कोरोनावायरस की तीव्रता और प्रसार दुनिया के लिए अभूतपूर्व रहा है। इससे पहले की सभी महामारियों का असर या तो छोटे क्षेत्रों पर हुआ था या कुछ ही समय में वे खत्म हो गई थीं। मौतों की बात करें तो 1347 और 1351 के बीच यूरोप में चरम पर पहुंचने वाली ‘ब्लैक डेथ’ ने यूरेशिया और उत्तरी अफ्रीका में 7.5 करोड़ से 20 करोड़ लोगों की जान ले ली थी। चर्नोबिल आपदा का असर यूरोप के कुछ इलाकों तक सीमित था। मलेरिया, फाइलेरिया, चेचक, मैड काउ डिजीज, चिकनगुनिया जैसी परजीवियों से फैलने वाली महामारियों का असर लंबे समय तक रहा और उचित समय में उन पर काबू पा लिया गया। 2018 तक कुल 3.79 करोड़ लोग एचआईवी के शिकार हो चुके थे। लेकिन इस आंकड़े तक पहुंचने में कई वर्ष लग गए!
इनके उलट कोरोना ने महज तीन महीने में पूरी दुनिया को अपनी गिरफ्त में ले लिया। चिकित्सा और शोध में जबरदस्त प्रगति के बाद भी शोध संस्थान तथा दवा कंपनियां अब तक इसकी काट नहीं बना पाई हैं।
कोरोना का कालक्रम और प्रभाव का अध्ययन काफी रोचक है। कोरोना संकट को शुरुआत में गुप्त जैविक युद्ध का आरंभ माना गया। हरेक युद्ध के अस्थायी, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीकि प्रभाव होते हैं, जो निश्चित क्षेत्रों या पक्षों से संबंधित होते हैं। कोरोना भी अपवाद नहीं है।
दुनिया ने देखा कि किस तरह दूरदर्शिताहीन ढिठाई की घटनाओं ने स्थिति और भी गंभीर कर दी। इसके दुर्भाग्यपूर्ण उदाहरण धार्मिक सम्मेलन और व्यक्तिगत हरकतें (ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका और भारत) रहीं, जिनसे वायरस फैला।
कोरोना के प्रसार, रोकथाम और खबरों में इतनी तेजी से बदलाव आ रहा है, जो पहले कभी नहीं देखा गया। यह लेख खुले स्रोतों से 15 अप्रैल तक मिली जानकारी पर आधारित है और इसमें महामारी के पीछे साजिश होने की तमाम अवधारणाओं को एकदम परे रखा गया है।
सबसे पहले वुहान में बीमारी शुरू होने पर शुरुआती प्रतिक्रियाएं ताज्जुब भरी थीं - ‘जरा उन्हें तो देखो!’ और बाद में पूछा गया कि ‘चीन ने स्वीकार करने में इतनी देर क्यों लगा दी?’ अंतरराष्ट्रीय मदद फौरन शुरू नहीं हुई। दिसंबर में महामारी शुरू होने के बाद 17 जनवरी तक चीन द्वारा उसे जानबूझकर छिपाने या कम बताने के आरोपों का चीन ने जवाब दिया और अमेरिकी नौसैनिकों पर आरोप मढ़ दिया। उसने कहा कि नौसैनिक अभ्यास के दौरान उन्हीं से वायरस चीन में आया।
चीन से आई शुरुआती खबरों में यह बात बाहर नहीं आने दी गई कि महामारी बहुत भीषण है और पूरी दुनिया में फैल सकती है। लापरवाही और इनकार से भी बात बिगड़ी क्योंकि कहा गया - ‘यहां नहीं हो सकती।’ जब विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने इस बीमारी को महामारी घोषित कर दिया तो दुनिया भर में आपदा प्रबंधन योजना एवं तैयारियों की कलई खुलने लगी! “सामूहिक प्रतिरोधक क्षमता” वाली अपुष्ट अवधारणाओं, विभिन्न पहलुओं की समझ नहीं होने; दूरदर्शिता भरे कारगर समाधान शुरू करने में देरी, रेस्पिरेटर और संक्रमण के मामलों को सीधे संभाल रहे व्यक्तियों या जनता के लिए मास्क जैसे व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरणों (पीपीई) की कमी के कारण भी रोकथाम जोर नहीं पकड़ पाए।
सोशल डिस्टेंसिंग यानी दैहिक दूरी, संक्रमण के संभावित वाहकों की जांच जैसे कड़े कदम समय पर नहीं उठाए गए। इस कारण अमेरिका, ब्रिटेन और इटली में रोकथाम के प्रभावी उपाय लागू करने से पहले भारी संख्या में लोगों की जान चली गईं। उसके बाद स्टेडियमों, थिएटरों और खुली जगहों को अस्थायी अस्पतालों में बदला गया।
दूसरी ओर सीमित बुनियादी ढांचे और भारी आबादी की चुनौतियों से जूझते भारत ने शुरू से ही पूरे देश में बंदी यानी लॉकडाउन तथा सोशल डिस्टेंसिंग लागू कर दी। इसका फायदा भी मिला चाहे लोग आरोप लगाते रहे हों कि उचित जांच किट नहीं होने के कारण संक्रमण का आंकड़ा कम है। (भारत में होने वाले उल्लंघनों और खामियों की चर्चा अलग से की गई है)।
वैश्विक अर्थव्यवस्था पर होने वाले प्रभावों पर कई लोग चर्चा कर चुके हैं और यहां उस पर विस्तृत चर्चा नहीं की गई है। संक्षेप में कहें तो दुनिया भर में शेयर बाजार लुढ़क गए, बैंकों की ब्याज दरें कम हुईं, वाहनों की बिक्री घटी, औद्योगिक उत्पादन और परिवहन ठप हो गया। आवाजाही पर प्रतिबंध के कारण श्रमबल की उपलब्धता और कंपनियों की ओर से यात्रा कम हुई हैं। घर से काम करने का चलन बढ़ गया। सोना-चांदी जैसी कीमती धातुएं फिर चमक गईं। विकसित देशों में ग्राहकों के देखते ही देखते दराजें खाली हो गईं। कुछ वस्तुओं के दाम इतने बढ़ गए कि उन पर लगाम कसने के लिए सरकार को दखल देना पड़ा।
इस बात के संकेत भी मिल रहे हैं कि अमेरिका व्यापार युद्ध तेज कर रहा है। अमेरिका (और उसके सहयोगियों) के पास से आती चुनिंदा खबरें और उनके जवाब में चीन के दावों से आर्थिक गिरावट और बदतर हो गई है।
चीन अपने पास माल जमा होने का फायदा उठाकर ऊंची कीमत मांग रहा है। साथ ही इटली द्वारा खरीदे गए उपकरण घटिया गुणवत्ता वाले निकले, जिसकी वजह से चीन की अंतरराष्ट्रीय छवि और भी खराब हो गई।
चीन से अपना निवेश निकालने का जापान का फैसला महत्वपूर्ण है। ऐसी और भी घटनाएं हो सकती हैं।
ज्यादातर दुनिया चौकन्नी होकर चीन की ओर देख रही है। खबरें बताती हैं कि चीन से काम करने वाली कंपनियों और व्यापार पर निर्भरता घटी है। फिर भी उत्पादन और भंडारण के मामले में दुनिया का बड़ा अड्डा होने का फायदा चीन उठा रहा है। जनवरी 2020 में जब वुहान में महामारी चरम पर थी तब उसने ऑस्ट्रेलिया और दूसरे देशों से मास्क तथा अन्य सुरक्षा वस्त्र थोक में खरीद डाले। लेकिन बाद में जब इन्हीं देशों ने चीन से माल मांगा तो उसने ऊंची कीमत मांगनी शुरू कर दी। उत्पादन इकाइयों को चीन से हटाकर कहीं और लगाने में कुछ सयम लगेगा। लेकिन यह चर्चा का मुद्दा है कि चीन से अपना निवेश निकाल रहे देश उसे अपने ही यहां निवेश करेंगे या नहीं। संभावना यही है कि निवेश किसी तीसरे देश में किया जाएगा। जब तक देश नया कारोबार नहीं लगाते हैं तब तक चीन पर निर्भरता बनी रहेगी।
वित्तीय बाजार लुढ़क चुके हैं। कहीं-कहीं बाजार ने थोड़ी पलटी मारी है, लेकिन पहले जैसी स्थिति आने में करीब दो वर्ष लग जाएंगे। जहां व्यावहारिक है, वहां कंपनियों ने कर्मचारियों को ’घर से काम करने’ की इजाजत दे दी है। सरकारों ने वेतन नहीं काटने की सलाह दी है, लेकिन व्यावसायिक प्रतिष्ठान अपना राजस्व बचाएंगे। भर्तियों और वेतन में कुछ प्रतिशत कटौती होने की संभावना है, जो कम से कम एक वर्ष तक चलेगी। इसीलिए कर्मचारी भी बचत करने कीे कोशिश करेंगे और निवेश की उनकी भूख कम हो जाएगी। शेयर बाजारों के लिए ये अच्छे संकेत नहीं हैं।
खरीदारी जरूरी सामान तक सीमित रह जाएगी और ऑनलाइन तथा ऑफलाइन दोनों तरीके से खरीदारी होगी। बैंकिंग गतिविधियों में भी ऐसा ही होगा। व्यक्तिगत और कॉर्पोरेट ऋण आगे बढ़ाए जाएंगे, लेकिन शर्तें बहुत कठोर होंगी।
चीन के बैंकों ने अपनी कंपनियों को विदेश में कारोबार स्थापित करने के लिए कर्ज दिया। इसका फायदा उठाकर उन्होंने विस्तार किया और स्थानीय बाजारों में कंपनियां खरीदीं। ऐसा कुछ और समय चलेगा। पूंजी लगाना मुश्किल भरा होगा। रकम जुटाने और उधारी दरें तय करने की मौजूदा रणनीतियां नए सिरे से बनाई जाएंगी और ज्यादा सख्त कदम उठाए जाएंगे।
लंबी दूरी की यात्रा और विदेश यात्रा घट गई हैं क्योंकि देशों ने यात्राओं पर रोक लगा दी है। भविष्य में कंपनियों की यात्राओं का कुछ हिस्सा आभासी बैठकों से ही पूरा कर लिया जाएगा। सामान की आपूर्ति के सिद्धांत मामूली अवरोधों के अलावा सुगम आवाजाही से जुड़े थे। लेकिन अब उन पर गंभीरता से पुनर्विचार करना होगा तथा भंडारण एवं वितरण के पारंपरिक तरीकों के विकल्प ढूंढे जाएंगे। महामारी के दोबारा हमले के लिए हर देश को तैयार रहना होगा क्योंकि वायरस लौटकर चीन पहुंच गया है।
मूल देश के बाहर इकाई ले जाने की जो चर्चा ऊपर की गई है उसके लिए सौदेबाजी और छानबीन होगी। इसीलिए चीन की जिस ‘ऋण कूटनीति’ का खतरा हाल ही में सामने आया है, उसका फैसलों पर प्रभाव पड़ेगा और जल्द से जल्द सहयोग के लिए नए द्विपक्षीय या अंतरराष्ट्रीय रिश्ते गढ़े जाएंगे।
नए कामकाजी माहौल में ऑटोमेशन, कंप्यूटराइजेशन, कृत्रिम मेधा (एआई) और वैश्विक नेटवर्क वाले परिचालन में इजाफा दिखेगा। नए साझेदार देशों के कार्यबल को इनसे जुड़े कौशल सीखने और बढ़ाने होंगे। इससे नए समीकरण बनने की संभावना भी दिख सकती है। लेकिन आखिरी नतीजे दो वर्ष से भी अधिक समय के बाद ही सामने आने की संभावना है।
दुनिया की वाणिज्य और व्यवसाय से जुड़ी भावनाएं चीन से अलग होती दिख रही हैं। मलेशिया, कोरिया, भारत जैसे वैकल्पिक ठिकानों और बांग्लादेश, श्रीलंका एवं अल्पविकसित देशों जैसे छोटे सहयोगियों को इसका फायदा मिल सकता है।
बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव (बीआरआई) से जुड़े देशों में से कुछ को बतौर साझेदार तरजीह दिए जाने की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता। ध्यान रहे कि बीआरआई देशों को अभी चीन का कर्ज चुकाना है या वित्तीय मदद वापस करनी है। बीआरआई के लिए मिलने वाली सहायता हासिल करने के चक्कर में उन्होंने चीन को लंबे समय तक रियायत देने का सौदा भी किया है, जिसमें बंदरगाहों की सुविधाएं, प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल परियोजना स्थल पर चीनी प्रबंधकों एवं कंपनियों को मौजूद रहने की अनुमति शामिल हैं। इसलिए इन देशों को वास्तव में कितना फायदा होगा, कहा नहीं जा सकता।
ट्रंप के लिए चुनावी नतीजे कुछ भी रहें, अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध को नई दिशा मिलना तय है। पूरी दुनिया में प्रशासनिक एवं लॉजिस्टिक्स, स्थानीय प्रशासन, सामाजिक, आर्थिक, भू-राजनीतिक समीकरण नए सिरे से बिठाए जाएंगे ताकि ऐसी घटनाओं से निपटा जा सके।
चूंकि यह आपदा अभूतपूर्व थी, इसलिए भारत के सामने भी वैसा ही संकट आया, जैसा पूरी दुनिया के सामने आया था, लेकिन कई वजहों से यहां संकट कुछ ज्यादा था। भारत की प्रतिबंध लगाने की पहलों का फायदा मिला है और उसकी तारीफ भी हुई है। हालांकि सीमित संसाधनों और बुनियादी ढांचे के कारण कई तरह के नुकसान भी हुए। फिर भी सरकार ने महामारी से लड़ने और उसे काबू में करने को ही पहली प्राथमिकता बनाया।
स्थानीय स्तर पर दूदरर्शिताहीन राजनीतिक रस्साकशी के कारण और केंद्र के किसी भी निर्देश का विरोध करने पर आमादा आबादी के एक हिस्से के कारण स्थिति और भी गंभीर हो गई क्योंकि वह आबादी अपने सीमित और फौरी हितों एवं नतीजों से परे देखने के लिए तैयार ही नहीं थी। इसके उदाहरण भी हैं - आधिकारिक घोषणाओं और संकट बढ़ने के खतरे के बाद भी मजदूरों का थोक में अपने गांवों की ओर लौटना; कुछ खास धार्मिक सभाओं के एक वर्ग द्वारा की गई ऐसी हरकतें जो आम तौर पर वे अपने घरों में रोजमर्रा की जिंदगी में नहीं करते! सोशल डिस्टेंसिंग के उल्लंघन, कानून प्रवर्तन एवं चिकित्सा सेवाओं में लगे लोगों पर पथराव करने और उनके साथ मारपीट करने की घटनाएं बताती हैं कि सरकारी तंत्र के लिए नई समस्याएं खड़ी करने की साजिश काम कर रही है।
इन निहित स्वार्थों और दूरदर्शिताहीन षड्यंत्रों के कारण अजीब पेचीदा स्थिति पैदा हो गई, जहां नियंत्रण करने वाले कड़े कदमों को दमन कहा जाएगा; हलके कदमों की आलोचना की जाएगी और कोई कदम नहीं उठाया गया तो कहा जाएगा कि इन घटनाओं पर काबू नहीं कर सके या किए-धरे पर पानी फेर दिया।
ऐसी गतिविधियों से निपटने के लिए कोई भी कानून या तरीका फौरन नहीं अपनाया जा सकता इसीलिए वायरस की महामारी के लिए उसका कोई मतलब ही नहीं है।
सोशल मीडिया ने दोहरा काम किया - आधिकारिक नीतियों का प्रसार किया मगर उससे ज्यादा गलत सूचना इसके जरिये फैलाई गई। विडंबना यह है कि आबादी को फायदा तो दिखा, लेकिन गलत सूचना का असर खत्म होने के बाद। गलत सूचना के लिए धन की कमी नहीं दिखी और एचडीएफसी के शेयर खरीदने के लिए बैंक ऑफ चाइना के पास भी धन की कमी नहीं दिखी। सोशल मीडिया सामग्री पर आंशिक प्रतिबंध लगाने और विदेशी धन की आमद रोकने के लिए नीतियां बनाते समय गहराई से विचार-विमर्श करना होगा।
दूसरी ओर भारत में हवा और पानी प्रदूषण मुक्त हो गए! लेकिन हमारी जनता की और फितरत और संवेदनहीनता देखते हुए इस बात में संदेह है कि आबोहवा इतनी साफ बनी रहेगी।
जैसा इन गंभीर परिस्थितियों में होता ही है, सरकार ने समय-समय पर निर्देश जारी किए। सरकारी योजनाओं को परखने के लिए कुछ तबकों ने सामूहिक कार्यक्रम किए, जिससे पहले बनाई गई योजना की खामियां नजर आ गईं। इसके बाद फौरन नियम बदले गए, जिसके कारण कामकाजी स्तर पर भ्रम पैदा हो गया।
अधिकारियों ने शुरुआत में जो आश्वासन दिए, उनमें बाद में कमी आ गई। मिसाल के तौर पर राज्य सरकारों ने अपनी जिम्मेदारी खुद पूरी करने के बजाय गुरुद्वारों और स्थानीय लोगों से मुफ्त रसोई चलाने की अपील की। पहले नियोक्ताओं से कहा गया कि कर्मचारियों का वेतन नहीं काटें मगर बाद में कहा गया कि ‘मानवीय आधार पर वेतन’ दें। सर्वोच्च न्यायालय ने भी शुरुआत में वायरस की जांच के लिए किसी से भी पैसे लेने की मनाही की थी। लेकिन जल्द ही फैसला बदल दिया गया और मुफ्त जांच केवल उनके लिए कर दी गई, जो मुफ्त इलाज के पात्र हैं।
जिन क्षेत्रों में पकी हुई फसल खड़ी थी, उनमें कटाई की पारंपरिक तारीखें आगे बढ़ानी पड़ीं क्योंकि मजदूर नहीं थे और आवाजाही पर रोक थी। इसकी वजह से छह महीने बाद खाद्यान्न भंडार खत्म होने के निराशा भरे अनुमान लगने लगे और वक्त पर कटाई के लिए छूट देनी पड़ी।
एक ओर निजी संगठनों ने संक्रमण दूर करने यानी सैनिटाइज करने के सस्ते तरीके तैयार किए और अपनाए तथा सचल परीक्षण किट भी बनाईं। अधूरी तैयारी के आरोपों के बीच चिकित्सा सामग्री एवं परीक्षण किट उपलब्ध कराए गए। फिर भी स्थिति संभालने के लिए आयात समेत तमाम इंतजाम किए गए। रेल डिब्बों को सचल अस्पताल ट्रेन में बदलना अच्छा कदम था और उससे अस्पतालों में शैयाओं की संख्या बढ़ गई। सुरक्षा वस्त्रों की कमी हुई और उसका ध्यान रखना होगा।
इस अनुभव से गुजरने के बाद भारत को भविष्य में इसी तरह की स्थितियों से निपटने के लिए बेहतर तरीके से तैयार होना पड़ेगा। आपदा प्रबंधन की विस्तृत निष्पक्ष समीक्षा करनी होगी उससे जुड़ी योजनाएं बनानी होंगी, लेकिन अभी भारी निवेश करना उचित नहीं होगा।
ऐसी स्थितियों से निपटने के लिए सशस्त्र बलों को शामिल किया जाता है क्योंकि उन्हें कामकाज के माहौल में बार-बार तथा बहुत अधिक बदलावों के साथ भी काम करने का ज्यादा अनुभव होता है। तो संकट आने पर बुलाने के बजाय उन्हें आपदा नीतियां एवं प्रतिक्रियाएं तैयार करने वाली समितियों में ही औपचारिक प्रतिनिधित्व क्यों नहीं दे दिया जाए।
अंत में यह ध्यान रहे कि देश के हित ही सबसे ऊपर हैं और तुच्छ राजनीतिक स्वार्थों की बलि देनी होगी।
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