पवित्र रमजान का महीना मई, अमन बहाली के बजाय, मध्य-पूर्व में तनाव बढ़ने का गवाह रहा है। 2 मई को अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने घोषणा कर दी थी कि ईरान से तेल खरीदने वाले आठ देशों को और छूट नहीं दी जाएगी। इन देशों में भारत भी शामिल था, जिसे अपवादस्वरूप पिछले नवम्बर से ही क्रूड ऑयल खरीदने की अनुमति दी गई थी। यहां अमेरिकी सेना की गतिविधियां बढ़ गई थीं और युद्ध को उकसाने का काम तेज हो गया था। फिर ईरान पर कड़े प्रतिबंध लागू कर दिये गए। ईरानियों ने भी उसका तरह-तरह से जवाब दिया जबकि दोनों पक्ष बयान पर बयान देते रहे कि ‘कोई भी जंग नहीं चाहता है’ लेकिन (अगर थोपा गया तो) वे इसके लिए तैयार हैं। यहां तक कि संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) में सऊदी अरब के चार तेल टैंकरों को निशाना (12 मई) बनाया गया और सऊदी की पाइप लाइनों पर हाउती विद्रोहियों ने ड्रोन से हमले (21 मई) किये, जिसे ‘नंगी आक्रामकता’ कहा गया। ईरानियों पर जुर्म में शामिल होने का इल्जाम न केवल यूएई के मंत्री ने लगाये बल्कि जॉन बोल्टन ने भी यही दोहराया। इन इल्जामात ने जंग के बादलों को जैसे हवा दे दी।
बिगड़ते जा रहे हालात को सम्हालने और गिरावट को रोकने के लिए राजनयिक गतिविधियां शुरू करना एक स्वाभाविक नतीजा थी। ईरान के विदेश मंत्री जावेद ज़रीफ भारत (आम चुनाव के बीच) आए, लेकिन सरकार की तरफ से उन्हें सूचित किया गया कि तेल खरीद आगे भी जारी रखने पर नई सरकार ही कोई फैसला ले सकेगी। भारत ने ईरान को आगे की खरीद के लिए कोई नया ऑर्डर नहीं दिया था परंतु वह वैकल्पिक वित्तीय और भुगतान की व्यवस्था की संभावनाएं तलाश रहा था। चीन और तुर्की ने ईरान के खिलाफ अमेरिकी प्रतिबंध का खुलकर मुखालफत की थी, जब यूरोपीय यूनियन ने मौन विरोध किया था। ईरानियों ने यूरेनियम संवर्धन की सीमा को बढ़ाने का फैसला किया। अमेरिकी विदेश मंत्री पोम्पियो ने ईरान से बिना शर्त (इसे शायद ईरानियों ने कुछ अंतर्निहित शर्त के साथ की गई पेशकश माना) गुफ्तगू की पेशकश की और राष्ट्रपति ट्रंप ने भी जापान में कहा कि वह ईरान से जंग नहीं चाहते। लेकिन इन दोनों कद्दावर नेताओं के बयान भी ईरानियों के मर्म को छू नहीं पाए। ईरान ने इसे ‘कपटी’ एवं ‘महज लफ्जों का खेल’ मानते हुए उन्हें खारिज कर दिया। विदेश मंत्री जावेद ज़रीफ ने अपने बयान में कहा, ‘‘दि इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ ईरान लफ्जों के इस खेल और नये लिबास में छिपे खुफिया एजेंडे के इजहार पर जरा भी ध्यान नहीं देता।’’ इसके अलावा, ज़रीफ ने कहा,‘‘इसकी बहुत उम्मीद नहीं है क्योंकि बात करना दबाव के लगातार सिलसिले के रूप में है। यह रीअल सेक्टर में तो काम आ सकता है, लेकिन ईरान के साथ व्यवहार में यह काम नहीं आनेवाला।’’ हालांकि अपनी महत्तम हैसियत को देखते हुए राष्ट्रपति ट्रंप ने उम्मीद जताई कि ईरान एक दिन समझौते की मेज पर लौट आएगा।
द्विपक्षीय शटल डिप्लोमेसी के अलावा, क्षेत्र में और मुस्लिम दुनिया के बाहर के देशों ने महीने के अंत (30-31 मई) में मक्का में हुए तीन शिखर सम्मेलनों-जीसीसी (छह सदस्यीय गल्फ कोऑपरेशन कांउसिल), अरब लीग और ओआइसी-में भाग लिया था। इनमें सभी प्रतिभागियों ने फारस की खाड़ी में अस्थिर कर देने वाली स्थिति पर अपनी चिंताएं जाहिर कीं। इन सम्मेलनों का खास गुण यही था कि सऊदी अरब, यूएई, बहरीन और मिस्र द्वारा कतर की नाकेबंदी के तीन साल बाद उसके प्रधानमंत्री अल थानी ने सम्मेलन में शिरकत की, लेकिन उनके रिश्तों में कोई गर्मजोशी नहीं दिखी। वहीं दूसरी ओर, कतर के विदेश मंत्री अब्दुर्रहमान अल थानी ने अपना दुराव न छिपाते हुए कहा,‘‘शिखर सम्मेलनों ने ईरान के प्रति वाशिंगटन की नीति को कबूल कर लिया है और इसमें पड़ोसी देशों को विचार का हिस्सा बनाने को नहीं माना है। खाड़ी शिखर सम्मेलन पर जारी के बयान में एकीकृत खाड़ी की वकालत की गई है, लेकिन कतर के खिलाफ तीन साल से जारी नाकेबंदी के बीच यह बात कहां ठहरती है?’’ ओआइसी में ईरान का एक छोटा प्रतिनिधिमंडल मौजूद था। जाहिर है कि सम्मेलन के बाद सऊदी और अमीरात ने कतर के पक्ष की निंदा की। इसी बीच, राष्ट्रपति ट्रंप ने कतर के आमीर को क्षेत्रीय और द्विपक्षीय मामलों पर गुफ्तगू के लिए 9 जून को वाशिंगटन तलब कर लिया।
यह याद रखना होगा कि इस्लामिक सहयोग संगठन (ऑर्गनाइजेशन फॉर इस्लामिक कोऑपरेशन/ओआइसी) के विदेश मंत्रियों की मार्च में एक बैठक हुई थी, जिसमें भारत के विदेश मंत्री को भी बतौर अतिथि बुलाया गया था। लेकिन मक्का में हुए 14 वें शिखर सम्मेलन में ओआइसी ने भारत विरोधी अपने पुराने रुख पर लौटते हुए सऊदी अरब के यूसुफ अल्देबएआ को जम्मू-कश्मीर का विशेष दूत नियुक्त कर कश्मीर के अवाम (या कि अलगाववादियों!) के प्रति अपनी हमदर्दी जाहिर की और भारत से कहा कि वह वहां जनमत संग्रह कराए। जाहिर है कि भारत ने इस बयान को एकदम से खारिज कर दिया और अपने देश में इसे ‘अवांछित दखल’ करार देते हुए ओआइसी की निंदा की।
अमेरिकी राष्ट्रपति के दामाद जारेड कुशनर को इस्राइल-फिलिस्तीन विवाद के हल के लिए अघोषित ‘सदी के समझौते’ का नया प्रवर्त्तक माना जा रहा है। उन्होंने अम्मान, राबात और येरुशलम का दौरा (27 से 31 मई तक) कर इस विवाद के हल के लिए एक नई पहल की है। उनके साथ ट्रंप के अंतरराष्ट्रीय मामलों के विशेष दूत जेसन ग्रीनब्लाट और ईरान में अमेरिका के विशेष प्रतिनिधि ब्रायन हूक भी थे। मध्यपूर्व शांत प्रक्रिया को त्वरित गति से शुरू करने के लिए मनामा में 25-26 जून को प्रस्तावित आर्थिक कार्यशाला में क्षेत्रीय सहयोग की भी मांग की गई। इसका मतलब संघर्ष और गरीबी से जर्जर गाजा के पुनर्निर्माण के लिए प्रारम्भिक रूप से आर्थिक पैकेज प्रदान करना है, जबकि ‘समृद्धि के लिए शांति’ थीम पर बहरीन कान्फ्रेंस अगर होता है तो फिलिस्तीनी भू-भाग में संरचनागत विकास के लिए बड़े निवेश के वादे हो सकते हैं। लेकिन अमेरिका और खास कर उसके राष्ट्रपति ट्रंप पर अविश्वास के चलते कोई पहल नहीं भी हो सकती है। जैसा कि फिलिस्तीन राष्ट्रपति मोहम्मद अब्बास ने कहा कि न तो उन्हें बुलाया गया है और न ही कोई फिलिस्तीनी उस सम्मेलन में शिरकत करेगा। उन्होंने आगे कहा, ‘‘फिलिस्तीन सरकार इस कान्फ्रेंस को मान्यता नहीं देती है और ट्रंप का ‘सदी का समझौता’ जहन्नुम में चला जाएगा और इसी तरह, बहरीन में होने वाला इकनोमिक वर्कशॉप भी, जिसे अमेरिकी रोकना चाहते हैं।’’
फिलिस्तीन को डर और भरोसा है कि राष्ट्रपति ट्रंप का प्रस्तावित ‘सदी का समझौता’ फिलिस्तीन हितों को और राज्य को खत्म कर देगा, जिनको लेकर वे दशकों से लड़ते आए हैं। यह इस्राइल के पक्ष में अधिक झुका हुआ है। जैसे कि अमेरिकी वार्ताकारों द्वारा ‘‘दो राज्यों का समाधान’’ का जिक्र न किये जाने और पिछले साल अमेरिका द्वारा येरूशलम को वास्तविक राजधानी के रूप में मान्यता दिये जाने के बाद से भ्रम और बढ़ गया है। हालांकि इस्राइली प्रधानमंत्री नेतन्याहू की राजनीतिक मुश्किलें और सरकार बना पाने में उनकी विफलता ने सितम्बर में दोबारा चुनाव की स्थिति पैदा कर दी है। राजनीतिक अस्थिरता का दुष्प्रभाव प्रस्तावित कॉन्फ्रेंस पर पड़ सकता है। इसमें कोई ताज्जुब नहीं कि राष्ट्रपति ट्रंप इस्राइली नेता नेतन्याहू को पहले अपना घर सम्हालने की सलाह दे सकते हैं। यह घटनाक्रम समझौते की घोषणा में देरी करा सकता है।
सीरिया में खराब हालात को देखते हुए क्षेत्र में अनेक देश या तो फिर से अपने राजनयिक सम्बन्ध कायम कर रहे हैं और पुनर्निर्माण के लिए निवेश करने पर वचनबद्ध हो रहे हैं। भारत ने सीरिया की स्थिति के प्रति बहुत संतुलित दृष्टिकोण अपनाया है; उसने हमेशा ही सीरिया के नेतृत्व में और खुद से शांति प्रक्रियाओं की पहल की मुनादी करता रहा है, जो उसके क्षेत्र उसके भूभाग की अखंडता को सुनिश्चित करे। भारत के इस रुख की व्यापक सराहना हुई है। भारत सीरिया का शासन बदल देने की कुछ ताकतों के एजेंडे का समर्थन नहीं करता। यह भी कि विकास में अपना योगदान करने और पुनर्निर्माण-परियोजनाओं में हिस्सेदारी के लिए भारत सीरिया के अवसरों पर सक्रियता से ध्यान दिये हुए है। अत: राजदूत टीएस त्रिमूर्ति, सचिव आर्थिक सम्बन्ध के दौरे (19-21 मई) को इस संदर्भ में और सीरिया के विकास के प्रति भारत की प्रतिबद्धता के आश्वासन के रूप में देखा जा सकता है। सीरिया ने भारत की इस स्वतंत्र स्थिति की व्यापक सराहना की है, जो यह भी विश्वास करता है कि सीरिया के साथ खड़े रहने वाले देशों को पुनर्निर्माण के कार्यों में वरीयता दी जाएगी।
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