भारत सरकार ने देश की रक्षा सेवाओं से जुड़े सभी मामलों पर रक्षा मंत्री के इकलौते सलाहकार तथा सैन्य मामलों के नवनिर्मित विभाग के सचिव के रूप में चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) का पद बनाया है। इस बारे में औपचारिक घोषणा 24 दिसंबर, 2019 को की गई और सेवानिवृत्त होने जा रहे सेनाध्यक्ष जनरल बिपिन रावत को पहला सीडीएस नियुक्त किया गया। उनका कार्यकाल 30 दिसंबर, 2019 को आरंभ हुआ। कार्य आवंटन के नियमों में भी 30 दिसंबर, 2019 को संशोधन किया गया और सैन्य मामलों के विभाग को औपचारिक रूप से आठ सूत्री कार्य सौंपे गए। इन कार्यों में संघ के सैन्य बल, तीनों सेनाओं के मुख्यालयों को मिलाकर बनाया गया एकीकृत मुख्यालय, तीनों सेनाओं से संबंधित कार्य (पूंजीगत एवं राजस्व कार्यों में कोई भेद नहीं किया गया है), पूंजीगत खरीद के अलावा सेनाओं के लिए खरीद, तीनों के लिए एक साथ खरीद को बढ़ावा देना, संयुक्त योजना एवं तीनों सेनाओं की जरूरतों को एक साथ मिलाकर प्रशिक्षण एवं कार्मिकों की नियुक्ति, सैन्य कमानों के पुनर्गठन में सहायता करना और सेना द्वारा स्वदेशी उपरकणों के इस्तेमाल को बढ़ावा देना आदि शामिल हैं।
एकीकरण के नजरिये के साथ उच्च रक्षा प्रबंधन का यह पुनर्गठन संस्थागत बदलाव सरीखा लगता है। देखना होगा कि सीडीएस और सैन्य मामलों का विभाग कैसे काम करते हैं, रक्षा योजना में कितना तालमेल रहता है, रक्षा प्रयासों में कितना मेलजोल रहता है, परिचालन में तालमेल कैसे रहता है, प्रशासनिक फैसले कितनी तेजी से लिए जाते हैं, बजट आवंटन कितने बेहतर तरीके से होता है और खर्च में कितनी किफायत बरती जाती है।
प्रसंगवश या ऐतिहासिक नजरिये से देखा जाए तो भारत का सीडीएस न तो ब्रिटेन और न ही अमेरिका की उच्च रक्षा प्रबंधन व्यवस्थाओं जैसा है। भारीभरकम सैन्य ढांचे, एकदम अलग सामरिक पृष्ठभूमि वाले और सामरिक स्थिति एवं अनुभव के मामले में ब्रिटेन, अमेरिका या पश्चिमी लोकतांत्रिक राष्ट्रों से एकदम अलग देश के लिए अपनी अलग सीडीएस व्यवस्था बनाना और अपनाना स्वाभाविक ही है। मगर सेनाओं से ऐसी मांगें आती रही हैं, जो एकसमान या एक ही प्रकार की नहीं हैं। सीडीएस जैसी संस्था की भूमिका और दायित्वों को 1999 में पाकिस्तान के साथ हुए कारगिल युद्ध के बाद के. सुब्रमण्यम समिति के विचार-विमर्श से समझा जा सकता है। समिति ने राष्ट्रीय सुरक्षा के एकीकृत प्रबंधन के लिए सेना मुख्यालयों को सरकार के अधीन लाने का समर्थन किया था।
किंतु अभी गठित की गई सीडीएस व्यवस्था की भूमिका, कार्यकारी कामकाज और संभावित असर में काफी अस्पष्टता हैं। सबसे पहले, सीडीएस और सैन्य मामलों के विभाग की स्थापना तथा सीडीए को उस विभाग का मुखिया नियुक्त किया जाना आधा-अधूरा लगता है क्योंकि क्योंकि न तो धनराशि या बजट आवंटन प्राप्त करने के मामले में दोनों की जिम्मेदारी स्पष्ट रूप से विभाजित की गई है और न ही व्यय मंजूरी के मामले में दोनों के अधिकार परिभाषित किए गए हैं। यह स्पष्ट नहीं है कि व्यय मंजूर करने के लिए सीडीएस वित्तीय अधिकारों के प्रत्यायोजन के नियम के तहत एक विभाग के तौर पर अपने अधिकारों का पूरा इस्तेमाल करेंगे या नहीं। हालांकि सरकार का निर्णय है कि पूंजीगत खरीद के अलावा सेनाओं के लिए होने वाली खरीद को सीडीएस ही देखेंगे मगर राजस्व मद में बजट आवंटन की सिफारिश करने और उसे प्राप्त करने में सीडीएस की भूमिका भी स्पष्ट नहीं है। यदि रक्षा सेवा के अनुमान तैयार करने, संसद से धनराशि प्राप्त करने और रक्षा विभाग के नियंत्रण वाले खातों की जिम्मेदारी से जुड़ी मौजूदा व्यवस्था ही चलती रही तो सैन्य मामलों का विभाग रक्षा मंत्रालय की प्रशासनिक इकाई या प्रकोष्ठ या ब्यूरो बनकर रह जाएगा। सीडीएस की भूमिका यदि केवल सलाहकार की होती है और सेना पर उनका कोई कार्यकारी या परिचालन नियंत्रण नहीं होता है तो नियोजन, संसाधन आवंटन तथा व्यय करने के मामले में सीडीएस की कोई जरूरत ही नहीं रह जाएगी।
जो स्थितियां ऊपर बताई गई हैं, उनमें सीडीएस की भूमिका केवल सलाहकार तक सीमित रह सकती है। यह व्यवस्था उचित भी हो सकती है क्योंकि अभियान से जुड़ी कमान श्रृंखला में या सेना के आने-जाने, ठहरने (लॉजिस्टिक्स) आदि के मामले में सीडीएस की कोई भूमिका नहीं होगी। मौजूदा क्रम में सीडीएस चार सितारों वाले सेनाध्यक्ष या वायु सेनाध्यक्ष या नौसेनाध्यक्ष होंगे तथा अपने समकक्षों में उनका दर्जा सबसे पहले आएगा। साथ ही सेना से संबंधित कार्यकारी, अभियान से जुड़े या वित्तीय मामलों में कोई उनसे ऊपर नहीं होगा। इसलिए सीडीएस का पद सैन्य मामलों के विभाग के मुखिया के बजाय राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के अंग के रूप में बनाया जाना अधिक उचित होता। एकीकरण करने एवं लॉजिस्टिक्स के मामले में साझे मानक और नियम तैयार करने से इनवेंट्री यानी भंडार का बेहतर प्रबंधन होता और सेना की अर्थव्यवस्था भी बेहतर बनी रहती। लेकिन इन उद्देश्यों को पूरा करने के बजाय सीडीएएस इन मामलों में केवल मध्यस्थता करने वाले सलाहकार बनकर रह सकते हैं और हो सकता है कि सैन्य मामलों का विभाग निर्णय लेने की प्रक्रिया में एक और स्तर बनकर रह जाए।
आगे बताए गए कुछ बुनियादी मसलों को हल करना होगा। यह स्पष्ट नहीं है कि सेना मुख्यालय के निर्दिष्ट अधिकारों से इतर राजस्व व्यय प्रस्तावों को मंजूरी देने के मामलों में अंतिम अधिकार रक्षा मंत्रालय के अधीन सैन्य मामलों के विभाग और सीडीएस के पास ही रहेगा या ऐसे मामलों को रक्षा विभाग द्वारा मंजूर कराना होगा। सेना की कार्य योजना के मामले में भी ऐसी ही दिक्कतें हैं। इस बात में संदेह है कि सरकार सेना का पूरा राजस्व बजट तैयार करने की जिम्मेदारी सीडीएस एवं सैन्य मामलों के विभाग को देगी या नहीं। सेनाओं के राजस्व बजट पर नियंत्रण में संसाधनों के आवंटन, वित्तीय निगरानी तथा पूंजीगत बजट निर्माण में लेनदेन भी शामिल हो सकते हैं। इस मामले में भी सैन्य मामलों के विभाग तथा रक्षा विभाग की जिम्मेदारियां स्पष्ट रूप से विभाजित नहीं हैं।
बुनियादी बात यह है कि सीडीएस तीनों सेनाओं के मामलों में रक्षा मंत्री के प्रमुख सैन्य सलाहकार होंगे। यह सलाहकार की भूमिका है, जिसमें सैन्य मामलों का कार्यकारी कामकाज शामिल नहीं है। इस सिलसिले में चीफ ऑफ स्टाफ कमिटी की संस्था को मजबूत करना और इस समिति के प्रशासनिक साधन सीडीएस को देना उचित हो सकता था ताकि सीडीएस सलाहकार का अपना काम अच्छी तरह से निभा सकें। ऐसी प्रशासनिक व्यवस्था सीडीएस के लिए अधिक तार्किक होती क्योंकि सरकारी आदेशों के अनुसार उन्हें चीफ ऑफ स्टाफ कमिटी के स्थायी अध्यक्ष का काम सौंपा गया है।
रक्षा खरीद परिषद के सदस्य, परमाणु कमान प्राधिकरण के सैन्य सलाहार और तीनों सेनाओं के संगठनों के अध्यक्ष के रूप में सीडीएस को सलाहकार की भूमिका पर्याप्त रूप से निभाने का मौका मिलेगा। तीनों सेनाओं के पूंजीगत खरीद के प्रस्तावों में वरीयता क्रम तय करना भी उनके लिए उपयुक्त भूमिका है। लेकिन रक्षा पूंजीगत खरीद की पंचवर्षीय योजना और दो वर्ष की रोल-ऑन वार्षिक खरीद योजनाओं के क्रियान्वयन की जिम्मेदारी भी सीडीएस को सौंपना यथार्थवादी संस्थागत व्यवस्था नहीं लगती क्योंकि योजना तैयार करना, मंजूरी देना और क्रियान्वयन करना उनके नियंत्रण के बाहर है।
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