मोदी सरकार को दूसरा कार्यकाल मिलने के बाद पाकिस्तान के साथ निपटने में पूरी दृढ़ता दिखाने के लिए भारत की सराहना करनी होगी। बातचीत बहाल करने के पाकिस्तान के बार-बार के इशारों को एकदम सही आधार पर नकार दिया गया है कि आतंकवाद और बातचीत साथ नहीं चल सकते। इस सैद्धांतिक नजरिये के कारण ही सरकार ने मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में पाकिस्तान को नहीं बुलाया और 2014 में की तरह दक्षेस देशों के बजाय बिम्सटेक देशों को न्योता दिया।
इसके बाद बिशकेक में जून 2019 में शांघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की शिखर बैठक के दौरान मोदी और इमरान खान की कोई महत्वपूर्ण मुलाकात नहीं हुई। इतना ही नहीं शिखर बैठक में अपने संबोधन के दौरान मोदी ने पाकिस्तान पर परोक्ष हमला करते हुए कहा कि आतंकवाद की आफत से निपटने के लिए “सभी मानवतावादी ताकतों को अपने संकीर्ण दायरों से बाहर आना होगा और एकजुट होना पड़ेगा। आतंकवादियों को सहायता देने, उनका समर्थन करने और उन्हें वित्तीय मदद देने के जिम्मेदार देशों को जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए। एससीओ के सदस्य देशों को आतंकवाद का खात्मा करने के लिए एससीओ-रैट्स की क्षमता को प्रभावी ढंग से खंगालना भी चाहिए। भारत आतंकवाद की आफत से निपटने के लिए अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन का आह्वान करता है।”
एक अहम बात यह भी हुई कि पाकिस्तान के सदाबहार दोस्त शी चिनफिंग के साथ द्विपक्षीय बातयीत में मोदी ने दोटूक रवैया अपनाया और यह कहने में कोई हिचक नहीं दिखाई कि पाकिस्तान की ओर भारत के बढ़े हाथों को खुद पाकिस्तान ने ही बार-बार झटका है। उन्होंने भारत का यह रुख दोहराने में भी कोताही नहीं बरती कि बातचीत शुरू होने से पहले पाकिस्तान को आतंकवाद से जुड़ी हमारी चिंताओं पर ठोस कदम उठाने होंगे। मोदी ने वापसी में पाकिस्तान के आसमान से उड़ान भी नहीं भरी और उसके बजाय पाकिस्तान का चक्कर लगाते हुए लंबे रास्ते से वापस आए। इस तरह उन्होंने जताया कि पाकिस्तान के साथ टकराव में न तो कोई रियायत मांगी जाएगी और न ही कोई रियायत बरती जाएगी।
उम्मीद की जानी चाहिए कि मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के शुरुआती दिनों में अपनाया गया यह दृढ़ रवैया अगले कुछ वर्ष तक बरकरार रहेगा और भारत के खिलाफ आतंकवाद का उपयोग करने पर पाकिस्तान को और भी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। ऐसी नीति की सफलता के लिए जरूरी है कि लंबे अरसे तक इस पर टिका जाए क्योंकि अपनी तमाम राजनीतिक-आर्थिक कमजोरियों के बावजूद पाकिस्तान जल्दी बाज आने वाला नहीं है। इसकी वजह यह है कि चीन और सऊदी अरब जैसे कुछ देश अगले कुछ अरसे तक उसे संकट से उबारने के लिए तैयार होंगे।
ऐसी परिस्थितियों में सरकार को अगले कुछ वर्ष तक पुरानी नीति पर लौटने के तमाम दबावों से जूझने का दमखम दिखाना होगा। पुरानी नीति यही थी कि पाकिस्तान चाहे हमें कितना नुकसान पहुंचाए, हम उससे बात करते रहेंगे। भारत ऐसा तभी कर पाएगा, जब वह मान लेगा कि दोनों देशों के बीच रिश्ते सामान्य नहीं हो पाने का कारण कश्मीर मसले पर मतभेद नहीं है बल्कि पाकिस्तान की भारत-विरोधी फितरत है। क्रिस्टीन सी फेयर ने अपनी पुस्तक “फाइटिंग टु द एंडः द पाकिस्तान आर्मीज वे ऑफ वॉर” में लिखा है कि पाकिस्तान का संशोधनवाद कश्मीर में क्षेत्रीय यथास्थिति को नकारता ही नहीं है बल्कि क्षेत्र में और उसके बाहर भारत की स्थिति को भी कमजोर करना चाहता है। कुल मिलाकर पाकिस्तान की रणनीतिक संस्कृति ‘भारत के उदय को रोकने’ तक ही सीमित है।
पाकिस्तान के प्रति कड़ा रवैया बरकरार रखना है तो सरकार को पाकिस्तान के दोगलेपन का शिकार बनने से भी बचना होगा। अफसोस की बात है कि भारत ओर अमेरिका की पिछली सरकारों ने पाकिस्तान के झूठे वायदों और वचनों को सही मान लिया। पाकिस्तान की सद्भावना भरी बातें और आतंकवादी संगठनों के खिलाफ कार्रवाई के उसके दावे कभी सार्थक कार्रवाई में नहीं बदले हैं और यह देश आतंकवाद के पनपने की जगह बना हुआ है। उदाहरण के लिए हाल ही में फाइनेंशिलय एक्शन टास्क फोर्स (एफएटीएफ) के दबाव के कारण पाकिस्तान ने कहा कि वह आतंकवादी संगठनों के खिलाफ कार्रवाई कर रहा है और उन संगठनों द्वारा चलाए जा रहे 700 से अधिक मदरसे वह बंद कर चुका है। साथ ही उसने दावा किया कि पुलवामा हमले के बारे में भारत को सीधे और अमेरिका के जरिये खुफिया सूचना दे चका है। ऐसे मामलों में पाकिस्तान ऐसी ही रस्मी कार्रवाई करता है।
सभी जानते हैं कि पाकिस्तान में कई आतंकवादी संगठनों पर वर्षों पहले प्रतिबंध लगाया जा चुका था, लेकिन वे उसी नाम से या नए नाम से फिर उभरत आते हैं और उनके नेता आज भी उसी तरह काम कर रहे हैं। यह बात भी सभी जानते हैं कि लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद की धार्मिक शाखाएं पूरी तरह काम कर रही हैं और रकम इकट्ठी कर रही हैं। हमारे खिलाफ आतंकवाद का इस्तेमाल करने की अपनी नीति छोड़ने के प्रति पाकिस्तान की गंभीरता को उसकी बातों से नहीं बल्कि इस बात से परखा जाना चाहिए कि वह अपने देश में खड़े किए आतंकी ढांचे को खत्म कर रहा है या नहीं। यदि वह ऐसा कर रहा है तो सीमा पार आतंकवाद रुकने, दाऊद इब्राहीम जैसे आतंकियों और सिख अलगाववाद को बढ़ावा देने में जुटे तत्वों को भारत के हाथ सौंपे जाने, भारत में मुंबई और उसके बाद के आतंकी हमले कराने वालों की गिरफ्तारी और मुकदमे, जैश, लश्कर जैसे आतंकी गुटों के सफाये और उनके नेताओं पर मुकदमे आदि के जरिये उसके स्पष्ट सबूत मिल जाते। जब तक ऐसे सबूत नहीं मिलते तब तक हमें यह नहीं मानना चाहिए कि पाकिस्तान वास्तव में अपना रास्ता बदल रहा है और सामान्य देश बन रहा है, जिसके साथ सामान्य रिश्ते मुमकिन हैं।
लेकिन दोगले पाकिस्तान के झांसे में आने से तो बचना ही है, सरकार को भारत और विदेश से उठ रही उन आवाजों को भी अनसुना करना होगा, जो कहती हैं कि पाकिस्तान में नागरिक समाज की मजबूती के लिए, पाकिस्तान को अलग-थलग जाने से रोकने और तीसरे पक्ष की मध्यस्थता से बचने रहने के लिए, पाकिस्तान की परमाणु क्षमता को ध्यान में रखते हुए और गतिशीलता बनाए रखने के लिए हमें उसके साथ बातचीत जारी रखनी चाहिए। ये पुरानी और घिसी-पिटी दलीलें हैं, जिन्हें सीधे खारिज कर दिया जाना चाहिए। पाकिस्तान का नागरिक समाज कमजोर लकड़ी की तरह है, जिसका सहारा नहीं लिया जा सकता और भारत के साथ रिश्ते के मामले में उसकी मानसिकता भी सरकार और सेना से अलग नहीं है। इसलिए पाकिस्तानी नागरिक समाज को मजबूत करने का कोई फायदा नहीं है।
पाकिस्तान से कट जाना बीसवीं सदी में जितनी चिंता की बात थी, अब उतनी नहीं है क्योंकि पाकिस्तान के मुकाबले भारत की ताकत बहुत अधिक है। अंतरराष्ट्रीय मामलों में हमारा अधिक वजन होने के कारण आज हम तीसरे पक्ष की मध्यस्थता को सीधे खारिज कर सकते हैं और अंतरराष्ट्रीय समुदाय से मांग भी कर सकते हैं कि आतंकवाद का निर्यात करने पर पाकिस्तान को सबक सिखाया जाए। पाकिस्तान की परमाणु क्षमता के कारण भारत पर खतरा तो गंभीर है, लेकिन परमाणु हमले से निपटने की अपनी क्षमताओं के बल पर हम उसे संभाल सकते हैं।
राजनयिक गतिशीलता बनाए रखने और रिश्तों में उतारचढ़ाव कम से कम रखने की खातिर पाकिस्तान से संवाद बरकरार रखने की दलील में भी दम नहीं है क्योंकि दशकों तक दोनों देशों के बीच लगातार संवाद का कोई संतोषजनक परिणाम नहीं निकला है। हमें ध्यान रखना चाहिए कि हमने कितनी भी रियायतें दी हों, पाकिस्तान ने हमेशा हमारे साथ बुरे से बुरा बर्ताव ही किया है और करता रहेगा। ऐसी परिस्थितियों में यदि हमने पाकिस्तान के साथ नरमी बरतने की नीति त्यागकर सख्ती बरतना शुरू कर दिया है तो ठीक ही किया है।
मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में पाकिस्तान के साथ सख्ती तो दिखाई गई है, लेकिन हमारे खिलाफ आतंकवाद का इस्तेमाल करने के एवज में उस पर प्रत्यक्ष और परोक्ष, राजनीतिक और आर्थिक, राजनयिक और जरूरत पड़ने पर सैन्य कार्रवाई करनी चाहिए ताकि उसे खमियाजा भुगतना पड़े। भारत को इस दिशा में पहला कदम उठाते हुए पाकिस्तान को आतंकवाद का प्रायोजक देश करार देने वाला कानून संसद में पारित कराना चाहिए। इससे न केवल पाकिस्तान को दंड देने की हमारी नीति के बुनियादी नियम तैयार होंगे बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान को अछूत देश घोषित कराने में भी मदद मिलेगी।
(राजदूत सतीश चंद्र उप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार रह चुके हैं और वीआईएफ समुदाय के सदस्य हैं)
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