जल-शक्ति नाम से सर्वथा नये मंत्रालय गठन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में दूसरी बार गठित सरकार के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कामों में से एक है। दरअसल, यह पहल भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के चुनावी वादे ‘संकल्प पत्र’ के मुताबिक की गई है। इसमें पानी से संबंधित समस्याओं का समग्रता में और एकीकृत तरीके से निदान की घोषणा की गई थी। नये मंत्रालय को इस सबसे अहम प्राकृतिक संसाधन जल से संबंधित सभी गतिविधियों; पेयजल से लेकर सिंचाई के लिए मैदान, पहाड़ों और जंगलों तक में फैले जल निकायों में पानी का पर्याप्त स्तर बनाये रखने के लिए तालमेल से काम करने का जनादेश मिला हुआ है। अब इसके पूरे एकीकरण में तो समय लगेगा क्योंकि इस काम में भांति-भांति के मंत्रालय जुड़े हुए हैं। उदाहरण के लिए शहरी जलापूर्ति का जिम्मा शहरी विकास मंत्रालय को है, जबकि अधिकतर नदियों के जल संरक्षण का प्रबंधन वन मंत्रालय करता है। इसी तरह, सिंचाई के लिए जल परियोजनाओं की देखभाल कृषि मंत्रालय करता है। लेकिन जल शक्ति मंत्रालय के गठन के साथ ही एक शुरुआत हो गई है और इसे सुचारु रूप से आगे ले जाने का दारोमदार इसके मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत और उनके मंत्रालय के अधिकारियों पर है।
यह नया जल शक्ति मंत्रालय पहले के जल संसाधन तथा पेय जल और स्वच्छता मंत्रालयों को मिलाकर बना है। इसके अधीन महत्त्वाकांक्षी ‘नामामि गंगे परियोजना’ और राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय जल सम्बन्धी विवादों की देखरेख का महकमा भी रहेगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने पहले कार्यकाल में स्वच्छ गंगा परियोजना को वन मंत्रालय से हटा कर उसे जल संसाधन मंत्रालय से जोड़ दिया था। सरकार का यह नया निर्णय जल सम्बन्धी ढेर सारे मामलों पर न केवल ध्यान रखे जाने बल्कि उसे और बढ़ाने की प्रतिबद्धताओं की निरंतरता में है। तो व्यापक दायरे की गतिविधियों को जल शक्ति मंत्रालय के मत्थे मढ दिया जाना शेखावत और उनकी टीम के लिए चुनौती और अवसर दोनों हैं। और ये गतिविधियां कई सारी हैं; ‘नमामि गंगे परियोजना’ की प्रभावोत्पादकता में बढ़ोतरी करने से लेकर पेयजल संकट को दूर करने और देश में सिंचाई की सुविधाओं के दायरे को व्यापक बनाने तक।
नरेन्द्र मोदी के पहले कार्यकाल में ही 20,000 करोड़ की राशि से ‘नमामि गंगे परियोजना’ की आधारशिला रखी गई थी। इसका लक्ष्य सन् 2020 तक गंगा नदी को स्वच्छ करना था। इस सामान्य लक्ष्य के लिए तालमेल बिठाने के प्रयास में विभिन्न मंत्रालयों द्वारा 20 से अधिक समझौता ज्ञापन पर दस्तखत किये गए। स्वच्छ गंगा के लिए राष्ट्रीय मिशन को सक्रिय किया गया और प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में एक ‘राष्ट्रीय गंगा परिषद’ की बुनियाद रखी गई। राज्यों को भी परियोजना में शामिल किया गया, जो राज्य कार्यक्रम प्रबंधन समूह के खेमे में थे। जल संसाधन मंत्री की अगुवाई में एक सक्षम कार्यबल का भी गठन किया गया। यद्यपि परियोजना को सभी मदों में काफी सफलता भी मिली, लेकिन कोई बड़ा काम न हो सका। नदी द्वारा सेवित देश के अधिकतर हिस्से में सीवेज की देखभाल, जल प्रवाह को बहाल रखने और कीचड़ नियंत्रण जैसे मसलों पर ध्यान ही नहीं दिया गया। इसके अलावा, लागत-व्यय के बढ़ने की बात भी रही। इन सबके बावजूद, इस बात में कोई शक नहीं कि गंगा की सफाई एक विशाल काम है। इसलिए कि नदी अपनी 2525 किलोमीटर की लम्बी यात्रा में अनेक राज्यों को पार करती हुई बहती है। ‘नमामि गंगा’ के अपनी क्षमता मुताबिक सुचारु रूप से काम न करने के अनेक कारणों में से एक इस परियोजना से जुड़ीं एजेंसियों और विभिन्न मंत्रालयों के बीच तालमेल की विफलता है। अब नव गठित जल शक्ति मंत्रालय को इस कमी से पार पाने की क्षमता दिखानी चाहिए।
राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कई एजेंसियों ने बारहां चेताया है कि भारत गंभीर पेयजल संकट के मुहाने पर है। यद्यपि भारत उन शीर्ष देशों में है, जिसके पास पर्याप्त जल भंडार है, लेकिन यह सर्वाधिक जल-दुर्लभता वाले देशों में भी शुमार है। इसका आशय यह कि भारत में भी साल की एक निश्चित अवधि में जल या पेयजल का संकट हो जाता है। इस बारे में विश्व बैंक की एक रिपोर्ट बताती है कि विगत 60 सालों के दौरान भारत में पानी की उपलब्धता में लगभग 440 प्रतिशत की गिरावट आई है। अन्य रिपोर्टें भी कहती हैं कि आने वाले दशकों में 600 मिलियन (लगभग 60 करोड़) भारतीय गंभीर जल संकट का सामना करेंगे। देश के 21 शहरों में तो पानी के ऐसे लाले पड़ेंगे कि वे पूरी तरह ठप हो जाएंगे। उन लोगों के लिए जो दीवार पर लिखे संकट की इस इबारत को पढ़ नहीं पा रहे या देख नहीं पा रहे और देश के कुछ हिस्सों में अवश्यम्भावी जल संकट को केवल कपोल-कल्पना मान रहे हैं, उनके लिए यह कंपकपा देने वाला रिमाइंडर है: अभी कुछ ही महीने पहले दक्षिण अफ्रीका के प्रमुख शहर कैप टाउन के जल-स्रोत के पूरी तरह से सूख जाने की खबर अखबारों की सुर्खी बनी थी। तो कोई कारण नहीं कि अगर भारत ने जल संकट से बचाव के उपाय नहीं किये तो उसके शहर या शहरों का भी हश्र कैप टाउन जैसा नहीं होगा। यहां तो पहले से ही ग्रामीण भारत के चार में से एक गांव में स्वच्छ पेयजल की निर्धारित मात्रा (40 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन) का अभाव है। सन् 2000 से ही प्रति व्यक्ति जल-उपलब्धता घटती जा रही है; पहले यह उपलब्धता रोजाना 1.82 मिलियन लीटर थी, जो कम होते-होते प्रतिदिन प्रति व्यक्ति 1.45 मिलियन लीटर तक पहुंच गई है।
शहरी क्षेत्रों में भी हालात खुशगवार नहीं हैं। यद्यपि भारत के ज्यादातर शहरी हिस्सों में पेयजल उपलब्ध है, किंतु उनकी आपूर्ति अनियमित है और उसमें प्रदूषक की उच्च सांद्रता की वजह से वह पीने लायक नहीं है। नीति आयोग ने भी 2018 के मध्य में एक अध्ययन-रिपोर्ट जारी कर देश को चेताया था कि अगर आसन्न जल संकट से निबटने के आवश्यक और पर्याप्त कदम नहीं उठाये गए तो 2030 तक पेय जल की आपूर्ति ठप पड़ जाएगी। देश के इतिहास में इसे ‘सबसे खराब’ जल संकट बताते हुए रिपोर्ट का मानना है कि 600 मिलियन (लगभग 60 करोड़) लोग बेहद गंभीर जल संकट झेल रहे हैं और प्रति वर्ष 2 लाख लोग साफ पेयजल के अभाव में मर जाते हैं। दिल्ली समेत देश के 21 नगर/शहर जैसे बेंगलुरू, चेन्नई और हैदराबाद का भूजल स्रोत 2020 तक पूरी तरह सूख जाएगा। इससे 100 मिलियन आबादी पर दुष्प्रभाव पड़ेगा।
इन सारी बातों के आधार पर रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि 2050 तक भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में छह प्रतिशत की गिरावट आएगी। नीति आयोग की रिपोर्ट में जुटाये गए आंकड़े तो खून जमा देने वाले हैं। इसके मुताबिक भारत के भूजल-स्रोतोँ, जिससे देश में 40 फीसद जलापूर्ति होती है, उसमें गिरावट आ रही थी। नासा के सैटेलाइट डेटा का संकेत है कि भारत का जल-स्तर खतरनाक तरीके से प्रतिवर्ष लगातार -0.3 फीसद की दर से घटता जा रहा है। इस तरह से तो देश के पास सन् 2050 तक प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन खपत के हिसाब से मात्र 22 फीसद जल ही बचा रहेगा। यह संभवत: देश को उस अविसनीय संभावना की तरफ ले जाएगा, जब उसे पानी का आयात करना पड़ेगा।
देश में लगभग 70 फीसद जलापूर्ति प्रदूषित है और 60 से ज्यादा राज्य अपने जल-स्रोतोँ के प्रबंधन में ‘कमतर प्रदर्शक’ माने जाते रहे हैं। नीति आयोग की रिपोर्ट का निष्कर्ष दिलचस्प आयामों पर भी रोशनी डालता है : देश के कुछ ‘बेहतर और मध्यम दर्जे के प्रदर्शक’ माने जाने वाले राज्य ऐसे थे, जिन्हें सुखाड़ या सूखे के समान स्थिति का सामना करना पड़ा था। इसका आशय यह हुआ कि नाजुक स्थिति के लिए पानी की कमी कोई वजह नहीं थी, बल्कि जल-स्रोतोँ के संरक्षण में उन राज्यों की सरकारों की विफलता ही जल संकट के लिए जिम्मेदार थी और ऐसा हुआ है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि उत्तर प्रदेश, हरियाणा और बिहार जैसे राज्य, जिनके यहां बड़ी-बड़ी नदियां बहती हैं, जहां देश की आधी से ज्यादा आबादी बसती है और जो देश को अपने कृषि उत्पादन का बड़ा हिस्सा देते हैं: वे जल संरक्षण के मामले में सबसे निचले पायदान पर हैं।
जल शक्ति मंत्रालय का अन्यत्र क्षेत्रों में भी काम है। बड़े बांधों ने हालांकि अपने मकसद को पूरा किया है और लगातार करते आ रहे हैं-फिर भी नदियों के घाटों (नदी बेसिन) पर छोटे-छोटे जल संकायों को विकसित करना आज की महती आवश्यकता है। विश्व बैंक ने ‘इंडिया वॉटर इकनोमी:ब्रासिंग फॉर ट्रब्यलन्ट फ्यूचर (2006)’ यानी ‘भारत की जल अर्थव्यवस्था:अशांत भविष्य से संबंध’ शीषर्क अपनी रिपोर्ट में कहा था कि भारत के जलाशयों में मात्र 30 दिनों के वर्षा-जल के संरक्षण की क्षमता है जबकि इसकी तुलना में विकसित देश अपने शुष्क क्षेत्रों में भी 900 दिनों के वर्षा-जल का भंडारण कर सकते हैं। इस तरह, देश को छोटे-छोटे जल संकायों को (उदाहरण के लिए तालाबों) विकसित करने की जरूरत है। विगत वर्षो में छोटे-छोटे जल संकायों का या तो अतिक्रमित कर लिया गया है या उनको इस हद उपेक्षित किया गया है कि वे बेकार हो गए हैं। जल संसाधन पर संसद की स्थायी समिति की रिपोटरे में से एक (16वीं रिपोर्ट) में समिति ने बताया था कि देश के 5.56 लाख तालाबों में मात्र 4.71 लाख ही अक्षुण्ण हैं।
यह स्पष्ट है कि इस विषय पर सरसरी नजर रखने वाला व्यक्ति भी कह सकता है कि जल भंडारण-संरक्षण की क्षमता में वृद्धि के अलावा मांग-आपूर्ति में संतुलन का उचित प्रबंधन ही गहराते जल संकट को दूर करने की कुंजी है। यह हमारे कृषि क्षेत्र के लिए विशेष रूप से सच है, जो देश में उपलब्ध 85 फीसद जल का उपभोग करता है। इसलिए विशेषज्ञ समय-समय पर यह सलाह देते रहे हैं कि ऐसे फसलों की खेती की जाए जिसकी सिंचाई के लिए कम पानी की जरूरत होती है। यह भी कि सिंचाई के परम्परागत तरीके के बजाय ड्रिप इरिगेशन सिस्टम को अपनाया जाए। भारत ने हालांकि विभिन्न क्षेत्रों में अपनी हैसियत बढ़ाई है; मसलन व्यवसाय करना आसान बनाने एवं सामाजिक क्षेत्रों में, किंतु वह जलगुणवत्ता वाले 122 देशों की सूची में 120वें स्थान पर रहते हुए दयनीय स्थिति को प्राप्त है। इनके बावजूद कुछ और कहने की आवश्यकता है?
(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक और लोक मामलों को विश्लेषक हैं)
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