व्यापार में संरक्षणवाद और तेल की कीमतों में अनिश्चितता बढ़ने के साथ ही वैश्विक अर्थव्यवस्था और अंतरराष्ट्रीय व्यापार में मंदी आ जाएगी। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 7 प्रतिशत से अधिक वृद्धि के साथ भारत दुनिया की सबसे तेजी से दौड़ने वाली अर्थव्यवस्था होगी। लेकिन जलवायु के प्रति बढ़ती चिंताओं और ऊर्जा पर बढ़ते खर्च के साथ भारत को मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा। भारत अब तेल और गैस के साथ ही पहले से ज्यादा कोयले का आयात करता है। देश को पड़ोस में भी अधिक चुनौतीपूर्ण माहौल से रूबरू होना पड़ेगा। चीन की वृद्धि दर 6.2 प्रतिशत के साथ धीमी रहेगी मगर उसका जीडीपी भारत के जीडीपी से पांच गुना रहेगा। ब्रेक्सिट का यूरोपीय संघ की आर्थिक वृद्धि और राजनीतिक दबदबे पर असर पड़ेगा। 2.2 प्रतिशत वृद्धि दर के साथ अमेरिका विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बना रहेगा, लेकिन उसकी घरेलू राजनीति में अधिक उथलपुथल रहेगी। रूस पश्चिम एशिया में अपना दबदबा जताता रहेगा। लेकिन यूरोपीय संघ और अमेरिका के साथ तनाव के कारण वह चीन के ज्यादा करीब पहुंच जाएगा, जिससे भारत के लिए विदेश नीति में चुनाव थोड़ा जटिल हो जाएगा। पश्चिम एशिया में भू-राजनीतिक तनावों के कारण यदि तेल की कीमतें चढ़ेंगी तो मंदी का दबाव भी बढ़ जाएगा।
पाकिस्तान को 2019 में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) से ऋण मिलने की संभावना है। अफगानिस्तान में वह जो ‘रणनीतिक पैठ’ हासिल करने की कोशिश कर रहा है, उस दिशा में कुछ प्रगति दिख सकती है। ये दोनों बातें इमरान खान के लिए बड़ा फायदा हो सकती हैं। लेकिन इनकी खुशी शायद लंबी नहीं चलेगी।
आईएमएफ के कर्ज के साथ मितव्ययिता की शर्त जुड़ी हो सकती है और पाकिस्तानी मुद्रा के अवमूल्यन की मांग भी हो सकती है। दोनों ही इमरान खान के ‘नया पाकिस्तान’ के सामाजिक एजेंडा के लिए अभिशाप सरीखे हो सकते हैं। एहतिसाब या ‘जवाबदेही’ के उनके अभियान से अधिक ध्रुवीकरण होगा; राष्ट्रीय जवाबदेही ब्यूरो (एनएबी) की अदालतों ने विपक्षी पार्टियों को निशाना बनाया है और उसके दायरे को बढ़ाकर शरीफ बंधुओं के साथ ही जरदारी को भी जकड़ लिया गया है। विभाजित राजनीति और पश्चिमी सीमाओं पर बढ़ती अस्थिरता से पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था पर दबाव बढ़ सकता है।
अफगानिस्तान में जटिल स्थिति के बीच केवल एक बात तय है और वह है अमेरिका का वहां से हटना। रूस और ईरान द्वारा तालिबान को समर्थन इसीलिए मिल रहा है क्योंकि वे अमेरिका के प्रति वैर भाव रखते हैं। अमेरिकी सेना के हटने के बाद तालिबानी नेतृत्व वाली सरकार के प्रति उत्साह भी खत्म हो जाएगा। रूस, ईरान और चीन में से कोई भी उस सुन्नी चरमपंथ के प्रति सहज नहीं है, जिसकी नुमाइंदगी तालिबान आंदोलन करता है। वे काबुल में ऐसी सरकार का समर्थन करने वित्तीय बोझ नहीं ढोना चाहेंगे। अमेरिका के हटने का मतलब यह भी होगा कि पाकिस्तान को गठबंधन से मिलने वाली वित्तीय सहायता खत्म हो जाएगी।
अमेरिकी सेना के हटने का मतलब यह नहीं है कि काबुल में सरकार गिर ही जाएगी। नजीबुल्ला सोवियत सेनाओं के हटने और जलालाबाद पर पाकिस्तान हमले के बाद भी बने रहे। उनकी सरकार तभी गिरी, जब वित्तीय सहायता और पेट्रोलियम की आपूर्ति खत्म कर दी गई। अभी अफगानिस्तान के 12.5 प्रतिशत जिलों पर तालिबान का नियंत्रण है और 38 प्रतिशत जिले विवादित हैं, जबकि अफगान सरकार का 55.6 प्रतिशत हिस्से पर नियंत्रण है।
अफगानिस्तान में लंबे गृह युद्ध का बाकी उपमहाद्वीप पर असर पड़ेगा। इसका फौरी असर पाकिस्तान के भीतर महसूस होगा और पाकिस्तान के समाज में कट्टरपंथ बढ़ जाएगा। लेकिन इसका प्रभाव पाकिस्तान की पूर्वी और पश्चिमी सीमाओं पर भी महसूस किए जाएंगे।
राष्ट्रपति ट्रंप ने सदन में रिपब्लिकन का बहुमत खो दिया है, लेकिन सीनेट में उनकी सीटें 51 से बढ़कर 53 तक पहुंच गई हैं। इस आंकड़े से सुनिश्चित होगा कि महाभियोग का कोई भी प्रयास सफल नहीं हो सके। लेकिन इससे उनके घरेलू चयन पर असर जरूर पड़ेगा। बजट के मसले पर गतिरोध के कारण सरकार का ठप पड़ना इस बात की साफ याद दिलाता है। अमेरिका ‘अपरिहार्य देश’ बना रहेगा - चीन उसकी जगह नहीं ले सकता। रूस सैन्य क्षेत्र में मुकाबला करेगा, लेकिन उसके पास आर्थिक ताकत नहीं है। यूरोपीय संघ (ईयू) ब्रेक्सिट की अनिश्चितताओं से जूझ रहा है। लेकिन जल्दबाजी में निकासी उतनी ही खतरनाक हो सकती है, जैसा बुश के कार्यकाल में हुआ था, जब अमेरिका ने अफगानिस्ताना और पश्चिम एशिया दोनों स्थानों पर सेना भेज दी थी।
निचले सदन में डेमोक्रेटिक पार्टी की जीत से चीन के खिलाफ तल्खी कम नहीं होगी। अमेरिका में उस देश के खिलाफ दोनों पार्टियों में सहमति है। ओबामा के कार्यकाल में ‘एशिया की धुरी’ कार्यक्रम शुरू किया गया था। डेमोक्रेट्स और रिपलब्लिकन्स दोनों के रुख में अजब विरोधाभास है। डेमोक्रेट्स के रूस विरोधी रवैये ने चीन को उपयोगी सहयोगी तोहफे में दे दिया है। ईरान के परमाणु समझौते से ट्रंप के बाहर निकलने के कारण पश्चिम एशिया में तनाव बढ़ गया है और उसके कारण यूरोपीय सहयोगियों का रुख चीन और रूस सरीखा ही हो गया है।
यदि 2019 में अमेरिका की वैश्विक धमक होती है तो इसका कारण बाहरी कारक नहीं होंगे बल्कि अमेरिकी प्रशासन द्वारा किए गए चुनाव ही इसकी वजह होंगे।
बशर-अल-असद सरकार को स्थिरता देकर रूस पश्चिम एशिया में दाखिल होने में कामयाब हो गया है। वह कच्चे तेल की कीमत और उत्पादन स्तर तय करने के मामले में पेट्रोलियम निर्यातक देशों के संगठन (ओपेक) का अपरिहार्य साझेदार भी बन गया है। वैश्विक परिदृश्य में चाल चलने की उसकी गुंजाइश ईयू और अमेरिका के प्रतिबंधों के कारण सीमित हो गई है, जिसके कारण वह चीन पर अधिक निर्भर हो गया है। जब तक चीन अपना रुख नहीं बदलता है तब तक यह समीकरण कायम रहेगा। दरम्यानी दूरी वाली परमाणु ताकतों की संधि को खत्म करने से तनाव बढ़ सकता है और हथियारों की होड़ फिर शुरू हो सकती है। लेकिन उसका प्रभाव शीत युद्ध के वर्षों से अलग होगा क्योंकि अब दुनिया दो ध्रुवों वाली नहीं रह गई है।
अमेरिका के साथ व्यापार विवाद 2019 में जारी रहेगा। शुल्क युद्ध में मौजूदा संधि दूसरी बार हुई है। राष्ट्रपति ट्रंप के आने के बाद फौरन बाद दोनों देशों ने 100 दिनों के भीतर प्रमुख व्यापारिक मुद्दे सुलझाने का संकल्प किया था। चीन अपनी ही सफलता का शिकार हो गया है। निर्यात पर आधारित उसकी वृद्धि अमेरिकी बाजार पर निर्भर हो गई है। इसके कारण अमेरिकी प्रतिबंधों का जोखिम उस पर हावी हो चुका है। उसका जवाब देने की गुंजाइश उसके पास काम कम है क्योंकि उसके पास व्यापार अधिशेष है। यदि बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव (बीआरआई) का लक्ष्य निर्यात के वैकल्पिक रास्ते ढूंढना है तो उसे धरातल पर आने में समय लगेगा। इसमें पाकिस्तान जैसे देशों में भू-राजनीतिक लक्ष्यों के लिए वित्तीय रूप से जोखिम भरे निवेश भी शामिल हैं। अमेरिकी संसद के चुनावों में निचले सदन में डेमोक्रेटिक पार्टी को बहुमत मिलने पर भी यह समीकरण बदलने की संभावना नहीं है। चीन के साथ व्यापार के मसले पर दोनों पार्टियों के बीच सहमति है।
अन्य देश भी चीन की सफलता के शिकार बने हुए हैं। यूरोप और अमेरिका जैसी विकसित अर्थव्यवस्थाओं को बड़े स्तर पर उद्योग खत्म होने का खतरा महसूस हो रहा है। विकासशील देशों की बात करें तो शैशवावस्था से गुजर रहे उनके उद्योग चीन से होने वाले सस्ते आयात के तले दब रहे हैं।
फाइनैंशियल टाइमस की एक रिपोर्ट के अनुसार चीन का बेंचमार्क सीएसआई 300 सूचकांक का 2018 में प्रदर्शन प्रमुख शेयर बाजारों में सबसे खराब रहा था और उसमें करीब 25 प्रतिशत गिरावट आई थी। उसने तकरीबन 2.3 लाख करोड़ डॉलर गंवाए, जो भारतीय अर्थव्यवस्था के आकार के बराबर हैं। तेल कीमतों में वृद्धि और अमेरिकी फेडरल बैंक द्वारा ब्याज दर बढ़ाए जाने के बाद भी भारतीय शेयर बाजार में उस साल 6 प्रतिशत बढ़ोतरी दर्ज की गई।
चीन ने भारत और जापान जैसे देशों के खिलाफ अपनी बयानबाजी कम कर दी है ताकि उसे कुछ समय मिल सके। यह चतुराई भरा विराम है, वह अपने आक्रामक रुख पर पुनर्विचार नहीं कर रहा है।
ईयू ब्रेक्सिट में फंसा रहेगा। इस विषय पर ब्रिटेन में घरेलू बहस तीन परिदृश्यों के इर्द-गिर्द ही घूमती रहेगीः किसी समझौते के बगैर ब्रेक्सिट, टरीसा मे द्वारा बातचीत के जरिये तय किए समझौते के साथ ब्रेक्सिट और बचे हुए खेमे के समर्थन से दूसरा जनमत संग्रह। ईयू से बाहर निकालने के दौरान यथास्थिति कायम रखी जाए तो भी ब्रेक्सिट से व्यापार संबंधी अनिश्चितताएं उत्पन्न होंगी। इससे ईयू और ब्रिटेन के साथा भारत के द्विपक्षीय व्यापार पर असर पड़ सकता है। यूरोपीय संघ बड़ा व्यापारिक साझेदार है, इसीलिए अमेरिका के कुल व्यापार पर भी उसका असर पड़ेगा।
यूरोपीय संघ के पांच प्रमुख देशों में से स्पेन और इटली के सामने घर में बड़ी आर्थिक और राजनीतिक समस्याएं हैं। फ्रांस और जर्मनी भी अनिश्चितता के दौर से गुजर रहे हैं। फ्रांस ने हाल ही में मूल्य वृद्धि के खिलाफ ‘यलो वेस्ट’ आंदोलन के दौरान सबसे खराब दंगे झेले हैं। जर्मनी ऐंजला मर्केल के जाने के बाद के दौर के लिए तैयारी कर रहा है।
प्रधानमंत्री आबे चीन को रोकने और उसके साथ तालमेल बिठाने के बीच नाजुक संतुलन साध रहे हैं। उन्होंने अमेरिका के निकलने के बाद ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप (टीपीपी) के विचार को बरकरार रखने में अग्रणी भूमिका निभाई। टीपीपी-11 समूह का मकसद प्रशांत क्षेत्र में चीन की आर्थिक घुसपैठ को सीमित करना है। जापान क्षेत्रीय समग्र आर्थिक साझेदारी (आरसीईपी) का भी सदस्य है, जिसमें चीन शामिल है।
सुरक्षा के मोर्चे पर भी जापान ने रोकने और साथ लेने की नीतियों पर एक साथ काम किया है। जापान ‘क्वाड’ यानी चौकड़ी का सदस्य है, जिसका लक्ष्य हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और भारत के बीच सहयोग मजबूत करना है। आबे ने 2018 में अपनी चीन यात्रा के दौरान मैत्री की बात की। जापान ने चीन के बीआरआई में सहयोग करने पर सहमति जताई है। आबे जापान के युद्धविरोधी संविधान की समीक्षा की तैयारी भी कर रहे हैं। जापान का रक्षा बजट पहले ही काफी अधिक है।
निस्संदेह जापान को उत्तर कोरिया के नेता के साथ राष्ट्रपति ट्रंप की मुलाकात से उतनी ही परेशानी हुई, जितनी चीन को मगर दोनों के कारण अलग-अलग थे। चीन उत्तर कोरिया को सुरक्षा के तौर पर रखना चाहता है और अमेरिकी समीकरणों में अनिश्चितता का पुट लाना चाहता है, लेकिन दोनों के बीच संबंध सामान्य होने पर ये मंसूबे धरे रह जाएंगे। दूसरी ओर जापान को इस बात की चिंता थी कि अमेरिका सहयोगियों को चेतावनी दिए बगैर उत्तर कोरिया की ओर सीधे पींग बढ़ा रहा था। जापानी नीतियों में ये अस्पष्टता 2019 में भी बनी रहेगी।
हमें देखना पड़ेगा कि जापान भारत में निवेश बढ़ाता है या नहीं। इसके लिए उसे चीन को रोकने या उसके साथ तालमेल बढ़ाने के बीच सख्त राजनीतिक चयन नहीं करने पड़ेंगे।
पश्चिम एशिया
सीरिया से 2,000 जवानों को वापस बुलाने की राष्ट्रपति ट्रंप की घोषणा ऐसे समय में आई है, जब अमेरिका संसदीय चुनावों के बाद अपनी पश्चिम एशिया शांति पहल आरंभ कर सकता है। इस पहल की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि मजबूत ताकत और निष्पक्ष मध्यस्थ के रूप में अमेरिका की साख कितनी अधिक है। उसे जॉर्डन और सीरिया समेत प्रमुख क्षेत्रीय सहयोगियों के समर्थन की जरूरत भी होगी। लेकिन इस पहल की खास बातें नहीं पता हैं। इजरायल में चुनाव आने वाले हैं और सऊदी अरब में बदलाव हो रहा है, इसीलिए किसी बड़ी पहल को सफल बनाने के लिए पर्याप्त समर्थन शायद ही मिल पाए।
यमन में संघर्ष विराम और होदीदा पोर्ट से दोनों प्रतिद्वंद्वी पक्षों की सेना हटने का मतलब यह नहीं है कि ईरान का प्रभाव बढ़ रहा है। बाकी स्थानों पर हौथियों का ही कब्जा है। लेकिन इससे सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) को सांस लेने का और महंगे संघर्ष में अपना घाटा कम करने का मौका मिल सकता है।
जेसीपीओए या ईरान परमाणु संधि से अमेरिका के हटने के कारण क्षेत्र में तनाव की स्थिति उत्पन्न हो गई है। ईरानी राष्ट्रपति ने दो बार कहा है कि यदि ईरान को तेल बेचने की इजाजत नहीं मिली तो किसी अन्य को भी नहीं मिलेगी।
रूस और चीन के बीच बढ़ती घनिष्ठता से 2019 में मध्य एशियाई गणतंत्रों के पास अपना कौशल दिखाने की गुंजाइश काफी कम रह जाएगी। क्षेत्र से अमेरिका के हटने के बाद यह स्थिति और मजबूत हो जाएगी। ऊर्जा की कीमतों में बढ़ोतरी से कजाखस्तान और तुर्कमेनिस्तान की अर्थव्यवस्थाएं मजबूत हो गई हैं। उज्बेकिस्तान और किर्गिस्तान रूस में काम करने वाले अपने नागरिकों से आने वाले धन पर निर्भर हैं। मध्य एशिया में तेल एवं गैस भंडारों का सबसे अधिक लाभ चीन को ही मिलता रहेगा। क्षेत्र में उसका प्रभाव बढ़ता रहेगा, जिसे रूस अपना करीबी परदेस मानता है। चीन का बीआरआई इस रुख को बढ़ावा देगा।
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के अस्थायी सदस्य के रूप में कजाखस्तान का कार्यकाल 2018 में पूरा हो गया है, जिसके कारण इस वैश्विक संस्था में मध्य एशिया की आवाज कम सुनी जाएगी। लेकिन इसके उदाहरण ने मध्य एशिया के अन्य गणराज्यों को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के लिए दावा ठोकने का हौसला दिया है। इसका अर्थ है कि सुरक्षा परिषद में सदस्यता के लिए एशियाई देशों के बीच प्रतिस्पर्द्धा बढ़ जाएगी। यह देखना दिलचस्प होगा कि रूस, चीन और अमेरिका से प्रतिस्पर्द्धी दबाव के सामने उनकी प्रतिक्रिया क्या रहती है।
अमेरिकी सेना हटने के बाद अफगानिस्तान में होने वाली अशांति का 2019 में मध्य एशियाई गणराज्यों विशेषकर उज्बेकिस्तान और ताजिकिस्तान पर खासा असर पड़ेगा। क्षेत्र के साथ संपर्क बढ़ाने में भारत के साझे हित हैं। अंतरराष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण पारगमन गलियारे (आईएनएसटीसी) और चाबहार बंदरगाह इस लक्ष्य को प्राप्त करने की प्रमुख कड़ियां हैं। मध्य एशियाई गणराज्यों की प्रधानमंत्री मोदी की यात्राओं से उन देशों के साथ हमारे रिश्तों पर ध्यान केंद्रित हो गया है। इंडिया पोर्ट्स ग्लोबल द्वारा अंतरिम कामकाज आरंभ करने से समय बीतने के साथ मध्य एशियाई देशों के लिए विकल्प बढ़ने चाहिए।
अफ्रीका की वृद्धि 2016 की 2.3 प्रतिशत से बढ़कर 2017 में 3.7 प्रतिशत तक पहुंच गई। यदि महाद्वीप को जिंस व्यापार से जुड़े उतार-चढ़ाव वाले चक्र से मुक्ति पानी है तो उसे उद्योग तैयार करने होंगे और व्यापार बढ़ाना होगा। कॉन्टिनेंट वाइड फ्री ट्रेड एरिया (सीएफटीए) पर 2018 में हुए समझौते से अंतर्क्षेत्रीय व्यापार के विस्तार की शुरुआत हो सकती है। बड़े व्यापार समूह भी निवेश को आकर्षित करने लायक विस्तार उपलब्ध कराएंगे। लेकिन इसके लिए दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं - नाइजीरिया और दक्षिण अफ्रीका को साथ लाना होगा, जो अभी तक सीएफटीए के अंग नहीं हैं। अफ्रीका के 2.1 लाख करोड़ डॉलर के जीडीपी में एक तिहाई हिस्सेदारी इन दोनों की ही है।
पिछले वर्ष तेल की कीमतों में इजाफा होने से नाइजीरिया, अंगोला और लीबिया की अर्थव्यवस्थाओं में उछाल आ गई है। राजनीतिक हालात के कारण नाइजीरिया और लीबिया में उत्पादन क्षमता से कम रहा है। उन्हें शेल क्रांति की तपिश भी झेलनी पड़ती है। अमेरिका में शेल ऑयल का उत्पादन बढ़ने से इन देशों की बाजार हिस्सेदारी कम हुई है। ये देश लाइट क्रूड का उत्पादन करते हैं। ईरान के खिलाफ अमेरिकी प्रतिबंधों अथवा भू-राजनीतिक तनाव में वृद्धि के कारण यदि तेल की कीमतें बढ़ जाती हैं तो उनकी अर्थव्यवस्थाओं को फायदा होगा।
अक्टूबर के आरंभ में 84 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंचने के बाद तेल की कीमतें लुढ़ककर 52-53 डॉलर प्रति बैरल ही रह गई हैं। तेल की कीमतों में कमी का एक कारण मांग-आपूर्ति की स्थिति भी है। लेकिन बड़ा कारण यह है कि संसदीय चुनावों से पहले अमेरिका में पेट्रोल पंपों पर कीमतें कम रखनी पड़ी थीं। कीमत कम रखने का यह कारण अब नहीं है, इसलिए 2019 में कच्चे तेल की कीमतों में इजाफा हो सकता है। ओपेक+ देशों, जिनमें रूस भी शामिल है, ने जनवरी 2019 से उत्पादन में प्रतिदिन 12 लाख बैरल कटौती का फैसला किया है। यदि ईरान से कच्चे तेल के निर्यात में अमेरिकी रियायत का नवीकरण नहीं किया जाता है या उसमें कटौती नहीं की जाती है तो शेल ऑयल का उत्पादन बढ़ने के बाद भी तेल की कीमतों में बढ़ोतरी होनी ही है।
नए वर्ष में भारत के लिए अपने विकल्प चुनना कठिन हो जाएगा। दक्षिण एशिया में स्थिरता हमारी प्राथमिकता होगी। हमारे भीतर एकदम पड़ोस में अपने प्रमुख हितों को अपने बल पर ही सुरक्षित रखने की क्षमता और इच्छा होनी चाहिए। हमें तरीके तय करने के लिए इस स्थिति से पीछे की ओर काम करना होगा। इसके लिए हमें अधिक संसाधनों, बेहतर आपूर्ति एवं घरेलू सर्वसम्मति की जरूरत होगी। सबका साथ, सबका विकास ही घर और क्षेत्र में आगे बढ़ने का रास्ता है।
(लेखक वीआईएफ में वरिष्ठ फेलो हैं और राजनयिक रह चुके हैं)
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