18 महीने की बातचीत के बाद अमेरिका-तालिबान ने 29 फरवरी को 30 देशों और अंतरराष्ट्रीय संगठनों के प्रतिनिधियों की उपस्थिति में दोहा में सैन्य निकासी समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिससे देश में 18 साल पुराने युद्ध के अंत का संकेत मिला। अफगानिस्तान में अमेरिकी विशेष दूत ज़ाल्मे खलीलज़ाद और तालिबान के दोहा ऑफिस के मुखिया मुल्ला ग़नी बरादर, ने 22 फरवरी को हिंसा में कमी के एक सप्ताह की अवधि के सफल समापन के बाद सैन्य वापसी समझौते पर हस्ताक्षर किए। विद्रोही समूह को अतिरिक्त छूट प्रदान करना और बदले में बिना किसी ठोस कारण के अमेरिका और तालिबान के बीच हस्ताक्षरित सेना की वापसी पर समझौता अफगानिस्तान में स्थायी शांति के लिहाज से एक बड़ी बाधा बन जाएगी। सैनिकों की वापसी पर समझौते में तय हुए बिंदु, 5000 तालिबान कैदियों की रिहाई, संयुक्त राष्ट्र और अमेरिकी प्रतिबंध सूची से तालिबान के सदस्यों को हटाया जाना, अगर ये सब होता है तो आगामी 10 मार्च को ओस्लो में होने वाली अफ़ग़ान वार्ता के अंदर अफगान सरकार की स्थिति कमजोर हो जाएगी। वार्ता के दौरान अफगान प्रतिनिधिमंडल की कमजोर स्थिति पिछले 18 वर्षों में अफगानिस्तान के लोगों को हुए लाभ को खतरे में डालती है और इससे संघर्ष-ग्रस्त देश में अराजकता आएगी।
सैन्य निकासी समझौते के प्रमुख बिंदुओं में सबसे पहले, तालिबान द्वारा अल-कायदा सहित किसी भी समूह या व्यक्ति को अमेरिका और उसके सहयोगियों के खिलाफ हमले करने के लिए अफगान क्षेत्र का उपयोग करने से रोकने के हेतु प्रतिबद्धता है। दूसरा, दो चरणों में अफगानिस्तान से अमेरिका और नाटो सैनिकों की एक क्रमिक वापसी को निर्धारित करता है। पहले चरण में, समझौते पर हस्ताक्षर करने के 135 दिनों के भीतर, अमेरिका अफगानिस्तान में अपने सैनिकों की संख्या 8,600 तक कम कर देगा और इसी अनुपात में नाटो सैनिकों की संख्या को भी कम करेगा। दूसरे चरण में, तालिबान द्वारा आतंकवाद विरोधी प्रतिबद्धता की पूर्ति पर सशर्त अमेरिका और नाटो सहयोगियों द्वारा अगले 14 महीनों के भीतर अफगानिस्तान में स्थित सभी पांच सैन्य ठिकानों से अपने सैनिकों को पूरी तरह से वापस बुला लेंगे। तीसरा, यह इंगित करता है कि अफगान वार्ता 10 मार्च 2020 से शुरू होगी। इसके अतिरिक्त विश्वास-निर्माण उपाय के तहत, अफगान वार्ता की शुरुआत से पहले अमेरिका 5,000 तालिबान कैदियों की रिहाई और दूसरी तरफ से 1,000 कैदियों को बाहर करने के लिए प्रतिबद्ध है। चौथा, अफगान वार्ता की शुरुआत के साथ अमेरिका 29 मई, 2020 से तालिबान के सदस्यों को संयुक्त राष्ट्र की प्रतिबंध सूची से हटाने की प्रक्रिया शुरू करेगा; और 27 अगस्त, 2020 तक अमेरिका की प्रतिबंध सूची से सभी को हटा देगा। पांचवां, यह है कि एक स्थायी और व्यापक संघर्ष विराम अफगान वार्ता के एजेंडे पर होगा।1 युद्ध विराम के मुद्दे पर राष्ट्रपति गनी ने उम्मीद जताई है कि हिंसा में चल रही कमी देश में व्यापक युद्ध विराम के साथ समाप्त हो जाएगी।2
अफगानिस्तान में अमेरिका के नेतृत्व में युद्ध 9/11 के बाद ओसामा बिन लादेन को मारने, अल-कायदा को नष्ट करने और उसके शासक सहयोगी, तालिबान को बाहर करने के स्पष्ट उद्देश्य के साथ शुरू हुआ। दोहा में तालिबान के साथ अमेरिका द्वारा हस्ताक्षरित सैन्य निकासी समझौते से स्पष्ट रूप से अफगानिस्तान में अमेरिकी नीति की विफलता का संकेत मिलता है। जो बात इस पूरे प्रकरण को विश्व की महाशक्ति के लिए चिंताजनक बनाती है, वह यह है कि सैन्य समझौते में अल-कायदा के लिए "आतंकवादी समूह" शब्द को भी शामिल नहीं किया गया है। साथ ही यह अल-क़ायदा को आतंकवादी समूह के रूप में घोषित करने में तालिबान की असुविधा को दर्शाता है जिसके साथ यह धार्मिक और पारिवारिक संबंधों को साझा करता है। ऐसी रिपोर्टें हैं जो बताती हैं कि "अल-कायदा के सदस्य तालिबान के लोगों और उनके परिवार के सदस्यों के लिए प्रशिक्षक और धार्मिक शिक्षक के रूप में कार्य करते हैं।"3
समझौते में तालिबान द्वारा की गई आतंकवाद-विरोधी प्रतिबद्धता में सशस्त्र समूह द्वारा किए जाने वाले कुछ कदम उल्लिखित हैं, जिसमें "संयुक्त राज्य अमेरिका और उसके सहयोगियों की सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए अफगानिस्तान की मिट्टी का उपयोग अल-कायदा सहित किसी भी समूह या व्यक्ति द्वारा करने से रोका जाएगा।4 यह समझौता तालिबान द्वारा कुछ प्रतिबद्धताओं पर केंद्रित है जैसे, अमेरिका और उसके सहयोगियों की सुरक्षा के लिए अफगान क्षेत्र के उपयोग को रोकना, अपने सदस्यों को ऐसे समूहों के साथ सहयोग न करने का निर्देश देना, ऐसे समूहों की भर्ती और प्रशिक्षण पर रोक, अफगानिस्तान में धन उगाही और अमेरिका की इस मांग को स्वीकार करना कि देश के भीतर ऐसे समूहों की पैरवी व मेजबानी नहीं हो। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की निकासी तालिबान द्वारा इन स्पष्ट रूप से परिभाषित आतंकवाद विरोधी प्रतिबद्धताओं की पूर्ति पर निर्भर है। प्रतिबद्धताओं पर प्रगति का आकलन करने के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका और तालिबान द्वारा कतर में एक संयुक्त निगरानी निकाय स्थापित किया जाएगा।
एक और चिंताजनक वास्तविकता यह है कि ट्रम्प प्रशासन ने एक विद्रोही समूह के साथ सैन्य निकासी समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं, जिसमें अमेरिका द्वारा नामित आतंकवादी संगठन हक्कानी नेटवर्क शामिल है, जो आत्मघाती बम विस्फोटों के अपने भयानक कृत्यों के लिए जाना जाता है। हक्कानी नेटवर्क का नेता, सिराजुद्दीन हक्कानी, तालिबान का उप-नेता और ऑपरेशनल कमांडर है। अमेरिका और तालिबान के बीच हस्ताक्षरित दोहा समझौता दुनियाभर में चरमपंथी और आतंकवादी संगठनों को प्रोत्साहित करेगा। यह ऐसे संगठनों को बहुत गलत संदेश देगा कि वे दुनिया की सबसे मजबूत सेना के खिलाफ लड़ सकते हैं और जीत सकते हैं।
अमेरिका और तालिबान के बीच सैन्य निकासी समझौता, अफगान समस्या में सरल घटक है। इसके बाद जो क्रम में आता है वह वास्तविक शांति प्रक्रिया है जिसमें अफगान प्रतिनिधिमंडल तालिबान के साथ अफगान संविधान, अफगान सुरक्षा बलों, महिलाओं के अधिकारों, धार्मिक और जातीय अल्पसंख्यकों के अधिकारों और तालिबान सेनानियों जैसे विवादास्पद मुद्दों पर बातचीत करेगा। इन मुद्दों पर बातचीत बेहद कठिन होगी और सबसे अधिक संभावना है कि किसी भी अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले एक वर्ष से अधिक समय तक अफगान वार्ता चलेगी। हालांकि, समझौते में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि अमेरिकी और संबंधित सेनाएं सैन्य निकासी की घोषणा से 14 महीने के भीतर देश से पूरी तरह से हट जाएंगी। यह इंगित करता है कि अमेरिकी सुरक्षा कवच केवल अफगान सरकार को अगले 14 महीनों के लिए उपलब्ध है, जिसके भीतर उसे सभी विवादास्पद मुद्दों पर तालिबान के साथ एक समझ स्थापित करनी है। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि दोहा में अमेरिका और तालिबान के बीच हस्ताक्षर किए गए समझौते में अफगान वार्ता के भीतर प्रगति पर सेना वापसी की स्थिति नहीं है। जिसके बाद देश में स्थायी शांति स्थापित करने के लिए अफगान प्रतिनिधिमंडल के साथ ईमानदारी से बातचीत करने हेतु तालिबान को विवश नहीं करता है। तालिबान अगले 14 महीनों तक इंतजार कर सकता है कि यूएस / नाटो सैनिक अफगान वार्ता समाप्त होने से पहले देश छोड़ दे। जिसके बाद देश में नए हमले शुरू किए जा सकते हैं। अंततः, तालिबान विद्रोह का मूल लक्ष्य काबुल की सत्ता हासिल करना और उनकी इस्लाम की परिभाषा के आधार पर शासन स्थापित करना है।
अमेरिका ने 29 फरवरी को काबुल में राष्ट्रपति गनी के साथ एक संयुक्त घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किए हैं, जिसमें उसने अफगानिस्तान सरकार के प्रति अमेरिका की पहले से मौजूद वित्तीय और सैन्य प्रतिबद्धताओं को दोहराया और अमेरिका द्वारा अफगान के लोगों को नहीं छोड़ने पर जोर दिया है। राष्ट्रपति ट्रम्प ने यह भी कहा कि "अगर बुरी घटनाएं होती हैं तो हम वापस लौट आएंगे ... और ऐसे बल के साथ वापस आएंगे जैसा किसी ने कभी नहीं देखा है"।5 हालांकि, इस बात में बहुत संभावना नहीं है कि अमेरिका अफगानिस्तान में अपने सैनिकों को वापस भेज देगा, अगर अफगानिस्तान एक सिविल-वार के परिदृश्य से घिरा हुआ हो। जो बात अधिक सोचनीय है, वह यह है कि अमेरिका एक ऐसी पार्टी के साथ समझौते को समाप्त कर देगा, जो सैन्य रूप से अधिक शक्तिशाली है और जिससे देश में स्थिरता की अधिक संभावना है।
फिर भी इस संयुक्त घोषणा ने अफगान वार्ता के लिए "समावेशी बातचीत के समूह" के गठन का सुझाव देकर अफगानिस्तान के विपक्षी सदस्यों को कुछ राहत प्रदान की है।6 अफगानिस्तान में राष्ट्रपति चुनाव परिणाम की घोषणा के बाद राजनीतिक विखंडन गहरा गया है। इस पृष्ठभूमि में, गनी सरकार के लिए सभी को मुख्य पटल पर लाना और सभी समावेशी, महिलाओं, युवाओं और अन्य संबंधित हितधारकों के साथ एक वास्तविक समावेशी वार्ता समूह तैयार करना एक कठिन चुनौती होगी। बातचीत करने वाले समूह के गठन को लेकर राष्ट्रपति गनी और मुख्य कार्यकारी अधिकारी अब्दुल्ला अब्दुल्ला के बीच बढ़ती दरार के संकेत पहले से ही हैं।7 हालांकि, चुनौतियों के बावजूद व्यवहारिक राजनीति का मूल सिद्धांत अफगानों के लिए अपने आंतरिक मतभेदों और रूप को हल करने के लिए अनिवार्य करता है। एक मजबूत और समावेशी बातचीत करने वाला समूह तालिबान से दूर-दूर तक दिखाई पड़ते हैं। अफगानों के लिए यह समझना महत्वपूर्ण है कि वर्तमान में जो कुछ दांव पर लगा है, वह इस्लामी गणतंत्र का अस्तित्व है, जिसे उन्होंने पिछले 18 वर्षों में कड़ी मेहनत से बनाया है। साथ ही अफगान सरकार के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वह अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से अपनी राजनयिक पहुंच को बनाए रखे, ताकि 1990 के परिदृश्य की पुनरावृत्ति से वह बचा रहे, जिस दौर में अफगानिस्तान बाहरी दुनिया के लिए अदृश्य हो गया था।
जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है कि यह समझौता इंगित करता है कि विश्वास-निर्माण के एक उपाय के रूप में अमेरिका 10 मार्च, 2020, अफगान वार्ता के पहले दिन से 5,000 तालिबान कैदियों और दूसरी ओर से 1,000 कैदियों की रिहाई सुनिश्चित करेगा। हालाँकि, काबुल सरकार ने जिस संयुक्त घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किए हैं, वह तालिबानी कैदियों की रिहाई के लिए किसी भी संख्या और समयरेखा का उल्लेख नहीं करता है। बावजूद इसके यह स्पष्ट रूप से विश्वास दिलाता है कि विश्वास-निर्माण के उपायों के हिस्से के रूप में अफगान सरकार तालिबान के साथ "दोनों पक्षों पर महत्वपूर्ण संख्या में कैदियों को रिहा करने की व्यवहार्यता को निर्धारित करने के लिए अमेरिका के साथ चर्चा में भाग लेगी।"8 यह स्पष्ट है कि अमेरिका ने 10 मार्च, 2020 तक जेल में बंद कैदियों की विशिष्ट संख्या के संबंध में तालिबान के प्रति अपनी प्रतिबद्धता से गनी सरकार को अनभिज्ञ रखा। यह समझौते के बाद के परिदृश्य में अमेरिका, अफगान सरकार और तालिबान के बीच विवाद की पहली जड़ बन गया है।
राष्ट्रपति गनी पहले ही तालिबान कैदियों की रिहाई के संबंध में अमेरिका द्वारा की गई प्रतिबद्धता पर अपनी नाराजगी व्यक्त कर चुके हैं, जब उन्होंने कहा था, "कैदियों की रिहाई संयुक्त राज्य अमेरिका का अधिकार नहीं है, बल्कि यह अफगानिस्तान सरकार का अधिकार है।"9 अफगानिस्तानी वार्ता की पूर्व शर्त के रूप में 5,000 तालिबान कैदियों की रिहाई पर राष्ट्रपति गनी द्वारा दिखाई गई अस्वीकृति स्वाभाविक है। अफगान वार्ता की शुरुआत से पहले 5,000 तालिबान कैदियों की असमान और समयपूर्व रिहाई से देश में सुरक्षा स्थिति के लिए खतरा पैदा कर सकती है। यह इस स्थिति को तब और अधिक अनिश्चित बनाता है जब अमेरिका और नाटो सेना पहले से ही अगले 135 दिनों में क्रमशः 5,000 और 2,000 की संख्या में अपनी सैन्य शक्ति को कम करने जा रहे हैं।10 इसके अलावा, तालिबान कैदियों की रिहाई से पहले, यह महत्वपूर्ण है कि दोनों पक्ष कुछ हद तक अफगान समाज में तालिबान के पुनर्घटन के मुद्दे पर समझ विकसित कर लें।
सेना निकासी समझौते में एक और समस्याग्रस्त खंड है तालिबान के सदस्यों को संयुक्त राष्ट्र और अमेरिकी प्रतिबंध सूची से हटाए जाने के संबंध में है, जो अफगान सरकार के हितों के प्रतिकूल साबित हो सकता है। इस समझौता के अंतर्गत अफगान वार्ता की शुरुआत के साथ ही अमेरिका 29 मई, 2020 तक तालिबान के सदस्यों को संयुक्त राष्ट्र की प्रतिबंध सूची से हटाने की प्रक्रिया शुरू करेगा और 27 अगस्त, 2020 तक अमेरिका की प्रतिबंध सूची से भी हटाने की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी। अफगानिस्तान में सुलह प्रक्रिया के बीच यह स्वाभाविक है कि अमेरिका तालिबान को अफगान वार्ता में भाग लेने के लिए इन रियायतों को देकर इस प्रक्रिया को सुविधाजनक बनाने की कोशिश कर रहा है। हालांकि, 29 मई और 27 अगस्त तक तालिबान के सदस्यों को प्रतिबंध सूची से हटाने का फैसला अफगानिस्तान में शांति की संभावनाओं के लिए प्रतिकूल साबित हो सकता है। तालिबान के ऊपर से दबावों को हटाकर जिसमें वर्तमान प्रतिबंध भी शामिल हैं, को जल्दबाजी में दूर करके सशस्त्र समूहों को हटाकर सुलह प्रक्रिया के अंतर्गत अफगान प्रतिनिधिमंडल के साथ सुगम रूप में बातचीत चाहता है। लेकिन, यह अधिक उपयुक्त होता यदि इन प्रतिबंधों को हटाने के पहलू को अफगान वार्ता में हासिल की गई प्रगति के लिहाज से सशर्त लागू किया जाता।
दोहा में हस्ताक्षरित सैन्य निकासी समझौता अफगानिस्तान और उसके लोगों के लिए कठिन समय को इंगित करता है। यह समझौता अफगानों के लिए उस विद्रोही समूह के साथ शांति पर बातचीत के लिए एक सीमित दायरा प्रदान करता है, जिस विद्रोही समूह ने लोकतांत्रिक प्रणाली के अंतर्गत शक्ति को साझा करने की दिशा में कोई भी ठोस संकेत नहीं दिया है। इसके अलावा कैदियों की रिहाई के मुद्दे पर तालिबान को अनुचित रियायत देना, प्रतिबंध हटाना और अफगान वार्ता की प्रगति के इतर स्वतंत्र समयरेखा बनाकर, अमेरिका ने तालिबान के परिपेक्ष्य में अफगान अलगाव की बातचीत की स्थिति को कमजोर कर दिया है। इस पृष्ठभूमि में अफगानिस्तान के सभी राजनीतिक नेताओं के लिए यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि वे अपने आंतरिक मतभेदों से ऊपर उठकर इस सीमित अवसर को देश में स्थायी शांति के लिहाज से देखें। अफगानिस्तान में कोई भी विकास पूरे क्षेत्र की सुरक्षा और स्थिरता पर सीधा प्रभाव डालता है। इसलिए भारत सहित क्षेत्रीय देशों के लिए यह अनिवार्य है कि वे अफगानिस्तान के घटनाक्रम पर पैनी नजर रखें। साथ ही यदि जरूरत पड़े तो भारत को सभी अंतरराष्ट्रीय मंचों से अफगानिस्तान में राष्ट्रवादी मोर्चे को आवश्यक राजनयिक समर्थन प्रदान करने का बीड़ा उठाना चाहिए। यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है कि तालिबान अफगानिस्तान में एकमात्र प्रमुख शक्ति नहीं बन सके है और पिछले 18 वर्षों में अफगानिस्तान में हुए सकारात्मक कार्य पूरी निष्क्रिय न हो जाएं। क्योंकि अफगानिस्तान में $3 बिलियन से अधिक खर्च करने की भारतीय विदेश नीति के पीछे तर्क केवल परोपकार नहीं था। भारत की रणनीतिक रुचि और राष्ट्रीय सुरक्षा एक स्थिर, सुरक्षित और लोकतांत्रिक अफगानिस्तान से जुड़ी हुई है।
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[1] https://www.vifindia.org/article/hindi/2020/march/23/america-taliban-ke-beech-sanya-nikasi-samjhota
[2] https://www.vifindia.org/author/yatharth-kachiar
[3] https://www.state.gov/wp-content/uploads/2020/02/Agreement-For-Bringing-Peace-to-Afghanistan-02.29.20.pdf
[4] https://tolonews.com/afghanistan/ghani-no-commitment-release-taliban-prisoners
[5] https://www.undocs.org/S/2019/481
[6] https://www.state.gov/wp-content/uploads/2020/02/Agreement-Fo
[7] https://www.aljazeera.com/news/2020/02/taliban-peace-deal-world-reacted-200229165338513.html
[8] https://www.state.gov/wp-content/uploads/2020/02/02.29.20-US-Afghanistan-Joint-Declaration.pdf
[9] https://tolonews.com/afghanistan/ghani-and-abdullah-divided-over-negotiating-team
[10] https://www.reuters.com/article/us-usa-afghanistan-taliban/u-s-and-taliban-sign-troop-withdrawal-deal-now-comes-the-hard-part-idUSKBN20N06R
[11] https://www.vifindia.org/article/2020/march/02/us-taliban-troop-withdrawal-deal
[12] https://www.ft.com/__origami/service/image/v2/images/raw/https%3A%2F%2Fs3-ap-northeast-1.amazonaws.com%2Fpsh-ex-ftnikkei-3937bb4%2Fimages%2F5%2F4%2F9%2F4%2F25274945-4-eng-GB%2FCropped-1582990240taliban.jpg?source=nar-cms
[13] http://www.facebook.com/sharer.php?title=अमेरिका-तालिबान के बीच सैन्य निकासी समझौता&desc=&images=https://www.vifindia.org/sites/default/files/Images_5_4_9_4_25274945_0.jpg&u=https://www.vifindia.org/article/hindi/2020/march/23/america-taliban-ke-beech-sanya-nikasi-samjhota
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