव थी, मगर अब एक भारतीय जेनेरिक कंपनी इसे महज 200 डॉलर में बना रही है। स्थानीय स्तर पर कुछ ऐसा ही प्रयोग ब्राजील, थाइलैंड जैसे देशों में भी हुआ है। यह इसलिए संभव हो पाया, क्योंकि दवा-निर्माण में पेटेंट संबंधी छूट मिली। नतीजतन, व्यापक पैमाने पर एड्स की दवाइयां बननी शुरू हुईं और यह महामारी नियंत्रण में आ गई। आज भी यही किए जाने की जरूरत है। ऐसे वक्त में, जब कोरोना जैसी वैश्विक महामारी से पूरी दुनिया लड़ रही है, विश्व व्यापार संगठन, विश्व स्वास्थ्य संगठन अथवा संयुक्त राष्ट्र जैसी वैश्विक संस्थाओं और बड़े देशों को यह सोचना होगा कि ऐसी कोई व्यवस्था बने, जिसमें सभी राष्ट्रों को दवाइयां मिलें, टीके मिलें और कोविड-19 की जंग वे सफलतापूर्वक लड़ सकें। अगर किसी भी एक देश में कोरोना का संक्रमण बना रहता है, तो खतरा पूरे विश्व पर कायम रहेगा। इसलिए इस काम में अमीरी और गरीबी का भेद नहीं होना चाहिए। ऐसा नहीं हो सकता कि विकसित राष्ट्र अपने नागरिको को कोरोना से बचा ले जाने का सपना देखें, और गरीब देश वायरस की कीमत चुकाते रहें।
यहां एक व्यवस्था यह हो सकती है कि जब तक विश्व स्वास्थ्य संगठन इस बाबत कोई ठोस फैसला नहीं ले लेता, तब तक कंपनियां आपस में करार करके कोरोना टीका अथवा दवा-निर्माण के कार्य को तेज गति दें। इसमें यह संभावना बनी रहती है कि कंपनियां सूचना, शोध, अनुसंधान अथवा तकनीक आपस में साझा करती हैं। मगर यह आपसी विश्वास का मामला है। अगर कंपनियों को आपस में भरोसा है और लाभ कमाने की अपनी मानसिकता को वे कुछ वक्त के लिए टालना चाहती हैं, तो वे आपस में हाथ मिला सकती हैं। यह विशुद्ध रूप से कंपनियों के बीच का करार होता है और इसमें सरकारों की कोई दखलंदाजी नहीं होती। मगर आमतौर पर कंपनियां ऐसा शायद ही करना चाहेंगी। बिना फायदे के आखिर वे क्यों काम करेंगी?
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