केंद्र की नरेन्द्र मोदी सरकार ने अल्पसंख्यक समुदाय तक अपनी पहुंच और बढ़ा कर देश में एक स्पंदन पैदा कर दिया है। उसने अल्पसंख्यक समुदाय के छात्रों को अगले पांच वर्षो में पांच करोड़ की राशि छात्रवृत्ति में देने का ऐलान किया है। खास बात यह है कि इसमें बड़ी तादाद में मुस्लिम छात्राएं भी होंगी। मदरसों को भी गतानुगतिकता से निकाल कर आधुनिक विषयों; मसलन इंग्लिश, विज्ञान और कम्प्यूटर की शिक्षा देने के लिए संसाधनों से लैस किया जाएगा। यहां के छात्रों को उच्च शिक्षा ग्रहण के लिए ब्रिज कोर्स चलाया जाएगा, जो इन दोनों पढ़ाइयों के बीच बने बड़े अंतर को पाट देगा। कई सारे निष्पक्ष विश्लेषकों ने सरकार के इस सकारात्मक निर्णय का स्वागत किया है और आशा व्यक्त की कि इस योजना का प्रभावी क्रियान्वयन किया जाएगा। हालांकि इस क्रम में यह याद रखा जाना चाहिए कि अल्पसंख्यक के कल्याण पर ध्यान विकास का एक पहलू है। इसमें एक दूसरा और सर्वाधिक अधिक मौलिक आयाम है, जिस पर विचार किया जाना चाहिए : अल्पसंख्यक कौन है?
यह सवाल प्राथमिकता से उठाया जाता है; क्योंकि भारतीय संविधान ने अल्पसंख्यक शब्द को परिभाषित नहीं किया है। इसी के सदृश ‘सेकुलर’ शब्द है, जिसे संविधान की प्रस्तावना में 1970 के दशक में जोड़ा गया किंतु उसे परिभाषित नहीं किया गया। संविधान में ‘अल्पसंख्यक’ शब्द का उपयोग बहुत से अनुच्छेदों में किया गया है, किंतु उसका धार्मिक ढांचे में व्यवहार नहीं किया गया है, जिस रूप में हम समझते आए हैं और स्वीकार करते रहे हैं। अनुच्छेद 350ए इस संदर्भ का उपयोग इस प्रकार करता है,‘‘सभी राज्य इसके लिए प्रयास करेगा और इसके अंतर्गत आने वाले स्थानीय प्रशासन की यह कोशिश होगी, वह भाषायी रूप से अल्पसंख्यक समूहों के बच्चों को प्राथमिक स्तर की शिक्षा को उनकी मातृभाषा में दिलाने के लिए सुविधाएं मुहैया कराये।’’ यह प्रावधान 1956 के कानून में संविधान में किये गए सातवें संशोधन के बाद किया गया। इस प्रकार, संविधान में अल्पसंख्यक का मायने भाषायी समूह से है, जो समूचे राज्य में संख्या की दृष्टि से कम हैं। यह संख्या उस राज्य के अंतर्गत किसी खास इलाका और क्षेत्र विशेष में भिन्न होगी। अनुच्छेद 29 भी भाषायी और सांस्कृतिक अर्थ में अल्पसंख्यक शब्द का उपयोग करता है। इस मामले में विशेषज्ञों की राय है कि अनुच्छेद भारतीय नागरिकों के उन वर्गों को संदर्भित करता है, जिनकी अपनी भिन्न भाषा, लिपि और अपनी संस्कृति-चाहे वे बहुसंख्यक समुदाय से जुड़े हों या अल्पसंख्यक समुदाय से।
संविधान ने अनुच्छेद-30 के जरिये अल्पसंख्यक शब्द की व्याख्या धार्मिक संदभरे में करने के लिए विकल्प खुला रखा है, जिसे इस प्रकार पढ़ा जाता है : ‘‘सभी अल्पसंख्यकों को, चाहे वे धार्मिक आधार पर हों या भाषायी आधार पर, अपनी पसंद के शिक्षण संस्थानों को स्थापित करने और उन्हें चलाने का अधिकार होगा।’’ किंतु विगत दशकों में जो हुआ है, उसमें अल्पसंख्यक शब्द को परिभाषित करने में भाषयी शर्त पीछे चली गई है और ‘धर्म’ ने केंद्रीय स्थान ग्रहण कर लिया है। यह इस तथ्य के बावजूद हुआ है कि देश में राज्यों की रचना प्राथमिक रूप से भाषायी आधार पर हुई है।
सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य स्तर के कई मामलों में अल्पसंख्यक को परिभाषित करने के लिए अनुच्छेद 30 का उपयोग किया है। सर्वोच्च न्यायालय में 2002 में टीएमए पई फाउंडेशन एवं अन्य बनाम कर्नाटक राज्य मामले में, न्यायमूर्ति ने निर्णय दिया कि अनुच्छेद 30 (1) धार्मिक और भाषायी रूप से अल्ससंख्यक को अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों को खोलने और उन्हें चलाने अधिकार दिया है। दिलचस्प है कि विद्वान न्यायाधीश ने इस मामले पर सुनवाई के लिए इसे नियमित बेंच के सुपुर्द कर दिया : चूंकि राज्यों ने भाषागत आधार को पुनर्व्यवस्थित किया है और अनुच्छेद 30 भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यकों, दोनों को ही विवेचित करता है, ऐसे में अल्पसंख्यक के दर्जे को तय करने का काम राज्य द्वारा ही किया जाना चाहिए। इसमें विचार का एक अतिरिक्त प्रश्न भी था कि अनुच्छेद 30 (1) के अनुसार ‘धर्म’ का आशय क्या है। किंतु पीठ इस बात पर स्पष्ट थी कि भाषायी और धार्मिक दोनों विचार ‘अल्पसंख्यक’ संदर्भ की समझ देते हैं। अल्पसंख्यकों के निर्धारण का मसला केंद्र और राज्य दोनों के साथ है। अल्पसंख्यक कानून के लिए राष्ट्रीय आयोग ने मुस्लिमों, ईसाइयों, सिखों, बौद्धों, जैनियों (इन्हें बाद में जोड़ा गया) और पारसियों को राष्ट्रीय स्तर पर अल्पसंख्यक के रूप में पहचान की, किंतु इस सूची में अन्यों को राज्य सरकारों ने जोड़ा है। यहूदियों को महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और गुजरात में अल्पसंख्यक समुदाय का दर्जा दिया गया है। किंतु स्थिति उस समय जटिल हो जाती है, जब एक राज्य में भाषायी या धार्मिक रूप से अल्पसंख्यक समूह की श्रेणी में रखा गया समुदाय दूसरे राज्यों में बहुसंख्यक समुदाय का दर्जा पा लेता है। उदाहरण के लिए सिख पूरे देश में अल्पसंख्यक हैं जबकि पंजाब में वह बहुसंख्यक हैं। हिन्दू भी पूरे देश में बहुसंख्यक हैं, किंतु जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर के कई भागों में वह अल्पसंख्यक हैं। तो क्या देश में बहुसंख्यक समूहों को ऐसे राज्यों में अल्पसंख्यक के रूप में परिगणित किया जाना चाहिए, जहां वे अल्प संख्याओं में हैं और उन्हें भी अल्पसंख्यकों के वही अधिकार दिया जाना चाहिए? इसके विपरीत, क्या अल्पसंख्यकों को राज्यों में उनकी अधिक संख्या या प्रभावकारी हैसियत को देखते हुए राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें बहुसंख्यक का दर्जा दिया जाना चाहिए और अल्पसंख्यक के उनके दर्ज को खत्म कर देना चाहिए? यहां यह याद रखना चाहिए कि संविधान में और सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों में मानकीकरण का ध्यान रखा गया है। अल्पसंख्यकों के अधिकार पर कहते हुए उन्हें शिक्षण संस्थानों को खोलने और चलाने का अधिकार दिया गया है, यह अनुच्छेद 29 (1) से आता है, जिसमें कहा गया है, ‘‘भारत के भूभाग के अंतर्गत आने वाले शहरों के किसी भी भाग में रहने वाले या ऐसे किसी भाग में रहने वाले जहां उनकी विशिष्ट भाषा, लिपि और अपनी संस्कृति हो, इनको संरक्षित करने का उन्हें अधिकार होगा।’’ यह जानी-समझी हुई बात है कि शिक्षा उन विशिष्टिताओं के संरक्षण का माध्यम है।
फिर भी दुविधा के बने रहने को मानते हुए, सर्वोच्च न्यायालय ने महसूस किया कि परिभाषा जैसे विवादित विषय को तय कर देना चाहिए। अभी मात्र चार महीने पहले ही, न्यायालय ने अल्पसंख्यक राष्ट्रीय आयोग को इसकी जांच का निर्देश दिया कि क्या उन राज्यों में जहां हिन्दू अल्पसंख्या में हैं, वहां वे अल्पसंख्यकों को हासिल लाभों का उपयोग कर सकते हैं? इसने आयोग से यह भी जांच करने के लिए कहा है कि अल्पसंख्यकों का दर्जा तय करने का काम केंद्र के बजाय राज्यों को दिया जा सकता है? सर्वोच्च अदालत ने आयोग को यह निर्देश भारतीय जनता पार्टी के सांसद अश्विनी कुमार उपाध्याय की दाखिल याचिका पर दिया, हालांकि इसे सुनवाई के लिए एडमिट नहीं किया। तो भ्रम को दूर करने के अच्छे कारण हैं। 2011 की जनगणना के मुताबिक; देश के आठ राज्यों में हिन्दू अल्पसंख्या में हैं, वे वहां कुल 40 फीसद की आबादी में महज तीन फीसद हैं और फिर भी, अब तक न तो उन्हें अल्पसंख्यक के रूप में मान्यता दी गई है और न ही इस कोटि से जुड़े कोई सामाजिक लाभ ही उन्हें दिये गए हैं। इसके पहले, सर्वोच्च न्यायालय ने उपाध्याय की याचिका को सुनने से इनकार कर दिया था और इस पर विचार के लिए अल्पसंख्यक राष्ट्रीय आयोग से सम्पर्क करने का निर्देश दिया था। किंतु वहां जब पैनल ने याचिकाकर्ता की अपील नहीं सुनी तब सर्वोच्च न्यायालय आगे आया। इससे यह उम्मीद जगी है कि ‘अल्पसंख्यक’ शब्द अब स्पष्ट रूप से परिभाषित हो जाएगा।
सर्वोच्च न्यायालय ने इसके काफी पहले से भी बड़े-बड़े मसलों का संज्ञान लेता रहा है। 2016 में इसकी पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने इसकी समीक्षा करने पर सहमत हो गया था कि धार्मिक समुदाय को उस राज्य में, जहां वे संख्या और समाज दोनों ही नजरिये से दखलकारी स्थिति में हैं, अल्पसंख्यक की हैसियत दी जानी चाहिए? यह मामला अदालत में तब सुनवाई के लिए आया था, जब पंजाब सरकार ने शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी (एसजीपीसी) द्वारा चलाये जा रहे शिक्षण संस्थानों को अल्पसंख्यक का दर्जा दिये जाने का एक नोटिस जारी किया था। पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने उस अधिसूचना को रद्द कर दिया था और मामला सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचा था। अब जरा 2005 में लौटें, तब बाल पाटिल मामले में देश की सर्वोच्च अदालत ने कहा था कि एक समुदाय को अल्पसंख्यक के रूप में तभी संरक्षित किया जाना चाहिए जब यह आशंका हो कि वह समुदाय अन्य समुदायों द्वारा ‘प्रभुत्व’ में रखा जाएगा।
अगर आज अल्पसंख्यक की परिभाषा भटकाने वाली लगती है तो आज से 27 साल पहले तो यह स्पष्टता से और भी बहुत दूर थी, जब राष्ट्रीय आयोग अल्पसंख्यक अधिनियम 1992 के आधार पर उसी साल अल्पसंख्यक राष्ट्रीय आयोग की बुनियाद रखी गई थी। इसको जनादेश के साथ अल्पसंख्यक समुदायों के अधिकारों का संरक्षण एवं संवर्धन करने का काम सौंपा गया था। साथ ही, उनकी शिकायतों का भी प्रभावी तरीके से समाधान सुनिश्चित करने का भार दिया गया था। पैनल को अन्य जवाबदेहियां भी दी गई थीं, जैसे समय-समय पर अल्पसंख्यक अधिकारिता बढ़ाने से संबंधित मामलों का अध्ययन करने और अवधि विशेष पर उनकी रिपोर्टे सरकार को सौंपने का काम भी दिया था। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग ने इस पृष्ठभूमि में काम करना शुरू किया, जब ‘अल्पसंख्यक’ की कोई निश्चित परिभाषा नहीं थी। यद्यपि यह संयुक्त राष्ट्र के 1992 के घोषणापत्र का आधार ग्रहण करता है, जो मौजूदा राष्ट्रीय, जातीय, सांस्कृतिक, धार्मिक और भाषाई पहचानों को संरक्षित करने का वादा करता है, किंतु अपने समूचे अस्तित्व में इसका मुख्य जोर प्राथमिक रूप से धार्मिक अल्पसंख्यकों पर ही रहा है जबकि सांस्कृतिक और भाषायी आयामों के क्षेत्रों में बहुत कम काम हुआ है।
(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक समीक्षक और सार्वजनिक मामलों के विश्लेषक हैं।)
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