अमेरिका और तालिबान के बीच 29 फरवरी 2020 को दोहा में हुए समझौते के एक साल होने के मौके पर विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन ने काबुल स्थित प्रमुख थिंक टैंक अफगान्स इंस्टीट्यूट फॉर स्ट्रैटेजिक स्टडीज (एआईएसएस) के सहयोग से एक संवाद का आयोजन किया था। 27 फरवरी 2021 को हुए इस आयोजन में अफगानिस्तान और भारत के जानकार और सूचनाओं से लैस विद्वानों ने अपने-अपने विचार रखे थे। इस संवाद का मकसद अफगानिस्तान के हर एक क्षेत्र-राजनीतिक, आर्थिक और सुरक्षा-में दोहा समझौते के जरिए अफगानिस्तान की वार्ताकार टीम द्वारा तालिबान को सीधे सीधे-सीधे संबद्ध किए जाने के बाद, तालिबान के रुख और उसकी चालों, अमेरिका के नए प्रशासन (जोए बाइडेन) द्वारा इस समझौते का समग्रता से पुन: आकलन किए जाने की संभावनाओं और विकसित होते क्षेत्रीय संदर्भ पर गौर करना तथा उसका आकलन करना था।
दोहा समझौते ने अफगानिस्तान में बड़ी उम्मीदें जगाई हैं तो खौफ भी पैदा किया है।
यह वास्तविकता है कि विगत 20 वर्षों में तालिबान ने पहली बार किसी सीधी बातचीत में हिस्सा लिया है और अगर यह संवाद परस्पर भरोसे में आगे बढ़ता है तो शांति या अमन नजदीक मालूम पड़ती है। उम्मीद की यह भी एक वजह है। अफगान के लोग एक गरिमामयी शांति की अपेक्षा करते हैं। व्हाइट हाउस की कमान में आया बदलाव ने डोनाल्ड ट्रंप के समय किए गए दोहा समझौते को लागू किये जाने की उम्मीद बढ़ा दी है। यद्यपि तालिबान ने अफगानिस्तान के भविष्य के बारे में अपने दृष्टिकोण का खुलासा नहीं किया है, सिवा इसके कि अफगानिस्तान की हुकूमत एक इस्लामिक स्टेट के रूप में होगी। फिर भी इस बात के पर्याप्त संकेत हैं कि उसका असल मकसद उस रूप में पूरा नहीं होगा क्योंकि अमेरिका, जिसने उसे 2001 में सत्ता से बेदखल कर दिया था, अपनी रवानगी के पहले वह अफगानिस्तान को उनके हवाले यथारूप में ही सौंपेगा। जैसा कि लोकप्रिय मुहावरे में कहा जाता है, जैसा का तैसा रहने देना।
निश्चित रूप से यह इस तथ्य को नजरअंदाज करता है कि अफगानिस्तान तालिबान की हुकूमत के बाद से बहुत बदल गया है। यह भी तथ्य है कि मौजूदा अफगानिस्तान को एक आधुनिक, लोकतांत्रिक और समावेशी देश के निर्माण में सहयोग देने में अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने भारी निवेश किया है। तालिबान नेतृत्व इस हकीकत से वाकिफ नहीं मालूम पड़ता है कि उसकी पहली हुकूमत पूरी दुनिया में एक तरह से अछूत थी। केवल उसके संरक्षक देश पाकिस्तान तथा दो अन्य (सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात) ने ही उसे मान्यता दी थी। आज तो इतनी कम तादाद के समर्थन के बारे में भी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। वैश्विक या क्षेत्रीय, और यहां तक कि राष्ट्रीय स्तर पर भी इस्लामिक अमीरात के लिए कोई चाव नहीं है। तालिबान को अपनी बिरादरी के नाश की लड़ाई को समाप्त करने तथा बातचीत द्वारा अफगान की मुख्यधारा की राजनीति में भाग लेने के लिए उत्साहित करने वाली प्रक्रिया, जिसकी परिणति उसके शिष्टमंडल भेजने में हुई है, इस घटना को तालिबान को वैश्विक मान्यता और वैधता के दिये जाने के रूप में गलत तरीके से देखी जा रही है। इससे तालिबान ने अपना रुख और कड़ा कर लिया है। वे बातचीत में अवरोध पैदा करने वाली कुचालें चलने लगे हैं। तालिबानियों ने अमेरिका के नए प्रशासन और वहां के लोगों से दोहा समझौते को तय समय सीमा में लागू करने के लिए सार्वजनिक रूप से बार-बार अपीलें की हैं। इसी तरह की अपील पाकिस्तान की विदेश मंत्री भी करते रहे हैं।
अमेरिका और उसके बड़े सहयोगी देशों (28 फरवरी को रूस के साथ, नाटो-सहयोगी देशों ने मार्च 2020 तथा अमेरिका, रूस और चीन की त्रोइका) ने अपने संयुक्त बयानों में बिना किसी लाग-लपेट के कह दिया है कि उन्हें अफगानिस्तान में एक इस्लामिक अमीरात मंजूर नहीं होगा। यही विचार ईरान, भारत और मध्य एशिया के गणतांत्रिक देशों की भी है। हालांकि पाकिस्तान तालिबान को अपना समर्थन दे रहा है, फिर भी यह स्पष्ट नहीं है कि उसकी पश्चिमी सीमा पर एक विकसित अमीरात उसे बहुत मुतमईन करेगा। पाकिस्तान की सेना द्वारा दिये गये हालिया बयानों में अपने दोनों पड़ोसियों की तरफ मदद के हाथ बढ़ाने की बात कही गई है। लेकिन वह काबुल की सत्ता को हासिल करने में तालिबान की कोई मदद नहीं कर रहा है, जो एक प्रमुख विचारणीय बिंदु है, लेकिन उसकी इस धारणा को व्यवहार की कसौटी पर अभी कसा जाना है।
तालिबान अपनी जीत को अभी से नहीं पचा पा रहा है और वह पहले से ही अपने को एक विजेता के रूप में देखने लगा है। काबुल की सत्ता हासिल करने में अपना आखिरी दम लगाने से पहले वह अफगानिस्तान की सरजमीं से 1 मई को विदेशी सेनाओं की तय रवानगी का इंतजार कर रहा है।
तालिबान की तरफ से टालमटोल की चालें चली जा रही हैं और उसने देश की भावी शासन व्यवस्था को हनाफी धर्मशास्त्र के कायदों के आधार पर चलाने तथा इसे शिया धर्मशास्त्र (जाफरी स्कूल) पर तरजीह देने की बात कही है। यह देश में रहने वाली शिया हजारा आबादी के लिए खतरा है और उसने इसके लिए अफ़ग़ानिस्तान के संविधान में हिफाजती प्रावधानों की मांग की है। उसने इस बात पर भी जोर दिया है कि अमेरिका के साथ समझौता केवल उसकी बातचीत पर ही आधारित है। इसमें अफगानिस्तान की सरकार कोई पक्षकार नहीं है (सचमुच यह विडंबना है कि जब से इस्लामिक अमीरात ऑफ अफगानिस्तान के साथ समझौते पर दस्तखत किया गया है, दर्जन से अधिक मर्तबा इसके कई बिंदुओं पर खंडन किया गया है कि इन्हें अमेरिका स्वीकार नहीं करता है।)। तालिबान ने काबुल की सरकार को बार-बार एक कठपुतली सरकार करार दिया है।
12 सितंबर के बाद से 3 महीने एजेंडा पर काम करने के बजाए महज बातचीत के लिए नियम और नियमन तय करने में ही बीता दिया गया। स्पष्ट है कि तालिबान अमेरिका में चुनाव संपन्न हो जाने का इंतजार किया और अभी भी वह इस दिशा में आगे बढ़ने से पहले अमेरिका के नए प्रशासन की तरफ से कोई साफ संकेत मिलने का इंतजार करता है।
इसी बीच, दोहा समझौते का सबसे बड़ा दोष यह है कि वह अफगान के लोगों के विरुद्ध तालिबानी हिंसा की स्तर पर कोई लगाम नहीं लगाता है, जिसका तालिबानी बेजा फायदा उठा रहे हैं। उन्होंने अमेरिका और नाटो के सैन्य बलों पर हमले करने की अपनी रणनीति बदल दी है, अब वे शहरों पर बड़े हमले करते हैं। लेकिन उन्होंने पूरे देश में अपना सैन्य दबदबा बनाये रखा है। वे लक्षित हत्याओं में विश्वास करते हैं, नये अफगानिस्तान के रहनुमाओं-प्रतिनिधियों-पत्रकारों, मझोले स्तर की सरकारी अफसरों, महिलाओं और छात्रों जैसे नरम लक्ष्यों या चेहरों का चयन कर उन्हें अपना शिकार बनाते हैं। दुखद तो यह है कि दोहा समझौते में ही अंतर्निहित है, अफगानिस्तान के लोगों के विरुद्ध ऐसी हिंसा को सहन करना।
दोहा स्थित तालिबान के नेताओं ने पाकिस्तान आधारित शूरा नेतृत्व तथा उसकी सरकार के साथ आगे की रणनीति को लेकर से राय-मशविरा करने में ही काफी समय खर्च कर दिया। इस वजह से समझौते पर बातचीत की प्रक्रिया में तीन महीने (मध्य दिसंबर से ले कर जनवरी 2021 की शुरुआत तक) का ठहराव हो गया। वैश्विक सार्वजनिक विचार की खिल्ली उड़ाते हुए तालिबानी नेताओं ने कराची के अस्पताल का दौरा किया, जहां उनके जख्मी जिहादियों का इलाज चल रहा था। साथ ही, इन नेताओं ने अपने कैडर के लिए चलाए जा रहे प्रशिक्षण शिविरों का भी दौरा किया। यह तालिबान के जाहिर इरादों के बारे में अमेरिका के नए प्रशासन के लिए कम अहम संदेश तो नहीं कहा जा सकता। दोहा समझौते के बाद अफगानिस्तान में अंतर्राष्ट्रीय कार्रवाइयां का रुकना, तालिबानियों को खुलेआम गतिविधियां चलाने की जैसे आजादी दे दी है तथा रणनीतिक स्थानों पर अपने लड़ाकों को तैनात करने एवं सरजमीनीं संचार की खास-खास लाइनों पर दखल जमाने की छूट मिल गई है। यह तो बहुत बाद में जाकर अमेरिका के आला अफसरों ने लगातार हिंसा जारी रखने की बात को खारिज करने के तालिबानी दावे को चुनौती दी।
दोहा समझौता अफगानिस्तान में मौजूद निर्वाचित सरकार के ऊपर तालिबान को तरजीह देता है, जो काबुल की शासन-सत्ता की संरचना को और बिगाड़ देता है। यह समझौता कूटनीतिक और सैन्य दोनों ही मायनों में काबुल के विरुद्ध झुका हुआ है। बातचीत के दौरान अमेरिका ने तालिबान की ज्यादातर मांगें मान ली हैं, इनमें अफगानिस्तान सरकार की तरफ से मानी जाने वाली मांगें भी शामिल हैं। उन मांगों के अलावा, अफगान के विभिन्न जिलों में कैद 5000 तालिबान कैदियों को भी रिहा किए जाने, एक निश्चित समय सीमा में सैन्य बलों की तैनाती में कमी लाने तथा संयुक्त राष्ट्र और अमेरिकी प्रतिबंधों जैसी कार्रवाइयों की समीक्षा करने और उन्हें वापस लेने की मांग भी शामिल हैं। देखा जाए तो इस बातचीत में तालिबान की तरफ से ऐसी किसी प्रतिबद्धता का पता नहीं चल पाया है, सिवाय इसके कि तालिबान से अपेक्षा की गई है कि वह अल कायदा और अन्य आतंकवादी समूहों से अपने संबंध विच्छेद कर लेगा। तालिबान ने अफगान में जारी अपनी हिंसात्मक कार्रवाइयों से बाज आने, संघर्ष-विराम करने को लेकर कोई वादा नहीं किया है। और नहीं, यह वादा किया है कि जेल से रिहा हुए अपने लड़ाकों को वह वापस मोर्चे पर नहीं भेजेगा।
हालांकि अफगानिस्तान राष्ट्रीय रक्षा और सुरक्षा बलों के अभियानों के लिए अंतरराष्ट्रीय समर्थन अहम है, लेकिन उसमें महत्वपूर्ण रूप से कमी लाई जा रही है, पाकिस्तान और तालिबान की यह जवाबदेही तय किये गए बगैर कि वह पाकिस्तान में तालिबान के समर्थन ढांचे को समाप्त कर देगा, जिस पर तालिबान अब तक भरोसा करता आया है। पाकिस्तान की तरफ से मुहैया कराई गई इस “रणनीतिक गहराई” के बगैर तालिबान अंतरराष्ट्रीय समुदाय, उसकी बलशाली सेनाओं के साथ पूरे दमखम के साथ नहीं लड़ा होता और उनके विरुद्ध जंग में एक ठहराव लाने में कामयाब नहीं हुआ होता। जैसा कि कुछ विश्लेषकों ने गौर किया है कि या तो जंग के मैदान और सामरिक नीतियां गलत थीं या फिर आधे मन के साथ दुश्मन से जंग लड़ी गई।
स्पष्ट है कि अमेरिका की तरफ से शामिल वार्ताकार अमेरिकी चुनाव की तारीखों से निर्देशित हो रहे थे और उन्होंने इस मसले को तत्कालीन राष्ट्रपति ट्रंप के लिए खराब हो जाने दिया। इस प्रक्रिया में अपनी ही सेना के अफसरों की आपत्तियों को खारिज कर दिया गया, सेना की तैनाती कम करने के आदेश दिए गए और ट्रंप के पद छोड़ने से पहले इसकी तादाद घटाकर 2,500 कर दी गई। नाटो सेना में भी काफी गिरावट आई और उनकी कुल तैनाती 9,600 रह गई इसमें प्राइवेट कांट्रैक्टर शामिल नहीं हैं। हालांकि यह प्रतिबद्धता सभी सेनाओं अमेरिकी और नाटो और संबंधित समर्थन देने वाले कर्मचारी पर लागू होती है। यह नए प्रशासन के लिए एक विचित्र भ्रम बनाता है। यदि राष्ट्रपति जोए बाइडेन अंतहीन युद्ध को समाप्त करने के प्रति प्रतिबद्ध हैं, लेकिन वह लोकतंत्र और मानवाधिकारों, खासकर अफगानिस्तान में महिलाओं के अधिकारों को सुनिश्चित किए बगैर अफगानिस्तान से अपनी गैर जवाबदेही वापसी की कीमत वहन नहीं कर सकते। निश्चित रूप से वह इस मसले पर अपने नाटो सहयोगियों की बात को खुले मन से सुनना पसंद करेंगे और उन्होंने अफगानिस्तान से जल्दीबाजी में वापसी को लेकर नाखुशी जाहिर की है। अपने पूर्ववर्ती ट्रंप से बिल्कुल अलग वे इस आलोचना के प्रति सहिष्णु नहीं है कि अगर अमेरिका की भूमि पर कोई आतंकवादी हमला हुआ तो वे क्या करेंगे। हालांकि ये विचार गहरी समीक्षा की मांग करते हैं, जिन पर काम करना उनकी नई टीम ने शुरू कर दिया है। यह स्पष्ट है कि जब तक कि इसका ढांचा ही अपने आप में टेढ़ा-मेढ़ा है तो इससे संतोषजनक परिणाम नहीं निकलेंगे।
अमेरिकी कांग्रेस द्वारा गठित एक अध्ययन समूह और अमेरिका आधारित अन्य विश्लेषकों ने तालिबान से समझौते पर आगे की कार्रवाई के लिए और वक्त की मांग की है। यह मांग इस आधार पर की गई है कि स्वयं तालिबान ने अपने हिस्से की प्रतिबद्धताओं को पूरा नहीं किया है-यद्यपि इस आशय का उल्लेख समझौते में नहीं किया गया है। इस पर फिर से बातचीत होगी और अतिरिक्त शर्तें लगाई जाएंगी। अब यह तालिबान पर निर्भर करता है कि वह इसे मानता है या ठुकरा देता है। तालिबान ने प्रगति में मौजूदा अवरोध तथा अभाव के लिए पहले से ही अमेरिका और काबुल सरकार पर दोष मढ़ना शुरू कर दिया है। तालिबान ने अमेरिका के साथ अपने समझौते का शाब्दिक विश्लेषण भी शुरू कर दिया है। यह इस बात का संकेत है, कि तालिबान उससे जरा भी कम पर राजी नहीं होंगे, जो उन्होंने समझौते की टेबल पर हासिल किया है।
अमेरिका के मौजूदा सोच-विचार में स्पष्टता आने तक ऐसा मालूम होता है कि तालिबान गंभीर बातचीत नहीं करेगा बल्कि छिटपुट रूप से समझौते के साथ जुड़े रहने का दिखावा करेगा। एक कदम आगे और दो कदम पीछे की यह रणनीति का इस क्षेत्र में पाकिस्तान आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई में अमेरिका के साथ अपना सहभागिता में सफलतापूर्वक इस्तेमाल करता रहा है।
अफगान के लोग अघोषित आक्रामक वसंत के जरिए खून-खराबे में इजाफा का अनुमान करते हैं। जब तक अमेरिका और नाटो की सेनाएं पर तालिबान द्वारा सीधे हमले नहीं किये जाते, वह रडार से छिपे रह सकते हैं। यह भी सच्चाई है कि तालिबान ने हिंसा की बहुत सारी गतिविधियों में खुद के संलिप्त होने की बात का खंडन करता रहा है, हालांकि उसके इस खंडन पर भी कई सवाल खड़े होते हैं। अमेरिका के नए प्रशासन को आश्वस्त करने के लिए तालिबान ने अपने सभी फील्ड कमांडर्स को यह निर्देश दिया है कि वे विदेशी सेनाओं के साथ मोर्चा न लें। अब इसका सरजमीं पर क्या असर होगा, इसे देखना बाकी है।
आगे का मार्ग
तालिबानी हिंसा का बदलता मिजाज गौरतलब है। संयुक्त राष्ट्र समेत तमाम रपटें तालिबान के दूसरे आतंकवादी समूहों यहां तक कि अल कायदा के साथ उसके रिश्ते बने रहने की तस्दीक करती हैं। तालिबान के दखल वाले इलाकों से आ रही रिपोर्ट भी यही बताती है कि तालिबान बिल्कुल नहीं बदला है। हालांकि दोहा में रह रहे उसके नेताओं ने परिष्कृत होने का भले ही दिखावा किया हो।
इन तमाम घटनाक्रमों के बीच, भारत के एक लोकतांत्रिक, संप्रभु और अखंड अफगानिस्तान के उसके सतत रुख की भूरि-भूरि सराहना हुई है। भारत अपने इस दृष्टिकोण से जरा भी नहीं डिया है जबकि समझौते में शामिल भागीदार “तालिबान के पक्ष में बने नैरेटिव को एक सुनामी” करार दे रहे थे। भारत इस बात पर भी सहमत था कि महज कुछ ही दिनों में तालिबान का असली रंग सबके सामने दिख जाएगा। अतः भारत और अंतरराष्ट्रीय समुदायों को पिछले 20 सालों के दौरान अफगानिस्तान में हासिल हुई उपलब्धियों को सहेज रखने के लिए पुन: प्रतिबद्ध होना होगा।
इसके साथ ही, अफगानिस्तान के भविष्य को लेकर सर्वानुमति बनाने के लिए क्षेत्रीय राजनयिक प्रयास को दोगुना करना होगा-यह सर्वानुमति भूराजनीतिक विवादों और अवसरवादी रणनीतिक बाड़बंदी में फंस जाती रही है।
तालिबान की ख्वाहिशें उसे अंतरराष्ट्रीय मान्यताएं मिलने तथा संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंधों की तत्काल समीक्षा कर और उन्हें हटाए जाने की है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद प्रतिबंध कमेटी के अध्यक्ष होने के नाते भारत को इस मसले पर अफगानिस्तान तथा अन्य समान विचार वाले देशों के साथ समन्वय करने की आवश्यकता है:-
1. यह सुनिश्चित करना कि तालिबान बिना खास प्रयत्न के ही प्रतिबंध सूची से हटाये जाने या इन प्रतिबंधों में ढील किये जाने का बेजा फायदा न उठा ले जाए;
2. तालिबान की मांगों के मुताबिक उनके आतंकियों की सूची में काट-छांट के बजाय उनकी हालिया कार्यवाहियों पर आधारित नये व्यक्तियों (खास कर वे जो हाल ही में जेल से छूटे हैं) को सूची में शामिल किया जाना सुनिश्चित करना ; और
3. तालिबानी नेताओं द्वारा वार्ताओं की उपेक्षाओं को देखते हुए यात्रा करने की उनकी स्वतंत्रता के दुरुपयोग और उल्लंघन को समाप्त करना।
इन सुझावों पर तत्काल गौर किए जाने की आवश्यकता है क्योंकि दोहा समझौते की समीक्षा मार्च में की जानी है।
तालिबान सोशल मीडिया का उपयोग अपने पक्ष में नैरेटिव के निर्माण के लिए कर रहा है और यह खुलासा हुआ है कि यह काम वह पाकिस्तान के ही किसी ठिकाने से कर रहा है। 800 से ज्यादा BOT द्वारा चलाए जा रहे ट्विटर हैंडल्स का पता चला है। यह और अन्य सोशल मीडिया के फोरम ने तालिबानी प्रोपेगेंडा को और मजबूती से फैलाने में मदद किया है तथा सोशल मीडिया के रुझानों को रचा है। उसकी इस कवायद पर रोक लगाने की जरूरत है।
हालांकि कोई भी तालिबानी कट्टरता को लेकर बदलते अंतर्राष्ट्रीय नैरेटिव की पहचान कर सकता है, लेकिन मौजूदा हिंसा के स्तर में कमी लाने तथा संघर्ष-विराम करने का ठोस और विशेष प्रतिबद्धताओं के साथ अनु-समर्थन किया जाना चाहिए, जिसे शांति वार्ताओं के हासिल परिणाम के रूप में नजरअंदाज नहीं करने दिया जा सके। बदला हुआ नैरेटिव अफगानिस्तान सरकार से बंदूक के बल पर बातचीत करने के लिए विवश करता है।
हालांकि जिनेवा समझौता को तो विभिन्न दौरों और संदर्भों में मूर्त रूप दिया गया है, लेकिन उसके कई सारे उपबंध आज के समय में भी मौजू हैं। खासकर अनुच्छेद 4 की धारा 2 को देखें, जो एक दूसरे देश के आंतरिक मामलों में गैर-हस्तक्षेप या गैर-व्यतिकरण से जुड़ा है। इसमें दो देशों (अफगानिस्तान तथा पाकिस्तान) ने प्रतिबद्धता जताई है कि वह एक दूसरे की हुकूमत को चुनौती देने वाले समूह को कोई मदद नहीं देंगे। रूस और अमेरिका इस संधि के गारंटर हैं। 29 फरवरी 2020 को जारी अमेरिका तथा अफगानिस्तान के संयुक्त घोषणा पत्र में अमेरिका ने दो सरकारों के बीच बातचीत सुगम करने की अपनी प्रतिबद्धता जताई है लेकिन जिनेवा समझौता में इस बारे में विस्तार से प्रतिबद्धताएं रखी गई हैं, जिनके मुताबिक चक्र को फिर से पीछे ले जाने की कोई जरूरत नहीं है।
राजनीतिक एकता और सद्भाव के लिए तथा प्रशासन के अहम संकेतकों में चिन्हित सुधारों, मसलन भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग, कानून पर आधारित प्रबंधन प्रणालियों एवं न्याय आदि सेवाओं सहित सभी सेवाओं में सुधारों के लिए अफगानिस्तान सरकार और अनेक भागीदारों को इस प्रक्रिया में शामिल करने की आवश्यकता है। सरकार की कुछ कमजोरियों से जनता भ्रमित होती है और इससे सरकार की साख घटती है। यह देखा गया है कि दोहा प्रक्रिया में समर्थन का आधार शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में बंटा हुआ है।
अंत में, तालिबान ने इसे स्पष्ट कर दिया है कि चेतावनी दिए जाने के बावजूद अफगानिस्तान से विदेशी सेना की वापसी के बाद भी उसका ‘जिहाद’ खत्म नहीं होगा बल्कि वतन की सरजमीं पर ‘विदेशी प्रभावों’ के जमे रहने तक वह जारी रहेगा। इससे किसी को भी संदेह नहीं रह जाना चाहिए कि तालिबान क्या चाहता है। यह सावधान हो जाने का समय होना चाहिए इसके पहले कि काफी देर हो जाए।
Translated by Dr Vijay Kumar Sharma (Original Article in English) [3]
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[2] https://www.vifindia.org/author/amb-amar-sinha
[3] https://www.vifindia.org/article/2021/march/04/afghanistan-status-of-doha-agreement-and-the-way-forward
[4] https://static.theprint.in/wp-content/uploads/2020/03/US-Taliban-peace-deal-696x392.jpg
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