सरकारी आंकड़े आम तौर पर राजनीतिक टकराव का विषय नहीं होते क्योंकि टकराव या होहल्ले की इच्छा रखने वालों के लिए ढेर सारे दूसरे मुद्दे रहते ही हैं। साथ ही राजनेताओं का ध्यान खींचने के लिहाज से यह बहुत उबाऊ विषय होता है और आम आदमी के लिए तो और भी उबाऊ होता है। फिर भी पिछले कुछ महीनों में सरकार और विपक्षी दल उन आंकड़ों की विश्वसनीयता पर झगड़ रहे हैं, जो सरकार ने देश की आर्थिक स्थिति के बारे में पेश किए हैं। टकराव इतना ज्यादा है कि देश-विदेश के अर्थशास्त्रियों के एक समूह ने पत्र (जिसे सार्वजनिक किया गया) लिखकर मौजूदा सरकार द्वारा आंकड़ों पर राजनीतिक प्रभाव डाले जाने का आरोप लगाया।
इस समूह ने सरकार पर “असहज करने वाले आंकड़ों को दबाने” की आदत का और आंकड़े पेश करने की “संदिग्ध पद्धति” अपनाने का आरोप लगाया है। इन अर्थशास्त्रियों ने पत्र में लिखा है कि “इधर भारतीय आंकड़ों और उनसे जुड़ी संस्थाओं पर राजनीतिक विचारों से प्रभावित होने और उनसे नियंत्रित होने का संदेह गहरा गया है।” उन्होंने कहा कि आंकड़े इकट्ठे करने में तकनीकी समस्याएं एवं त्रुटियां समझ आती हैं, लेकिन “राजनीतिक तंत्र को आंकड़ों से दूर रहना चाहिए।“ पत्र पर हस्ताक्षर करने वालों में मैसाच्युसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के नोबेल से सम्मानित अर्थशास्त्री अभिजित बनर्जी भी शामिल हैं। उन्होंने कंेद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) द्वारा प्रस्तुत उस सामग्री पर संदेह किया, जो सरकार द्वारा पहले गठित समितियों की सामग्री से मिलती नहीं थी।
उदाहरण के लिए उन्होंने कहा कि जनवरी में सीएसओ के अनुमानों में 2016-17 (नोटबंदी का वर्ष) की सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वृद्धि दर 1.1 प्रतिशत बढ़ गई (और 8.2 प्रतिशत तक पहुंच गई), जो दशक की सबसे अधिक वृद्धि दर थी, लेकिन यह कई “अर्थशास्त्रियों द्वारा जुटाए गए सबूतों” से मेल नहीं खाती। अन्य बातों के अलावा अर्थशास्त्रियों तथा शिक्षाविदों के समूह ने “आंकड़ों के मामले में ईमानदारी” पर जोर दिया, जो “आर्थिक नीतियां तैयार करने के लिए और ईमानदारी भरी लोकतांत्रिक जन चर्चा आरंभ करने के लिए आंकड़े तैयार करने हेतु” जरूरी है।
सरकार को आधार वर्ष 2011-12 पर आधारित पिछले आंकड़ों के लिए भी आलोचना सहनी पड़ी, जब राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग की 2018 की रिपोर्ट ने बताया कि संप्रग सरकार के कुछ वर्षों में वृद्धि दर दो अंकों में रही थी। सरकार ने उस रिपोर्ट को तुरंत रद्दी की टोकरी में डाल दिया और उसके बजाय अपने बैक सीरीज आंकड़े पेश किए, जिनमें उस समय की वृद्धि दर कम दिखाई गई थी।
ऐसी आलोचना के बीच समस्या को सुलझाने के केंद्र सरकार के दो फैसलों की तारीफ की जानी चाहिए। पहला फैसला सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय द्वारा आर्थिक आंकड़ों पर स्थायी समिति बनाने का है, जिसकी अध्यक्षता विख्यात अर्थशास्त्री प्रणव सेन करेंगे और जिसमें 28 सदस्य - 10 गैर सरकारी एवं अन्य सरकारी होंगे। सेन भारत के पहले मुख्य अर्थशास्त्री हैं। अन्य सदस्यों में तीन वे हैं, जिन्होंने आर्थिक आंकड़ों में हेराफेरी करने और राजनीतिक प्रभाव डालने का आरोप लगाते हुए सरकार को लताड़ने वाले पत्र पर हस्ताक्षर किए थे। इसी विषय पर पहले से बनी चार समितियों को मिलाकर यह समिति बनाई गई है और प्रमुख आर्थिक आंकड़ों तथा रुझानों की समीक्षा इसके जिम्मे होगी। इसे समय-समय पर हुए श्रमबल सर्वेक्षण, उद्योग एवं असंगठित क्षेत्र के वार्षिक सर्वेक्षणों तथा आर्थिक जनगणना आदि की समीक्षा भी करनी होगी।
राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग को सांविधिक दर्जा प्रदान करने की प्रक्रिया आरंभ करना सरकार का दूसरा स्वागत योग्य कदम है। इसके लिए विधेयक का मसौदा पहले ही सार्वजनिक कर दिया गया है और जनता तथा अन्य हितधारकों से प्रतिक्रिया मांगी गई है। राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग विधेयक, 2019 का मसौदा “राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग को देश की सभी प्रमुख सांख्यिकी गतिविधियों के लिए नियामकीय संस्था बनाने का प्रस्ताव रखता है।” विधेयक के मसौदे के मुताबिक आयोग में अध्यक्ष के अलावा नौ सदस्य (पांच पूर्णकालिक) होंगे, जिनमें भारतीय रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर तथा वित्त मंत्रालय के मुख्य आर्थिक सलाहकार भी होंगे। सदस्यों को सरकार द्वारा गठित अन्वेषण समिति की सिफारिश पर चुना जाएगा।
नियामकीय अधिकार मिलने के बाद राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग “केंद्र तथा राज्य सरकारों, अदालतों एवं पंचाटों को सरकारी आंकड़ों से जुड़े मामलों पर सलाह देगा।” इसमें राष्ट्रीय नीतियों, विधायी उपायों का विकास, सांख्यिकी सिद्धांतों और पद्धतियों के लिए मानक गढ़ना शामिल है। समय-समय पर सर्वेक्षणों का ऑडिट राष्ट्रीय सांख्यिकी लेखापरीक्षण एवं मूल्यांकन संगठन द्वारा किया जाएगा, जिसका गठन आयोग के भीतर ही होगा और जिसकी अगुआई सरकार द्वारा नियुक्त मुख्य सांख्यिकी लेखापरीक्षक करेंगे। राष्ट्रीय सांख्यिकी कोष भी बनाया जाएगा, जिसमें सरकारी अनुदानों, शुल्कों तथा “केंद्र सरकार द्वारा तय किए गए अन्य स्रोतों” के जरिये राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग को प्राप्त संसाधन भी शामिल होंगे। विधेयक आयोग को “किसी सरकारी एजेंसियों को चेतावनी देने अथवा झिड़कने का अधिकार भी देता है यदि वह एजेंसी (अ) सांख्यिकी नैतिकता के मानकों का पालन नहीं करती है अथवा (आ) सरकारी आंकड़ों से जुड़ा कोई व्यक्ति पेशेवर दुराचार करता है, झूठा या भ्रामक बयान देता है अथवा आयोग के समक्ष प्रस्तुत जानकारी में से कुछ छिपाता है।”
लगता यही है कि इस फैसले के जरिये सरकार विभिन्न विवादों को समाप्त कर देना चाहती है। विधायी समर्थन मिलने से आयोग को एक स्तर तक स्वायत्तता मिल जाएगी और वह सरकारी दखल से बच जाएगा। वित्तीय स्वायत्तता भी मिलेगी, जो सांख्यिकी आयोग को अपना काम पूरी आजादी के साथ करने में सहायता करेगा। साथ ही झूठी या भ्रामक जानकारी को हतोत्साहित करने के लिए भी कड़े उपाय किए गए हैं। दुर्भाग्य से विधेयक पर भी शंका के स्वर उठ रहे हैं, जिनका दावा है कि विधेयक के प्रावधानों के मुताबिक आयोग पर सरकार का ही नियंत्रण होगा क्योंकि विधेयक कहता है कि आयोग के विचारों के बावजूद अंतिम निर्णय सरकार का ही होगा।
मगर यह भी ध्यान रखा जाए कि एनएससी को सांविधिक नियामकीय संस्था बनाने की बात चल रही है मगर यह सलाहकार बनकर ही रहेगी और इस सरकार या किसी दूसरी सरकार के पास अपनी मर्जी चलाने का अधिकार होगा। कुल मिलाकर प्रावधान आयोग के महत्व या स्वतंत्रता को कम नहीं करता। विधेयक रंगराजन समिति की सिफारिशों के आधार पर जून 2005 में गठित राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग को सशक्त करने की दिशा में बड़ा कदम है। रंगराजन आयोग की स्थापना जनवरी 2000 में सी रंगराजन की अध्यक्षता में की गई थी, जिसका उद्देश्य देश में समूचे आधिकारिक सांख्यिकी तंत्र की समीक्षा करना था। केंद्र सरकार के समक्ष अगस्त 2001 में पेश इसकी रिपोर्ट में प्रमुख सिफारिश राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग के गठन की थी, जिसे देश में होने वाली सभी प्रमुख सांख्यिकी गतिविधियों के लिए नोडल एवं सशक्त संस्था का रूप दिया जाना था। आयोग का सुझाव था कि शुरुआत में एनएनसी का गठन सरकारी आदेश के जरिये किया जाए और बाद में उसे अधिक स्थायी दर्जा दिया जाए। प्रस्तावित सांविधिक दर्जे से एनएसी पर सरकार की पकड़ तो कम हो जाती और वह कार्यकारी नियंत्रण से विधायी जवाबदेही तक पहुंच जाता।
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