आसियान (एसोसिएशन ऑफ दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों) के रीजिनल फोरम (एआरएफ) की एक कार्यशाला का आयोजन विगत 26 अप्रैल 2019 को दिली, तिमोर-लेस्ट में किया गया था। इसमें बातचीत की मेज पर मुद्दों की श्रृंखला में रोहिंग्या संकट, धार्मिक कट्टरता और दक्षिण चीन सागर (एससीएस) विवाद भी रहेंगे। लेकिन आसियान के लिए सर्वाधिक दबावकारी मुद्दा पूर्वी और दक्षिण एशिया में सत्ता के बदलते आयाम और परिवर्तित हो रही विश्व-व्यवस्था में अपनी केंद्रीयता खो जाने की आशंका से छूटने वाली थरथराहट है।
हिन्द और प्रशांत महासागर के तटवर्ती देशों को एक रणनीतिक सातत्य में लाने का विचार जापान के प्रधानमंत्री शिंजो अबे का था। उन्हीं की अवधारणा पर अगस्त 2007 में इंडो-पैसिफिक का गठन किया गया था। वैसे तो इसका प्राथमिक लक्ष्य उभरते चीन को रोकना था। लेकिन इसने बड़ी सहजता से भारतीय उपमहाद्वीप और पश्चिमी प्रशांत के ऐतिहासिक सम्बन्धों को भी पुनरुज्जीवित कर दिया। अपनी स्थापना के एक दशक के भीतर ही इंडो-पैसिफिक की अवधारणा ने अपने लोगों के साथ आर्थिक-सामाजिक संवाद की विशेषताओं के साथ प्रामाणिक भू-परिदृश्य के साथ सहज सामंजस्य बैठा लिया। कुछ मायनों में इस कथा (नैरेटिव) को फिर से आरम्भ करने श्रेय भारत को दिया जा सकता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जून 2018 में शांगरी-ला में दिये अपने मुख्य भाषण में हिन्द-प्रशांत महासागर के बेलगाम बहाव को बड़ी महाशक्तियों की प्रतिस्पर्धा के रणनीतिक क्षेत्र में जाने से रोकने का प्रबंध किया था। उन्होंने अपने भाषण में, इस क्षेत्र के देशों और भारत के बीच दो सहस्रब्दियों से भी अधिक पुरातन काल से आ रहे सभ्यतागत सम्बन्धों का भी सफलतापूर्वक पुनर्विन्यास किया।
भारत का आसियान क्षेत्र पर सौम्य प्रभाव रहा है। वे आपस में व्यापार और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के जरिये जुड़े रहे हैं। तदनन्तर, आसियान के आज 10 में पांच देश बौद्ध धर्मावलम्बी बहुल हैं। आसियान में बड़े पैमाने पर हिन्दू आबादी है और अतीत के पुरातात्विक खजाने भी हैं। भारत समधर्मी इस्लाम का भी स्रोत है, जो आसियान के तीन सदस्य देशों का प्रमुख धर्म है। दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ भारत 2000 वर्षो से भी पुराना अ-रणनीतिक सम्बन्ध रहा है। इसमें भारत के चोल वंश के राजा और दक्षिण-पूर्व एशिया के श्रीविजय साम्राज्य के बीच 11 वीं सदी ईसा युग में हुआ संक्षिप्त संघर्ष अपवाद है। इसके बाद, तात्कालीन ब्रिटिश सरकार द्वारा 19 वीं सदी की शुरुआत में भारतीय सैनिकों की तैनाती ने आसियान देशों को जो कड़वा स्वाद चखाया है, वह दुर्भाग्यपूर्ण ऐतिहासिक मलाल है। भारत का सोवियत संघ से रिश्ता और 1980 के दशक में कम्पूचिया के राजा हेंग सैमरिन को भी दी गई मान्यता ने परस्पर सम्बन्ध में खटास बढ़ायी थी। इन छोटे-मोटे मतभेदों के बावजूद, भारत और आसियान के बीच काफी मजबूत और सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध रहे हैं और वह युगों के इतिहास से और पुख्ता होते गए हैं। लेकिन राजनीतिक याददाश्त क्षणिक होती है। इसलिए भारत और आसियान के नेताओं ने आजादी के बाद बड़ी मेहनत से यह सम्बन्ध कायम किया है। अब तो भारत को आसियान के रणनीतिक साझेदार का दर्जा देने और भारत के ‘लुक ईस्ट’ तथा ‘एक्ट ईस्ट’ नीतियों के साथ यह सम्बन्ध और भी गहरा होता गया है।
आसियान समुदाय मुख्य तीन स्तंभों पर निर्मित है: राजनीतिक-सुरक्षा, सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक सम्बन्ध। उनके बीच बनी सद्भावना और सहयोग संधि (टीएसी) बहुलतावाद और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के गठन, एक दूसरे के मामलों में अहस्तक्षेप, आपसी विवादों का शांतिपूर्ण तरीके से समाधान और बल प्रयोग का सर्वथा त्याग के सिद्धांत पर आधारित है। आसियान ने सभी क्षेत्रीय, आर्थिक और राजनय की नीतियों में तालमेल बिठाने पर काम किया है। परिणामस्वरूप, इसने अंतरराष्ट्रीय मंचों में काफी वैधता अर्जित की है। आसियान की केंद्रीयता राजनीतिक-सुरक्षा ढांचे का एक अवयव है और वैदेशिक कार्य-व्यापार की एक रणनीति है। क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय सभी मंचों पर महत्त्वपूर्ण किरदार निभाना, आसियान की आकांक्षा है। उसने इस क्षेत्र को ध्यान में रख कर बनाई गई नीतियों पर पहलकदमी के जरिये यह उपलब्धि हासिल की है। लिहाजा, इसकी क्षेत्रीय सुरक्षा से जुड़े सभी कार्यक्रम आसियान के नेतृत्ववाले ढांचे जैसे, आसियान प्लस थ्री, ईस्ट एशिया समिट (ईएएस) और आसियान रीजिनल फोरम (एआरएफ) के अंतर्गत चलाये जाते हैं। दिलचस्प है कि भारत और चीन दोनों को भी टीएसी में स्वीकार कर लिया गया है।
क्षेत्रीय सुरक्षा मामलों से निबटने का आसियान का रिकार्ड संतोषजनक नहीं रहा है, बल्कि यही कारण चीन के दावे के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार है। सुरक्षा के बाह्य आयामों की तरफ इसकी नजर तब गई, जब 1969 में गुआम सिद्धांत की घोषणा हो गई, जिसने इंडोचीन में अमेरिका और चीन के बीच बड़ी शक्तियों को फिर से कायम कर दिया। आसियान ने दक्षिण-पूर्वी एशिया को ‘शांति, आजादी और तटस्थता का क्षेत्र’ (जेडओपीएफएएन) की घोषणा के जरिये क्षेत्र के शक्ति संतुलन में बड़े बदलाव पर अपनी प्रतिक्रिया दी, इसका मुख्य मकसद इस क्षेत्र में किये जा रहे चीनी दावे को खारिज करना था। लेकिन आसियान की वह घोषणा भी चीन को दक्षिण चीन सागर (एससीएस) पर अपना दावा ठोकने से नहीं रोक सकी। चीन ने 1974 में दक्षिणी वियतनाम से पार्सेल आइलैंड (द्वीप) पर कब्जा कर लिया। उसके बाद से चीन द्वारा टीएसी नियम-कायदों की धज्जियां उडा़ने वाली घटनाओं की भरमार ही हो गई। आसियान ने फिर भी प्रयास जारी रखते हुए 1994 में एआरएफ का गठन किया, जब चीन ने फरवरी 1992 में अपने यहां एक विवादस्पद कानून पारित करते हुए समूचे दक्षिण चीन सागर को चीन के आंतरिक जल होने का दावा किया। फिलिपींस के मिसचीफ रीफ ऑफ पर चीन ने 1995 में कब्जा कर लिया, तब आसियान ने जुलाई 1996 में एक आचार संहिता (कोड ऑफ कंडक्ट) बनाने का विचार रखा। दूसरे शब्दों में, इन क्रमिक उपायों के बावजूद आसियान चीन के कथित रूप से विगत में खोए हुए अपने देश के भूभागों को हासिल करने के दावे से रोकने में नाकामयाब रहा है। आसियान में अलगाव उस समय पैदा हुआ, जब कम्बोडिया ने 2012 में दक्षिण चीन सागर पर चीनी कार्रवाइयों के विरुद्ध एक संयुक्त वक्तव्य जारी करने से रोक दिया। 2016 में स्थायी मध्यस्थता न्यायालय से मिली जीत के बावजूद फिलीपींस को चीन के विरुद्ध जारी अपने सरकारी परिपत्र को जुलाई 2016 में हुए आसियान विदेश मंत्रियों के सम्मेलन में वापस लेना पड़ा था ताकि कम्बोडिया द्वारा पैदा किये जाने वाले झंझट से बच सके। इस तरह, चीन आसियान में अपनी केंद्रीय हैसियत को सफलतापूर्वक उजागर कर रहा है।
आसियान देशों के बीच भी दिक्कतें बढ़ रही हैं। वियतनाम तटरक्षक और इंडोनेशिया की नौसेना के बीच दक्षिण चीन सागर में मछुआरों को लेकर 18 अप्रैल 2019 में हुई झड़पों ने आसियान देशों के बीच दरार को उजागर कर दिया है। अब वियतनाम ने खुद ही टीएसी की संहिता का उल्लंघन किया या उसने चीन के उकसावे पर यह कार्रवाई की थी, यह फिलहाल अनुमान की बात है। इंडोनेशिया ने मई 2019 में घोषणा की कि वह मछली पकड़ने वाली 51 नौकाओं, इनमें अधिकतर वियतनाम के हैं, को सागर में डुबा देगा। उसकी इस घोषणा ने भी आसियान देशों के बीच स्थिति को धधका दिया है। इन घटनाक्रमों ने आसियान-केंद्रीयता के स्व-जीवन पर गंभीर प्रश्नचिह्न लगा दिया है।
शीत युद्ध के दौरान, हिन्द-प्रशांत तात्कालीन सोवियत संघ और अमेरिका के बीच विचाराधारात्मक रस्साकशी का क्षेत्र बना हुआ था। तब चीन वामपंथी उग्रवाद को भड़का कर और पोल पोट जैसे नर-संहारक साम्राज्य का समर्थन कर रहा था। शीत-युद्ध के उपरांत बहु-ध्रुवीय और बहुपक्षीय विश्व-व्यवस्था के बीच रस्साकशी तेज हो गई। इस दौरान, चीन ने बड़ी तेजी से आर्थिक विकास किया और उसकी यह अर्जित स्थिति ने क्षेत्र में सैन्यीकरण को बढ़ावा दिया। चीनी दावे के विरुद्ध प्रतिक्रिया में, पूर्वी एशिया में बहु-ध्रुवीय वैश्विक व्यवस्था के आरम्भिक रूप में एक चतुष्कोणीय समूह उभर कर आया है। इस पृष्ठभूमि में, बहुपक्षीय वैश्विक व्यवस्था पर आधारित आसियान-केंद्रीयता लगातार अरक्षित होती जाएगी। अत: आसियान को अपनी वैधानिकता और स्व की सुरक्षा-व्यवस्था में अपनी चलाने के लिए अन्य महाशक्तियों के समर्थन की जरूरत है। माओ जेडॉन्ग ने एक बार कहा था, ‘हमें दक्षिण वियतनाम, थाईलैंड, बर्मा (अब म्यांमार) और सिंगापुर समेत दक्षिण-पूर्व एशिया चाहिए ही चाहिए। हम इस क्षेत्र को पा गए तब पुरवैया (पूरब) बयार पछुआ (पश्चिम) से बहने वाली हवा पर भारी पड़ेगी।’ तब इस सपने को साकार करने के लिए माओ के पुट्टे में न तो आर्थिक बल था और न ही सैन्य कसबल। लेकिन अब ऐसा प्रतीत होता है कि चीन ने माओ के सपने के अनुरूप अपनी क्षमता अर्जित कर ली है। इस तरह, आसियान केंद्रीयता की रक्षा के लिए चीन के पास किसी प्रोत्साहन का कोई कारण नहीं है।
ली कुआन यू (सिंगापुर के तात्कालीन प्रधानमंत्री) ने चीन द्वारा 1965 में परमाणु परीक्षण किये जाने के उपरांत तात्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को परमाणु विस्फोट करने का सुझाव दिया था। उनका विास था कि ‘केवल भारत ही चीन की आंखों में आंखें डाल कर बात कर सकता है’। उन्होंने दोहराया था कि चीन की आर्थिक संवृद्धि के साथ चीन के प्रति खौफ बढ़ेगा। इसलिए आसियान हमेशा ही भारत की रणनीतिक उपस्थिति की कद्र करेगा।’ भारत भी परम्परागत रूप से हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में बड़ी शक्तियों के दखल और सैन्य संधियों की मुखालफत करता रहा है। साथ ही, भारत शक्ति-शून्यता को भरने की अवधारणा का भी विरोधी रहा है। आसियान के साथ अपने परम्परागत सम्बन्ध के चलते, भारत स्वाभाविक ही आसियान की केंद्रीयता का समर्थन करेगा। इसे भारतीय नेताओं ने बारहां दोहराया है। यद्यपि बहु-ध्रवीय विश्व से भारत का हित ही सधेगा, भारत इस क्षेत्र में महाशक्तियों के बीच प्रतिस्पर्धात्मक टकरावों को टालने के लिए बहुपक्षीय व्यवस्था का बराबर समर्थन करेगा। इस प्रकार, हिन्द-प्रशांत महासागर देशों में आसियान की केंद्रीयता के संरक्षण के लिए भारत एक बेहतर शर्त साबित होगा।
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