भारत और चीन के बीच सैन्य गतिरोध खत्म होने और तनाव दूर होने के कोई संकेत नहीं हैं, बल्कि भारत के प्रति चीन का रुख-रवैया सख्त ही दिखता है। संकेत है कि चीन मौजूदा टकराव को भारत के ऊपर सतत, संरक्षित दबाव की अवधि की एक शुरुआत के रूप में देखता है। हिमालय की श्रृंखलाओं में सैन्य टकराव के इस साल के बसंत से समय-समय पर और बढ़ने-विस्तृत होने की संभावना है। यह टकराव तीखा और तीव्र सैन्य प्रतिक्रिया के रूप में हो सकता है।
इस बीच, चीन ने लद्दाख में बने सैन्य अवरोध के नैरेटिव के बारे में घरेलू स्तर पर प्रचार-अभियान शुरू किया है, यद्यपि यह अभी सीमित स्तर पर ही है। निश्चित रूप से, चीन का सरकारी मीडिया, अपनी कार्रवाई को, भारत की “फारवर्ड पॉलिसी” तथा इस वजह से चीन की संप्रभुता के उल्लंघन की प्रतिक्रिया में मजबूरन उठाए गए कदम के रूप में पेश करता है। वह अनुमान लगाता है कि आगे का सैन्य जमावड़ा, टकराव होने की संभावना के साथ, अप्रैल-मई में मौसम के ठीक होते ही शुरू हो सकते हैं।
इस परिप्रेक्ष्य में, चाइना इंस्टीट्यूट ऑफ कंटेंपरेरी इंटरनेशनल रिलेशंस (सीआइसीआइआर) के इंस्टीट्यूट फॉर द साउथ एशियन स्टडीज के निदेशक हू शीशेंग के लिखे दो आर्टिकल महत्वपूर्ण हैं। हू संभवत: दक्षिण एशिया के मामलों, विशेष रूप से भारत और पाकिस्तान के, इंस्टिट्यूट के अग्रणी विशेषज्ञ मालूम पड़ते हैं। सीआइसीआइआर चीन का सर्वाधिक प्रभुत्व रखने वाला इंस्टिट्यूट है और यह सीधे आंतरिक सुरक्षा मंत्रालय (MoSS) के अंतर्गत चीन के विदेशी खुफिया संस्थान के मातहत आता है। बिल्कुल हाल-फिलहाल, सीआइसीआइआर के प्रेसिडेंट और अमेरिका मामलों के विशेषज्ञ युवान पेंग ने 12 दिसंबर को सीसीपी, सीसी पोलित ब्यूरो के 26वें ‘स्टडी सेशन’ को संबोधित करते हुए यह सुझाया कि चीन को संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ किस तरह से पेश आना चाहिए।
हु सीआइसीआइआर के आधिकारिक प्रकाशन कंटेंपरेरी इंटरनेशनल रिलेशन (सीआइआर) के ताजा अंक ( सितंबर-अक्टूबर) में ‘द बिहेवियरल लॉजिक बिहाइंड इंडिया द फॉरेन पॉलिसी टुवर्ड्स चाइना’ शीर्षक से लिखे गए 33 पृष्ठीय आलेख के सह-लेखक हैं। इस लेख में, हू ने इस बात को विस्तार से रखा कि, “टकराव आकस्मिक नहीं था”, बल्कि नरेंद्र मोदी सरकार के “ऊंचे जोखिम, ऊंची सफलता” की नीति के चलते “अवश्यंभावी” था। उन्होंने इस नीति को “क्षेत्रीय अनुक्रम में भारत की पूर्ण सुरक्षा और दखल की दीर्घावधि की खोज” से उत्साहित “एक प्रतिशोध लेने वाली इच्छा” बताया और कहा कि मोदी सरकार की महत्वकांक्षा “वैश्विक रणनीति केअनुकूल वातावरण का फायदा उठाते हुए चीन पर बढ़त बनाने की” है।
सीआइआर का यह आर्टिकल चीन में अंग्रेजी में भी प्रकाशित हुआ था। निश्चित रूप से इसका मकसद भारत के साथ संबंधों और इस रिश्ते में आ रही दिक्कतों के बारे में चीन के दृष्टिकोण का व्यापक प्रचार-प्रसार करना था।
हू कहते हैं, “जब से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सत्ता में आए हैं, भारत के प्रति अंतरराष्ट्रीय वातावरण में आमतौर पर सुधार ही हुआ है।” उनका आकलन था कि “भारत का भू-मूल्य” स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से इस समय अपने उच्चतम स्तर पर है, क्योंकि अमेरिका और पश्चिम के देश भारत से चीन को रोकने की अपेक्षा करते हैं, विशेषकर चीन-अमेरिका की बीच बढ़ते तनाव के संदर्भ में। इसने मोदी सरकार को “चीन के प्रति कठोर होने के लिए अधिक साहस और आत्मविश्वास से भर दिया है”।
हू शिशेंग ने चीन और भारत के संबंधों को लेकर एक निराशावादी दृष्टिकोण रखा कि “दोनों देशों के बीच वर्तमान की संरचनागत कठिनाइयों के कारण भारतीय संकीर्णतावादी चीन को लेकर पहले से ही गहरा रणनीतिक अविश्वास और एक आशंका अपने मन में रखते हैं”। उन्होंने विदेशी निवेश के संदर्भ में आरएसएस को संकीर्णतावादी, दक्षिणपंथी और कठोर सिद्धांत वाला एक राजनीतिक संगठन बताया। यह रेखांकित करते हुए कि सरकार में महत्वपूर्ण नेता और भाजपा में वे लोग ही बहुमत में हैं, जो आरएसएस की पृष्ठभूमि से आते हैं, उन्होंने कहा कि भारत का राजनीतिक विन्यास धीरे-धीरे दक्षिण की ओर परिवर्तित हो गया है। उन्होंने आरएसएस की अपनी “शाखाओं”, जिसकी संख्या 2014 में मोदी की पहली बार सत्ता में आने के समय 40,000 थी, वह 2019 में बढ़कर 84,000 हो गई है, के जरिये अपने प्रभाव क्षेत्र में वृद्धि की। उनका आकलन था कि संकीर्णतावादी ताकतों के उद्भव से उदारवादी समूहों-परंपरागत रूप से राजनयिकों और अभिजन कारोबारियों से बना समूह-के स्पेस को सिकोड़ दिया है और “इसने रणनीतिक संस्कृति को चीन और अमेरिका के बीच झूला दिया है।” उन्होंने कहा कि इसके अलावा, मोदी ने चीन के प्रति कठोर होते हुए लोकप्रिय विपक्ष को भी कमतर कर दिया है और और देश में अपनी छवि सुरक्षा मामलों को लेकर एक कठोर नेता के रूप में बना ली है। हू शिशेंग ने जोर दिया कि, “लोकतंत्र में एक नेता के लिए सत्ता में बने रहना सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक रणनीति होती है”।
सीमा पर टकराव की चर्चा करते हुए हू शिशेंग ने कहा, “यह भारत था, जिसने अर्ध रात्रि को चीन के दखल वाले क्षेत्र में अकस्मात आक्रमण कर चीन के सीमा रक्षक जवानों को गंभीर रूप से घायल कर दिया, उसने संघर्ष को और बढ़ा दिया” जबकि चीन ने बाद में इसका मुंहतोड़ जवाब देते हुए भारतीय सीमा के जवानों को उनके इस दुस्साहस के लिए बड़ी क्षति पहुंचा कर उन्हें दंडित किया।” उन्होंने लिखा कि मोदी सरकार चीन को लेकर अपनी नीति में कठोर होती जा रही है। अतः दोनों देशों के बीच मनमुटाव बढ़ गया है और चीन-भारत संबंधों को एक अधोमुखी स्थिति में डाल दिया गया है।” उन्होंने कहा कि यह “1975 के बाद पहली बार सीमा पर व्यापक स्तर पर संघर्ष हुआ है, इसका मतलब है कि चीन-भारत संबंधों का विकास संरचनागत ठहराव में पहुंच गया है, और अब समय आ गया है कि दोनों देश अपने संबंधों को फिर से स्वरूप दें अन्यथा द्विपक्षीय संबंध को फिर से बेहतर करना कठिन होगा।” उन्होंने आगे लिखा है कि जब से मोदी सत्ता में आए हैं, प्रत्येक वर्ष चीन-भारत संबंध “एक सुहानी शुरुआत और एक उदास अंत”होता है।
हू शिशेंग ने निष्कर्ष दिया कि भारत ने गलवान घाटी में संघर्ष की शुरुआत इसलिए की क्योंकि उस इलाके में “चीन की सीमा संरचना निर्माण की गतिविधियां दरबुक-श्योक नदी-दौलत बेग ओल्डी हाईवे को गंभीर खतरा माना गया, जो भारत के लिए सियाचिन ग्लेशियर पर अपना प्रभावी असर बनाए रखने का एक महत्वपूर्ण रणनीतिक मार्ग है, जो न केवल चीन-पाकिस्तान काराकोरम हाईवे पर निगरानी के लिए रणनीतिक रूप से ऊंचा मंच है बल्कि यह विश्व की सबसे ऊंची युद्ध भूमि है, जहां भारत और पाकिस्तान की सेना एक दूसरे से लड़ती है।”
गलवान वैली में संघर्ष को “अंत में कुछ भी” के रूप में वर्णन करते हुए कहा कि सीमा को लेकर विवाद “बातचीत से हल निकालने” के बजाय संभवत: एक नए स्तर की तरफ बढ़े हैं जिसकी विशेषता “वास्तविक शक्ति के साथ उस पर नियंत्रण के लिए किया गया विवाद” है। यह अवश्यंभावी रूप से सीमा पर गतिरोध और संघर्ष को बढ़ावा देगा। भारत सरकार द्वारा अपने सीमा बल सुरक्षा बल को घटनाओं से निबटने के लिए अधिकृत करने के साथ, वह संघर्ष में वृद्धि का अनुमान करते हैं, जो “शीत हथियारों से आग्नेयास्त्रों” तक हो सकता है। हू ने आशंका जताई कि समय अंतराल में, “दोनों देशों के सीमा बलों के बीच सहनशीलता की बॉटम लाइन खतरे का लाल निशान हो जाएगी।”
दूसरे शब्दों में, दोनों पक्ष, सीमा की अपनी अवधारणा को लेकर सीमावर्ती क्षेत्रों में अपने नियंत्रण के लिए लगातार आगे बढ़ते रहेंगे। एक भी संकेत है कि दोनों देश पूरे स्तर पर संघर्ष को टालने की कोशिश करेंगे। फिर भी, दोनों के बीच समय-समय पर संघर्ष होते रहेंगे। यह आखिरकार उन्हें “परस्पर स्वीकार्य सीमा या वास्तविक सीमा रेखा” (लाइन आफ एक्चुअल कंट्रोल) की तरफ जाने के लिए प्रेरित करेगा।
“आज पूर्वी और चीन-भारत सीमा की मध्य खंड के सर्वाधिक दखल रखने वाली चोटियों पर बुनियादी रूप से भारतीय सेना का दखल है,” यह कहते हुए उन्होंने भारत पर आरोप लगाया किजब से “मोदी जब से सत्ता में आए हैं, भारत की सीमाई सेना ने चीन-भारत सीमा के पश्चिमी क्षेत्र के साथ फॉरवर्ड पॉलिसी पर अपना ध्यान केंद्रित किया है।” सीमा के पश्चिमी क्षेत्र में झड़प की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। “उदाहरण के लिए 2019 में, भारत ने चीन की एलएसी का 1581 बार उल्लंघन किया है, जिसमें से 94 फ़ीसदी घटनाएं चीन-भारत सीमा के पश्चिमी क्षेत्र में हुई हैं।” जब चीन ने भारत की इस घुसपैठ का मजबूती से जवाब दिया तो सीमा पर तनाव और यहां तक कि भिड़ंत भी हुई। उन्होंने कहा कि यह इसलिए हुआ क्योंकि “मोदी के 2014 में सत्ता में आने के बाद से चीन और भारत एक दुष्टतापूर्ण चक्र में फंसे हुए हैं, जिसमें साल की शुरूआत तो जोश-खरोश से होती है और अंत निचले स्तर पर।”.
उन बड़े मसलों की तरफ रुख करते हुए जिसने द्विपक्षीय संबंधों को भरवाने का काम किया है, हू ने यह आकलन किया कि “भारत और चीन अपनी स्वतंत्रता मिलने के शुरुआत से ही अपने हितों को लेकर गंभीर टकरावों और यहां तक कि सीमा व क्षेत्रीय व्यवस्था के प्रारंभ से सैन्य स्तर पर भी झड़पों के लिए अभिशप्त रहा है”। उन्होंने दृढ़तापूर्वक कहा कि यह अपरिहार्य था क्योंकि “एक औपनिवेशिक व्यवस्था को इनकार करने वाला नवजात देश (चीन) जबकि दूसरा उसका उत्तराधिकारी (भारत) है”। उन्होंने इसे और स्पष्ट करते हुए कहा कि चीन ने विदेशी औपनिवेशिक शक्तियों द्वारा किए गए अपमान का प्रतिवाद किया जबकि इसके विपरीत, भारत ने औपनिवेशिक शासन को स्वीकार किया और यह अनुभव किया कि इससे उसको फायदा हुआ है। औपनिवेशिक ताकत के एक उत्तराधिकारी के रूप में भारत को स्वयं के घोषित किए जाने और उसकी नीतियों को लगातार लागू करने की भारतीय अवधारणा को स्पष्ट करते हुए हू ने कहा कि इस कारण “ तिब्बत संबंधी मसले और चीन-भारत के बीच सीमा विवाद लगातार बढ़ता गया और यहां तक कि आज भी, समय-समय पर, ये दोनों समस्याएं चीन-भारत संबंधों की स्थिरता में चुनौती बनी हुई हैं।” उन्होंने गलवान घाटी में दोनों देश की सेनाओं के बीच संघर्ष को उसका एक ताजा उदाहरण बताया।
भारत-चीन संबंधों के व्यापक आयाम पर चर्चा करते हुए हू ने दृढ़ता से कहा कि सीमा मसले से ज्यादा जटिल मसला प्रभाव और दखल का है, और इस क्षेत्र में चीन, भारत और उनके पड़ोसी देशों से संबंध जुड़े हुए हैं। जैसे ही, भारत और चीन की राष्ट्रीय ताकत बढ़ती है, इन “दो बड़ी क्षेत्रीय ताकतों का एक क्षेत्र में उनके परस्पर हित एक दूसरे को आच्छादित कर लेते हैं।”
इस परिप्रेक्ष्य में, उन्होंने दावा किया कि, “दुर्भाग्यवश, भाजपा द्वारा लागू की जा रही मुनरोवादी नीतियां चीन के बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव (बीआरआइ) से टकरा गई हैं”। चीन की इस योजना से भारत के अनेक पड़ोसी देशों की बढ़ती सहभागिता के साथ दोनों देशों के बीच बढ़ती प्रतिस्पर्धा ने दक्षिण एशिया और उत्तरी हिंद महासागर की क्षेत्रीय व्यवस्था को अपने में समेट लिया है। उन्होंने “चीन की दक्षिण एशिया नीति के संदर्भ में अतिप्रतिक्रियावादी” होने की भारत की प्रवृत्ति को एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण बाहरी कारक के रूप में वर्णन किया, जिसने भारत के पड़ोसी देशों में आंतरिक राजनीतिक अशांति को बढ़ावा दिया। उदाहरण के लिए उन्होंने कई देशों के नाम की सूची दी, “नेपाल की सीमा को बंद करना (सितंबर 2015 से जनवरी 2016)”, “श्रीलंका में (दिसंबर 2014 से जनवरी 2015) चीन समर्थक सत्ता को विभाजित करना)”, “ भूटान के राष्ट्रीय चुनावों में हस्तक्षेप के जरिए उसकी आंतरिक राजनीति में चीन समर्थक रुझानों को मजबूती से काट देना (2013 और 2018 में)” और “मालदीव में चीन समर्थक सरकार को गिराना (2019)”।
हू शीशेंग ने समझाया कि “चीन-भारत संबंध में 5 “T” गहरे स्तर पर दिक्कतें करते हैं। इनमें “तिब्बत मसला, टेरिटॉरी विवाद, थर्ड पार्टी फैक्टर, ट्रेड असंतुलन और ट्रस्ट डिफिसिट।” उन्होंने कहा,“ भिन्न-भिन्न मसलों ने भिन्न-भिन्न समय पर द्विपक्षीय संबंधों में अलग-अलग प्रभाव डाले हैं।”
अपने निष्कर्ष में, हू शीशेंग ने कहा कि क्योंकि दोनों देश समान रूप से खाद्य संकट झेल रहे हैं और दूसरी बड़ी ताकतों के ताबेदार न होने के लिए प्रतिबद्ध हैं, उन्हें “भविष्य में अपने संबंधों के विकास के लिए एक स्थिर और दूरगामी रास्ता” अख्तियार करने की आवश्यकता है। सघन और मित्रवत संबंध के लिए किसी काम के उल्लेख से बचते हुए उन्होंने सुझाव दिया कि “दोनों देशों को अपने संबंधों को एक ही समय में दो लेनों में चलने वाली कारों के सदृश्य निर्माण करना है, जिसे किसी संभावित दुर्घटना से बचने के लिए अपनी-अपनी लेन में ही चलना है”। अगर यह हुआ, तो उनका मानना है कि चीन-भारत संबंध अगले 70 वर्षों में काफी सहज होंगे।
ग्लोबल टाइम्स (17 दिसंबर) में प्रकाशित अपने दूसरे आलेख में, हू शीशेंग भारत के बारे में अधिक नकारात्मक और विध्वंसकारी दृष्टिकोण का सुझाव देते हैं। सीसीपी के स्वामित्व वाला यह इस प्रकाशन में लेख के प्रकाशन के लिए उच्चस्तरीय अनुमति की दरकार होती है।
इस आर्टिकल में कहा गया है कि भारत का बहुआयामी लोकतंत्र “सर्वाधिक रूप से पश्चिमपरस्त और चीनी फोबिया से ग्रस्त” है और भारत ने संतुलित दृष्टिकोण का परित्याग कर दिया है। हू ने कहा कि भारत को बहुस्तरीय व्यवस्था में दिलचस्पी घट गई है, जहां चीन एक अग्रणी भूमिका निभाता है, वहां भारत का रुख चीन के उद्भव और विकास में टांग अड़ाना रहता है। उन्होंने ब्रिक्स और एससीओ में आंतरिक एकता को बढ़ावा न देने और उन्हें अंदर से तोड़ने की कोशिश करने के लिए भारत की आलोचना की। उन्होंने रीजनल कंप्रिहेंसिव इकोनामिक पार्टनरशिप (आरसीईपी) से भारत के कदम खींचने की बात कही और कहा कि इस वजह से वह वहां दखलकारी भूमिका निभाने से वंचित हो रहा है।
हू ने कहा कि भारत चाहता है कि वह विकासशील विश्व का नेता बने। हालांकि भारत और चीन के बीच विभिन्न मसलों, जैसे क्षेत्रीय, वैश्विक प्रशासन को लेकर मतभेदों का पाठ चौड़ा होता जा रहा है तथा “चीन-भारत सहयोग का अनुकूल वातावरण धीरे-धीरे निस्तेज हो रहा है।”
हिंद महासागर को विवाद के एक अन्य दूसरे क्षेत्र के रूप में पहचान की गई है, जहां भारत स्वयं को सकल सुरक्षा मुहैया कराने वाले देश के रूप में अपनी पहचान कराना चाहता है लेकिन चूंकि बीआरआइ के चलते वह इस काम को अकेले नहीं कर सकता, लिहाजा वह अमेरिका हिंद-प्रशांत के रणनीतिक ढांचे में सहयोगी होने की कोशिश कर रहा है। यह कहते हुए कि चीन के विरुद्ध विचारधारात्मक हमले के लिए अमेरिका तथा पश्चिमी देशों के साथ खड़ा होने की भारतीय राजनीतिक अभिजन (इलीट) की प्रवृत्ति रही है, हू ने कहा कि वह अमेरिका और पश्चिमी मूल्य प्रणालियों के साथ अपने को जोड़ने पर जोर देते हैं। भारत के दृष्टिकोण में चीन उसका सबसे बड़ा भू-राजनीतिक प्रतिद्वंदी है और विकास को लेकर चीन-भारत सहयोग या अंतरराष्ट्रीय मसले इस वास्तविकता को नहीं बदल सकते। हू शीशेंग ने अपने निष्कर्ष में कहा कि भारत छोटे स्तर पर बहु आयामी मेकैनिज्म के प्रति इच्छुक नहीं रहा, जहां चीन एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और भारत इसके बजाय अमेरिका और पश्चिमी देशों के साथ बहुआयामी मैकेनिज्म को बढ़ावा देने में ज्यादा उत्सुक है।
पीएलए द्वारा संरक्षित वेबसाइट पर 24 दिसम्बर को एक अज्ञात लेखक के नाम से छपे एक दूसरे आलेख में दावा किया गया है कि “भारतीय सेना अगले वर्ष (चीन को) परेशान करने की लिए बस मौके का इंतजार कर रही है” और “वह संघर्ष इस साल के बनिस्बत बहुत बुरा होगा”। लेख दावा करता है कि “चीन और भारत ने विवादित सीमा क्षेत्र में लम्बे समय तक चलने वाली भिड़ंत के लिए अपने को तैयार कर लिया है”। इस पर जोर देते हुए कि “चीन भारत का दुश्मन होना नहीं चाहता, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वह अपनी संप्रभुता से समझौता कर लेगा”, इसमें आगे कहा गया है,“चीन शांति से रहेगा, लेकिन वह पीछे नहीं हटेगा”। लेख यह भी दावा करता है कि “भारत की पार्टी (भाजपा) की मजबूत हिंदू राष्ट्रवादी विचारधारा” के चलते और अभिजन रणनीतिक चिंतन के साथ-साथ चीन को नियंत्रित करने के अमेरिकी लक्ष्यों के साथ, “भारत-चीन तनाव को अगले अनेक सालों तक जारी रहने संभावना है”।
लेख में परिकल्पना की गई है कि अप्रैल में स्थितियां सुधरेगी सीमा पर भिड़ंत होगी और भारतीय सेना मई के पहले ज्यादा सक्रिय होगी। “भारतीय सेना का मकसद पूरी तरह जंग का ऐलान करना नहीं है, बल्कि उसकी कोशिश व्यापक स्तर के युद्ध की तैयारी करते हुए फिलहाल घुसपैठ के जरिए और छिपकर हमला करने के साथ सामरिक रूप से महत्वपूर्ण चोटियों पर नियंत्रण करना है”। लेख में आगे कहा गया है,“यह बहुत संभव है कि दोनों देश युद्ध के पैमाने में विस्तार करेंगे”, जो अगले साल के मध्य में स्थितियों पर नियंत्रण को और दुरूह बना देगा।
इस लेख में सुझाव दिया गया है कि इस इलाके में “भारतीय सेना को रोकने तथा स्थिति को स्थिर बनाए रखने के लिए” पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) को चाहिए कि वह बसंत ऋतु की शुरुआत तक अपनी मैकेनाइज यूनिटों को यहां तैनात कर दे। लेख में कहा गया है कि “बातचीत की तुलना में सैन्य प्रतिरोध हमेशा महत्वपूर्ण होता है और पीएलए, भारतीय सेना की तुलना में “एक बेहतर सैन्य संगठन, बेहतर प्रशिक्षण, ऊंचे नैतिक मूल्य और बेहतर उपकरणों से लैस है”। लेख में दृढ़तापूर्वक कहा गया है कि “पाकिस्तान के साथ मिल कर चीन व्यापक स्तर पर संयुक्त अभियान छेड़ सकता” है, और भारतीय सेना के दावे के बावजूद वह दोनों मोर्चों पर लड़ने में असमर्थ है।
लेख के निष्कर्ष में कहा गया है, “ भारत ने चीन के साथ लड़ना पसंद किया है, तब हमें भी इसके लिए अवश्य ही तैयार रहना चाहिए। इस लंबे समय तक चलने वाले खेल में भारत को अवश्य ही बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी। मोदी के गलत आकलनों और जयशंकर की रणनीति के चलते भारत के कई दशक बर्बाद हो जाएंगे।”
इन आलेखों के प्रकाशन से भारत के साथ चीन के लंबे संबंधों को लेकर उसके नजरिये का पता चलता है। सीआइसीआइआर की अधिकारिक पत्रिका में हू शीशेंग के स्पष्टवादी आलेख का प्रकाशन महत्वपूर्ण है और यह कम से कम चीन की खुफिया प्रतिष्ठान के दृष्टिकोण को प्रतिबिंबित करेगा। यह बीजिंग की महत्वकांक्षा की भी स्पष्ट पुष्टि करता है।
Translated by Dr Vijay Kumar Sharma (Original Article in English) [3]
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[1] https://www.vifindia.org/article/hindi/2021/february/10/bhaarat-ko-kis-najarie-se-dekhata-hai-cheen-ek-aadhikaarik-cheenee-aakalan
[2] https://www.vifindia.org/author/jayadeva-ranade
[3] http://www.vifindia.org/article/2021/january/02/an-authoritative-chinese-assessment-of-how-china-views-india
[4] https://www.aninews.in/news/national/general-news/breakthrough-in-sight-in-india-china-military-stand-off-on-lac-india-moving-ahead-cautiously20201108164741/
[5] http://www.facebook.com/sharer.php?title=भारत को किस नजरिए से देखता है चीन एक आधिकारिक चीनी आकलन &desc=&images=https://www.vifindia.org/sites/default/files/Chinese-Indian-Flags_0.jpg&u=https://www.vifindia.org/article/hindi/2021/february/10/bhaarat-ko-kis-najarie-se-dekhata-hai-cheen-ek-aadhikaarik-cheenee-aakalan
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