पिछले साल से ही दक्षिण कोरिया और जापान के बीच बढ़ते तनाव के कारण पूर्वी एशिया में चिंता व्याप्त है। हालांकि राजशाही जापान की ऐतिहासिक विरासत और युद्ध की स्मृतियां क्षेत्रीय राजनीति में बार-बार उभरकर आती हैं, लेकिन क्षेत्र की आर्थिक या सुरक्षा में वे कभी आड़े नहीं आई हैं। दूसरा विश्वयुद्ध खत्म होने के बाद से यह क्षेत्र काफी आगे बढ़ चुका है और वास्तव में औपचारिक आर्थिक एकीकरण के बगैर ही दुनिया का सबसे बड़ा आर्थिक केंद्र बन गया है। पूर्वी एशिया से गुजरने वाले बहुराष्ट्रीय उत्पादन नेटवर्कों को सरकार से ज्यादा बढ़ावा निजी क्षेत्र से मिला है। साथ ही देशों ने क्षेत्र में अमेरिकी सेना की उपस्थिति के कारण सुनिश्चित हुई अबाध शांति को और मजबूत करने का प्रयास किया है। इससे सुनिश्चित हुआ है कि सरकारें उतार-चढ़ाव भरे इतिहास को क्षेत्र की शांति एवं समृद्धि के आड़े नहीं आने दें। इसलिए जापान और दक्षिण कोरिया के बीच अहम सैन्य संधि के टूटने से सवाल खड़े हो गए हैं कि ‘अतीत’ किस तरह ‘भविष्य’ पर हावी हो गया।
जापान ने 1910 से 1945 के बीच कोरियाई उपमहाद्वीप को अपना उपनिवेश बनाकर रखा। 35 साल के जापानी राजशाही शासन के दौरान जापानी नीतियों ने कोरियाई इतिहास एवं संस्कृति को ताक पर रख दिया और कोरियाई जनता को दमनकारी श्रम तथा यौन दासता के लिए मजबूर किया। अक्टूबर 1951 से जून 1965 के बीच दोनों के बीच सात बार द्विपक्षीय वार्ता हुईं, जिनके कारण करीब दो दशक बाद दोनों के बीच संबंध सामान्य हुए। जापान एवं कोरिया गणतंत्र के बीच बुनियादी संबंधों की संधि पर 22 जून 1965 को हस्ताक्षर किए गए, जिससे दोनों देशों के बीच एकदम आरंभिक स्तर के राजनयिक रिश्ते फिर स्थापित हुए। संधि ने जापान से कोरिया को मिलने वाले युद्ध मुआवजे का मामला भी निपटा दिया। जापान ने दक्षिण कोरिया को 80 करोड़ डॉलर दिए (जो दक्षिण कोरिया के उस समय के जीडीपी के एक चौथाई के बराबर राशि थी), जिसमें 30 करोड़ डॉलर के आर्थिक अनुदान, 20 करोड़ डॉलर के कम ब्याज वाले दीर्घावधि ऋण तथा निजी ट्रस्टों को 30 करोड़ डॉलर के ऋण शामिल थे।1
स्याह इतिहास होने के बाद भी जापान और दक्षिण कोरिया के आज व्यापक आर्थिक रिश्ते (85 अरब डॉलर का द्विपक्षीय व्यापार) हैं, दोनों के लोकतांत्रिक मूल्यों में कई समानताएं हैं, साझा सुरक्षा लक्ष्य हैं और दोनों के ही अमेरिका से करीबी रिश्ते हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त होने के बाद से जापान ने अपनी सैन्य और आधिपत्यवादी महत्वाकांक्षाएं त्याग दी हैं और शांतिपूर्ण राष्ट्र बनकर राष्ट्रों के समूह में शामिल हो गया है। पिछले 74 साल में इसने अपनी हरकतों का प्रायश्चित किया है ओर क्षेत्रीय विकास का रास्ता साफ किया है। फिर भी इतिहास की पेचीदा गुत्थियां उलझी हुई हैं और कुछ घाव वाकई समय के साथ भी नहीं भर सकते। पूर्वी एशिया में इतिहास अलग राष्ट्रीयता गढ़ने के लिए कच्चे माल का काम करता आया है और अतीत की सामूहिक स्मृतियों ने राष्ट्रों के किसी समूह को ज्यादा मजबूती से बांधा है। इस तरह जापान की युद्ध के समय की हरकतें और उसकी विरासतें बार-बार मुंह उठाती रहती हैं। दक्षिण कोरिया 1993 में तानाशाही शासन का चोला उतारकर पूरी तरह असैन्य सरकार द्वारा शासित राष्ट्र बन गया, जो जापान के खिलाफ जनता की शिकायतों के प्रति अधिक संवेदनशील था। इस कारण जापान के खिलाफ शिकायतें और मुखर हुई हैं।
कई कोरियावासियों को लगता है कि 1965 में पार्क चंग ही के तानाशाही शासन के समय में की गई संधि अवैध है क्योंकि जो रकम सीधे पीड़ितों को दी जानी थी, उसे दक्षिण कोरिया की अर्थव्यवस्था में पूंजीगत निवेश के रूप में खर्च कर दिया गया। चिंता यह भी है कि संधि उस समय की गई, जब दक्षिण कोरिया आर्थिक पटरी पर आने के लिए जूझ ही रहा था, इसलिए उसके पास जापान से मोलभाव करने की ताकत नहीं थी। साथ ही इस बात पर भी बहस चलती रही है कि संधि द्वारा मिली राशि जापान के युद्धकालीन अत्याचारों के बदले थी या रिश्ते दोबारा बनाने के लिए सद्भावना के तौर पर दी गई थी। हकीकत यह है कि 2000 के दशक के मध्य तक दक्षिण कोरिया की अदालतें जबरिया श्रम एवं अन्य युद्धकालीन अत्याचारों के पीड़ितों को 1965 के समझौते के प्रावधानों के तहत मुआवजा देने से बचती रहीं। इस रुख में बड़ा बदलाव रो मू-ह्युन प्रशासन के समय आया, जिसमें रो ने 1965 के समझौते से जुड़े हजारों दस्तावेज जारी करने की इजाजत दे दी।2
इन दस्तावेजों से दक्षिण कोरिया के लोगों को ऐसी बातें पता चलीं, जिनके बारे में वे पहले जानते ही नहीं थे। इसके अलावा दक्षिण कोरिया ने 2005 में दक्षिण कोरिया-जापान वार्ता से संबंधित दस्तावेजों के प्रकाशन से जुड़े उपायों पर एक साझा निजी-सरकारी समिति बनाई ताकि युद्ध के समय के सभी विवाद निपट जाने के जापान के दावों को परखा जा सके। समिति ने पाया कि जबरिया श्रम के कुछ मामले प्रावधानों के तहत निपटा दिए गए थे, लेकिन यौन दासता में धकेली गई कोरियाई महिलाओं, परमाणु बम के पीड़ितों और कोरिया से जबरदस्ती सखालिन भेजे गए लोगों के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। समिति के निष्कर्ष ने दक्षिण कोरियाई संवैधानिक अदालत के 2015 के ऐतिहासिक निर्णय का रास्ता साफ किया, जिसमें कहा गया कि पीड़ितों की ओर से विवाद निपटाने में सोल की ढिलाई असंवैधानिक थी। इधर जापान माफी मांगे जाने और मुआवजा दिए जाने की मांगों से खीझ गया है क्योंकि उसे लगता है कि ये मांगें कभी खत्म ही नहीं होंगी। जापान सरकार की आधिकारिक नीति यह रही है कि युद्धकालीन संपत्ति के मामले और मुआवजे के व्यक्तिगत दावे 1965 के समझौते के जरिये पूरी तरह निपटा दिए गए।
‘दोनों पक्ष पुष्टि करते हैं कि दोनों पक्षों और उनके लोगों (न्यायिक लोगों समेत) की संपत्ति, अधिकारों तथा हितों से जुड़ी समस्याओं तथा दोनों पक्षों एवं उनके लोगों के बीच दावों, जिनमें जापान के साथ 8 सितंबर, 1951 को की सैन फ्रांसिस्को में किए गए शांति समझौते के अनुच्छेद 6 (ए) में तय दावे भी शामिल हैं, का पूरी तरह से और अंतिम तौर पर निपटारा कर दिया गया है।’
भारी जनाक्रोश के बाद 2015 में जापान और दक्षिण कोरिया ने जापान द्वारा युद्ध के समय कोरियाई महिलाओं से यौन दासता कराने के मसले पर एक समझौता किया, जिसके तहत जापान ने माफी मांगी और 1 अरब येन का कोष स्थापित करने पर सहमत हुआ। जापान के तत्कालीन विदेश मंत्री फुमियो किशीदा ने अपने संयुक्त बयान में जापान की युद्ध के समय की हरकतों को “बड़ी संख्या में महिलाओं के सम्मान तथा गरिमा का भारी अपमान” बताते हुए उसकी निंदा की। इस समझौते को दक्षिण कोरिया में जनता की सहमति नहीं मिली क्योंकि इसमें स्पष्ट रूप से यह नहीं कहा गया था कि “जबरन यौन दासी बनाई गई महिलाओं” यानी “कम्फर्ट वीमेन” को सीधे मुआवजा मिलेगा बल्कि कहा गया था कि उस कोष से “सम्मान एवं गरिमा लौटाने वाली तथा मनोवैज्ञानिक घाव भरने वाली परियोजनाओं” को “सहायता” मिलेगी। जब यौन दासता की शिकार रह चुकी जीवित महिलाओं ने इस माफी की आलोचना की तो जापान सरकार ने इस पर आगे बात करने तथा नए उपाय करने से इनकार कर दिया। उन्हें लगा कि समस्या “पूरी तरह से हल” हो चुकी है।3
अक्टूबर और नवंबर 2018 में दक्षिण कोरिया के सर्वोच्च न्यायालय ने जापानी कंपनियों निप्पॉन स्टील एंड सुमितोमो मेटल और मित्सुबिशी हेवी इंडस्ट्रीज को उन कोरियावासियों को मुआवजा देने का आदेश दिया, जिन्हें द्वितीय विश्व युद्ध के समय जापान के लिए काम करने पर मजबूर किया गया था। कंपनियों ने मामले में आगे अपील कीं और मुआवजा देने में अनिच्छा जताई, जिसके बाद 2019 के आरंभ में अदालत ने फैसला सुनाया कि पीड़ितों को अत्याचार करने वाली कंपनियों की दक्षिण कोरिया में मौजूद संपत्तियों पर कब्जा करने एवं उन्हें बेच देने का पूरा अधिकार है। इस आदेश का जापान में कड़ा विरोध हुआ। तनाव इस साल जुलाई में गंभीर हो गया, जब जापान ने सेमी कंडक्टर तथा डिस्प्ले बनाने के लिए अहम तीन रसायनों (फ्लोरिनेटेड पॉलिमाइड्स, फोटोरेजिस्ट तथा हाइड्रोजन फ्लोराइड) का सोल को निर्यात करने पर अंकुश लगा दिया। दोनों सामग्री दक्षिण कोरिया के इलेक्ट्रॉनिक्स उद्योग के लिए बहुत आवश्यक हैं। जापान में तीन कंपनियां (जेएसआर कॉर्पोरेशन, शोवा देंको और शिन-एत्सु केमिकल) एवं कांतो देंका कोग्यो दुनिया का 90 फीसदी फ्लोरिनेटेड पॉलिमाइड एवं फोटोरेजिस्ट बनाती हैं। दोनों का ही इस्तेमाल एलसीडी और ओलेड डिस्प्ले बनाने में किया जाता है। इसी तरह वे एलएसआई, डीआरएएम और एनएएनडी फ्लैश मेमरी बनाने के लिए जरूरी हाइड्रोजन फ्लोराइड की 70 फीसदी मात्रा तैयार करते हैं।4
कोरिया इंटरनेशनल ट्रेड असोसिएशन से मिली जानकारी के मुताबिक दक्षिण कोरिया 93.7 फीसदी फ्लोरिनेटेड पॉलिमाइड, 91.9 फीसदी फोटोरेजिस्ट तथा 43.9 फीसदी हाइड्रोजन फ्लोराइड जापान से ही आयात करता है।5 टोक्यो ने 2 अगस्त को दक्षिण कोरिया को अपने व्यापारिक साझेदारों की सफेद सूची से भी हटाना नहीं था, जिससे जापान के साथ व्यापार में वरीयता मिलनी बंद हो गई और व्यापार में कम प्रतिबंधों की व्यवस्था भी खत्म हो गई। सोल ने भी जापान द्वारा छेड़े गए कथित व्यापार युद्ध का जवाब दिया और अपनी तरजीही कारोबारी सूची से उसका नाम हटा दिया तथा उसे हाल ही में बनाए गए “तीसरे दर्जे” के व्यापार की श्रेणी में रख दिया। वह जापान तथा दक्षिण कोरिया के बीच (नवंबर 2016 में हुए) सैन्य सूचना साझा करने के समझौते जनरल सिक्योरिटी मिलिटरी इन्फॉर्मेशन एग्रीमेंट (जीसोमिया) से भी 23 अगस्त को हट गया, जबकि इस समझौते का अगले दिन ही खुद-ब-खुद नवीकरण होना था।
जीसोमिया ने कोरिया और जापान में मिसाइल रक्षा प्रणाली के सुगम संचालन में मदद की है। इसके अलावा जापान की रेडार एवं उपग्रह क्षमताएं उत्तर कोरिया द्वारा मिसालइ प्रक्षेपण का फौरन पता लगाने की दक्षिण कोरिया की क्षमता को बढ़ाती हैं। जीसोमिया किसी भी पक्ष (जापान या दक्षिण कोरिया) को खुफिया सूचनाएं साझा करने के लिए बाध्य नहीं करता। लेकिन अगर कोई भी पक्ष साझा करना चाहे तो उसके रास्ते और तरीके जीसोमिया में दिए गए हैं। अमेरिका, दक्षिण कोरिया और जापान ने सूचनाएं साझा करने का त्रिपक्षीय समझौता (टिसा) किया है। लेकिन टिसा में जीसोमिया के मुकाबले कम सूचनाएं रहती हैं और जापान तथा दक्षिण कोरिया को अमेरिका से होते हुए सूचना साझा करनी पड़ती हैं, जिसमें समय लग जाता है और आपात स्थिति में यह बहुत भारी पड़ सकता है।
जापान द्वारा निर्यात पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा किए जाने के तीन दिन बाद 7 जुलाई को सैमसंग के वाइस चेयरमैन ली जाए-योंग इस उम्मीद में जापान गए कि उन्हें आपूर्ति अबाध रहने का भरोसा मिल जाएगा। लेकिन जब वह सोल लौटे तो सैमसंग ने चिट्ठी भेजकर स्थानीय आपूर्तिकर्ताओं को जापानी रसायनों का तीन महीने का भंडार इकट्ठा करने के लिए कहा। उस बीच दक्षिण कोरियाई कंपनियां उस माल के दूसरे स्रोत ढूंढने में जुटी हैं। सैमसंग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, “यह हमारे सामने आई सबसे बुरी स्थिति है। राजनेता इस संकट की जिम्मेदारी नहीं लेते जबकि इसने हमें करीब-करीब खत्म ही कर दिया है।6”
टोक्यो ने दक्षिण कोरिया को ग्रुप ए (पहले ‘सफेद’ श्रेणी) से निकालकर ग्रुप बी में डाल दिया है, लेकिन ज्यादा सख्त नियम झेल रहे और ग्रुप सी में मौजूद ताइवान को जापान से निर्यात में कम बाधा देखने को मिली है। कई विश्लेषक तो मानते हैं कि नए निर्यात नियमों के तहत 8 अगस्त को दक्षिण कोरिया के लिए रेजिस्ट की पहली खेप को जापान सरकार ने जिस तेजी से मंजूरी दी, उससे जीसोमिया से बाहर आने के तर्क कमजोर पड़ गए। दूसरी ओर दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति मून पर अपने घटते जनसमर्थन को बरकरार रखने और न्याय मंत्री के तौर पर मनोनीत चो कुक की मिलीभगत वाले कांड को छिपाने के लिए जापान विरोधी भावनाएं भड़काने का संदेह है। दक्षिण कोरिया के कई विश्लेषकों को नहीं लगता कि जीसोमिया से बाहर आने से दक्षिण कोरिया और उत्तर कोरिया के संबंध सुधरेंगे। उन्हें कोरियाई देशों के मौजूदा संबंधों में जापान से कोई फायदा मिलता नहीं दिखता। उसके बजाय इससे दक्षिण कोरिया और जापान के बीच खाई बन सकती है, जिसका फायदा उत्तर कोरिया उठा सकता है। सोल को राजनयिक रूप से अलग-थलग देखकर प्योंगयांग और भी मनमानी कर सकता है। वह दक्षिण कोरिया से कह सकता है कि दोनों कोरिया के बीच वार्ता फिर शुरू करनी है तो अमेरिका के साथ अपना सुरक्षा गठबंधन कम करो।7
जापान में भी यह धारणा जोर पकड़ रही है कि पुरखों के पापों की सजा आगे की पीढ़ियों को नहीं भुगतनी चाहिए। 15 अगस्त 1945 को जापान की हार के 70 वर्ष पूरे होने के एक दिन पहले 2015 में टेलिविजन पर एक संदेश में शिंजो आबे ने दूसरे विश्वयुद्ध में मारे गए सभी लोगों के लिए “गहरा शोक” व्यक्त किया। उन्होंने यह भी कहा कि “एशिया में अपने पड़ोसियों के कष्ट के इतिहास को हमने अपने हृदय पर लिख लिया है।” लेकिन उन्होंने कहा, “हमें सुनिश्चित करना होगा कि हमारे बच्चे, उनके बच्चे और आने वाली पीढ़ियां माफी मांगने के लिए मजबूर न हों क्येांकि उनका युद्ध से कोई लेना-देना नहीं था। मगर हम जापानियों की हर पीढ़ी को इतिहास का सामना करना होगा। हम पर इतिहास को संजोने और भावी पीढ़ियों को सौंपने की जिम्मेदारी है।8”
मगर जापान को इस बात की बड़ी चिंता भी है कि दक्षिण कोरियाई अदालत के हालिया आदेश से पीड़ितों और उनके संबंधियों समेत 220,000 से अधिक लोगों के लिए जापानी कंपनियों पर मुकदमे करने का रास्ता साफ हो सकता है। मुआवजे की रकम 20 अरब डॉलर या उससे भी ज्यादा हो सकती है। इतना ही नहीं, दक्षिण कोरिया के सर्वोच्च न्यायालय ने अंतरराष्ट्रीय संधि का उल्लंघन करने वाला आदेश दिया है, जिसे देखकर जापान के कब्जे वाले अन्य देश जैसे चीन और फिलीपींस भी इसी तरह के मुकदमे कर सकते हैं।9
जीसोमिया को सोल और टोक्यो के बीच द्विपक्षीय समझौता माना जाता है, लेकिन अमेरिका इसका बड़ा पक्ष है और समझौता खत्म करने के फैसले से उत्तर-पूर्व एशिया में सुरक्षा ढांचे में अमेरिका का निवेश खत्म हो जाता है। विश्लेषकों का एक वर्ग यह भी मान रहा है कि मून ने समझौता इसलिए खत्म किया क्योंकि उन्हें लगता था कि उत्तर-पूर्व एशिया में नए त्रिपक्षीय सुरक्षा समझौते से निकले की उनकी धमकी के बाद अमेरिका ज्यादा सक्रिय हो जाएगा और जापान पर दक्षिण कोरिया के खिलाफ लगाए गए निर्यात नियंत्रण के कदम वापस लेने का दबाव डालेगा। लेकिन कई अन्य विश्लेषकों को लगता है कि समझौता खत्म कर (जापान से ज्यादा) अमेरिका की उपेक्षा की जा रही है, जिससे यह खतरनाक धारणा मजबूत होगी कि सुरक्षा सहयोग - जो राजनीति से दूर रहा है और जिसमें अधिक दूरदर्शिता बरती जाती है - को ऐतिहासिक तनावों की बलि चढ़ाया जा सकता है।
इस क्षेत्र में अमेरिकी सेना की मौजूदगी के कारण हो रहे गैर-कार्मिक खर्चों में दक्षिण कोरिया के योगदान के बारे में अमेरिका और दक्षिण कोरिया के बीच विशेष उपाय संधि (एसएमए) पर भी दबाव पड़ रहा है। 1991 से इस संधि को हर पांच साल में यह सुनिश्चित करने के लिए बदला गया है कि खर्च का करीब आधा बोझ सोल ही उठाए। 2018 में दक्षिण कोरिया ने वहां मौजूद 28,500 अमेरिकी जवानों के लिए 960 अरब वॉन (86 करोड़ डॉलर) चुकाए, जो यूएस फोर्सेस कोरिया के मुताबिक गैर-कार्मिक खर्चों का केवल 41 फीसदी हिस्सा है। लेकिन नए समझौते में सोल से आधा योगदान मांगने के बजाय व्हाइट हाउस कथित रूप से 150 से 200 फीसदी अधिक खर्च मांग रहा है। वॉशिंगटन कथित रूप से यह भी कह रहा है कि समझौते पर हर साल बातचीत हो।10
हैरत की बात नहीं है कि अमेरिका ने जीसोमिया से दक्षिण कोरिया के निकलने के बाद कड़े बयान जारी किए हैं। अमेरिकी रक्षा मंत्री मार्क एस्पर ने सोल को सार्वजनिक तौर पर झिड़कते हुए “बेहद निराशाजनक” शब्दों का इस्तेमाल किया। हिंद-प्रशांत सुरक्षा मामलों के सहायक रक्षा सचिव रैंडॉल श्राइवर ने कहा, “हमें पहले से आगाह नहीं किया गया।” उन्होंने यह भी कहा कि “जब हम बैलिस्टिक मिसाइल से लेकर साइबर एवं अंतरिक्ष तक मौजूद चुनौतियों को देखते हैं तो हम सूचना के आदान-प्रदान की बाधाएं हटाकर और उसे सुगम बनाकर बेहतर स्थिति में होते हैं, उसे कठिन बनाकर नहीं।” उन्होंने दोनों देशों से अपने मतभेद दूर करने के लिए सार्थक बातचीत करने की अपील की और दक्षिण कोरिया को जीसोमिया में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किया। दक्षिण कोरिया के प्रधानमंत्री ली नाक-योन ने कहा है कि उनका देश जीसोमिया में दोबारा शामिल होने पर विचार कर सकता है।11
Links:
[1] https://www.vifindia.org/article/hindi/december/06/2019-japan-dakshin-koriya-Tanav
[2] https://www.vifindia.org/author/prerna-gandhi
[3] https://treaties.un.org/doc/Publication/UNTS/Volume%20583/volume-583-I-8471-English.pdf
[4] https://nationalinterest.org/blog/korea-watch/japan-south-korea-dispute-hundreds-years-making-76241
[5] https://www.mofa.go.jp/a_o/na/kr/page4e_000364.html
[6] https://www.anandtech.com/show/14614/supply-of-dram-nand-and-displays-could-be-disrupted-by-japan-and-south-korea-dispute
[7] https://en.wikipedia.org/wiki/2019_Japan%E2%80%93South_Korea_trade_dispute
[8] https://asia.nikkei.com/Spotlight/Cover-Story/Inside-the-lose-lose-trade-fight-between-Japan-and-South-Korea
[9] https://www.nknews.org/2019/08/what-south-koreas-termination-of-the-gsomia-means-for-north-korea-policy/
[10] https://www.nytimes.com/2015/08/15/world/asia/full-text-shinzo-abe-statement-japan-ww2-anniversary.html
[11] https://thediplomat.com/2019/01/the-us-south-korea-military-cost-sharing-agreement-has-expired-now-what/
[12] https://www.defense.gov/explore/story/Article/1946959/disputes-between-us-allies-hinder-indo-pacific-security-cooperation/
[13] https://www.vifindia.org/article/2019/september/18/2019-japan-south-korea-tensions
[14] https://mediad.publicbroadcasting.net/p/khpr/files/styles/large/public/201907/shinzo_abe__moon_jae-in__pence_in_pyeongchang.png
[15] http://www.facebook.com/sharer.php?title=2019 जापान-दक्षिण कोरिया तनाव: ‘भविष्य’ पर क्यों हावी हुआ ‘अतीत’?&desc=&images=https://www.vifindia.org/sites/default/files/shinzo_abe__moon_jae-in__pence_in_pyeongchang_1_0.png&u=https://www.vifindia.org/article/hindi/december/06/2019-japan-dakshin-koriya-Tanav
[16] http://twitter.com/share?text=2019 जापान-दक्षिण कोरिया तनाव: ‘भविष्य’ पर क्यों हावी हुआ ‘अतीत’?&url=https://www.vifindia.org/article/hindi/december/06/2019-japan-dakshin-koriya-Tanav&via=Azure Power
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