भारत ने पूर्ववर्ती जम्मू-कश्मीर राज्य को संविधान से मिला विशेष दर्जा खत्म करने के 5 अगस्त 2019 के अपने फैसलों से पूरी दुनिया को और शायद खुद को भी हैरत में डाल दिया। इस फैसले का एक साल पूरा होने पर यह समझने के लिए कि तब से अभी तक क्या बदला है और हालात आगे कैसे होने वाले हैं, जम्मू-कश्मीर में 30 साल से भी ज्यादा समय से चल रहे पाकिस्तान प्रायोजित छद्म युद्ध की गहरी जानकारी जरूरी है।
सबसे पहले यह बुनियादी बात समझनी होगी कि अनुच्छेद 370 और अनुच्छेद 35 ए के जरिये जम्मू-कश्मीर को इतने लंबे समय तक विशेष दर्जा क्यों मिला रहा। यह कहना भी सही हो सकता है कि अतीत में ऐसे मौके आए, जब इन अनुच्छेदों को खत्म किया जा सकता था। ऐसा ही एक मौका 1972 में आया था, जब जुलाई में शिमला समझौता होने से ठीक पहले हारा और बंटा हुआ पाकिस्तान अपने घुटनों पर आ चुका था। मगर ऐसा नहीं किया गया क्योंकि भारत ने 1971 में युद्ध के सीमित उद्देश्य तय कर दिए थे और पूर्व में जीत के जोश के बीच जम्मू-कश्मीर पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। जम्मू-कश्मीर पर राजनीतिक सर्वसम्मति की स्थिति फरवरी 1994 में भी पैदा हुई, जब भारत को जम्मू-कश्मीर में कथित मानवाधिकार उल्लंघन पर पाकिस्तान द्वारा गढ़ी गई अंतरराष्ट्रीय आलोचना का सामना करना पड़ा था। जम्मू-कश्मीर के सभी क्षेत्रों को भारत का अंग घोषित करने के लिए संसद के दोनों सदनों में 22 फरवरी 1994 को संयुक्त प्रस्ताव पारित किया गया था, जिसके बाद दोनों अनुच्छेदों को खत्म किया जा सकता था। पांच साल (1989-94) तक छद्म युद्ध झेलने के बाद भारत को यकीन हो जाना चाहिए था कि अलगाववाद का यह धीमा जहर पाकिस्तान प्रायोजित है। इस कारण यह गलत मानसिकता घर कर गई थी कि जम्मू-कश्मीर मुस्लिम बहुल है, इसलिए भारत से पूरी तरह अलग है और उसे आजादी मिलनी ही चाहिए, जिसके बाद वह पाकिस्तान में शामिल हो जाएगा। यही पाकिस्तान की असली साजिश थी।
1972 की ही तरह भारत में अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रियाएं और नतीजे झेलने का भरोसा पैदा नहीं हो पाया। उसने चुनाव तथा मुख्यधारा की राजनीति बहाल करने के अलावा बड़ी आंतरिक राजनीतिक पहलें नहीं कीं और पाकिस्तान की मंशा को सेना के सहारे मात देने के विकल्प से ही संतुष्ट हो गया। यह भूल भरा नजरिया था, जो सुरक्षा बलों द्वारा अक्सर पैदा किए गए मौके लपकने में नाकाम रहा और दिखावटी राजनीतिक प्रयास ही करता रहा, जिनसे कभी-कभार थोड़ी-बहुत उम्मीद ही पैदा हो सकी। यह उतार-चढ़ाव 2008 तक जारी रहा, जब अलगाववादियों और उनके आकाओं यानी पाकिस्तान में सरकार की डोर थामने वालों ने अपनी चाल बदली और आतंकवाद तथा आंदोलन का मिला-जुला हथियार इस्तेमाल करने लगे। भारतीय राजनीतिक मशीनरी को एक तरह से लकवा मार गया। अलगाववादियों को मना लेने की झूठी उम्मीद के कारण उन्हें गुपचुप सकारी समर्थन भी मिलता रहा। 2013 तक हालात और खतरनाक होने लगे, जब तयशुदा वैचारिक चरमपंथ वाला नया और युवा नेतृत्व सामने आ गया। जमीनी स्तर पर काम करने वालों के जिन गुप्त मगर गहरी पैठ वाले नेटवर्कों से सुरक्षा बल तथा राजनीतिक मशीनरी विशेष कानूनी प्रावधानों के बावजूद निपट नहीं पाई, वे नेटवर्क भारत के लिए बहुत भारी पड़े। सुरक्षा बलों ने जब भी आंतकवादियों और उनके आकाओं को पछाड़ा, इन नेटवर्कों ने ही उन्हें वापस खड़े होने में मदद की।
कई लोग दावा करते हैं कि 2014 में भाजपा संविधान के दोनों अनुच्छेदों को खत्म करने की तैयारी के साथ ही सत्ता में आई थी। इसमें कोई शक नहीं कि उसने इसे अपने घोषणापत्र में शामिल तो किया था मगर इस पर जल्द से जल्द काम करना होगा, यह अहसास राजनीतिक नेतृत्व को 2016 की घटनाओं से हुआ। एक के बाद एक आतंकी हमलों से अहसास हो गया कि पाकिस्तान का लक्ष्य आतंकवाद के नए रूप के साथ आतंकी अभियान को तेज करना है। जमीन पर काम करने वाले नेटवर्कों पर निशाना साधने का काम भारतीय प्रतिष्ठान ने पहली बार 2017 में गंभीरता से शुरू किया, जब ऑपरेशन ऑल आउट के जरिये बड़ी संख्या में आतंकियों का सफाया किया गया। पाकिस्तान ने फरवरी 2019 में पुलवामा हमले के जरिये दोबारा हावी होने की कोशिश की मगर इससे भारत सरकार को 5 अगस्त 2019 के आखिरी फैसलों तक आने में मदद ही मिली। खास होने के जिस अहसास ने लोगों को ‘आजादी का विचार’ दिया और समूचे छद्म अभियान का जो केंद्र था, उसे तगड़ा झटका लगा है मगर यह मानकर नहीं बैठ जाना चाहिए कि फैसले होने के साल भर के भीतर ही यह अभियान खत्म हो गया है।
दोनों संवैधानिक प्रावधानों को खत्म करने और राज्य को दो केंद्रशासित क्षेत्रों में बांटने के फैसले को अभी साल भर ही बीता है। क्या इतने में ही जम्मू-कश्मीर में बड़े पैमाने पर बदलाव की उम्मीद करना सही होगा? अक्सर दलील दी जाती है कि इन फैसलों ने जम्मू-कश्मीर की गरिमा को ठेस पहुंचाई है क्योंकि जनता को भरोसे में नहीं लिया गया। जम्मू के लोगों ने इसका विरोध नहीं किया और भारत समर्थक विचारों वाले ज्यादातर कश्मीरियों ने भी इसका विरोध नहीं किया। हालांकि उन्हें फैसलों के प्रति अपना समर्थन दिखाने में हिचक थी। 30 साल तक चला छद्म युद्ध कई तरह की भावनाओं को जन्म दे सकता है; भारत समर्थक तभी मुखर हो सकते हैं, जब उन्हें सत्ता की ओर से निश्चिंता का स्पष्ट भाव दिखेगा। उन भावनाओं को सही करने के लिए साहस की जरूरत भी थी। राजनीति जिस कदर बंटी हुई है, उसे देखते हुए बातचीत की प्रक्रिया का कोई भी नतीजा निकलने की संभावना नहीं थी।
अलगाववाद को पूरी तरह खत्म करने के प्रयास शुरू हुए अभी केवल एक साल बीता है और इतने में ही पूरा फायदा मिल जाने की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। भावनाएं बदलने लगी हैं और सब कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि हालात कैसे संभाले जाते हैं और इसके जवाब में पाकिस्तान से क्या कहा जाता है। 5 अगस्त 2019 के फैसलों के बाद साल का बाकी समय भरोसा बहाल करने के उपाय करने के बजाय इससे पैदा हुई हलचल को संभालने में ही निकलना था। कड़ी सर्दी ने मुश्किल पैदा की और बाद में कोविड-19 महामारी आ गई। लेकिन सीमित समय में जितने भी सुधार हो सकते थे, वे किए गए और उनके नतीजे भी दिखने लगे हैं। वाणिज्य और बुनियादी ढांचा क्षेत्रों में नई स्फूर्ति आ गई है।
भ्रष्टाचार के विरोध में जिस अभियान की अपेक्षा थी वह चलाया गया है और केंद्र तथा नई केंद्रशासित सरकार की अधिक निगरानी एवं जवाबदेही के तले यह अभियान और भी प्रभावी होता जाएगा। कराधान के कानून दुरुस्त किए गए हैं और लखनपुर पर लिया जाने वाला टोल भी खत्म कर दिया गया है। पंचायतों पर ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है और उन्हें अधिक काम तथा धन सौंपा गया है। टोल खत्म कटॉल चौकी खत्म कर दी गई है। मूल निवास स्थान यानी डॉमिसाइल के नए कानूनों में बाकी भारत के लोगों को जम्मू-कश्मीर में बेरोकटोक बसने तथा संपत्ति खरीदने की इजाजत नहीं दी गई है। नए कानूनों को ज्यादातर लोगों का समर्थन मिला है क्योंकि स्त्री-पुरुष अधिकारों तथा समाज के कमजोर तबकों के अधिकारों के बारे में पुराने कानूनों की कई खामियों को इनमें सही कर दिया गया है। इससे सालों से चली आ रही सामाजिक विषमता दूर हो जाएगी।
दुर्भाग्य की बात है कि महामारी के कारण लोगों तक सीधे पहुंचने, देश की मुख्यधारा से जुड़ने पर उन्हें होने वाले फायदों के बारे में बताने के उतने प्रयास नहीं हो सके, जितने होने चाहिए थे। जनता के साथ अनौपचारिक संवाद के लिए अपने कुछ प्रमुख मंत्रियों को भेजने की केंद्र की पहल भी महामारी के कारण जारी नहीं रखी जा सकी। यह काम बार-बार होना चाहिए और भारत के बाकी हिस्सों से समाज के अलग-अलग तबकों तथा शिक्षाविदों, अफसरशाहों, उद्योगपतियों, कंपनी प्रमुखों, शिक्षा सलाहकारों एवं चिकित्सा पेशेवरों जैसे अलग-अलग क्षेत्रों के व्यक्तियों को भी इस तरह का संपर्क करते रहना चाहिए। यदि हम कश्मीरी समाज के भीतर सकारात्मक भाव लाना चाहते हैं तो हमें 23 साल से सफलता के साथ जारी सेना के सद्भावना मॉडल से परे देखना होगा और वहां के लोगों के साथ संपर्क में समूची सरकार तथा समूची जनता को शामिल करना होगा।
पाकिस्तान तथा अलगाववादी तंत्र को फिर सिर उठाने से रोकना है तो विदेशी एवं स्थानीय आतंकियों की संख्या कम से कम करने का मजबूत अभियान जारी रहना चाहिए। इस साल 150 से अधिक आतंकियों का सफाया किया गया है। 2020 में पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) से केवल 26 आतंकवादी घुसपैठ कर सके और स्थानीय स्तर पर आतंकियों की भर्ती में भी 40 फीसदी कमी आ गई। कम संख्या में भर्ती करने के बाद भी विरोधियों को कोई फायदा नहीं मिल पाया क्योंकि बड़ी संख्या में आतंकी या तो मारे गए या उन्होंने हथियार डाल दिए।
आंतरिक सुरक्षा और प्रशासन पूरी तरह नियंत्रण में है क्योंकि यह हमारे दायरे में आता है मगर बाहरी तत्व अलग किस्म की चुनौती पेश कर रहे हैं। दो संवैधानिक प्रावधानों को खत्म करने के मसले को ज्यादातर देशों ने भारत का आंतरिक मामला ही माना है। इस्लामी दुनिया ने भी भारत के रुख का समर्थन किया है। स्थिरता बढ़ती गई तो अंतरराष्ट्रीय समुदाय का यह नजरिया भी बना रहेगा। इसमें बदलाव तभी आ सकता है, जब आंतरिक अशांति और मानवाधिकार को एक बार फिर मुद्दा बनाया जाए और उसका दुरुपयोग किया जाए।
इसी कारण सरकार को 4जी मोबाइल संचार की बहाली जैसे मामलों में सतर्कता के साथ कदम बढ़ाने पड़े हैं। 4 जी सेवाओं को जल्द ही पूरी तरह बहाल करना न तो संभव था और न ही उसकी अपेक्षा की गई थी। पाकिस्तान के इंटर सर्विस पब्लिक रिलेशन्स विंग ने इसका जमकर फायदा उठाया होता और जम्मू-कश्मीर में हाहाकार मचाने के लिए सूचना के हथियार की बौछार कर दी होती। पाकिस्तान के राजनयिक प्रयास भी कम नहीं हो रहे हैं। इसका मतलब है कि भारत के प्रयास अधिक भरोसेमंद दिखने चाहिए और जम्मू-कश्मीर के दरवाजे विदेशी यात्रियों के लिए जल्द से जल्द खोल देने चाहिए। साथ ही पाकिस्तानी दुष्प्रचार का मुकाबला करने के लिए मजबूत सूचना तंत्र भी स्थापित होना चाहिए।
अंत में इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि जम्मू-कश्मीर की भू-सामरिक स्थिति और गिलगित-बाल्टिस्तान तथा पीओके को दोबारा जम्मू-कश्मीर में मिलाने की भारत की मजबूत मंशा ने पाकिस्तान और चीन दोनों को चिंता में डाल दिया है। इसीलिए भारत को इस संकल्प से हटाने के लिए दोनों के साजिश भरे प्रयास तेज हो रहे हैं। सीमा पर खतरे खड़े करने के साथ ही उनकी सांठगांठ भारत के नियंत्रण वाले जम्मू-कश्मीर के हिस्सों को पूरी तरह देश में मिलाने की भारतीय कोशिशों को नाकाम करने का प्रयास भी करेगी। इसीलिए इस साहसिक राजनीतिक फैसले को लंबे समय से चली आ रही समस्याओं का अंत नहीं मानना चाहिए बल्कि इसे लगातार जारी प्रक्रिया की तरह देखना चाहिए। देश में कुछ लोग विजयनाद में जुटे हैं। उसके बजाय मामले को संवेदनशीलता के साथ संभालना चाहिए और जम्मू-कश्मीर को पूरी तरह देश में मिलाने के संकल्प पर ही पूरा जोर रहना चाहिए। चुनौतियां शायद बढ़ गई हैं मगर अच्छी मंशा के साथ कठिन फैसले लिए जाएं तो ऐसा होता ही है।
Translated by Shiwanand Dwivedi(Original Article in English) [3]
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[2] https://www.vifindia.org/author/s-a-hasnain
[3] https://www.vifindia.org/article/2020/august/03/j-and-k--less-war-more-peace-an-assessment-of-the-year-after-the-decisions-of-5-august-2019%20%20
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