एक अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त फायेज अल सराज की सरकार (जीएनए) का हस्तांतरण हो गया। प्रधानमंत्री अब्द अलहामिद दबीबा (दबीबेह) तथा मोहम्मद मेनफी की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय प्रेसिडेंसी कॉउंसिल के नेतृत्व वाली एक स्थानीय एवं अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त अंतरिम गवर्नमेंट ऑफ नेशनल यूनिटि (जीएनयू) ने मार्च के दूसरे हफ्ते में तोब्रुक में शांतिपूर्ण और सहज तरीके से सत्ता संभाल ली। दरअसल, यह अत्यंत ही शीर्ष स्तर का घटनाक्रम है।
हालांकि इस नई सरकार की मियाद देश की संस्थाओं के एकीकरण करने, उनमें समन्वय करने, नागरिकों के लिए सेवाओं के प्रावधानों में सुधार लाने, 24 दिसम्बर 2021 को आम चुनाव कराने लायक परिस्थितियां बनाने तथा चुनाव प्रक्रिया को संपन्न कराने तक ही है। सचमुच में, इस अंतरिम सरकार को ढेर सारे काम करने हैं और जिम्मेदारियों की फेहरिश्त लंबी है।
नई सरकार और कॉउंसिल के चुनाव या चयन में किसी भी कद्दावर राजनीतिक नेता के न होने के पीछे राजनीतिक विभाजन साफ दिखाई दे रहा है। यह एक तकनीकविद् सरकार है हालांकि इसको दिये गये टास्क को पूरा करने के लिए इसे थोड़ी और बड़ी होनी चाहिए थी। इनमें मेनफी एक राजनयिक थे और दबीबी ने कर्नल गद्दाफी के दौर में निर्माण की लहर में लिडको/LIDCO (लिबिया इंवेस्टमेंट एंड डवलपमेंट कंपनी) का नेतृत्व किया था और वे सरजमींनी हालातों-मुश्किलातों से पूरी तरह वाकिफ हैं। सियासत एक गंदा खेल है और विरोधियों द्वारा सरकार के खिलाफ कुछ न कुछ आरोप-लांछना हमेशा लगाए जाते रहेंगे। उम्मीद है, कि ये सब इस अंतरिम सरकार को देश में एकता स्थापित करने तथा लीबिया के लोगों के कल्याण के सर्वोच्च लक्ष्य को पूरा करने के अपने कर्तव्य के निर्वहन करने के मार्ग से डिगने नहीं देंगे।
वास्तव में, 2012 के बाद हुए उल्लेखनीय चुनावों के बाद यह सत्ता का दूसरा सरल हस्तांतरण था। साल 2014 तो वैसे ही बरबाद चला गया क्योंकि कोई भी चुनावी नतीजों को स्वीकार करने तथा जीते पक्ष को सत्ता सौंपने के लिए राजी नहीं था। तब लीबिया ने देश को पूरब और पश्चिम में बंटते देखा था। हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स के जरिये पूरब जनरल हफ्तार के नियंत्रण में था और उनकी सरकार तोब्रुक से संचालित हो रही थी तो त्रिपोली में पश्चिमी हिस्सा लगातार इस्लामिक ताकतों की दखल में था। देश का दक्षिणी भाग उपेक्षित था और यह ज्यादातर उग्रवादियों की कमान में था। सशस्त्र उग्रवादी दोनों ही प्रतिद्ंवद्वी सरकारों के साये तले मजे में थे और उनका देश में तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संरक्षण मिलता था। तदनंतर, लोगों ने देखा कि देश भू-राजनीतिक इकाइयों में बंट गया है। एक तरफ जनरल हफ्तार के धड़े को फ्रांस, मिस्र, रूस, ब्रिटेन, संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब समर्थन दे रहे हैं तो तुर्की, कतर और इटली त्रिपोली में बैठी सरकार की पीठ पर अपने हाथ रखे हुए हैं। अमेरिका मौज ले रहा है। ट्यूनिशिया, मोरोक्को और अल्जीरिया जैसे लीबिया के पड़ोसी देशों ने अपने संवाद जारी रखने के तमाम प्रयास किये। यह सिलसिला 2019 में जनरल हफ्तार के त्रिपोली के लिए अपना वास्तविक अभियान छेड़े जाने तक जारी रहा था। यह क्रम अप्रैल 2020 तक चला जब तुर्की ने त्रिपोली सरकार की तरफ से सेना के जरिये इस विवाद में दखल देने का फैसला किया और नहीं तो जीएनए का पतन हो गया होता। फिर तमाम बड़ी शक्तियों के हस्तक्षेप से यथास्थिति कायम हुई और संघर्ष विराम हुआ। बर्लिन प्रक्रिया (जनवरी,2020) शुरू की गई और आखिरकार, यूएनएसएमआइएल की धुरी तहत 5+5 का एक समावेशी पॉलिटिकल डायलॉग फोरम की मशीनरी कायम की गई। 23 अक्टूबर को 5+5 की संयुक्त सैन्य कमेटी के प्रतिनिधियों में यदकदा तकरार होते रहने के बावजूद संघर्ष विराम पर दस्तखत किये गये। नवम्बर में ट्यूनिस में लिबियाई पॉलिटिकल डायलॉग फोरम (LPDF) की बुनियाद रखी गई और इसकी वर्चुअल तथा भौतिक कई बैठकें हुईं। 75 सदस्यीय प्रतिनिधियों के कॉन्फ्रेंस में 24 दिसम्बर 2021 को “विश्वसनीय, समावेशी और लोकतांत्रिक राष्ट्रीय चुनाव” कराने पर रजामंदी हुई।
एक हफ्ते के विचार-विमर्श के बाद जिनेवा में LPDF ने अंतिम तौर पर दबीबा और मेनफी के रूप में कम से कम समान समूह/सूची के चुनाव पर अपनी मुहर लगा दी। ये हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव के जरिये अनुमोदित किये गये नाम थे, जिन्हें आम तौर पर कम कद्दावर राजनीतिक माना जाता है। तार्किक रूप से यह भी सही निर्णय है कि जो लोग अंतरिम सरकार के पदाधिकारी के रूप दीर्घावधि तक के लिए राजनीतिक भूमिका निभाना चाहते हैं, उन्हें चुनाव में भाग लेने की इजाजत नहीं दी जाएगी। इसके अलावा, जो लोग सत्ता की होड़ में शामिल होने के इच्छुक हैं, उन्हें वैध तरीका अपनाने का विकल्प दिया जाएगा, उम्मीद है कि इस वर्ष ही। निश्चित रूप से इस समय में राजनीतिक खिलाड़ियों को अधिक से अधिक रचनात्मक भूमिका निभानी होगी और लीबियाई जनता, जो बिना किसी कसूर के ही दशकों से बहुत कुछ सहती रही है, उसके व्यापक हित के प्रति अपनी जिम्मेदारी दिखानी होगी। यह आम जनता अपने ही नेताओं तथा स्वेच्छाचारी अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ियों द्वारा परास्त कर दी गई है। लगभग 10 साल बाद, लीबियाइयों को अपनी इच्छाशक्ति तथा पसंद के मुताबिक काम करने का अवसर मिला है।
दशकों से दिल टूटने ह्दयाघात और निराशा के घर करने के बाद, यहां तक कि कुछ स्थानीय राजनीतिकों एवं सत्ता की चाह रखने वालों की तरफ से इस अंतरिम सत्ता हस्तांतरण के विरोध किये जाने के बावजूद, कोई भी यह मान कर चल रहा है कि दबीबी तथा उनकी टीम चुनाव प्रक्रिया जारी रहने के दौरान कानून व्यवस्था के मसले पर काम करते हुए सभी पक्षों के वास्तविक एवं जायज सरोकारों को एक पटल पर लाने में काबिल होगी। यह काम आसान नहीं रहने वाला है क्योंकि अंतरिम सरकार के होते हुए भी उसके समक्ष अजीबोगरीब चुनौतियां हैं और दरारें गहरी हैं और अपार प्रतिस्पर्द्धी स्वार्थ हैं।
लीबिया हजारों की तादाद वाले ताकतवर हथियारबंद उग्रवादी समूहों, जिनमें अधिकतर कबिलाई मिजाज के हैं, उनके दुष्चक्र में फंसा रहा है। ये लोग देश की तेल संपत्ति को लूटते रहे हैं और उन्हें अपने विदेशी संरक्षक उनसे धन मिलता रहा है। उनमें एकता की अपीलें बार-बार की गई थीं लेकिन उन्हें एक मजबूत योजना और ताकत के अभाव में ऐसा नहीं किया जा सका। इस तरह, उन्हें इस व्यवस्था का हिस्सा होने के लिए मनाना लाजमी होगा। फाइव प्लस फाइव मिलिट्री कमीशन ने अपने अंतिम वक्तव्य में, किराए के सैनिकों और विदेशी लड़ाकों को लीबिया से तत्काल बाहर करने के लिए प्रयास किए जाने की आवश्यकता पर बल दिया है। विदेशी शक्तियां बार-बार अपीलों के बावजूद लीबिया में हासिल किये गये सामरिक महत्व के अपने ठिकानों को खाली करने पर पूरी तरह मुत्तमईन नहीं दिखती है, जब तक कि उनके विरोधी ऐसे ही महत्व के ठिकानों पर कब्जा जमाए हुए हैं। उनके बीच अविश्वास की खाई बढ़ती जा रही है। इसी तरह, सत्ता पर कब्जा करने के लालायित राजनीतिक भी सत्ता हस्तांतरण-प्रक्रिया को डिरेल करने की क्षमता रखते हैं। कुछ लोगों के लिए यह बंटा हुआ घर उन्हें एक आरामदायक शय्या उपलब्ध कराने का अवसर लगता है। वे दुखती रग बन जाएं, इसके पहले उन्हें मेज की इस तरफ अवश्य लाया जाना चाहिए।
इसके अलावा, देश के सामाजिक-आर्थिक स्थल में संस्थानिक गिरावट दिखी है। ऐसे में, अंतरिम सरकार की साख और सक्षमता की सबसे बड़ी कसौटी होगी-देश के पूरब और पश्चिम में बंटे प्रतिस्पर्धी संगठनों का एकीकरण। इसमें जनरल हफ्तार क्या किरदार निभाएंगे, यह भी एक बड़ा सवाल है, जो सत्ता हस्तांतरण की सफलता पर निर्भर करेगा। संघर्ष विराम कमीशन के आधे अधूरे प्रयास के चलते सिर्ते और मिसरते के बीच तटवर्ती राजपथ अभी तक नहीं खुला है। स्पष्टत: आकांक्षा और अवसरवादी प्रकृति की विषैली युति नई टीम की प्रतीक्षा करती है। इनमें से कई का प्रभावी तरीके से मुकाबला किया जा सकता है, कामयाबी मिलती है या नहीं, यह एक दूसरा सवाल है, अगर सभी भागीदार एक साथ आ जाएं। फिर कहा जा सकता है कि अंतरिम सरकार के जिम्मे काम की एक लंबी सूची है। यह एक अच्छा संकेत है कि तुर्की-मिस्र, तथा सऊदी अरब-कतर (अल उला शिखर सम्मेलन पर लगे प्रतिबंधों को हटा लिये हैं) के बीच संबंध सामान्य हो गए हैं, जो लीबिया में परिदृश्य के प्रतिपक्ष में रहे हैं।
कोविड-19 वैश्विक महामारी भी लीबिया के सामने तात्कालिक सबसे बड़ी चुनौती है। यह दुनिया के लिए, खासकर भारत के लिए, अपने मैत्री कार्यक्रम के तहत, जैसा कि उसने 2012 में प्राथमिकता के आधार पर जीवन रक्षक दवाओं की आपूर्ति की थी, उसी तरह, इस समय भी लीबिया को कोविड-19 के उपलब्ध कराने की जरूरत है। भारतीय डॉक्टर एवं नर्स की बड़ी प्रतिष्ठा है। उन्होंने लीबिया में विद्रोह के दौरान और उसके बाद भी वहां रुक कर लोगों की अच्छी चिकित्सा की थी। ये लोग अंतरिम सरकार तथा लीबिया की स्वास्थ्य प्राधिकरण में समन्वय के जरिए एक विश्वसनीय पुल बना सकते हैं।
क्या मैं निराशावादी हूं? निश्चित रूप से नहीं। प्रेसीडेंसी काउंसिल के प्रमुख फायेज सराज से पूरी तरह सहमत हूं, जिन्होंने कहा था कि दबीबा और उनकी टीम को बैटन सौंपते हुए “मैं आज यहां लोकतंत्र के सिद्धांतों को संघटित कर रहा हूं।” 2022 में एक नए लीबिया का अग्रदूत होने का इतिहास लिखा जाना है लेकिन इस बार लीबियाई लोगों की उम्मीदें झूठी साबित नहीं होनी चाहिए। अमन का जिम्मा जितना अंतरराष्ट्रीय समुदाय का है, उतना ही खुद लीबियाई नागरिकों का भी।
Translated by Dr Vijay Kumar Sharma (Original Article in English) [3]
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