राष्ट्रपति हसन रूहानी ने 8 जुलाई को राष्ट्रीय टेलीविजन पर अपने भाषण में ऐलान किया कि ईरान परमाणु समझौते या संयुक्त व्यापक कार्य योजना (जेसीपीओए) के तहत किए गए वायदों को कुछ समय तक पूरा नहीं करेगा। इसका मतलब समझौते से पीछे हटना नहीं है। रूहानी ने कहा, “यह काम समझौते को बरकरार रखने के लिए किया जा रहा है, उसे खत्म करने के लिए नहीं।” ईरान का यह कदम जेसीपीओए से अमेरिका के बाहर होने के ऐलान के एक वर्ष बाद आया है। अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने वह ऐलान ईरान द्वारा सभी वायदे पूरे किए जाने और अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) द्वारा उन्हें प्रमाणित किए जाने के बावजूद किया था। हाल ही में अमेरिका ने और भी शर्तें थोप दीं। अप्रैल के आरंभ में उसने ईरान के रिवॉल्यूशनरी गार्ड्स कोर (आईआरजीसी) को आतंकवादी संगठन करार दिया। कच्चे तेल का आयात करने वाले आठ देशों को तेल खरीद पर प्रतिबंध से दी गई छूट उसने 22 अप्रैल को खत्म कर दी। मई के पहले हफ्ते में उसने अमेरिकी पोत अब्राहम लिंकन के नेतृत्व में एक कैरियर टास्क फोर्स पश्चिम एशिया में भेजने की घोषणा की।
ईरान ने जेसीपीओए के अनुच्छेद 26 का हवाला देते हुए ऐलान किया कि वह खर्च नहीं हुए सवंर्द्धित यूरियम और भारी जल की दूसरे देशों को बिक्री 60 दिन के लिए रोक देगा। अनुच्छेद के अंतर्गत ईरान को अधिकार है कि कुछ खास प्रतिबंध थोपे जाते हैं तो ‘वह जेसीपीओए के अंतर्गत किए गए वायदे निभाना पूरी तरह या आंशिक रूप से छोड़ सकता है।’ उसे उम्मीद है कि इस दौरान यूरोपीय संघ ईरान के तेल एवं बैंकिंग क्षेत्रों की हिफाजत का अपना वायदा निभाएगा। यदि ऐसा होता है तो ईरान उसी अनुपात में परमाणु संधि के तहत सहयोग फिर शुरू कर देगा। ऐसा नहीं हुआ तो ‘धीरे-धीरे और वायदों से भी पीछे हट जाएगा।’
अमेरिकी विदेश मंत्री माइकल पॉम्पिओ की घोषणा के मुताबिक ईरान के तेल निर्यात को ‘निशाना बनाया गया’ तो ईरानी अर्थव्यवस्था के अस्तित्व पर ही संकट खड़ा हो जाएगा। ईरान ने इसका नपा-तुला जवाब दिया है। अभी तक वह जेसीपीओए के अंतर्गत तय की गई सीमा के मुताबिक ही संवर्द्धन कर रहा है। इससे पता चलता है कि अमेरिकी प्रतिबंध सख्त होने के साथ ही ईरान के लिए गुंजाइश कम से कम होती जा रही है। पहले अमेरिकी प्रशासन ने ओमान को भारी जल बेचने और रूस को येलो केक के बदले सवंर्द्धित यूरेनियम देने से ईरान को रोका। राष्ट्रपति रूहानी के भाषण के बाद अमेरिका ने ईरान के इस्पात एवं खनन क्षेत्रों पर नए प्रतिबंधों का ऐलान कर दिया है।
खाड़ी में बढ़ते तनाव को पश्चिम एशिया की शांति प्रक्रिया में उत्पन्न गतिरोध, सीरिया में अस्थिर स्थिति और यमन में चल रहे संघर्ष के बरअक्स देखा जाना चाहिए। वेनेजुएला और लीबिया से कच्चे तेल की आपूर्ति में खलल पड़ने के साथ ही भू-राजनीतिक स्थिति भी बिगड़ी है। इसके कारण तेल की कीमतों पर असर पड़ना ही था। ईरान के कच्चे तेल निर्यात को ‘निशाना बनाने’ की अमेरिकी घोषणा के बाद तेल उत्पादक एवं निर्यात देशों के संगठन (ओपेक) की क्रूड बास्केट बढ़कर 74.04 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गई। उसके बाद से घटकर यह 8 मई को 70.45 डॉलर प्रति बैरल पर आ गई थी। कीमत में नरमी का एक कारण अमेरिका और चीन के बीच व्यापार युद्ध के कारण वैश्विक मंदी आने का डर भी है। राष्ट्रपति ट्रंप ने हाल ही में चीनी माल के आयात पर शुल्क बढ़ाकर 25 प्रतिशत कर दिया। लेकिन तेल की आपूर्ति में बाधा बरकरार रहती है और खाड़ी में तनाव बढ़ता है तो उपभोक्ताओं को कम कीमत से मिल रही राहत खत्म हो सकती है।
भारतीय क्रूड बास्केट का मूल्य 2017 में 47.6 डॉलर प्रति बैरल था, जो मई में 70.67 डॉलर हो गया। प्रतिदिन 40 लाख बैरल आयात मानें तो 10 डॉलर प्रति बैरल की बढ़ोतरी से भारत का तेल आयात का सालाना खर्च 1,500 करोड डॉलर बढ़ जाएगा। मौजूदा विनियम दरों के हिसाब से भारत के आयात खर्च में 1 लाख करोड़ रुपये से भी अधिक का इजाफा हो जाएगा।
क्या सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात मांग में हो रही कमी को पूरा कर सकते हैं और कीमतों को नरम रख सकते हैं? सऊदी अरब के पास 10 लाख बैरल प्रतिदिन उत्पादन की अतिरिक्त क्षमता है। लेकिन ईरान, वेनेजुएला और लीबिया से आपूर्ति में हो रही कमी इससे पूरी नहीं हो सकती। ईरान रोजाना 13 लाख बैरल कच्चे तेल का निर्यात करता है। वेनेजुएला से पिछले 3 महीने में 5 लाख बैरल प्रतिदिन कम उत्पादन हुआ है। त्रिपोली पर जनरल हफ्तार की चढ़ाई से पहले लीबिया रोजाना 10 लाख बैरल उत्पादन कर रहा था। ताजा आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। आपूर्ति में कमी की कुछ हद तक भरपाई शेल उत्पादन में बढ़ोतरी के जरिये की जा सकती है। पिछले वर्ष अमेरिका कच्चे तेल का निर्यातक बन गया था। लेकिन ओपेक की हालिया मासिक रिपोर्ट के अनुसार मार्च में अमेरिका के कुल तेल आयात (कच्चा तेल एवं उसके उत्पाद) में 51,600 बैरल प्रतिदिन की वृद्धि हो गई।
भारत के नजरिये से देखें तो यह आपूर्ति के वैकल्पिक स्रोत तलाशने का ही मसला नहीं है बल्कि ऐसी कीमत तय करने का मामला भी है, जिसे हम आसानी से चुका सकें। पिछले कुछ दिनों में एशियाई बाजार के लिए खाड़ी के कच्चे तेल की कीमत बढ़ गई है। मई में भारत की यात्रा पर आए अमेरिकी वाणिज्य मंत्री विल्बर रॉस ने कहा कि अमेरिकी सरकार भारत को सस्ता कच्चा तेल बेचने का वायदा नहीं कर सकती क्योंकि कच्चा तेल निजी क्षेत्र की संपत्ति है।
कच्चे तेल का आयात अहम है, लेकिन ईरान का भू-राजनीतिक महत्व वहीं तक सीमित नहीं है। अफगानिस्तान के लिए इकलौता जमीनी रास्ता ईरान से ही होकर जाता है। उस देश में सुरक्षा की स्थिति बिगड़ रही है क्योंकि अमेरिका वहां से अपने सैनिक कम करने की तैयारी में है। पुलवामा हमले से एक दिन पहले पाकिस्तान से काम करने वाले एक आतंकी समूह के हमले में इस्लामिक रिवॉल्यूशनी गार्ड्स कोर के 27 सदस्य मारे गए थे। कोर के काफिले पर हमला करने वाला फिदायीन असल में पाकिस्तान का नागरिक था। तीखे आरोप-प्रत्यारोप के बाद कुछ अरसा पहले इमरान खान ने तेहरान की यात्रा की। पाकिस्तान में जिहादी तत्वों के उभार के कारण पुरानी समस्याएं बरकरार ही रहेंगी।
भारत-अमेरिका रिश्ते बेहद महत्वपूर्ण हैं। लेकिन भारत को ईरान के साथ रिश्ते भी बनाए रखने चाहिए।
(डी पी श्रीवास्तव विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन में विशिष्ट फेलो हैं और ईरान के राजदूत रह चुके हैं)
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