भारत की संघीय प्रकृति की बात बार-बार की जाती रही है और यह सत्तारूढ़ पार्टी तथा विपक्ष के बीच टकराव का विषय रही है। ऐसे मौके आए हैं, जब विपक्षी पार्टियों ने केंद्र पर राजनीतिक और आर्थिक तरीकों से संघीय भावना का उल्लंघन करने का आरोप लगाया और ऐसा भी हुआ है कि केंद्र ने राज्य सरकारों पर संघवाद का पालन नहीं करने का आरोप लगाया। एक मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री से फोन पर बात करने से इनकार कर दिया, दूसरे मुख्यमंत्री ने केंद्रीय जांच एजेंसी को अपने राज्य में काम करने देने से रोक दिया, केंद्र ने अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल किया (या उसे लागू करने की धमकी दी) - ये सभी पिछले कुछ साल में संघवाद के मसले पर केंद्र और राज्यों के बीच विवाद छिड़ने के उदाहरण हैं। इसमें कोई शक नहीं कि हरेक राजनीतिक दल और राजनेता संघवाद की भावना की कसम खाता है और ‘प्रतिस्पर्द्धी संघवाद’ तथा ‘सहकारी संघवाद’ जैसे जुमले प्रचलन में हैं। भारत के संविधान में संघीय भावना की बात कही गई है, जिसे हर कोई सीने से लगाए रहता है, लेकिन क्या वास्तव में यह संघीय प्रकृति का है? क्या भारत ‘राज्यों का संघ’ है? इसका उत्तर है, नहीं। भारत मजबूत केंद्र वाला संगठित राष्ट्र है, जिसमें राज्यों को कुछ अधिकार दिए गए हैं।
भारत के संविधान में ‘यूनियन’ (संगठन) शब्द को प्रमुखता दी गई है, ‘फेडरेशन’ (संघ) को नहीं। संविधान के प्रथम भाग का शीर्षक ‘द यूनियन एंड इट्स टेरिटरी’ (संघ एवं उसका राज्यक्षेत्र) है और उसका अनुच्छेद 1 कहता है, “इंडिया, दैट इज भारत, शैल बी अ यूनियन ऑफ स्टेट्स” यानी “इंडिया अर्थात् भारत राज्यों का संघ होगा।” अनुच्छेद (1) में राज्यों के संगठन को “संघीय संगठन” बताए जाने से संगठन की अहमियत कम नहीं हो जाती। संविधान के 11वें भाग में ‘यूनियन अर्थात् संगठन तथा राज्यों के बीच संबंधों’ की बात की गई है; उसमें ‘फेडरेशन अर्थात् संघ और राज्यों के बीच संबंध’ की बात नहीं है। उसमें अध्याय दो ‘राज्यों तथा संघ की बाध्यता’, ‘विशिष्ट मामलों में राज्यों के ऊपर संघ का नियंत्रण’, ‘भारत के बाहर क्षेत्रों के संबंध में संघ का न्यायाधिकार क्षेत्र’ की बात करता है। इसमें संघ के लिए हर जगह यूनियन है, फेडरेशन शब्द का इस्तेमाल कहीं नहीं हुआ है। ऐसे कई उदाहरण हैं। देश का सर्वोच्च न्यायालय फेडरल कोर्ट ऑफ इंडिया या भारत की संघीय अदालत नहीं कहलाता बल्कि सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया या भारत का उच्चतम न्यायालय कहलाता है।
एकीकृत राष्ट्र के रूप में भारत का संचालन एकसमान दंड संकहिता (जम्मू-कश्मीर के अतिरिक्त, जिसकी अपनी दंड संहिता है) से होता है। अमेरिका राज्यों का संघ यानी फेडरेशन है और वहां अलग-अलग राज्यों के अलग-अलग कानून हैं - कुछ राज्यों में मृत्युदंड है, बाकी में नहीं; कुछ राज्यों में समलैंगिक संबंधों को कानूनी मान्यता मिली है, बाकी में नहीं। भारत में ऐसा नहीं है। संविधान निर्माताओं की सोच स्पष्ट थी - भारत में केंद्र मजबूत होगा और राज्यों के पास सीमित अधिकार होंगे।
स्ंविधान सभा ने ‘यूनियन’ पर जोर देने वाले भारत के संविधान को लंबे विचार-विमर्श के बाद 26 नवंबर, 1949 को स्वीकार किया था और 24 जनवरी, 1950 को सभा के सदस्यों ने औपचारिक तौर पर उस पर हस्ताक्षर किए। संविधान दो दिन बाद लागू हुआ। भारत की संविधान सभा की पहली बैठक 9 जनवरी, 1946 को हुई थी और 24 जनवरी, 1950 तक जारी रहीं, जिस दौरान उसने संविधान लेखन का ऐतिहासिक काम भी किया। संविधान लागू होने के बाद संविधान सभा खत्म हो गई और अस्थायी संसद में बदल दी गई। सामान्य संसद का गठन 1952 में हुआ। लेकिन संविधान के लागू होने से पहले संविधान के मसौदे पर चर्चा होने से भी पहले संविधान सभा के सदस्यों ने स्वतंत्र भारत के संवैधानिक खाके पर लंबी चर्चा की थी और भारत के एकीकृत या संघीय राज्य होने का मसला भी सामने आया था।
13 दिसंबर, 1946 (संविधान सभा के पहले सत्र के पांचवें दिन) को भा के अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद के सामने ही जवाहरलाल नेहरू ने सदन में आठ बिंदुओं का प्रस्ताव रखा। प्रस्ताव में अन्य बातों के साथ कहा गया थाः “यह संविधान सभा भारत को स्वतंत्र संप्रभु गणराज्य घोषित करने तथा भविष्य में उसके संचालन का खाका अर्थात् संविधान तैयार करने का दृढ़ एवं विधिसम्मत प्रण करती है;” और “फिलहाल ब्रिटिश भारत का भाग बने क्षेत्र, भारतीय राज्य के रूप में स्थापित क्षेत्र तथा ब्रिटिश भारत एवं राज्यों के बाहर स्थित भारत के अन्य क्षेत्र एवं अन्य प्रदेश यदि स्वतंत्र संप्रभु भारत में शामिल होना चाहेंगे तो भारत उन सभी के संगठन के रूप में तैयार होगा।”
नेहरू ने कहा कि प्रस्ताव “वचन के रूप” में है और विवाद से बचने के लिए उसे “परिपक्वता भरी चर्चा एवं प्रयासों” के बाद तैयार किया गया है। उन्होंने कहा कि ‘लोकतांत्रिक’ शब्द नहीं जोड़ा गया है क्योंकि गणतंत्र के अर्थ में यह पहले से ही निहित होता है और यद्यपि वह स्वयं समाजवाद का पूरा समर्थन करते हैं किंतु ‘समाजवादी’ शब्द भी नहीं रखा गया है क्योंकि कुछ सदस्यों को उस पर आपत्ति हो सकती थी। उन्होंने कहा कि प्रस्ताव “हमें और इस महान देश में रहने वाले हमारे करोड़ों भाइयों ओर बहनों को दिया गया वचन है”।
प्रस्ताव में ‘यूनियन’ शब्द पर ध्यान देने का जिम्मा बी. आर. आंबेडकर पर छोड़ दिया गया। 17 दिसंबर, 1946 को संविधान सभा में प्रस्ताव पर अपने भाषण में आंबेडकर ने कहा, “मुझे निजी तौर पर चिंता है... मैं मजबूत एकीकृत भारत चाहता हूं, उस केंद्र से भी अधिक मजबूत, जिसकी रचना हमने 1935 के भारत सरकार अधिनियम के जरिये की थी।” उन्होंने ध्यान दिलाया कि कांग्रेस ने कुछ समय पहले ही मजबूत केंद्र का विचार त्याग दिया। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में आलोचना की। “कांग्रेस पार्टी ही बेहतर जानती है कि उसने मजबूत केंद्र को भंग करने पर सहमति क्यों दे दी, जिस केंद्र का निर्माण इस देश में 150 वर्ष के प्रशासन के बाद हुआ था और मेरे हिसाब से जो सराहना एवं सम्मान तथा अपनाए जाने का विषय था।” इसके बाद उन्होंने कहाः “यह प्रस्ताव रखने वाले महाशय ने प्रांतों के संगठन अथवा प्रांतों के समूह को उन शर्तों पर गठित करने का जिक्र क्यों नहीं किया, जिन शर्तों को वह और उनकी पार्टी मानने के लिए तैयार हो गई थी? संघ का विचार इस प्रस्ताव से एकदम गायब क्यों है?” आंबेडकर प्रांतों के उस प्रकार के समूह की बात कर रहे थे, जिस पर कांग्रेस राजी हो गई थी और जिसका उन्होंने विरोध किया था; उन्होंने पहले अपने भाषण में कहा कि उन्हें “समूह बनाने का विचार कभी पसंद नहीं आया” मगर अब ऐसा हो चुका है तो नेहरू के प्रस्ताव में यह शामिल होना चाहिए था।
ये चर्चा आजादी से पहले हुई थीं और हालांकि नेहरू ने कहा था कि यह प्रस्ताव संविधान के निर्माण को प्रभावित करने का प्रयास बिल्कुल भी नहीं है, लेकिन प्रस्ताव से एकल बनाम संघीय अथवा दोनों का विलय जैसे मुद्दे जरूर उठे, जिसमें संतुलन एकल के पक्ष में था। भारत को आजाद हुए कई महीने गुजरने के बाद 4 नवंबर, 1948 को आंबेडकर ने संविधान सभा में संविधान का मसौदा पेश किया। उन्होंने कहा, “...मैं लेखन समिति द्वारा तैयार संविधान का मसौदा पेश करता हूं और इस पर चर्चा का प्रस्ताव रखता हूं।” संविधान लेखन समिति का गठन संविधान सभा द्वारा 29 अगस्त, 1947 को पारित प्रस्ताव के जरिये हुआ था। संविधान का मसौदा पेश करते समय आंबेडकर ने जो भाषण दिया था, उसकी खास बात यह थी कि उन्होंने एकल तथा संघ के मिश्रण पर और कामकाज में सख्ती बरतने अथवा नरमी नहीं बरतने पर बार-बार जोर दिया था क्योंकि नरमी से ही संघीय व्यवस्था को नुकसान होता है। अपने भाषण में आंबेडकर ने “भारतीय संघवाद” शब्द का प्रयोग किया, लेकिन उन्होंने स्वीकार किया कि संघवाद यानी बंटे हुए अधिकारों पर आधारित “दोहरी शासन प्रणाली” से कानूनों में विविधता आ सकती है, जो एक बिंदु के बाद अराजकता फैला सकती है और कई संघीय राज्यों में अराजकता आ चुकी है।” इसलिए उन्होंने कहा कि संविधान के मसौदे में “देश की एकता बरकरार रखने के लिए” तीन उपायों का प्रयोग किया गया है - एकल न्यायपालिका, बुनियादी कानूनों (दीवानी एवं फौजदारी) में समानता और एकसमान अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा। आंबेडकर ने अपने भाषण के दौरान बार-बारा अमेरिका की संघीय व्यवस्था का जिक्र किया, जो उनके अनुसार भारत के लिए उपयुक्त नहीं थी।
संविधान के मसौदे पर गहराई से चर्चा की गई और संविधान सभा के कई सदस्यों ने मजबूत केंद्र पर जोर देने तथा अमेरिका जैसे देश में मौजूद संघीय व्यवस्था का विरोध करने पर आंबेडकर की जमकर सराहना की। उदाहरण के लिए संयुक्त प्रांत के प्रोफेसर शिब्बन लाल सक्सेना ने उनका पूर्ण समर्थन करते हुए कहाः “हम लाख कहें कि विभिन्न प्रांतों में हमारे लोगों की सांस्कृतिक बुनियाद एक जैसी ही है, मगर हम अलग-अलग लोगों का पंचमेल ही हैं; और अंग्रेजों के जाने का फायदा उठाकर व्यवधान फैलाने वाले सभी प्रकार के तत्व सिर उठा रहे हैं, इसीलिए जरूरी है कि केंद्र मजबूत हो।” यह आशंका आज भी सही साबित हो रही है।
संविधान के मसौदे के एक-एक शब्द पर तो चर्चा की ही गई थी, कई संशोधन भी सुझाए एवं स्वीकारे गए थे। अंत में मजबूत केंद्र और बची शक्तियां राज्य को देने के सिद्धांत को स्वीकार किया गया। भारत राज्यों का संगठन यानी यूनियन बना, संघ यानी फेडरेशन नहीं। वह ऐसा संगठन बना, जिसमें संघवाद की भावना तो थी, लेकिन भारत की विशिष्ट परिस्थितियों में संघवाद से पनपने वाली अलगाववाद की भावना नहीं।
(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक टिप्पणीकार, लेखक और जन मामलों के विश्लेषक हैं)
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