जो वक्त पर काम आए वही असल दोस्त है। अभी हाल ही में ईरान के राष्ट्रपति रूहानी ने अपने तथाकथित रणनीतिक सहभागियों और दोस्तों पर बिफर पड़े जो इस वैश्विक महामारी के दौरान भी अमेरिकी प्रतिबंधों के जारी रखने पर उसके खिलाफ खड़े नहीं हो सके थे। ईरान इस क्षेत्र में कोविड-19 से सर्वाधिक पीड़ित देश है। अमेरिकी प्रतिबंध झेल रहा यह देश दोस्तों और बाकी दुनिया से एक बेहतर समझदारी और समानुभूति की उम्मीद कर रहा था कि जब मनुष्यता खतरे में हो सिद्धांतों और पक्षों की बात तर्कसंगत तरीके से परे रखी जा सकती है। रूहानी ने शिकायती लहजे में कहा, “पिछले महीनों से जब कोरोना वायरस हमारे मुल्क में पहुंचा, हमारी मदद के लिए कोई आगे नहीं आया और अगर अमेरिका के पास जरा भी इंसानियत बची हुई होती और सोचने की शक्ति होती तो वह कोरोना महामारी को देखते हुए प्रतिबंध हटाने का प्रस्ताव खुद ब खुद रखता जो हमारे खिलाफ पिछले साल से लागू है।” उन्होंने आगे कहा कि ट्रंप ने उन पर ज्यादा से ज्यादा दबाव डालने की रणनीति के चलते ही नए प्रतिबंधित थोपे हैं। उन्होंने बड़ी आसानी से देश के सुप्रीम नेता अली खामेनेई द्वारा मार्च में की गई इस अपील को ठुकरा दी कि कोरोना वायरस का सामना करने के लिए ईरान पर जारी प्रतिबंध में ढील दी जाए। खामेनेई ने उन्हें “धोखेबाज और झूठा बताया”। लेकिन ईरान के इस गुस्से और हताशा ने उसके दोस्तों को ज्यादा निशाना बनाया।
भारत और ईरान के संबंध, यद्यपि ऐतिहासिक, रणनीतिक, सभ्यतागत, ऊर्जा और संयोजकता के प्रति उन्मुख है, वह भी अमेरिका के ईरान के ख़िलाफ़ लगाए गए एकतरफा प्रतिबंध की आंच से नहीं बच सका। सिद्धांतत: भारत एकतरफा प्रतिबंधों को मान्यता नहीं देता जब तक कि वह संयुक्त राष्ट्र द्वारा अनुमोदित न हो। लेकिन सर्वशक्तिशाली ताकतों के संदर्भ में भू-रणनीति के अपने आयाम होते हैं। ऐसी स्थितियों ने भारत की रणनीतिक स्वायत्तता और उसकी अंतरराष्ट्रीय कद-काठी और साख को जोखिम में डाल दिया है। यद्यपि अमेरिका ने इस उम्मीद में भारत को ईरान से तेल आयात करने की कुछ छूट दी थी कि तेहरान जेसीपीओए परमाणु संधि पर बातचीत करने के लिए पुनः राजी हो जाएगा। लेकिन द्विपक्षीय स्थितियां तनावपूर्ण होती गईं और इस साल 3 जनवरी को ईरानी जनरल कासिम सोलेमनी की इराक में अमेरिकी ड्रोन हमले में हत्या किये जाने के बाद उनके संबंध विस्फोटक स्तर पर पहुंच गए। लेकिन दोनों देशों ने फिर भी समझदारी से काम लिया और उनमें जंग नहीं हुई। इसके बाद यह वैश्विक महामारी आ गई।
इस बीच, ईरान अमेरिका में राजनीति सत्ता बदलने का इंतजार करता रहा कि परमाणु संधि पर पुनर्विचार होगा और उसके खिलाफ लगे प्रतिबंध हटा लिए जाएंगे। इस बीच, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में ईरान पर प्रतिबंध बढ़ाने के अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के डेमार्श काफी अंतरों से विफल हो गया। खास कर इसलिए कि इस मामले में उसकी अधिस्थिति सवालों के घेरे में थी। यह तथ्य है कि अमेरिका इस समझौते से बाहर हो गया था, जिसका वह आह्वान कर रहा था।
भारत के लिए ईरान की एक रणनीतिक अहमियत है। यह भारत को पाकिस्तान की सरहद को छुए बगैर ही अफगानिस्तान होकर मध्य-एशिया तक जाने का रास्ता देता है। नॉर्थ साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर (आईइनएसटीसी) के रास्ते तो रूस और यूरोप तक पहुंचा जा सकता है। ईरान के चाबहार बंदरगाह जिसका निर्माण और विकास भारत कर रहा है, यह उसकी सुरक्षा और कनेक्टिविटी के लिहाज से बेहद अहम है क्योंकि चीन पाकिस्तान में बीआरआई-सीपीईसी प्रोजेक्ट के तहत ग्वादर बंदरगाह तक पहुंच गया है। यद्यपि चाबहार प्रोजेक्ट को अमेरिकी प्रतिबंध से अलग रखा गया है, पर उसके निर्माण की प्रक्रिया बेहद धीमी है। इस बीच, भारत ने बदर अब्बास के अलावा खुद को आईएनएसटीसी में शामिल किए जाने की मांग की है। हालांकि वैश्विक महामारी और प्रतिबंधों तथा चीन-अमेरिका-ईरान की दुश्मनी और क्षेत्र की बदलती राजनीतिक गत्यात्मकता ने मिलकर चीन के नए समीकरणों को रचा है, जिसके चलते चीन और ईरान ने एक समग्र आर्थिक और सुरक्षा समझौता (कंप्रिहेंसिव इकोनामी एंड सिक्योरिटी एग्रीमेंट) पर दस्तखत किया है। इसके अंतर्गत चीन ऊर्जा संबंधित बंदरगाह के विकास के साथ संरचनात्मक विकास में 400 बिलियन डॉलर राशि खर्च करेगा। दीर्घावधि तक हाइड्रो-कार्बन की आपूर्ति समझौते का हिस्सा है। वैसे ईरान बीआरआई का समर्थन करता है।
भारत में चाबहार-जाहिदान रेलवे प्रोजेक्ट पर काम करने में देरी कर दी और ईरानियों ने इसे अपने तरीके से पूरा करने का फैसला किया। इसने इस संदेह को जन्म दिया कि ईरान अलग-अलग कारणों से अमेरिकी प्रतिबंध झेल रहे देशों जैसे चीन, रूस और पाकिस्तान के साथ जा मिलेगा और एक नये भू-राजनीतिक ध्रुव की रचना करेगा। इस क्षेत्र में भिन्न-भिन्न मोर्चों पर बने मौजूदा गतिरोध की यही वजह है और जो भारत के सामरिक हितों को कमजोर कर सकता है।
भारत और ईरान के बीच उच्च स्तरीय बैठकों और विचारों के आदान-प्रदान में कोई कमी नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2016 में तेहरान दौरे के बाद से में ईरान और अफगानिस्तान के साथ एक त्रिपक्षीय समझौता हुआ था। इसके बाद ईरान के राष्ट्रपति रूहानी फरवरी 2018 में भारत आए थे, तब “टूवार्डस प्रोस्पेरिटी थ्रू ग्रेटर कनेक्टिविटी” नाम से जारी एक संयुक्त वक्तव्य ने रणनीतिक साझेदारी और उसके विस्तार को केंद्र में ला दिया था। लेकिन भारत ने ईरान से तेल का आयात 11 से 12 फ़ीसद से घटाकर लगभग शून्य कर दिया था, तब जबकि ईरान के विदेश मंत्री जावेद जरीफ ने 2019 के आम चुनाव से ठीक पहले भारत का दौरा किया था। भारत के इस कदम ने ईरानियों को बुरी तरह निराश कर दिया था जबकि वह भारत के हालात को समझने का प्रयास कर रहे थे। अब यह तो विवाद का विषय है कि क्या प्रतिबंध से बदतर हुए हालात को संभालने का कोई दूसरा विकल्प भी है? लेकिन किसी भी देश के लिए उसका राष्ट्रीय हित सबसे महत्वपूर्ण है और यह बदलते वैश्विक शक्ति समीकरणों से परिभाषित और उसके मुताबिक तय होता है।
गत सप्ताह मास्को में शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गनाइजेशन (एससीओ) की बैठक में भाग लेकर लौटते हुए रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह द्विपक्षीय सहयोग और क्षेत्रीय स्थितियों पर ईरानी रक्षा मंत्री जनरल अमीर खतामी से बातचीत के लिए तेहरान में रुके थे। ईरान एससीओ में पर्यवेक्षक है। दोनों नेताओं ने बातचीत के नतीजों पर इत्मीनान जताया है। इसके पहले मास्को में, रक्षा मंत्री ने खाड़ी में बिगड़ती स्थितियों को लेकर बातचीत की थी और परस्पर समान आदर के साथ बातचीत के जरिए मनमुटावों को दूर करने की अपील की थी। दोनों देशों ने रक्षा सहयोग समझौता (डिफेंस कोऑपरेशन एग्रीमेंट) पर दस्तखत किया हुआ है। दोनों संयुक्त रूप से नौसेना अभ्यास भी कर चुके हैं और आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में सहभागी रहे हैं। बात केवल ऊर्जा कारोबार की ही नहीं है, ईरान होमरूज जलडमरूमध्य में रणनीतिक महत्व रखता है, जो ऊर्जा सुरक्षा और समुद्री रास्तों से वाणिज्य व्यापार की संभावनाओं के लिहाज से महत्वपूर्ण है। सामान्य हालात में रक्षा और सुरक्षा सहयोग की अपार संभावनाएं हैं। हालांकि यह दौरा ईरानियों की चिंताओं का अवश्य ही शमन किया होगा। उन्हें आश्वस्त किया होगा कि भारत ईरान के साथ संबंधों में रुचि लेगा और उसमें निवेश करेगा।
अफगानिस्तान में तेजी से बदलाव हो रहे हैं, जैसे ही अमेरिका वहां से अपनी सेना हटाएगा और तालिबान ताकत अर्जित करेगा, भारत और ईरान सामंजस्य और उनके दृष्टिकोण प्रमुख स्थान ले सकते हैं। क्षेत्र में चीन की बदलती पकड़, खासकर फारस की खाड़ी में उसके दखल को देखते हुए विविध क्षेत्रों में भारत की संलग्नता के लिए एक जबरदस्त रणनीति की दरकार होगी।
दिलचस्प बात है कि इसी क्रम में भारत के विदेश मंत्री डॉक्टर एस जयशंकर का दौरा हो रहा है। यह एक हफ्ते के भीतर उनका दूसरा दौरा है। इसके पहले उन्होंने विगत 9 सितंबर को मास्को जाने के रास्ते में ईरानी विदेश मंत्री के साथ लंच पर बातचीत की थी। इस तरह के संवाद थोड़े असामान्य किस्म के रही हैं, लेकिन संबंधों में आगे बढ़ने के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है। जरीफ ने ट्वीट किया, “भारतीय विदेश मंत्री@DrSJaishankar की तेहरान में आज बातचीत की मेजबानी कर खुशी हुई। द्विपक्षीय संबंधों और व्यापार के विस्तार पर गुफ्तगू हुई और अहम क्षेत्रीय मसलों राय-मशवरा किया गया। पड़ोसी देशों के साथ हमारे सक्रिय संबंध हमारी प्राथमिकता है।” ईरान ने अपने यहां रह रहे भारतीयों को कोविड-19 के दौरान सुरक्षित अपने वतन ले जाने में भारत की सहायता की थी।
विदेश मंत्री ने भी जरीफ से बातचीत को उत्पादक बताया है। अभी तक इस क्षेत्र में या कहीं भी भारत की नीति और व्यवहार समानता और संतुलन पर आधारित रही है, जिसकी व्यापक स्तर पर सराहना होती रही है। लेकिन चूंकि क्षेत्रीय गत्यात्मक में बड़े बदलाव आए हैं और अगले कुछ महीने जल विद्युत परियोजना का भविष्य निर्धारित करेंगे, भारत को बेहतर से बेहतर लाभ पाने के लिए ईरानियों को यह भरोसा दिलाना होगा और उनका संदेह दूर करना होगा कि एक उभरती शक्ति के मायने क्या है। ईरान भी भारत के साथ अधिक से अधिक जुड़ना चाहेगा क्योंकि हम संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के अस्थाई सदस्य हैं। द्विपक्षीय संबंधों में यह गुफ्तगू एससीओ शिखर सम्मेलन के दरमियान संबंधों को फिर से सही धुरी पर लाने के लिए सर्वोच्च नेताओं के बीच बैठक भी करा सकती है।
Translated by Dr Vijay Kumar Sharma (Original Article in English) [3]
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[3] https://www.vifindia.org/2020/september/14/iran-revisited-analysing-india-iran-relations
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