चूंकि कासिम सुलेमानी गुप्त तरीके से काम करने के लिए बनाई गई रणनीतिक सेना के कमांडर होने के नाते सार्वजनिक मंच से दूर ही रहते थे, इसलिए ज्यादातर लोगों को इस बात का भान तक नहीं था कि ईरान के पदक्रम में वह एक तरह से नंबर 2 थे। यही वजह है कि लोग यह सुनकर हैरत में हैं कि उनकी हत्या अमेरिका की बहुत बड़ी गलती है और इसका बदला जरूर लिया जाएगा। ईरान में सुलेमानी को अक्सर ‘जीता-जागता शहीद’ कहा जाता था क्योंकि ईरान के सामरिक और रणनीतिक उद्देश्य पूरे करने के लिए उन्होंने कई बार निजी तौर पर खतरे लिए थे। इस्लामिक रिवॉल्यूशनरी गार्ड कोर के दबदबे के कारण शायद वह पूरे ईरान में लोकप्रिय नहीं होंगे, लेकिन उनकी मौत के बाद पूरे ईरान का राष्ट्रवाद खुलकर सामने आ गया। उसके बाद क्या होगा, इसका आकलन इस आधार पर किया जा रहा है कि ईरान अपने धार्मिक नेता के ‘जोरदार बदले’ के वादे पर किस तरह काम करता है। इसका विश्लेषण जरूरी हो जाता है।
ईरान को अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की तरह विवेकहीन नहीं माना जाता। यह सोचे-समझे जोखिम तो लेता है, लेकिन हर बात पर पूरी तरह विचार करता है। मगर कासिम सुलेमानी की हत्या से ठीक पहले हुई घटनाएं देखकर यह बात सही नहीं लगती। ऐसा इसलिए क्योंकि जिस समय ट्रंप को उनके घर में राजनीतिक चिंताएं घेरे हुए हैं, उस समय यह सोचा-समझा जोखिम नहीं लगता।
इसमें कोई शक नहीं कि आईएसआईएस की शिकस्त के बाद ईरान इराक पर अपनी पकड़ मजबूत करने की कोशिश में है और यदि सीरिया और तुर्की की सीमा पर कुर्दों के खिलाफ तुर्की की महत्वाकांक्षाओं के कारण उठ रहे शोर को छोड़ दे ंतो लेवेंट कहलाने वाले हिस्से पर इसका करीब-करीब पूरा नियंत्रण हो चुका है। यमन में सऊदियों पर उसने जबरदस्त दबाव बना रखा है। ईरान ने विदेशी टैंकरों को पकड़कर और बचते हुए निकलकर क्षेत्रीय समुद्र में अपनी कुव्वत भी दिखा दी है। लेकिन जनांकिकी की दृष्टि से जटिल इराक पर दबदबा बनाना इसके लिए मुश्किल ही रहा है। वहां अमेरिका होड़ में है और वह पकड़ ढीली करने को तैयार नहीं है। इराक के शिया लड़ाके ईरान का समर्थन करते हैं, लेकिन उनमें से कई अपने बीच विदेशी ताकतों को नहीं देखना चाहते। आईएसआईएस की शिकस्त के बाद पिछले कुछ महीनों में दक्षिण इराक प्यादों के जरिये सामरिक दबदबे का अखाड़ा बन गया। पड़ोसी सऊदी अरब में अरामको के तेल क्षेत्र पर ईरान का ड्रोन हमला शायद ज्यादा ही हो गया क्योंकि इससे आधा सऊदी तेल उत्पादन क्षेत्र कुछ समय के लिए ठप पड़ गया। दूसरी गलती किरकुक में ऑपरेशन इनहेरेंट रिजॉल्व की गठबंध सेना का अड्डा बने इरानी हवाई ठिकाने पर 27 दिसंबर, 2019 को हमला करना थी क्योंकि इसमें एक अमेरिकी असैन्य ठेकेदार की मौत हो गई। उसके बाद की घटनाओं पर शायद उसका काबू नहीं रहा, जिनमें अमेरिकी दूतावास पर इराकी लड़ाकों का हमला भी शामिल था। शायद अमेरिका के खिलाफ मनोवैज्ञानिक एवं सामरिक बढ़त हासिल करने के लिए इराक में ताकत दिखाना जरूरी समझा गया, इसीलिए ईरान की हरकतें भी बढ़ गईं। 31 दिसंबर, 2019 को इराक और सीरिया में कताइब हिजबुल्ला (हिजबुल्ला का इराकी गुट) के हथियारों के डिपो और कमान केंद्रों पर अमेरिकी बमबारी के बाद शायद कासिम सुलेमानी अति आत्मविश्वास और जल्दबाजी के शिकार हो गए। शायद उन्हें जल्द से जल्द उसका बदला लेने की ठानी।
पश्चिम एशिया के सामरिक दृश्य से फौरन और लंबे अरसे तक उनकी गैर मौजूदगी प्यादों यानी नुमाइंदों और लड़ाकों पर नियंत्रण कमजोर करेगी, जबकि यही नियंत्रण ईरान की मुख्य रणनीति का आधार है। यही वजह है कि ईरान उमड़ते राष्ट्रवाद की मांग के मुताबिक जवाबी हमला करने से पहले शायद अच्छी तरह सोचेगा। ऐसा नहीं है कि ईरान के पास इस्लामिक रिवॉल्यूशनरी गार्ड कोर में ऊंचे कद वाले कमांडर नहीं हैं। फिर भी जब सेना के किसी कमांडर को गुप्त रणनीतिक अभियानों में शामिल किया जाता है तो उसका कद बहुत ऊंचा हो जाता है और उसकी जगह आए कमांडर पर वैसा ही भरोसा करने में समय लग जाता है। सुलेमानी 1998 से ही कुर्द फोर्स संभाल रहे थे। जवाबी हमले की योजना बनाई भी जा रही होगी तो इराक में वह हमला शायद ही किया जाए। ऐसा इसलिए भी है कि इराकी नेता अपनी जमीन पर दो देशों का छद्म युद्ध जारी रखने के पक्ष में नहीं हैं और वहां की जनता की भी यही मांग है। जनता की इच्छा और मांग को अनदेखा नहीं किया जा सकता। ईरान के सर्वोच्च नेता के सैन्य सलाहकार ब्रिगेडियर जनरल हुसैन देहगां ने इस तरह के संकेत देने में पूरी सावधानी बरती है कि जवाबी हमला सैन्य होगा और सैन्य ठिकानों पर होगा। इसके लिए ईरानी जमीन से मिसाइल हमला शायद ही किया जाए क्योंकि उससे ईरान के लिए बहुत अधिक मुसीबतें खड़ी हो जाएंगी। इस मामले में सोच-समझकर आगे बढ़ना होगा वरना हाहाकार मच जाएगा और पूरा पश्चिम एशिया उसकी चपेट में आ जाएगा।
हत्याकांड का दूसरा बड़ा असर यह हो सकता है कि बिखरे हुए आईएसआईएस तत्वों को इराक और सीरिया में नई जिंदगी मिल जाए। ध्यान रहे कि आईएसआईएस को इराकी लड़ाकों और इराकी फौज के कारण ही उसके पारंपरिक गढ़ों में शिकस्त मिली थी। लड़ाकों को रिवॉल्यूशनरी गार्ड्स ने और फौज को अमेरिका ने प्रशिक्षण दिया था तथा हथियार मुहैया कराए थे। यह दुर्लभ मौका था, जब अमेरिका और ईरान एक साथ खड़े थे और उसका नतीजा सबके सामने था। हालांकि आईएसआईएस को मात मिली है, लेकिन अभी यह खत्म नहीं हुआ है क्योंकि उसके कई लड़ाके छिपे हैं, जिनके जरिये उसका नेटवर्क अब भी मौजूद है। कुद्स फोर्स के पास स्थानीय तजुर्बा और नेटवर्क है, जो उसे पश्चिम एशिया में आईएसआईएस का सफाया करने के लिए सबसे बढ़िया संगठन बनाता है। अब उसकी प्राथमिकताएं बदलने और सुलेमानी का तजुर्बा नहीं होने के कारण उसका असर कुछ अरसे के लिए तो सवालों के घेरे में आ ही जाएगा। उम्मीद है कि ईरानी सामरिक बलों के साथ रूस की मौजूदगी से आईएसआईएस के खिलाफ जोर बनाए रखने और उसे उभरने से रोकने में मदद मिलेगी।
ईरान परोक्ष जवाब के तौर पर इजरायल पर हमला करने के बारे में सोचेगा। इसे भांपकर इजरायल ने पहले ही अपनी फौज को पूरी तरह सतर्क कर दिया है। इस कारण यदि अमेरिका के संसाधन शिकार बनने से बच गए तो उसे फायदा ही होगा। ट्रंप की कार्रवाई का अमेरिका में रिपब्लिकन समर्थन भी विरोध कर रहे हैं। जनता मानती है कि राष्ट्रपति की इस कार्रवाई ने अमेरिकी सैनिकों और राजनयिकों की जिंदगियां बेवजह ही खतरे में डाल दी हैं। इजरायल और उसकी संपत्तियों पर हमला हुआ तो इजरायल को जवाबी हमला करने का मौका मिल जाएगा। यदि ईरान को यही रणनीति अपनानी होगी तो शायद वह हिजबुल्ला की मदद से और लेवैंट में अपने नियंत्रण में मौजूद ढेरों मिसाइलों के बल पर हमला करेगा। लेकिन अमेरिका मूक दर्शक नहीं बना रह सकेगा। अधिकतर स्थितियों में और भी बड़े पैमाने पर कार्रवाई होनी लगभग तय है। ईरानी सभ्यता के 52 सांस्कृतिक स्थलों को निशाना बनाने की ट्रंप की धमकी अजीब और अनसुनी धमी है क्योंकि यह विश्व के उस सबसे आधुनिक देश से आ रही है, जो युद्ध में नैतिकता की बात बहुत अधिक करता है। स्वयं ट्रंप अक्सर कहते हैं कि अमेरिका की लड़ाई सत्ता से है, जनता से नहीं। प्रतिबंधों के जरिये अमेरिका ने आम तौर पर जनता को ही निशाना बनाया है और अब एक बार फिर उसने जनता, उसकी विरासत और उसकी सभ्यता के प्रतीकों को निशाना बनाने की धमकी दी है। अमेरिकी सशस्त्र बलों ने शांति और युद्ध के दौरान अपने बीच अनैतिक हरकतों को निशाना बनाकर बड़ा साहस दिखाया है। लेकिन संगठित युद्ध क्षेत्र में ऐसे उपायों के बारे में नहीं सुना गया है। इस पर उनकी प्रतिक्रिया कैसी होगी?
अधिक समय नहीं गुजरा है, जब किसी एक व्यक्ति को निशाना बनाए जाने से दुनिया के अहम हिस्से में अनिश्चितकालीन और पेचीदा लड़ाई छिड़ गई।यह ऑस्ट्रिया के आर्कड्यूक फ्रांज फर्डिनांड और उनकी पत्नी सोफी की 28 जून, 1914 को हुई हत्या जैसा ही है, जिसकी वजह से पहला विश्व युद्ध छिड़ गया था। उम्मीद है कि सभी को सद्बुद्धि मिलेगी और मेजर जनरल कासिम सुलेमानी का नाम इतिहास में ऐसे शख्स के तौर पर नहीं लिखा जाएगा, जिसकी हत्या से दुनिया पर उसी तरह की कयामत आ गई।
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