जो लोग अटकलें लगा रहे थे कि मोदी सरकार अनुच्छेद 370 और अनुच्छेद 35A पर मुश्किल भरा फैसला कर पाएगी या नहीं, उन्हें 5 अगस्त को जवाब मिल गया। सरकार ने न केवल दोनों प्रावधानों, जिनमें पहला अस्थायी था और दूसरा पिछले रास्ते से चुपचाप आया था, को खत्म किया बल्कि उसने दो कदम और आगे बढ़ा दिए। उसने जम्मू-कश्मीर के दो टुकड़े कर दिए और दो अलग केंद्रशासित प्रदेश बना दिए। इस तरह जम्मू-कश्मीर अब विधानसभा वाला केंद्रशासित प्रदेश होगा और लद्दाख बिना विधानसभा का कंेद्रशासित प्रदेश होगा। चूंकि दोनों प्रावधान केवल जम्मू-कश्मीर से जुड़े थे, इसलिए राज्य की दो बड़ी क्षेत्रीय पार्टियों नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) ने सख्त चेतावनी दी कि यदि केंद्र सरकार प्रावधानों से छेड़छाड़ करता है तो कानून व्यवस्था चरमरा जाएगी और कश्मीर भारत से टूटकर अलग तक हो सकता है। उन्हें जवाब देने के लिए वे लोग सामने आए, जिन्होंने बताया कि वास्तव में निहित स्वार्थ वाले तत्वों ने कश्मीर समस्या को हमेशा बरकरार रखने और राज्य को शेष भारत में पूरी तरह समाहित करने की राह में रोड़े अटकाने के लिए दोनों अनुच्छेदों का दुरुपयोग किया है।
इस मामले की संवेदनशीलता को देखते हुए पिछले कई दशकों में किसी भी सरकार या मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टी ने दोनों अनुच्छेदों के जारी रहने पर सवाल उठाने की हिम्मत नहीं दिखाई थी, जबकि इनमें से एक अनुच्छेद राष्ट्रपति के आदेश के जरिये लागू हुआ था और दूसरे को अस्थायी और कुछ समय के लिए लागू प्रावधान बताया गया था। इसे देखते हुए ज्यादा लोगों ने नहीं सोचा था कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेतृत्व वाली सरकार जोखिम मोल लेगी। यह सोच तब थी, जब भाजपा अपने चुनाव संकल्प पत्र में अपना संकल्प बता चुकी थी, “हम अनुच्छेद 370 समाप्त करने का अपना रुख दोहराते हैं। हम भारत के संविधान के अनुच्छेद 35ए को समाप्त करने के लिए प्रतिबद्ध हैं क्योंकि यह जम्मू-कश्मीर के अस्थायी निवासियों और महिलाओं के साथ भेदभाव करता है। हम मानते हैं कि अनुच्छेद 35ए राज्य के विकास में रोड़ा है।” इसलिए 5 अगस्त को संसद में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की घोषणा ने वह वायदा पूरा किया, जो अभी तक कागज पर ही था।
अनुच्छेद 35ए तो उस संविधान का हिस्सा तक नहीं था, जिस पर संविधान सभा में बहस हुई थी और जिसे बाद में कुछ संशोधनों के साथ स्वीकार कर लिया गया था। इसे जवाहरलाल नेहरू मंत्रिमंडल की सलाह पर 1954 में तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के आदेश से संविधान में जोड़ा गया था। नेहरू ने 1952 में शेख अब्दुल्ला के साथ दिल्ली समझौता किया और भारतीय नागरिकता को जम्मू-कश्मीर के ‘राज्य के विषयों’ में शामिल पर राजी हो गए। इसके बाद उन्होंने अपने मंत्रिमंडलीय सहयोगियों को भी इसे मंजूरी देने के लिए मना लिया। नेहरू पर शेख अब्दुल्ला का इतना प्रभाव था कि सरकार ने कश्मीर के नेता को खुश करने के लिए राष्ट्रपति के आदेश जैसा अभूतपूर्व कदम उठाया।
चूंकि अनुच्छेद 35ए को कभी संसद में पेश ही नहीं किया गया, इसीलिए संसद में न तो इस पर बहस हुई और न ही इसे पारित किया गया। फिर भी यह प्रावधान शामिल होने से संविधान में संशोधन हो गया। अनुच्छेद 368 स्पष्ट कहता है कि संशोधन विधेयक के जरिये संसद ही संविधान में संशोधन कर सकती है। प्रावधान (2) कहता हैः “इस संविधान में संशोधन की प्रक्रिया तभी शुरू हो सकती है, जब संसद के किसी भी सदन में इस उद्देश्य से विधेयक लाया जाए और जब विधेयक प्रत्येक सदन में बहुमत से पारित हो जाए तो उसे राष्ट्रपति के सामने पेश किया जाएगा।” राष्ट्रपति की सहमति मिलने के बाद विधेयक कानून बन जाता है। अनुच्छेद 35ए के मामले में पूरी प्रक्रिया को ताक पर रख दिया गया और राष्ट्रपति का आदेश, जिसे आधिकारिक रूप से 1954 का संविधान (जम्मू-कश्मीर पर लागू) आदेश कहा गया, जारी कर दिया गया।
संसद में पारित नहीं किया गया कानून असंवैधानिक माना जाएगा या नहीं, यह सवाल 1961 में उच्चतम न्यायालय के पांच न्यायाधीशों के पीठ ने जवाब के बगैर ही छोड़ दिया था। पूरनलाल लखनपाल बनाम भारत के राष्ट्रपति मामले की सुनवाई करते हुए अदालत ने कहा कि राष्ट्रपति संविधान में मौजूद प्रावधानों में संशोधन कर सकते हैं, लेकिन इस मसले पर वह चुप्पी साध गई कि राष्ट्रपति के पास संसद की जानकारी और मंजूरी के बगैर संविधान में नया प्रावधान जोड़ने का अधिकार है या नहीं। अनुच्छेद 35ए का मसला एक बार फिर अदालत पहुंचा था, जहां याची ने स्त्री-पुरुष समानता के मोर्चे पर इस कानून के विफल रहने के कारण इसे चुनौती दी थी। वास्तव में इस विषय पर दो अन्य याचिकाएं भी हुई हैं - एक में प्रावधान पर इस आधार पर प्रश्न उठाया गया था कि यह नागरिकों की दो श्रेणियां बना देता है, जो भारत के संविधान के मूलभूत ढांचे के खिलाफ है; और दूसरी पश्चिमी पाकिस्तान से आए शरणार्थियों के एक समूह ने दाखिल की थी, जिसका दावा था कि अनुच्छेद ने मानवाधिकारों का उल्लंघन किया है क्योंकि इसके कारण उन्हें जम्मू-कश्मीर में संपत्ति खरीदने या मतदान करने का अधिकार नहीं मिलता है।
संयोग से 1954 का राष्ट्रपति का आदेश संविधान के अनुच्छेद (1)(डी) के तहत लागू हुआ और राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद भी इस बात को लेकर सुनिश्चित नहीं थे कि आदेश जारी करना उचित होगा या नहीं। उन्होंने अपना विचार प्रकट करते हुए कहाः “अनुच्छेद 370 प्रावधान (3) बार-बार इस्तेमाल करने के लिए नहीं बनाया गया था। न ही यह अनंत काल तक इस्तेमाल करने के लिए बनाया गया था। सही तो यह है कि ऐसा उपाय तब किया जाए, जब राज्य की संविधान सभा पूरी तरह बन चुकी हो।” लेकिन उन्होंने नेहरू का अनुरोध मान लिया।
अनुच्छेद 370 स्वयं भी विवादित था और मोदी सरकार इसे खत्म करने के रास्ते तलाशती आई है। सरकार (और भाजपा) तथा विक्षी दलों विशेषकर नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी के बीच टकराव का यह दूसरा कारण है। एक तर्क था कि अनुच्छेद 370 अस्थायी प्रावधान है और संविधान निर्माता यह कभी नहीं चाहते थे कि उससे दूसरे अनुच्छेद भी पैदा हो जाएं विशेषकर वे अनुच्छेद, जो पिछले रास्ते से संविधान में शामिल किए गए। प्रावधान की ‘अस्थायी’ प्रकृति आज गरम बहस का विषय बन गई है।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अनुच्छेद 370 संविधान के भाग 21 का हिस्सा है, जिसका शीर्षक है, “अस्थायी, क्षणिक एवं विशेष प्रावधान”। ‘एवं विशेष’ शब्दों को संविधान (13वां संशोधन) अधिनियम, 1962 द्वारा जोड़ा गया। अनुच्छेद जम्मू-कश्मीर के लिए कई विशेष प्रावधानों से संबंधित है और इस तरह राज्य को विशेष दर्जा देता है। उदाहरण के लिए राष्ट्रपति को कुछ विशेष मामलों में आदेश जारी करने से पहले राज्य विधानसभा की सहमति लेनी ही होगी। साथ ही राष्ट्रपति सार्वजनिक अधिसूचना के जरिये घोषणा कर सकते थे कि अनुच्छेद 370 समाप्त हो गया है, लेकिन वह ऐसा राज्य की संविधान सभा की सहमति के बाद ही कर सकते थे। लेकिन उसके बाद समय गुजरने और तमाम घटनाक्रम होने के बाद उपरोक्त शर्त का आज के संदर्भ में कोई उपयोग नहीं रह गया है। जम्मू-कश्मीर में आज संविधान सभा ही नहीं है, इसीलिए मामला मंजूरी के लिए 5 अगस्त को संसद के सामने आया।
अस्थायी होने के बावजूद अनुच्छेद 370 ने अनुच्छेद 35ए को शामिल कराने में ही भूमिका नहीं निभाई बल्कि जम्मू-कश्मीर का संविधान संशोधित करने तथा विभिन्न आदेश जारी करने में भी उसकी भूमिका रही। उदाहरण के लिए राज्य विधानसभा को राज्यपाल, चुनाव आयोग और विधान परिषद के गठन से जुड़े मामलों के संबंध में राज्य संविधान में संशोधन से रोकने के आदेश जारी किए गए। उच्चतम न्यायालय के 1968 के आदेश से फायदा नहीं हुआ; उसमें कहा गया था कि राज्य की संविधान सभा भंग होने के बाद भी अनुच्छेद 370 का प्रयोग ऐसे आदेश जारी करने के लिए किया जा सकता है। वास्तव में राज्य की संविधान सभा राष्ट्रपति का आदेश आने के समय भी काम कर रही थी।
जिन्हें लगता है कि अनुच्छेद 370 जम्मू-कश्मीर को शेष भारत से जोड़ने वाली मजबूत ताकत था, उन्हें कानून लागू होने के बमुश्किल एक दशक बाद प्रमुख राजनेताओं के विचारों पर ध्यान देना चाहिए। उस समय भी 1963 में नेहरू ने लोकसभा को बताया था कि “कानून खत्म” हो गया है। उन्होंने कहा, “इसमें कोई शक नहीं कि कश्मीर पूरी तरह एक हो चुका है... हमें लगता है कि अनुच्छेद 370 के धीरे-धीरे खत्म होने की प्रक्रिया चल रही है। कुछ नए कदम उठाए जा रहे हैं ओर अगले एक-दो महीनों में वे पूरे हो जाएंगे। हमें इसे जारी रहने देना चाहिए।” उनके बयान का आशय स्पष्ट थाः अनुच्छेद अपना उद्देश्य पूरा कर चुका था। एक अन्य प्रमुख नेता गुलजारी लाल नंदा ने कहा कि अनुच्छेद 370 नाम मात्र का है। उन्होंने कहा, “अब केवल खोल बचा है। अनुच्छेद 370 को आप रखें या नहीं रखें, यह अब खत्म हो चुका है। इसमें कुछ नहीं बचा है।” जो खोल बचा था, अब उसे किनारे कर दिया गया है।
शेख अब्दुल्ला ने अनुच्छेद 370 के जन्म में प्रमुख भूमिका निभाई, जैसा बाद में उन्होंने अनुच्छेद 35ए के मामले में भी किया। इसकी सामग्री पर प्रधानमंत्री नेहरू और उनके सहयोगियों ने तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला और उनके लोगों के साथ कई महीनों (मई से अक्टूबर 1949) तक बातचीत की थी। नेहरू को वाकई भरोसा होगा कि अनुच्छेद 370 जम्मू-कश्मीर को पूरी तरह भारतीय संघ के साथ मिला देगा, लेकिन शेख अब्दुल्ला के शायद कुछ और ही विचार थे। उनके लिए अनुच्छेद 370 राज्य में अपना दबदबा बढ़ाने और भारत सरकार को मजबूर करने का जरिया था। उनकी आगे की कार्रवाई, जिसके लिए उन्हें दो बार गिरफ्तार भी किया गया, उनकी संदिग्ध रणनीति की सबूत है।
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