सहस्राब्दियों से राष्ट्र-राज्य ने शक्ति की अपनी राजनीति में आर्थिक उपकरणों का बेधड़क उपयोग किया है। लिहाजा, अंतरराष्ट्रीय संबंधों में एक नये भू-आर्थिकी युग के उभार को लेकर जारी हालिया विर्मशों में ये सवाल उठे हैं। चीन का अभ्युदय, जो आज की वैश्विक राजनीति को परिभाषित करता है, ने प्राय: ही अपने कौशल को विश्व के भूआर्थिक व्यवहारों को अग्रणी रूप में प्रदर्शित किया है। किंतु सवाल है कि भू-आर्थिकी क्या है? इसकी कई परिभाषाएं मौजूद हैं, फिर भी कहा जा सकता है कि मूल भूआर्थिकी का सरल अर्थ है कि अपने भू-सामरिक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए आर्थिक संसाधनों का उपयोग करना। हालांकि यहां इसको आर्थिक कूटनीति से फर्क करना लाजिमी है, जिसका मतलब सरकार के उस आचरण से होता है, जिसमें वह अंतरराष्ट्रीय वातावरण को प्रभावित करता है (भू-राजनीतिक वातावरण के विपरीत)।
वैश्वीकरण के ऊपर लिखे गये साहित्य में एक सामान्य हास्य-चित्र यह रहा है कि बृहत आर्थिक विनिमयों ने शक्ति संबंधों को विखंडित और विकेंद्रित कर दिया है। वर्तमान में,शीतयुद्ध के उत्तरकालीन विमर्श में उदारवाद की दखल ने भी आर्थिक विनिमय के विचार को एक फायदे वाली स्थिति के रूप में बढ़ावा दिया है, जिसने जीरो-सम मिजाज की सैन्य शक्ति के विपरीत संघर्ष को रोक दिया है। इस सदी की शुरुआत में अमेरिका वैश्विक आतंकवाद के विरुद्ध जंग में शामिल हो गया है, तब से ऐसा मालूम होता है कि महाशक्तियों के बीच शत्रुता गुजरे जमाने की बात हो गई है। इस तरह, नई सदी के लगभग चौथाई हिस्सा बीतने के साथ बड़ी शक्तियों ने आखिरकार आर्थिक, वित्तीय और प्रौद्योगिकी समकेन को अपने में ही समाहित कर लिया है।
यद्यपि आर्थिक संवादों की विकेंद्रित पद्धति, जो अनेक निजी, राष्ट्रीय औऱ अंतरराष्ट्रीय इकाइयों को परस्पर जोड़ती है, वह वैश्विक नेटवर्क जैसे स्विफ्ट (SWIFT), इंटरनेट और डॉलर निष्पादन पद्धति को विकेंद्रित करती है। यह केंद्रीय संस्थाओं के साथ राज्यों को इजाजत देती है और मुख्य अवरोधक बिंदु (चोकर प्वाइंट) से अधिकतम ताकत खींचने के लिए नेटवर्क क्षेत्र का फायदा उठाये। अब, चूंकि भू-राजनीतिक अनिश्चतता का साया लंबा होता जा रहा है, बड़ी शक्तियां इस वास्तविकता के प्रति जागरूक हो रही हैं, ऐसे में अंतर-निर्भरता का मतलब है कि इससे वे लाभान्वित हो सकते हैं, लेकिन इसी समय वे अपने भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों से अरक्षित भी हो सकते हैं। इसके अलावा, आर्थिक विवाद जिसे जिसे अपने सुरक्षा हितों के लिए सुलझा लिये गये थे, वे आज उनके अपने अधिकार क्षेत्र में संघर्ष के रूप में विस्तारित हो गए हैं क्योंकि व्यापक आर्थिक असमानता ने आर्थिक दायरे में राज्यों की भूमिका को एक बार फिर बढ़ा दिया है। अपने प्रतिद्वंद्वी की वैश्विक प्रणाली पर भरोसा तथा भागीदारी का उपयोग करते हुए देश इस संकट से निकलने के लिए अपने फायदे के लिए प्रौद्योगिकी का हस्तांतरण करते हैं।
अंतरराष्ट्रीय संबंधों में संशोधनवाद एक बार फिर उभर रहा है। संशोधनवादी देश नियमित तौर पर भू-आर्थिक संसाधनों की तरफ देखते हैं, प्राय: इसे पहले ठिकाने के रूप में। संशोधनवादी ताकतों में साइबर युद्ध को प्रमुख आकर्षक हथियार माना जाता है,जैसा कि विषम प्रकृति के भू-आर्थिक साइबर हमलों-एक स्टेट एक्टर निजी संस्था को निशाना बनाता हैः इस पर प्रतिक्रिया देने के लिए यथास्थितिवादी ताकतों की क्षमता को कुंद कर देता है। इसके अलावा, वाणिज्यिक बौद्धिक परिसंपत्ति की व्यापक चोरी के अलावा, साइबर युद्ध निजी कम्पनियों को धराशायी करने का भी तरीका मुहैया कराता है, समूचे राष्ट्रीय आर्थिक क्षेत्रों को गौण कर देता है, और विद्युत ग्रिड (संजाल) से ले कर बैंकिंग प्रणाली तक की बुनियादी संरचना को खतरे में डाल देता है। इसके अन्य उदाहरण हैं, उक्रेन को फिर से अपनी धुरी में लाने के लिए शरद ऋतु में मास्को द्वारा उसकी ऊर्जा आपूर्ति को जब-तब ठप कर देना। चीन, अपने बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआइ) के अंतर्गत, विकासशील देशों को विश्व बैंक तथा अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष दोनों की तुलना में बहुत ज्यादा कर्ज देता है। चीनी भू-आर्थिक दृष्टिकोण लक्षित देशों में इच्छुक समूहों के निर्माण और उसके समर्थन के जरिये प्राय़: बड़ी धूर्तता से काम करता है। चीनी निवेशों से उस देश के लोग निजी तौर पर लाभान्वित होते हैं।
हालांकि, अब चीन का बड़े पैमाने पर व्यापार अधिशेष समेत विश्व व्यापार प्रणाली में उसके प्रभुत्व ने दुनिया में खतरे का लाल झंडा दिखा दिया है। वह यह कि चीन बाजार के खुलेपन का उपयोग पहले से ही खस्ताहाल कंपनियों की घुसपैठ कराने, उनके नाजुक ढांचे, और प्रौद्योगिकी को चुराने में कर रहा है, ताकि संकट के समय में रणनीतिक रूप से उनका दोहन कर सके। भू-राजनीतिक शक्ति के समान ही, भू-आर्थिक ताकत कुछ निश्चित संरचनागत कारकों औऱ नीति-विकल्पों का काम करती है। ज्यादतर देशों की अपनी भूराजनीति ताकत के प्रदर्शन में अंतर होता है, कुछ निश्चित संरचनागत विशेषताएं-या भूआर्थिक प्रदाय हैं, जो इस तथ्य को आकार देता है कि एक सफल देश भू आर्थिक उपकरणों के उपयोग में किस तरह का हो सकता है।1 सामान्यतः भू आर्थिक उपकरणों का उपयोग सकारात्मक प्रेरणा के जरिए होता है, लेकिन वे आसानी से एक प्रतिरोधात्मक रूप ले सकते हैं। आज सिद्धांत में कम से कम सात आर्थिक उपकरण हैं,जो आर्थिक अनुप्रयोग के उपयुक्त बैठते हैं। इनमें कारोबार नीति, निवेश नीति, आर्थिक और मौद्रिक नीति, ऊर्जा एवं वस्तुएं शामिल हैं।2
भारत में आर्थिक राजनय एक उपेक्षित अध्ययन क्षेत्र रहा है, ज्यादातर इस पूर्वाग्रह के कारण कि आर्थिक उपकरण भू राजनीतिक क्षेत्र में जबरदस्त तरीके से प्रभावी नहीं हो पाते हैं। यह अवधारणा कारोबार (जैसे कि निर्यातों का मतलब व्यापक ऊर्जा आयातों का भुगतान है।) की सीमित उपयोगिता से बनी है। फिर, भू आर्थिक उपकरण के संदर्भ में सीमित विशेषज्ञता और सीमित संस्थागत क्षमताएं भी हैं। इसके अलावा, चूंकि भारत कुछ खास कच्चे मालों समेत कई उत्पादों के आयात पर बुरी तरह निर्भर है, उसे यह भय भी है कि आर्थिक दायरे में पांव पसारने का मतलब कहीं राजनीतिक और सैन्य क्षेत्रों में अधिप्लावन न ला दे। भारत की विदेश नीति जटिल भूराजनीतिक वाले आस-पड़ोस के बावजूद परोपकारिता की अपनी कोशिश में वास्तविक वैर-भाव दिखाने के बजाय सिद्धांतवादी रही है। उसे इसकी भी चिंता है कि प्रतिरोधी भूआर्थिकी की पहल भारतीय उपमहाद्वीप की राजनीतिक भ्रंश रेखा को ठेल कर आर्थिकी समेकन के जरिये हासिल की गई क्षेत्रीय उपलब्धियों को कहीं पटरी से उतार न दे। आर्थिक प्रतिबंधों के उपयोग को लेकर भी डर है, क्योंकि वे इसे आम लोगों को नुकसान पहुंचाने तथा उनके कष्टों को और विकराल बना देने के रूप में देखते हैं। इसलिए ही, भारत सकारात्मक अभिप्रेरण के उपकरणों के उपयोग में ज्यादा सहज है। इसका हालिया उदाहरण, भारत के अपने मूल्य आधारित राजनय के साथ बड़ी मात्रा में कोरोना वैक्सीन का निर्यात किया जाना है।
मुक्त व्यापार समझौतों के अंतर्गत आर्थिक लाभ देने या संवृद्धि बढ़ाने से संबंधित क्षमता के बारे में संदेह भी भारत को भूआर्थिक दृष्टिकोण का उपयोग करने की सतर्कता पर चोट करता है। चीन से भारत की बढ़ती आर्थिक अरक्षिता वह वास्तविक वजह थी, जिसके चलते वह समग्र क्षेत्रीय आर्थिक सहभागीदारी (रीजनल कॉम्प्रिहेंसिव इकोनामिक पार्टनरशिप/आरसीईपी) से बाहर आ गया। हालांकि भारत अन्य कारोबारी संधियों/समझौतों के लिए बातचीत के प्रति प्रतिबद्ध है, दरअसल अंतरराष्ट्रीय कारोबार के लिए एक चहुंमुखी दृष्टिकोण की आवश्यकता है। अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक अर्थव्यवस्था और एक भूआर्थिक दुनिया के बीच बहुत बारीक रेखा है। विदेश मंत्रालय, वित्त मंत्रालय और वाणिज्य मंत्रालय के बीच एक समन्वयकारी दृष्टिकोण की आवश्यकता है। भारतीय कारोबार पर होने वाली बातचीत को अकेले वाणिज्य मंत्रालय पर नहीं छोड़ा जा सकता। बहुत सारे थिंक टैंक यह सुझाते हैं कि भारत को अंतरराष्ट्रीय व्यापार मध्यस्थ3 (अमेरिका के ट्रेड रिप्रेजेंटेटिव की तर्ज पर) का एक कार्यालय खोलना चाहिए, जो भारत के अंतरराष्ट्रीय कारोबारी बातचीतों में उसके दृष्टिकोण का समन्वय करे। राष्ट्रीय सुरक्षा संस्थानों की व्यापक हद में आर्थिक सुरक्षा पर जोर देने की आवश्यकता है।
आजादी मिलने के लगभग तीन तिहाई शताब्दी बीतने के बाद भी ताकत के इस्तेमाल के प्रति नई दिल्ली की असहजता विशेष रूप से समस्यात्मक बनी हुई है। शक्ति को अनादरसूचक तथा आधिपत्यवादी के रूप में निंदा नहीं की जानी चाहिए। व्यक्तियों की भांति, देशों की भी यह स्वाभाविक इच्छा होती है कि वह इस अनिश्चित दुनिया पर अपना नियंत्रण रखें और अपने अस्तित्व एवं अवसरों को सुनिश्चित करे। जब दूसरे देश गुप्त तरीके से भूआर्थिक चालें चलते हैं, ऐसे में क्या हो अगर और इसके तदनंतर होने वाली प्रतिक्रियाओं को लेकर परिदृश्य निर्माण से जुड़े अनेक अध्ययन भारत के लिए अधिक तेजी से अवसरों को हासिल करने में सक्षम बनाएगा। भारतीय विशेषज्ञ जब-तब भारत के घरेलू बाजार को लेकर शेखी बघारते हैं कि यह भारत के शक्तिशाली राजनय में फायदा दिला सकता है। हालांकि कुछेक लोग इसकी भी एक कैफियत देते हैं कि भारत क्यों इस फायदा उठाने के लिए प्रेरित नहीं हुआ है या उसे हासिल करने के लिए मोलभाव करने की तरफ अग्रसर नहीं हुआ है। वास्तव में, कई लोग इसको भूल जाते हैं कि हिंद महासागर हो कर बड़े खरीदारों और विक्रेताओं के बीच होने वाले ऊर्जा तथा कारोबार के पारगमन बिंदु के रूप में भारत की अपनी एक केंद्रिकता है, जो हिंद-प्रशांत के त्वरित पारगमन के लिए उतना ही जिम्मेदार है, जैसा कि चीन के उदय के लिए।
एकाधिकार से परे, क्रेताधिकार शक्तियां, और संवृद्धि दरों को लेकर किये गये अध्ययन दिखाते हैं कि चार और परवर्ती कारक किसी भी देश के अपने आंतरिक बाजार को भूआर्थिक परिदृश्य का फायदा उठाने की क्षमता को विश्लेषित करने में सहयोग करते हैं: घरेलू बाजारों तक पहुंच बढ़ाने के लिए चुस्त-दुरुस्त नियम बनाने की योग्यता, एक भूराजनीतिक बिंदु बनाने के लिए घरेलू आयात की भूख को पुनर्निर्देशित करने की क्षमता, वास्तविक या ग्रहित परिणाम, जो एक देश के घरेलू बाजारों को इस हद तक फायदे की स्थिति में लाते हैं कि उनकी उपेक्षा नहीं जा सके, और एक संवृद्धि परिपथ, जो दूसरे देशों को यह जताता है कि उसकी विदेश नीति के हितों के आज विरोध करने का भविष्य में क्या कीमत चुकानी पड़ेगी।4 हालांकि सीमा पर तनावों के बाद चीन के कई एप्स पर लगाये भारतीय प्रतिबंधों का शरुआत में उपहास किया गया था, लेकिन बाद में, इस तरह के उपाय अमेरिका समेत कई देशों ने आजमाये। टिक टॉक जिसको विश्व में वाहवाही के लिए चीन का पहला विशालकाय मीडिया ऐप्स माना गया था,उसको उसी देश से बहिष्कृत कर दिया गया, जो इसका सबसे बड़ा उपयोगकर्ताओं का आधार था। भारत की कारोबार के नजरिये से एक अनुशासनहीन बाजार की बनायी जा रही अवधारणा के संदर्भ में, नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने ऐसे अनेक सुधार किये हैं, जो भारत की भूआर्थिक शक्ति के वजन में और इजाफा करेगा।
चुनौतीपूर्ण बाहरी वातावरण से निबटने के लिए रूढ़िवादी विचार के बजाय, सोच नये सांचों को लाने, उसे आजमाने की आवश्यकता है, जो समस्याओं तथा अवसरों को परिभाषित करे। भूआर्थिकी, चाहे नई हो या पुरानी, भारत के लिए आज भी प्रासंगिक है।
Translated by Dr Vijay Kumar Sharma (Original Article in English) [4]
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[1] https://www.vifindia.org/article/hindi/2021/march/18/bhaarat-ke-lie-bhoo-raajaneetik-rananeeti-kee-rooparekha
[2] https://www.vifindia.org/author/prerna-gandhi
[3] https://www.vifindia.org/sites/default/files/Policy-Initiatives-for-The-New-Government-min_0.pdf
[4] https://www.vifindia.org/2021/february/19/outlining-a-geo-economic-strategy-for-india
[5] http://geoeconomics.ge/en/wp-content/uploads/2009/11/1-800x445.jpg
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