प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र संघ की 75वीं आम सभा को संबोधित करते हुए कहा कि संयुक्त राष्ट्र संघ का वर्तमान स्वरूप और संरचना 1945 के विश्व को प्रतिबिम्बित करती है। लिहाजा, यह 21वीं सदी के विश्व की चुनौतियों का सामना करने के लिए पर्याप्त नहीं है। प्रधानमंत्री ने संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में चलाये जाने वाले शांति स्थापना के प्रयासों में भारत की सक्रिय भागीदारी का उल्लेख करते हुए इस विश्व संस्था के प्रति भारत के योगदानों को रेखांकित किया। उन्होंने बल देकर कहा कि दुनिया की 18 फीसद आबादी वाले देश भारत को दुनिया के बारे में निर्णय लेने की प्रक्रिया का हिस्सा अवश्य ही बनाया जाना चाहिए। मोदी का यह उल्लेख संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के दायरे का विस्तार कर भारत को उसका स्थायी सदस्य बनाने और दुनिया के बड़े लोकतंत्र को उसमें सहभागी बनाने को लेकर था। यह गौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार की आवश्यकता पर पिछले 3 दशकों से विमर्श का दौर जारी है, लेकिन इसका कोई नतीजा नहीं निकला है।
संयुक्त राष्ट्र संघ इस साल अपनी 75 वीं वर्षगांठ मना रहा है। यह अपनी पूर्ववर्ती संस्था से ज्यादा टिकाऊ साबित हुआ है, जो महज दो दशक तक ही अपने अस्तित्व में रह सकी थी। संयुक्त राष्ट्र संघ लीग की तुलना में विश्व का अधिक समुन्नत प्रतिनिधित्व करता है। लीग ऑफ नेशन में औपनिवेशिक देश भी शामिल थे। इसकी तुलना में संयुक्त राष्ट्र की स्थापना इसके सदस्य देशों की समान संप्रभुता के सिद्धांत पर की गई थी। इसकी एक अनोखी वैधता है, जो इसको अन्य संगठनों से खास बनाती है। यह एकमात्र ऐसी संस्था है, जिसका सदस्य पूरी दुनिया के देश हैं। हालांकि यह साल संयुक्त राष्ट्र के सामने कुछ चुनौतियाँ भी पेश की हैं। यह वर्षगांठ ऐसे समय मनाई जा रही है, जब यह समूचा विश्व बहुपक्षीय-बहुध्रुवीय हो रहा है। वैश्विक महामारी कोरोना ने अंतरराष्ट्रीय वातावरण को ज्यादा कठोर बना दिया है। इस कारण दुनिया की तमाम सरकारों का सर्वाधिक ध्यान जन-स्वास्थ्य की उभरती समस्याओं और राजस्व के हो रहे नुकसान को कम करने की तरफ लगा है। ऐसे में लोगों की तात्कालिक जरूरतों की पूर्ति करने में राष्ट्रीय राजस्व को संरक्षित करना सरकारों की पहली प्राथमिकता हो गयी है।
वास्तव में बहुपक्षीयता की तरफ से घुमाव के रुझान इस वैश्विक महामारी के प्रकोप के पहले से ही आने लगे थे। यह केवल अमेरिका तक ही सीमित नहीं रहा था। ब्रेक्जिट एकीकृत यूरोप के विचारों को चुनौती देता है। चीन इस क्षेत्र में पहले ही पांव बढ़ा चुका है। आज चीन संयुक्त राष्ट्र संघ की 14 विशेष एजेंसियों में से 4 एजेंसियों का अगुवा है। ये एजेंसियां हैं-एफएओ (कृषि), यूएनआइडीओ (उद्योग), आइटीयू (टेलीकॉम) और आइसीएओ (नागरिक उड्डयन)। चीन संयुक्त राष्ट्र की पांचवीं संस्था वर्ल्ड इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी ऑर्गेनाइजेशन (डब्लूआईपीओ)1 के अध्यक्ष पद का चुनाव मामूली अंतर से हार गया था। इस गिनती में डब्ल्यूएचओ जैसी वैश्विक एजेंसियां शामिल नहीं है, जिनके चीनी समर्थक निदेशक ने पहले तो वैश्विक महामारी को ही खारिज कर दिया था और फिर इसके वायरस के फैलने में चीन की किसी भूमिका से इनकार कर दिया था।
चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने संयुक्त राष्ट्र की 75वीं आमसभा को अपने संबोधन में कहा,’हमलोग साझा सरोकारों के साथ परस्पर जुड़े वैश्विक गांवों में रह रहे हैं।’2 उन्होंने आगे कहा,‘कोविड-19 हमें यह याद दिलाता है कि आर्थिक वैश्विकीकरण एक निर्विवादित वास्तविकता और एक एतिहासिक रुझान है।’3 हालांकि, चीन के वैश्विक गांव की परिकल्पना वह है, जिसमें उसकी हुकूमत चले। यह नियम-कायदे पर चलने वाले विश्व में स्वीकार नहीं किया जा सकता।
राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने अपने भाषण में कोरोना के उद्भव और इसके संक्रमण में चीन के कसूर का जिक्र किये बिना कोविड-19 का विस्तार से उल्लेख किया। जैसा कि अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने अपने भाषण में कहा,’चीन ने घरेलू स्तर पर लोगों की आवाजाही तो रोक दी लेकिन अंतरराष्ट्रीय उड़ानों को जारी रखा।4 इसके परिणामस्वरूप, कोरोना वायरस को चीन से दूसरे देशों में फैलने का मौका मिला। राष्ट्रपति शी ने ‘संयुक्त राष्ट्र के कोविड-19 वैश्विक मानवतावादी उत्तरदायी योजना’ में 50 मिलियन अमेरिकी डॉलर की सहायता दी है, जो पहले घोषित की गई इतनी ही सहयोग राशि के अलावा है।5 चीन की समृद्धि और और जिस स्तर पर उसने समस्या को जन्म दिया है, उनको देखते हुए इतनी धनराशि बहुत ही कम है। शी ने अपने संबोधन में इसका उल्लेख किया कि चीन अगले 2 सालों के दौरान विकासशील देशों को 2 बिलियन डॉलर की सहायता देने की अपनी प्रतिबद्धता का सम्मान करेगा। लेकिन यह प्रतिबद्धता पिछले सालों के बारे में है।
शी के भाषण में चीन की बेल्ट और रूट इनीशिएटिव बीआरआइ का आश्चर्यजनक रूप से कोई उल्लेख नहीं था। बीआरआइ कभी भी सहयोग का बहुपक्षीय ढांचा नहीं रहा। इसमें द्विपक्षीय कर्ज-करार का समावेश है। चीन का अति उत्साह इस तथ्य को नजरअंदाज करता प्रतीत होता है। वैश्विक मंदी को देखते हुए कुछ ही देश कर्ज की दुर्वह शर्तों को स्वीकार कर सकते हैं या निवेश पर लाभ कमा सकते हैं, जैसा कि चीनी कंपनियां चाहती हैं। चीन अपने इस धन को लेकर काफी सावधान है।
देशों व उनके शासन अध्यक्षों ने 75 वीं वर्षगांठ के मौके पर एक घोषणा को पारित किया है।6 इस घोषणा में कहा गया है, “हमारी दुनिया वह नहीं है, जिसकी परिकल्पना हमारे संस्थापकों ने 75 साल पहले की थी। आज का विश्व बढ़ती असमानता, निर्धनता, भूख, सशस्त्र संघर्ष, आतंकवाद, असुरक्षा, जलवायु परिवर्तन और महामारी से ग्रस्त है।” घोषणा में ‘किसी को भी पीछे नहीं रहने देने’, ‘हमारी धरती की रक्षा करने’, ‘शांति को बढ़ावा देने तथा संघर्ष को रोकने’, ‘लैंगिक संतुलन’, ‘डिजिटल कोऑपरेशन’ और ‘संयुक्त राष्ट्र संघ को समुन्नत करने’ की प्रतिबद्धता जतायी गयी है। जाहिर है, यह बहुत बड़ा काम है।
संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव ने अपने भाषण में आज की विश्व संस्था के सामने उत्पन्न उन चुनौतियों का उल्लेख किया। उनका आकलन था कि निर्धनता में वृद्धि हो रही है और मानवीय विकास सूचकांक में ह्रास हो रहा है। उन्होंने उल्लेख किया कि संस्था के सदस्य देश सतत विकास के अपने लक्ष्य को हासिल करने में पिछड़ रहे हैं। उन्होंने जलवायु परिवर्तन की समस्या और साइबर स्पेस के बढ़ते खतरों के मसले को हल करने की आवश्यकता पर बल दिया। संयुक्त राष्ट्र संघ आम सभा के घोषणा पत्र ने और संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने भी जोर दिया कि संयुक्त राष्ट्र के वित्तीय संसाधन को निरंतरता के आधार पर रखने की जरूरत है। संयुक्त राष्ट्र संघ का बजट दो प्रकार की वित्तीय सहायता पर निर्भर है- सदस्य देशों के आकलन और स्वैच्छिक सहयोग पर आश्रित है। इनमें पहला तो आवंटन के सर्वाधिक संभावित स्रोत है। हालांकि स्वैच्छिक सहयोग संयुक्त राष्ट्र संघ की विशेष एजेंसियां मानवीय और विकासात्मक गतिविधियों के आधार पर बनता है। अपने स्वभाव के मुताबिक यह बिल्कुल अनिश्चित आधार पर है। कारपोरेशन का सहयोग-अनुदान केंद्रीय कार्यक्रमों के प्रति पूर्वाग्रही ही होते हैं। तय योगदान के लिए ‘संपूर्णता में और समय पर’ भुगतान ही बेहतर विकल्प है। यह अभी की संयुक्त राष्ट्र के लिए संसाधनों फिर से निर्धारित करने की आवश्यकता है। ऐसे में भारत को इस विश्व संस्था में अपनी भूमिका और आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए अधिक जवाबदेही लेने की आवश्यकता है।
तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगन ने संयुक्त राष्ट्र आम सभा को पहले दिन संबोधित किया।7 इस दौरान उन्होंने अपने देश और पड़ोसी देशों के प्रति अपनी सरकार की उपलब्धियों का उल्लेख किया। इस क्रम में उन्होंने सीरिया, कुर्द समस्या, लीबिया, यमन, फिलिस्तीन तथा पूर्वी भूमध्य सागर में तुर्की के विवाद का जिक्र किया। सीरिया में तुर्की के दखल ने उसे रूस के आमने-सामने ला खड़ा किया है। लीबिया में और पूर्वी मध्यसागर में, ग्रीस और साइप्रस के साथ तुर्की की भिड़ंत हो गई है। यूरोपियन यूनियन ग्रीस और साइप्रस की मदद कर रहे हैं। उनके भाषण में यमन और फिलिस्तीन के उल्लेख ने सऊदी अरब और खाड़ी के देशों को परेशान कर दिया। फ्रांस के राष्ट्रपति मैक्रोन ने संयुक्त राष्ट्र आम सभा में दिए अपने भाषण में, पूर्वी भूमध्य सागर में ग्रीक और साइप्रस एक्सक्लूसिव इकोनामिक जोन में तेल शोधन के लिए अपने जहाज भेजने के लिए तुर्की की गतिविधियों की तीखी आलोचनाएं की।8
इसी तरह, संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) के विदेश मंत्री शेख अब्दुल्लाह बिन जायद ऑल नहयन ने भी तुर्की की आलोचना की। नहयन ने कुछ देशों द्वारा अरब के मामलों में जबरदस्त हस्तक्षेप के लिए लानत-मलामत की जिनकी वजह से वहां संघर्ष और विवाद उत्पन्न होता है, और जो अरब क्षेत्र तथा हॉर्न ऑफ अफ्रीका9 (पूर्वी अफ्रीका का एक प्रायद्वीप) में औपनिवेशिक शासन तथा दखल की ऐतिहासिक विभ्रम के शिकार हैं। दरअसल, यह एर्दोगन की उच्च महत्वाकांक्षा का अपरोक्ष रूप से उल्लेख था, जो ऑटोमन साम्राज्य के पुनर्जीवन का मंसूबा रखते हैं। इसके अलावा, उन्होंने सीधे तौर पर तुर्की का उल्लेख करते हुए लीबिया में तुर्की के सैन्य दखल पर अपने देश की गहरी चिंता जताई।10
एर्दोगन ने ‘कश्मीर समस्या’ का जिक्र किया, जिसे उन्होंने ‘दक्षिण एशिया में स्थिरता और शांति की कुंजी’ बताया। उन्होंने जम्मू और कश्मीर की ‘खास हैसियत’ के ‘उन्मूलन’ का उल्लेख किया और इसे ‘समस्याओं को और जटिल बनाने वाला’ बताया।11 एर्दोगन ने ‘संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों’ और ‘कश्मीर की जनता की अपेक्षाओं’ का उल्लेख किया।12 उन्होंने अपने संबोधन में पाकिस्तान के लगभग सभी परंपरागत बिंदुओं को जिक्र किया, जबकि तुर्की के राष्ट्रपति के बयान का कोई खास मतलब नहीं है क्योंकि तुर्की ने संयुक्त राष्ट्र आम सभा की अध्यक्षता संभाली है।
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने अपने संबोधन में कश्मीर को एक ‘परमाणु संघर्ष का चरम बिंदु’ करार दिया। यह कश्मीर की तरफ दुनिया का ध्यान खींचने के लिए पाकिस्तान का पिछले दो दशकों से भी ज्यादा समय से चले आ रहे रणनीति का हिस्सा है। पाकिस्तान के हुकुमरानों को जब भी अपने घर में कोई समस्या आती है तो वे कश्मीर का मसला उठा देते हैं। पाकिस्तान में सभी राजनीतिक दलों की कान्फ्रेंस ने इमरान खान को अपदस्थ करने का अभियान छेड़ने का निर्णय लिया है। प्रधानमंत्री इमरान के लिए सबसे ज्यादा हैरान करने वाली बात है, सेना अध्यक्ष जनरल बाजवा का विपक्षी नेताओं को दिया जाने वाला भोज। यद्यपि उस भोज में विदेश मंत्री कुरैशी मौजूद थे और इस भोज को खुले तौर पर पाकिस्तान परंपरागत दृष्टिकोण से अलग हटते हुए गिलगित बालटिस्तान को पाकिस्तान के पांचवें राज्य के रूप में मान्यता देने पर राष्ट्रीय सहमति बनाने का उपक्रम बताया गया था, लेकिन निश्चित यह असाधारण कवायद थी। जनरल बाजवा ने सियासत में सेना की दखलअंदाजी करने की किसी भी मंशा से इनकार किया, लेकिन घटनाएं अवधारणाओं को बल देती हैं। सरकार और विपक्ष के बीच सेना की समान हैसियत उस हुकूमत के लिए खतरे की घंटी है, जो खुद सेना के सहयोग पर टिकी है।
संयुक्त राष्ट्र की आम 75वीं आम सभा के घटना प्रधान होने की संभावना है। वैश्विक महामारी के चलते आई वैश्विक मंदी, बढ़ते ध्रुवीकरण और विश्व के विभिन्न भागों में होने वाले संघर्षों के इस कठिन समय में इस विश्व संस्था का मकसद भिन्न नहीं हो सकता। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थाई सदस्य के रूप में भारत के 2 वर्षों का कार्यकाल अगले साल जनवरी में शुरू करेगा। यह भारत को अपेक्षित घटनाओं को आकार देने का अवसर प्रदान करेगा।
Translated by Dr Vijay Kumar Sharma (Original Article in English) [4]
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[2] https://www.vifindia.org/auhtor/shri-d-p-srivastava
[3] https://gadebate.un.org/generaldebate75/en/
[4] https://www.vifindia.org/2020/october/03/united-nations-at-75
[5] https://www.un.org/sites/un2.un.org/files/brandingpackage.jpg
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